प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम! बचपन से मेरे पिताजी ने मुझे श्लोक और भगवान के बारे में बताया और आगे वेदों में रुचि उत्पन्न हुई। वो वेद के ऑडियो कैसेट्स भी मुझे दिलाते थे। फिर मैं सुन-सुनकर बच्चों को वो वेद पढ़ाती थी। जैसे मैंने सुन लिया ‘गणनान्त्व:’(गाकर सुना रही हैं), तो फिर बच्चे उसे दोहराये। लेकिन उसके बाद भगवान से प्रार्थना की, कि हे भगवान! मुझे ऐसे गुरु दिलाइए जिनसे मैं वेद और सीखूँ। तो गुरु भी भगवान की कृपा से मिल गये और उन्होंने अच्छा वेद सिखाया। और मैं सोच रही हूँ कि वेद भी बहुत सारा लुप्त हो गये हैं, उच्चारण स्पष्ट नहीं है तो वेद सिखाना मेरा कर्त्तव्य है। और ये मानते हुए मैं वेद सब बच्चों को सिखाती हूँ, जहाँ पर रहती हूँ। तो फिर यही मेरा लक्ष्य मान कर, मैं इसी की सेवा में अगर समय बिताऊँ, तो फिर मैं लक्ष्य को प्राप्त कर पाऊँगी?
आचार्य प्रशांत: लक्ष्य क्या है?
प्र: जैसे, जीवन मिलता है भगवान की प्राप्ति के लिए। तो भगवान की प्राप्ति हो पाएगी न? मुझे ये संतोष तो मिलता है कि जो भगवान का श्वास है, वेद, वो सबके मुख से सुनने का आनन्द तो मैं प्राप्त कर रही हूँ। तो उसी से मेरा जीवन सफल हो जाएगा न?
आचार्य: मुझे नहीं पता (हँसते हुए)। जब आपको ही नहीं पता आप कर क्या रही हैं, तो किसी और को कैसे पता होगा?
प्र: जैसे कृष्ण यजुर्वेद हम पढ़ाते हैं।
आचार्य: हाँ, तो?
प्र: तो फिर…( हँसते हुए)
आचार्य: आपको भी हँसी आ रही है न?
प्र: नहीं, हँसी नहीं।
आचार्य: आपको पता भी है आप क्या पढ़ा रही हैं?
प्र: जी।
आचार्य: क्या पढ़ा रही हैं?
प्र: जो वेद है।
आचार्य: वेद तो शब्द है।
प्र: हाँ।
आचार्य: वेद माने क्या?
प्र: जानना।
आचार्य: आप जो श्लोक पढ़ा रही हैं, वो श्लोक क्या है और उसकी दूसरे के जीवन में उपयोगिता क्या है, ये बात आपको स्पष्ट है?
प्र: ये उच्चारण से तो पॉज़िटिव एनर्जी क्रिएट (सकारात्मक ऊर्जा निर्मित) होती है।
आचार्य: ऐसा वेद में लिखा है?
प्र: हाँ, जहाँ पर भी आप अगर उच्चारण करेंगे...
आचार्य: ऐसा वेद में लिखा है, पॉज़िटिव एनर्जी (सकारात्मक ऊर्जा)?
प्र: हाँ, वो होता है, अनुभव होता है।
आचार्य: जो कुछ भी जानने लायक़ है, आप कहती हैं वेद में लिखा है। वेदों ने कहा है कि पॉज़िटिव एनर्जी (सकारात्मक ऊर्जा) आती है वेद से?
प्र: गुरुजी तो कहते हैं कि आता है।
आचार्य: तो आप वेद सीखना चाहती हैं या गुरुजी सीखना चाहती हैं? जब अभी आपको ही नहीं पता कि वेद हैं क्या, क्या कह रहे हैं और आपको क्या समझाना चाहते हैं, तो आप दूसरों को वेद का ज्ञान कैसे देंगी?
प्र: उच्चारण।
आचार्य: उच्चारण माने क्या? मैं फ्रेंच का कोई शब्द आपको बताऊँ और आपको उसका सटीक उच्चारण समझा दूँ तो उससे आप फ्रेंच जान जाएँगी? उच्चारण भर करने से क्या होगा अगर बोध नहीं हुआ? पहले बैठ करके या तो स्वाध्याय करें या किसी की सहायता से स्वयं वेदों के मर्म तक पहुँचें। उसके बाद ये लक्ष्य बनाये कि दूसरों तक पहुँचाएँगे। अगर आपको ही नहीं पता अभी कि वेद है क्या, तो दूसरों को क्या बताएँगी?
प्र: जैसे, हर घर में पंडित जन जाकर उच्चारण करते हैं। जो हर मंदिर में जो मंत्रों का उच्चारण होता है, तो वहाँ पर तो वो अर्थों का तो बोध नहीं होता।
आचार्य: तो इसीलिए तो उससे किसी को लाभ भी नहीं होता।
प्र: तो उच्चारण क्यों करते हैं फिर, जहाँ मतलब नहीं है, तो फिर अर्थों...
आचार्य: बोधहीन हैं। इतनी समझ अगर होती ही उनमें, तो वैदिक धर्म का पतन क्यों होता? बिना जाने-समझे अगर तोते की भाँति दोहराओगे तो क्या लाभ पाओगे? कोई तो कारण रहा होगा न कि जहाँ पर ऊँची-से-ऊँची बात समझी गयी, कही गयी, समझाई गयी, उसी जगह पर दुनिया भर के तमाम अंधविश्वास बाद में पनपते पाये गए, कुरीतियाँ पायी गयीं, कुप्रथाएँ पायी गयीं। वही जगह फिर हर तरीक़े से शोषित भी हुई, दमित रही, आक्रांत रही। कोई तो वजह होगी न? वो वजह यही है — न जानना, न समझना, बस उच्चारण करे जाना और ये प्रथा सदियों तक चलती रही। नतीजा — एक आतंरिक बोध-शून्यता।
प्रज्ञा जागृत होने की जगह, प्रज्ञा को काठ मार जाता है, जब आप रटन्त विद्या में विश्वास करने लगते हैं। चेतना जड़ हो जाती है। वेदों को छोड़िए, साधारण विद्यालय में कोई साधारण विद्यार्थी होता है, वही अगर बस रटने पर उतारू हो जाए तो देखा है न वो कैसा जड़, बुद्धू, मूर्ख सा हो जाता है। जानता-समझता कुछ है नहीं, बस रट रखा है। और उसी की अपेक्षा एक दूसरा छात्र होता है जिसने भले कम पढ़ा हो, पर जो कुछ भी पढ़ा उसको गहराई से समझा। इस समझने वाले का तेज़ दूसरा होता है, प्रताप दूसरा होता है और इसका जीवन बिलकुल अलग चलता है।
ग्रंथों के साथ भी यही बात है। बार-बार सूत्र दोहराने से क्या होगा? जिसने तुम्हें वो सूत्र दिये, इसलिए थोड़ी न दिये कि तुम उन्हें रटो। इसलिए दिये कि तुम उन्हें जानो और उनके अनुसार जीवन जियो। पर एक से बढ़कर एक अंधविश्वास प्रचलित हैं। घूम रहे हैं पंडित, जो बताते हैं कि समझने की कोई आवश्यकता नहीं है, मंत्रों से जो वाइब्रेशन (कंपन) निकलते हैं, वो पॉज़िटिव एनर्जी (सकात्मक ऊर्जा) लाते हैं, समझने की बात ही नहीं है। ये मंत्र थोड़े हैं, ये यंत्र, ये मशीन है। इनसे वाइब्रेशन (कंपन) निकलता है और तुम समझो चाहे मत समझो, कमरे में अगर मंत्रोच्चार हो रहा है तो ऐसे वाइब्रेशन निकलेंगे कि पॉज़िटिव एनर्जी आ जाएगी। ये बात कोई मूढ़ ही कह सकता है।
इसीलिए फिर संतों-साधुओं ने ख़ूब प्रहसन किया, ख़ूब हँसे, पंडितों की इस मूढ़ता पर, रूढ़िवादिता पर। जाओ कबीर साहब के यहाँ, वो तुम्हें बताएँगे कि पंडितों का हाल क्या है। न वाइब्रेशन से कुछ होना है, न कोई पॉज़िटिव एनर्जी होती है। समझोगे तो पाओगे, जानोगे तो जागोगे। वेदांत में निश्चित ही अमूल्य निधियाँ छुपी हुई हैं, पर वो मिलेंगी उसी को जो उन्हें जानने की साधना करेगा। हीरा तुम्हारे घर में भी पड़ा हो, अगर तुम उस तक पहुँचो नहीं, तो तुम्हारे किस काम का? तुम्हारी जेब में पड़ा हो और तुम्हें उसका ज्ञान न हो, तो भी किस काम का?
'अपौरुषेय' कहा गया है वेदों को। देहातीत, गहन ध्यान से उतरे हैं वेद। अब जो शब्द इतने ध्यान से प्रकट हुआ है, जिसका स्रोत ही गहनतम ध्यान है, उसको समझा भी गहनतम ध्यान में ही जा सकता है। रट कर थोड़े ही समझ लोगे? जो चीज़ जहाँ से आयी है, उसे समझने के लिये वहाँ ही जाना पड़ेगा तुमको। शास्त्रों, ग्रंथो, सभी धार्मिक वक्तव्यों के बारे में ये बात साफ़-साफ़ समझ लो, बहुत-बहुत गहरी ध्यान की अवस्था से उद्भूत हैं वो। अल्टीमेट मेडिटेटीवनेस (परम ध्यान) से आया है हर धार्मिक ग्रन्थ। और उसको तुम यूँही अपनी बेहोशी की हालत में पढ़ने लग जाते हो, अब अर्थ का अनर्थ तो करोगे न?
जिन्होंने वो बातें तुमसे कहीं, जिन्होंने तुम्हें वो श्लोक और मंत्र दिये, क्या वो रट-रट कर दिये? रट कर तो नहीं दिये न? मौलिक अभिव्यक्ति थी। जब रट कर उन्होंने तुम्हें दिये नहीं, तो तुम रट कर उनसे लाभ कैसे पा लोगे भई?
'गहरे पानी पैठ।' एक-एक सूत्र में गहरी डुबकी मार। और तुम समझ रहे हो सूत्र को या नहीं समझ रहे हो, ये जाँचने की कसौटी बताये देता हूँ। अगर तुम पा रहे हो कि शास्त्र पढ़े जा रहे हो लेकिन ज़िंदगी वैसी की वैसी है, तो जान लेना कि तुमने कुछ नहीं समझा। समझने का प्रमाण ही है जीवन में प्रत्यक्ष बदलाव। जो कहे कि मैंने ग्रन्थ पढ़े, शास्त्र पढ़े लेकिन ज़िंदगी नहीं बदली, समझ लेना उसने कुछ नहीं पढ़ा। वो सतह-सतह पर घूम-फिरकर के पानी को छू करके लौट आया, गहराई में गोता नहीं मारा उसने।
वेद का तो अर्थ ही होता है — जानना, बोध। और तुम वेद को ही बिना जाने, रट कर काम चलाना चाहते हो? साफ़ उच्चारण प्रशंसनीय बात है, पर उच्चारण भर से काम थोड़े ही चलेगा? मैं शब्दों का साफ़ उच्चारण करूँ तो अच्छी बात है। तुम्हें मेरी बात साफ़-साफ़ सुनाई देगी। क्या शब्द बोला है, इस बात को लेकर तुम भ्रमित नहीं रहोगे। लेकिन तुम यहाँ मेरा उच्चारण सुनने थोड़े ही आते हो? बात उच्चारण से कहीं आगे की है, बात बहुत गहरी है। तो उच्चारण तुम्हारा शुद्ध है, बहुत अच्छी बात है। लेकिन उतने से कुछ होगा नहीं। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि अशुद्ध रखो उच्चारण। पर मैं कह रहा हूँ कि शुद्ध उच्चारण अच्छा है, पर बहुत अपर्याप्त है।
वैदिक साहित्य सारा श्रुति है। कह कर, सुन कर आगे बढ़ी है परम्परा। तो कुछ तो उस समय की माँग थी कि उच्चारण पूर्णतया शुद्ध होना चाहिए, क्योंकि लिखा तो नहीं जा रहा है, कहा जा रहा है, सुना जा रहा है। तो बात अगर साफ़ कही नहीं गयी, तो सुनने वाले को भ्रम हो सकता है। तो उच्चारण पर काफ़ी महत्व तो इस वजह से रखा गया। आज के समय में तो लिखित शब्द उपलब्ध है, तो उच्चारण की महत्ता तो यूँही कम हो गयी है। श्रुति वास्तव में अब श्रुति थोड़े ही रही? वो तो लिखित हो चुकी है।
मैं फिर कह रहा हूँ, मैं ग़लत उच्चारण का पक्षधर नहीं हूँ। पर तुम उच्चारण को ही बोध बना लो, ज्ञान बना लो, उच्चारण को तुम सर्वोत्तम समझने लगो, तो ये पागलपन है। एक-एक सूत्र को अपने जीवन से जोड़ कर देखो। पूछो कि जीवन के ठोस धरातल पर, यथार्थ की ज़मीन पर इस सूत्र का क्या अर्थ और क्या उपयोगिता है। तब जानना कि तुमने वेदों को गहा। और फिर वेद तुम्हारे लिए न जाने कितने उपहार लेकर प्रकट होंगे। तब तुम कहोगे, ‘कुछ पाया।’
और कृपा करके कोई ये न सोचे कि सिर्फ़ किसी मंत्र का ऑडियो लगा दिया या सीडी लगा दी और उस मंत्र का बड़ा सुन्दर उच्चारण चल रहा है सीडी में या ऑडियो में, तो उससे आपके घर पर अमृत बरस जाएगा। लोग ये ख़ूब करते हैं, कि सुबह-सुबह फ़लाने मंत्र की सीडी लगा दी और वो है संस्कृत में, और सीडी बनाने वाले ने इतना भी कष्ट नहीं उठाया है कि उसका हिंदी में, या अंग्रेजी में या किसी समसामायिक भाषा में अनुवाद करके बता दे। और कोई बड़ा प्रख्यात वाचक या गायक उस श्लोक को अपनी मधुर सुर-लय-तान से पूर्ण आवाज़ में उच्चारित करता है। आपको लगता है, वाह! क्या दैवीय अनुभव है! पॉज़िटिव वाइब्रेशन फैल रहे हैं मेरे घर में। और आपको पता एक रत्ती नहीं है कि वो जो श्लोक है वो कह क्या रहा है।
आप किसी म्यूज़िक स्टोर पर चले जाइए, ऑडियो की किसी दुकान पर आप चले जाइए, वहाँ आपको सैंकड़ों ऐसी सीडी इत्यादि उपलब्ध हो जाएँगी, ये मंत्र, वो मंत्र। मंत्र का उच्चारण हो रहा होगा, पीछे से धीरे-धीरे वीणा की या सितार की ध्वनि आ रही होगी, गंभीर होगी वाणी। और ऐसा लगता है कि वाक़ई बड़ा अमृत झर रहा है!
गुरु ने शिष्य को जब वो श्लोक दिया था। मान लीजिए, वेदांत है, उपनिषद् है, गुरु ने शिष्य को श्लोक दिया तो साथ में सितार और वीणा बजा कर दिया था क्या? गाकर दिया था क्या? साधारण बातचीत थी, एक वृक्ष के नीचे दोनों बैठे थे, साधारण संवाद था और गुरु ने शिष्य को ऊँची-से-ऊँची बात बता दी। न सितार आवश्यक है, न वीणा आवश्यक है; शिष्य का समझना आवश्यक है कि गुरु ने क्या बताया। आप समझें क्या? उपनिषदों के किसी भी मंत्र का क्या महत्व है, कि गुरु ने दिया और शिष्य ने समझा। या ये महत्व है कि वो सुनने में बड़ा अच्छा लग रहा है? और शिष्य बहुत अभिभूत हो गया कि गुरुदेव का उच्चारण कितना साफ़ है! ऐसा तो नहीं था, कि ऐसा था? तो आप भी उस सूत्र को वैसे ही ग्रहण करें, जैसे गुरु के सामने शिष्य ने करा था।
शिष्य को सूत्र मिल जाता है तो शिष्य गुरु की प्रशंसा में कहता है, ‘अहो!’ मृत्यु को काटकर जो मुझे अमृत में स्थापित कर दे, ऐसा आपने मुझे ज्ञान दिया, गुरुदेव! या कभी ऐसा भी तुमने पढ़ा है वेदों में, वेदांत में कि शिष्य कह रहा है, ‘अहो!’ पॉज़िटिव वाइब्रेशन से पूरी कुटिया भर गयी है, आपने ऐसा ज्ञान दिया गुरुदेव! गुरुदेव, आपके ज्ञान से बड़ी पॉजिटिव एनर्जी उठती है, या कि गुरुदेव! आप महान हैं क्योंकि आपका उच्चारण स्पष्ट है, कोई शिष्य ऐसा बोलता है? शिष्य कहता है कि मैंने समझा आपने क्या कहा, और इस समझ ने मुझे मृत्यु के पार अमरता में स्थापित कर दिया।
ये सीडी वाला अध्यात्म थोड़ा ख़तरनाक है, इससे बचना। ख़ूब चल रहा है स्पिरिचुअल म्यूज़िक (आध्यात्मिक संगीत)।
श्रोता: फ्रीक्वेंसी (आवृत्ति) भी बताते हैं कि टू प्वाइंट सेवेन एम एच (व्यंग्य करते हुए)।
आचार्य: सोचो, बातचीत चल रही है अष्टावक्र और जनक की और अष्टावक्र ने अपने बगल में ओस्सिलोमीटर रखा हुआ है, फ्रीक्वेंसी नापने के लिए। कह रहे हैं, जनक को समझ ही तभी आएगा, जब एक ख़ास फ्रीक्वेंसी पर मैं बोलूँगा। या याज्ञवल्क्य और गार्गी संवाद हो रहा है, यहाँ तो बड़ी गड़बड़ होगी, पुरुष और स्त्री की फ्रीक्वेंसी अलग-अलग होगी-ही-होगी और दोनों लगे ही हैं इसी में, कि किसी तरह से फ्रीक्वेंसी मैच (आवृत्ति मिलान) करा दें।
ये व्यर्थ की बातें हैं, फ्रीक्वेंसी और ये और वो। ये पोंगा-पंडितों ने फैला रखी है। ये बातें एक तरह से वेदों का अपमान है। जो बात कही गयी है, वो समझने के लिए कही गयी है। वो बात है, वो ध्वनि मात्र नहीं है। जो बात को समझ नहीं पाता उसके लिए वो बात क्या रह जाती है? मात्र एक ध्वनि। जब कोई तुमसे कहे कि उस ध्वनि में कुछ ख़ास है तो समझ लेना कि चूँकि ये समझता नहीं इसीलिए ये सूत्र को ध्वनि मात्र कह रहा है। मैं तुमसे कहूँ ॐ, अब या तो तुम ॐ को, प्रणव को समझो, और अगर नहीं समझते तो तुम्हारे लिए क्या है? एक ध्वनि भर है, एक आवाज़ थी। एक-एक श्लोक, एक-एक मंत्र अमूल्य है, पर सिर्फ़ तब जब तुमने उसे समझा हो और जीवन में उतारा हो।
श्रोता: ये चीज़ बहुत ज़्यादा देखने में आती है कि लोग अपने घरों में हवन करा रहे हैं या शादी में भी हवन चल रहा है, आहुति डाली जा रही है। पूरा-पूरा दिन कई जगह मंत्रोच्चार चल रहा है और सब लग रहा है कि पुण्य करके आ गये हैं कितना बड़ा। लेकिन किसी भी मंत्र का अर्थ किसी को समझ में नहीं आया। बहुत बड़ी मात्र में ये चीज़ चल रही है। मुझे भी लगता था कि इसका क्या अर्थ है, मैं भी सोचता था, वही चीज़ आचार्य जी आपसे भी सुनने को मिली कि लगे हैं पूरा दिन व्यर्थ ही। जब उसका अर्थ नहीं समझ रहे हैं तो व्यर्थ ही है। धन्यवाद!
आचार्य: दो-तरफ़ा नुक़सान होता है। पहली बात तो ये कि उस मंत्र से तुमने कुछ सीखा नहीं, उस मंत्र से तुमने कुछ जाना नहीं, ये पहला नुक़सान। और दूसरा ये कि मंत्र को दोहराकर तुम्हें ये विश्वास हो गया कि जैसे तुम जानते हो, जैसे कि तुम्हें कुछ मिल गया है, तो तुम्हारी आगे की खोज भी बंद हो गयी।
जिसे न मिला हो कुछ और जो जानता भी हो कि मुझे नहीं मिला कुछ, वो कम-से-कम खोजेगा तो। वो कहेगा, मैं कुछ नहीं जानता और मुझे ये पता है कि मैं कुछ नहीं जानता। तो फिर वो खोजेगा, तलाशेगा, जानने की कोशिश तो करेगा। पर जो मान कर बैठ जाता है कि मैंने मंत्र सुन लिया और इससे लाभ हो ही गया, सुनने भर से, उसको मिलता भी कुछ नहीं और आगे भी पाने के उसके दरवाज़े बंद हो जाते हैं, दो-तरफ़ा नुक़सान होता है। और भारत ने ये नुक़सान बहुत सहा है।
प्र: तो फिर ये वेद मंत्रोच्चारण के अभिषेक, अर्चना, पूजा जो मंदिरों में करते हैं, तो ये सब करना व्यर्थ है? तो मंदिरों में पूजा अर्चना न किया जाए? सब लोग प्रार्थना करने जाते हैं तो ये क्यों फिर? सब जगह वही तो उच्चारण, वही तो होता है। कोई भी पंडित को बुलाते हैं और सब जगह पर कोई भी पूजा-अर्चना करवाते हैं घरो में, उत्सवों में, त्योहारों में, लक्ष्मी पूजा हो, शिवरात्रि हो, हर एक पर्व पर वेद मंत्रों का उच्चारण जो किया जाता है, ये सब फिर करना है कि नहीं?
आचार्य: मैंने जो इतनी बात समझायी, उससे आपको ये ही समझ में आया?(व्यंग्य करते हुए)
प्र: नहीं, मतलब ये जो सब हो रहे हैं, वो सब व्यर्थ हैं?
आचार्य: तुम जैसे कर रहे हो, व्यर्थ है। मंत्र अमूल्य है, पर तुमने उसके साथ जो व्यवहार किया है वो बहुत ग़लत है। देनेवालों ने तुम्हें हीरा दिया। उपनिषदों के ऋषियों ने हीरे दिये तुम्हें। पर तुम्हें हीरे की कोई कद्र ही नहीं, तो तुम उसका इस्तेमाल कर रहे हो कंचे खेलने के लिए और तुम उसका इस्तेमाल कर रहे हो पेपर वेट की तरह।
प्र: नहीं समझ पायी।
आचार्य: तो ये माना न कि समझना ज़रूरी है?
प्र: नहीं।
आचार्य: अरे, नहीं समझ पायी तो कोई बात ही नहीं! आपने तो आज तक भी कुछ नहीं समझा। क्यों परेशान हो रही हैं?
प्र: इसीलिए परेशान हूँ कि जो पंडित है वो भी आधा पढ़ कर आगे का स्पष्ट करता ही नहीं है। मन्दिरों में भी जाते हैं, सुनते हैं। जब हमने जाना है तभी तो हमारे बच्चे भी आजकल कहीं पर भी, मन्दिरों में जाते हैं। वो कहते हैं, “दीदी, आज कितना पंडित, आधा ही वो मंत्र कहा है।” तो पंडित जन है, मैंने कहा…
आचार्य: पंडित को पकड़ा क्यों नहीं? बाक़ी आधा कहाँ है मंत्र, पंडित?
प्र: तो वो बोलता ही नहीं, वो चुप बैठता है और बच्चों से करवाता है। मुझे ये लगता है कि ऐसे सुनकर बच्चों की बुद्धि थोड़ा तो आगे बढ़ेगा! क्योंकि हर जगह पर, मैं कहीं पर भी जाती हूँ, बच्चे भी सुनते हैं। फिर जो ग़लत हो रहा है उसको रोकें कैसे?
आचार्य: ख़ुद तो ग़लत न करें। इतना तो कर सकती हैं? पंडितों ने अधर्म मचा रखा है, उन्हें करने दीजिए, जो वो कर रहे हैं। अगर पाप कर रहे होंगे तो फल ख़ुद भुगतेंगे। पर कम-से-कम आप तो समझिए कि क्या कह रहे हैं वेद, क्या कह रहे हैं उपनिषद्। और प्रेम हो जाएगा उपनिषदों से, अगर समझेंगी कि क्या कह रहे हैं। समझेंगी नहीं तो फिर रटन्त विद्या।
प्र२: आचार्य जी, पारिवारिक पृष्ठभूमि ऐसी रही है कि शुरू से हम लोगों को घर में पूजा-पाठ और ये सब कि सुन्दरकाण्ड करो, रामायण पढ़ो, ऐसा कराया गया है। ठाकुर जी का पूजन करो, भोग लगाओ, ये शिव जी का पूजन करो। ये सब होता है। आज हम इस बात को समझ गये है, गीता का अर्थ समझने से, आपके वीडियो से या कई माध्यमों से हमने उसको समझ लिया है, स्पष्ट हो गया है। फिर भी एक संस्कार बना हुआ है। बचपन से उसको करते आये हैं। अब उसको छोड़ने में कुछ अज़ीब सा लगता है कि कैसे जिस काम को करते आये हैं, अचानक से छोड़ दें। तो कम कर दिया है लेकिन फिर भी लगता है कुछ...
आचार्य: अज़ीब सा नहीं लगता है, भय लगता है।
प्र२: हाँ, भय लगता है कुछ।
आचार्य: भय इसीलिए लगता है क्योंकि बोध पूरा नहीं है। जैसे कि ख़ूब जान, सुन, पढ़ लेने के बाद भी अगर अंधविश्वास की ग्रंथि पूरी तरह मिटी नहीं है, तो बड़ा भारी वैज्ञानिक भी अंधेरी रात को अकेले जंगल में निकलने से डरेगा, ‘कही भूत न आ जाए’। उसका ज्ञान उसे बता रहा होगा कि कुछ नहीं है भूत-प्रेत, लेकिन फिर भी उसे थोड़ा डर तो लगेगा। इसका अर्थ यही है कि ज्ञान अभी गहरा उतरा नहीं है, अभी ख़ून बनकर नहीं बह रहा है ज्ञान। अभी ज्ञान बस मस्तिष्क में है, बौद्धिक है। ज्ञान को और गहराने दीजिए, सब तरह का भय समाप्त हो जाएगा। रूढ़ियों और परम्पराओं को निभाते चलने का नाम नहीं है अध्यात्म। और दुर्भाग्य की बात ये है कि अधिकांशत: अध्यात्म के नाम पर यही चलता है — रूढ़ियाँ, परम्पराएँ, अंधविश्वास।