वक्ता: जहाँ ‘ब्रह्मन’ (अंग्रेज़ी में) लिखा हुआ है, वह ब्रह्म है| ब्रह्म का मतलब होता है निराकार, बेनाम, पूरा स्रोत|
(मौन)
अच्छा एक सवाल| अभी मैंने जैसे बोला कि ब्रह्म माने निराकार, बेनाम, स्रोत, यह बात पूरी तरह से शुद्ध नहीं थी| क्यों शुद्ध नहीं थी?
श्रोता १: क्योंकि आपने उसको एक नाम दे दिया था|
वक्ता: नहीं, मैंने कहा, ‘निराकार, बेनाम, स्रोत’|
श्रोता २: क्योंकि जिसका आकार है, नाम है, सब कुछ, वह भी तो ब्रह्म ही है|
श्रोता ३: स्रोत अपनी अभिव्यक्ति भी तो अकार से ही करेगा|
वक्ता: हम बार-बार ‘स्रोत’ बोलते हैं| उसे ‘स्रोत’ बोलने में भी अगर बारीकी से देखो तो गड़बड़ है| क्या गड़बड़ है?
श्रोता ३: वो अलग कर देता है| जैसे दो अलग-अलग चीज़ें|
वक्ता: किसका स्रोत? अपना? जब उसके अलावा कुछ है ही नहीं, तो वो स्रोत किसका है? अपना ही स्रोत है|
(वक्ता मुस्कराते हुए पूछते हैं) स्वयं अपना ही पिता है? नहीं समझ में आ रही बात? या तो ये बोलो कि उसके अलावा और भी कुछ है, तो उसका वो स्रोत है|
श्रोता ४: आत्मा को हम परम बोल देते हैं| लेकिन आत्मा कहीं से आई होगी| कहीं से तो आयी है ना?
वक्ता: कहीं तो तुम्हें रुकना पड़ेगा ना?
श्रोता ४: हाँ, वो जो मूल बिंदु है, उसको ‘स्रोत’ बोल देंगे|
वक्ता: फिर उसको तुम क्या बोलोगे? वो कहाँ से आया? कहीं तो कहोगे न कि कहीं से नहीं आया?
श्रोता ४: हाँ|
वक्ता: कुछ लोग कह देते हैं कि आत्मा कहीं से नहीं आई, वो थी ही| पर अब ये तो तुम्हारे चुनाव की बात है कि तुम कहाँ रुक रहे हो| कहीं तो रुकोगे और कहोगे कि इसका कोई पिता नहीं, इसका कोई पिता हो नहीं सकता|
श्रोता ४: और जहाँ हम रुक गए, वो ही अंतिम है|
वक्ता: हाँ, वही अंतिम है| कहीं पर रुक कर कहना पड़ेगा कि ‘यह प्रथम है, यह पहला है’|
– ‘बोध शिविर’ सत्र पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|