Description
श्रीकृष्ण की बात शुरू होती है दूसरे अध्याय से। उच्चतम और सीधा ज्ञान – "देखो कि अहम् हो तुम, तुम्हारे एक ओर प्रकृति है, दूसरी ओर सत्य। अब चुन लो अपनी दिशा। और अहम् ही कर्ता है, तो यदि सही दिशा चुन ली अहम् ने, तो कर्ता का कर्म स्वयं ही सम्यक हो जाएगा।" पर अहम् सूक्ष्म होता है और उसकी स्वयं को देखने की शक्ति सीमित। अतः अर्जुन पर आत्मज्ञान की बात बहुत सफल नहीं हुई। तो तीसरे अध्याय, कर्मयोग में कृष्ण कर्ता को छोड़ कर्म की बात करते हैं। कर्म की बात समझाना अधिक सरल है। अर्जुन का तो कृष्ण से प्रश्न ही है, "क्या करना उचित है?" 'करने' और 'न करने' की भाषा ही उन्हें समझ आती थी। तो अब कृष्ण अर्जुन को अर्जुन की ही भाषा में समझाते हैं, और परिणाम में हमें मिलता है 'कर्मयोग' का उपदेश। कृष्ण कहते हैं, "अपने लिए मत करो, अपने आदर्शों, अपनी मान्यताओं, अपने स्वार्थों के लिए मत करो। कैसे जानोगे क्या करना है? जो तुम्हें व्यक्तिगत तौर पर रुचिकर लगे बस वो नहीं करना है।" अर्जुन पर भी यह सीख अधिक फलित होती है। 'कर्मयोग' का सशक्त उपदेश सुनकर उनका मन थोड़ा खुलता है, भुजाओं में बल उठता है और जिज्ञासा थोड़ी जगती है।