प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जहाँ तक मैं जान पा रहा हूँ, समझ पा रहा हूँ, आध्यात्मिक शिक्षा का अत्यधिक मूल्य है जीवन में। और यह किसी ख़ास उम्र में लाने की आवश्यकता रहती है या क्योंकि बहुमुखी विकास के लिए, जैसे कि भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों तलों पर सुख पाने के लिए आध्यात्मिक शिक्षा तो अनिवार्य है ही। क्या यदि यह शिक्षा अपनी उम्र के बीच पड़ाव में लेते हैं तो क्या अपना परम लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी होना चाहिए और है अति अनिवार्य। जिसको आध्यात्मिक शिक्षा कह रहे हैं आप, है अति अनिवार्य और जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी।
अगर आपका जीवन ऐसा बीता है कि आपको अपनी मृत्यु के पल में ही अध्यात्म की सुध आई है, तो फिर उसी पल में सही। पर इसका मतलब यह नहीं है कि अगर अभी आपको बात पता चल रही है तो आप मृत्यु के पल की प्रतीक्षा करेंगे। आप कहेंगे, “अभी तो जैसे जी रहे हैं, जी लो। जब मौत आएगी, उस आखिरी पल में देख लिया जाएगा। आचार्य जी ने कहा था न।”
बात साफ़ समझिए। जितनी जल्दी हो सके, उतना अच्छा। ग्यारह की उम्र होती है, जब बच्चा समझने के काबिल हो जाता है। कौन सी समझ? अपनी समझ, आत्म-अवलोकन, आत्मज्ञान। ग्यारह की उम्र से उसमें वो काबिलियत विकसित होने लग जाती है। ग्यारह या ग्यारह से पहले ही शुरुआत हो जानी चाहिए। देर ज़रा भी न हो।
लेकिन बहुत होते हैं ऐसे जिनके साथ देर हो गई होती है। तो भाई, ‘जब जागो तब ही सवेरा’। पच्चीस तो पच्चीस सही; पैंतालीस तो पैंतालीस सही; पैंसठ तो पैंसठ सही; पिचानवे तो पिचानवे सही। लेकिन फिर आग्रह कर रहा हूँ, मेरी बात का यह अर्थ नहीं है कि आप पिचानवे के होने की प्रतीक्षा करें। अगर आप पच्चीस के हैं और ये शब्द आप सुन पा रहे हैं तो तत्काल अभी शुरू करें।
क्या शुरू करना है? कोई नया अभियान नहीं; बस जो कुछ आपने शुरू कर ही रखा है, उसके प्रति थोड़ा होश — यह सब मैं करता क्या रहता हूँ? यह चल क्या रहा है जीवन में?
अध्यात्म किसी नए कृत्य का नाम नहीं है। अध्यात्म अपने सब कृत्यों को ईमानदारी से देखने का नाम है; उनके पीछे के कर्ता का नाम पूछने का नाम है।
“कौन है जो मुझे यह सब करवा रहा है? बैठा कौन है मेरे भीतर जो मुझे संचालित कर रहा है लगातार? मैं जिस ऊहापोह, उलझन, बेचैनी और डर में रहता हूँ, क्या उसी में जीने के लिए पैदा हुआ हूँ?” यह सवाल है बस; क्योंकि बेचैनी है पहले से; डर है पहले से; उलझन है पहले से; आपको कुछ नया नहीं करना। वो तो पहले से ही मौजूद हैं। आपको बस पूछना है — ये क्या हैं? ये क्यों आए? कहाँ से आए? अभिशप्त हूँ मैं क्या इन्हें झेलने के लिए? — यह अध्यात्म है।
वास्तव में अगर चित्त स्वस्थ हो पूर्णतया तो अध्यात्म किसी शिक्षा पर निर्भर नहीं करता; आपने कहा न ‘आध्यात्मिक शिक्षा’। फिर अध्यात्म अपना सहज स्वभाव है। फिर ये बातें जो मैं कह रहा हूँ, ये व्यक्ति स्वयँ से खुद ही पूछ लेता है; पूछने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती; बहुत सूक्ष्मता से जानता, चलता है निरन्तर। उसे पता होता है क्या हो रहा है पर अधिकांशतः, दुर्भाग्यवश, ऐसा होता नहीं।
अपने जीवन की यात्रा में हम इतनी गन्दगी इकट्ठा कर लेते हैं अपने ऊपर कि सहज बोध की हमारी आँख बिलकुल कीचड़ से भर जाती है। उसे कुछ दिखाई देना बन्द हो जाता है। अध्यात्म का मतलब है, उस आँख की सफाई। आप देखना शुरू कर दें — अपनेआप को, अपनी दुनिया को, जीवन को; वह सबकुछ जो आपको दिखाई देता है; वह सबकुछ जो आपको सच्चा प्रतीत होता हैं; आप उसको देखना शुरू कर दें।
देखने का मतलब है सच्चाई जानना, यथार्थ का परीक्षण करना — यह अध्यात्म है।
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