प्रश्नकर्ता: तुम्हारे पदम चरणों में नमन सौ बार है गुरुवर, कृपा की एक किरण दे दो, दुःखी संसार है गुरुवर।
प्रणाम आचार्य जी, इतने वर्ष हो गए हैं हमारे देश को आज़ाद हुए। बाबा भीमराव अम्बेडकर द्वारा हमारे समाज के हर वर्ग के लिए समानता का अधिकार देकर हमारा संविधान बनाया गया। हर एक समाज सुधारक ने अपने-अपने तरह से समाज में समानता लाने के लिए हर संभव प्रयास किए। कई कानून बने हैं। इसके बावजूद आज भी जन्म के आधार पर ब्राह्मणवाद क्यों इतना हावी है? समाज में समानता कैसे लायी जा सकती है? इस विषय पर कुछ बोलने की कृपा करें।
आचार्य प्रशांत: अहम् विभाजन पर पलता है। उसको जीने के लिए, बने रहने के लिए सीमा रेखाएँ चाहिए, वर्ग चाहिए, कुछ ऊँचा, कुछ नीचा चाहिए। उसको जो सीमाएँ चाहिए, जो दायरे चाहिए, उनको वो एक नहीं, अनेक नामों से गढ़ता है, एक नहीं अनेक तरकीबों से कायम रखता है। बहुत सारे नाम देता है पर उन सब नामों का, तरकीबों का, रूपों का, कारणों का, आदर्शों का, विचारधाराओं का छुपा हुआ उद्देश्य एक ही होता है — किसी तरह का विभाजन बना देना, वर्गीकरण कर देना; केटेगराइज़ेशन (वर्गीकरण), एक को दूसरे से अलग बता देना।
क्योंकि एक अगर दूसरे से अलग नहीं है तो अह्म पलेगा कैसे? एक अगर दूसरे से नहीं है अलग तो अद्वैत हो गया न? फिर तो खेल ही खत्म! किसी न किसी तरीके से दूसरे को अलग करना है। अलग करने का वो काम, वो साज़िश आदमी के इतिहास में पचासों तरीकों से होती रही है। उनमें से सिर्फ़ एक तरीका है — ब्राह्मणवाद। हज़ारों अन्य तरीके भी हैं जो प्रचलित हैं और उन सब तरीकों का उद्देश्य सिर्फ़ एक है — इंसान को ये एहसास दिलाना कि वो दूसरे से किसी न किसी तरीके से भिन्न है; ऊँचा है नीचा है, अलग भावनाएँ रखता है, अलग इतिहास रखता है, अलग प्रेरणाएँ रखता है, अलग भविष्य चाहता है।
वजह कुछ भी बता लो, मनसूबा एक है — ये कह देना कि अलगाव तो है ही और अलगाव को कायम रखना आवश्यक है। इसी वज़ह से फिर आदमी राजनीति करता है और ज़मीन पर सीमा रेखाएँ खींचता है। और सीमा रेखाएँ सिर्फ़ एक देश और दूसरे देश के मध्य ही नहीं पायी जातीं; एक घर और दूसरे घर के बीच भी तो पायी जाती हैं, एक कमरे और दूसरे कमरे के बीच भी तो पायी जाती हैं, एक ही घर के भीतर।
विचार करिए कि हमारे लिए सीमाएँ खींचना इतना ज़रूरी क्यों है। कौन है वो जो सीमाओं के बिना जी नहीं सकता, तड़प कर खत्म हो जाएगा? उसी का नाम — जानने वालों ने कहा है — अहम्। उसे सीमाएँ चाहिए, 'मैं दूसरे से अलग हूँ, मैं पृथक हूँ।' बात समझ में आ रही है? तो जिसको आप ब्राह्मणवाद कहते हो, वो हो गया कि 'मैं तुझसे अलग हूँ वंशानुगत रूप से। मैं तुझसे अलग हूँ क्योंकि मैं समाज में धर्म का अधिष्ठाता हूँ, क्योंकि मैं ज्ञान का वाहक हूँ। मैं ब्राह्मण हूँ, मैं तुझसे अलग हूँ।'
अलगाव बिलकुल इससे दूसरे तरीके से भी हो सकता है, 'मैं समाज के लड़ाके वर्ग से हूँ, देख मैं तुझसे अलग हूँ।' अलगाव तो तब भी हो गया न? कोई कहे कि 'मैं ज्ञानी हूँ, दूसरे से अलग हूँ' तो भी वो अपने को दूसरे से अलग सिद्ध कर रहा है। और कोई कहे कि 'मैं योद्धा हूँ, लड़ाका हूँ, सैनिक हूँ, प्रहरी हूँ समाज का, इसलिए सबसे अलग हूँ।' वो भी क्या कर रहा है? घोषणा तो यही कर रहा है न कि हूँ तो मैं पृथक ही, अलग ही।
इसी तरीके से जब कोई कहता है कि 'मैं समाज के वणिक वर्ग से हूँ, भाई मैं पैसा-रुपया-कारोबार जानता हूँ, मेरी रगों में व्यापार बहता है।' तो वो भी क्या कह रहा है, मैं अलग ही हूँ न?
एक कहता है कि मुझे किसी न किसी तरीके से अधिकार मिला हुआ है शोषण का, उसने तो निःसंदेह अपनेआप को अलग बना ही लिया। और एक दूसरा है जो कहता है कि मैं अलग हूँ सबसे क्योंकि मेरी पहचान ही यही है कि इतिहास में मेरा शोषण हुआ है। वो भी अहम् की ही चाल खेल रहा है।
वास्तव में यहाँ न कोई शोषक होता है न शोषित होता है; सबको नचाने वाला एक ही होता है, उसे कहते हैं — अहम्।
बात कुछ समझ में आ रही है?
इसी कारण हमें इतनी पहचानें पकड़नी पड़ती हैं। 'मैं इस विचारधारा का समर्थक हूँ। मैं इस मत के पीछे चलता हूँ, मैं इस आदर्श की पूजा करता हूँ।' ये सबकुछ इसलिए है ताकि हम अपनेआप को एक सीमा में परिभाषित कर सकें। सीमा के भीतर जो कुछ है, उसको हम घोषित कर देंगे — अपना, मैं का, मेरा। और सीमा से बाहर जो कुछ है, सीधी सी बात है कि वो पराया हो जाएगा, बल्कि शत्रुवत हो जाएगा। 'मैं इतना हूँ।' (हाथ छोटा आकर बनाते हुए)
तो आदमी ने अपनेआप को ही मूर्ख बनाने के लिए जो बहुत चालें खेली हुई हैं, उन्हीं में से एक चाल का नाम है — जातिवाद। ये व्यक्ति की स्वयं के ही खिलाफ़ साज़िश है। पर व्यक्ति क्योंकि ये समझता नहीं है कि वो जातिवाद इत्यादि के फेर में पड़कर अपने ही खिलाफ़ साज़िश कर रहा है, तो वो अपनेआप को इसी गलतफ़हमी और गुमान में रखता है कि जैसे जातिगत सीमाएँ उसके भले के लिए हैं। उसके भले के लिए नहीं हैं, किसी के भले के लिए नहीं हैं। इस पूरे खेल में कोई नहीं जीतता — कोई जाति नहीं, कोई वर्ग नहीं, कोई समूह नहीं, कोई समुदाय नहीं, कोई उपजाति नहीं, कोई गोत्र नहीं — कोई नहीं है जो जीत रहा है। सब आंतरिक तौर पर हारते ही हारते हैं।
अब विभाजन का अगर मूल कारण स्पष्ट हुआ हो तो फिर आप ये भी समझ जाएँगे कि प्रश्नकर्ता ने जिस आदर्श शब्द का प्रयोग किया, उसका वास्तविक अर्थ क्या है। प्रश्नकर्ता ने कहा कि भारत के संविधान में समानता बड़ी बुनियादी चीज़ है; वो समानता आ क्यों नहीं पा रही है?
समझिए, समानता का वास्तविक अर्थ क्या है। व्यक्ति और व्यक्ति तो अलग-अलग होते ही हैं न, हज़ार तरीकों से? वो अपनेआप को दूसरे से अलग न भी घोषित करें — विचारधारा के तौर पर, धर्म के तौर पर, राष्ट्रीयता के तौर पर मान लीजिए दो व्यक्ति अपनेआप को अलग न भी घोषित करें...
आप बैठे हैं और आप बैठे हैं (सामने बैठे दो व्यक्तियों को इंगित करते हुए)
आप कह दें, 'नहीं हम इंसान द्वारा बनाए गए किसी भी भेद को, अंतर को, विभाजन को नहीं मानते। हम अपनेआप को एक-दूसरे से अलग नहीं घोषित कर रहें — न जन्म के आधार पर, न आर्थिक स्थिति के आधार पर, न जात-पात के आधार पर, न लिंग के आधार पर — हम नहीं एक-दूसरे से अपनेआप को अलग घोषित कर रहे हैं।' तो भी एक चीज़ है न जो आप दोनों की अलग-अलग रह जाएगी? क्या? शरीर।
तो समानता कहाँ से आयी, भाई? अलगाव तो रह ही गया न? एक आख़िरी अलगाव तो बच ही गया, कौन-सा? शारीरिक। और शारीरिक इस भिन्नता में, शारीरिक इस भेद में मस्तिष्क का भी अनुवांशिक तौर से भिन्न होना शामिल है।
आप कितना भी कह दें कि दो लोग बिलकुल एक जैसे अवसर के अधिकारी हैं, कि दोनों को बिलकुल एक समान ही व्यवहार मिलेगा, परिवार और समाज और व्यवस्था के द्वारा; लेकिन फिर भी दोनों में बहुत अंतर रह ही जाने हैं। दोनों की देह अलग-अलग हैं। एक को मारोगे, दूसरे को दर्द तो नहीं होने वाला। एक के मस्तिष्क की जैसी जैविक संरचना है वैसी दूसरे की मस्तिष्क की तो नहीं है न।
किसी की प्रतिभा किधर को होती है, किसी की किधर को होती है। एक हो सकता है कि बचपन से ही गणित में विशिष्ट योग्यता दिखाता हो और दूसरे को गणित समझ ही न आती हो, बिलकुल बचपन से ही। और इन दोनों में ये जो अंतर है, उसका कारण समाज नहीं है, उसका कारण उनका शरीर है। अब बताओ, कैसे लाओगे समानता?
एक कागज़ पर समानता शब्द लिख भर देने से समानता नहीं आ जाएगी! जब आप कहते हो कि भारत अपने सब नागरिकों को एक समान दृष्टि से देखेगा और कोई भेदभाव नहीं करेगा, बड़ी भली बात है। लेकिन उसके बाद भी विषमताएँ और अंतर और भेद तो रह ही जाने हैं न?
तो फिर वास्तविक समानता दो व्यक्तियों में कहाँ होगी और कैसे आ सकती है?
गौर से समझिएगा, वास्तविक समानता का नाम है — आत्मा। सिर्फ़ उस बिंदु पर, सिर्फ उस तल पर व्यक्ति और व्यक्ति समान हैं, अन्यथा दो व्यक्तियों में समानता बहुत दूर की बात है। यूटोपिया (काल्पनिक आदर्श) है, दिवास्वप्न है, बिलकुल। दो लोग नहीं हो सकते समान। नहीं हो सकते समान क्योंकि पहली बात तो सामाजिक संरचना कभी ऐसी रही नहीं कि सब समान होकर जिएँ। और दूसरी बात, तुम ऐसा समाज बना भी लो जिसमें सबको समान अवसर उपलब्ध हैं, तो भी सब ऐसे नहीं होते कि उन समान अवसरों का एक समान इस्तेमाल करके एक समान प्रगति कर पाएँ।
रुझान के तौर पर, शरीर के तौर पर प्रतिभा के तौर पर सबमें विभिन्नताएँ होती ही होती हैं। प्रकृति को ही देख लो, बरगद का पेड़ भी होता है, गेंदे का फूल भी होता है और घास का तिनका भी होता है। तुम इनमें समानता की बात करो तो अधिक से अधिक ये कहा जा सकता है कि भाई देखो तीनों से एक समान व्यवहार करना, तीनों को ही क्षति पहुँचाने की कोशिश मत करना; न पेड़ को, न फूल को, न घास को क्षति पहुँचाने की कोशिश मत करना। लेकिन तुम तीनों के साथ एक समान व्यवहार भी कर लो, तो भी देखो तीनों में कितना अंतर है — बरगद का पेड़, गेंदे का फूल, गेंदे का पौधा और घास का तिनका। अंतर तो रह ही गया न, भले ही तुम अपनी तरफ़ से भेदभाव न करो।
आपके घर के सामने तीनों मौजूद हो सकते हैं — बरगद का पेड़, गेंदे का पौधा और नन्हीं-सी घास। आप कोई भेदभाव मत करिए अपनी तरफ़ से। जैसे आकाश भेदभाव नहीं करता, जैसे बादल भेदभाव नहीं करते। वो एक समान बरसते हैं न सब पर? सूरज की रौशनी भी एक समान मिलती है न तीनों को? कोई उनके साथ भेदभाव नहीं करता, फिर भी उनमें अंतर तो है ही न? और वो अंतर इंसान और इंसान में हमेशा रहेगा। वो अंतर इंसान और प्रकृति के हर सदस्य में रहेगा। उस अंतर को आप नहीं पाट सकते।
उस अंतर को पाटने का एक ही तरीका है और हम उस तरीके से बड़े अनभिज्ञ रहे हैं; उस तरीके का नाम, मैं कह रहा हूँ, है — आत्मा। सिर्फ़ आत्मा वो बिंदु है जहाँ सब एक और एक समान हैं। इसीलिए अगर भारत को या दुनिया के किसी भी राष्ट्र को या समुदाय को या समाज को समानता चाहिए तो उसे आत्मिक होना पड़ेगा।
उसके बिना समानता की बातें कोरी लफ़्फ़ाज़ी है, मिथ्या-भाषण। आप करते रहिए समानता की बात, समानता आएगी ही नहीं। क्योंकि असमानता शरीर और समाज दोनों में निहित है। सबको समान लाया जा सकता है बस एक तरीके से — सबको आत्मा की ओर लाया जाए। आत्मा ही वो बिंदु है जहाँ पर आदमी और आदमी में कोई भेद नहीं, आदमी और औरत में कोई भेद नहीं, अमीर और गरीब में कोई भेद नहीं, ज्ञानी और अनपढ़ में कोई भेद नहीं, नागरिक और नागरिक में कोई भेद नहीं, और मनुष्य और अन्य किसी प्राकृतिक जीव में कोई भेद नहीं। मात्र आत्मा ही वो बिंदु है।
जो समानता के आदर्श को पसंद करते हों, उनकी बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वो समझें सर्वप्रथम कि असमानता, भेद कहाँ से आते हैं। वो आते हैं, हमने कहा, अहम् से। और अगर समस्त असमानता का कारण अहंकार है, तो समानता सिर्फ़ एक तरीके से आ सकती है — समाज को आध्यात्मिक बनाओ, सबको आत्मा की ओर बढ़ाओ। आत्मा की ओर बढ़ जाओ, फिर भेद नहीं दिखेगा। फिर भेद दिखेंगे पर महत्वपूर्ण नहीं लगेंगे, तब होगी समता। और उसके अलावा समता का और कोई तरीका नहीं है।
ऊपर से, बाहर से थोपी हुई समता, समता होती नहीं, व्यवस्था होती है। और कोई भी व्यवस्था बहुत दिन तक चल नहीं सकती, क्योंकि वो आदमी का हृदय नहीं बन सकती। व्यवस्था माने बाहरी चीज़। बाहर-बाहर तुम ला लो समानता, उससे क्या फ़र्क पड़ेगा? इतने देश हैं दुनिया में जहाँ पर नहीं है ब्राह्मणवाद, जहाँ नहीं है भारत जैसा जातिवाद, पर जाकर देखो वहाँ कितने और तरीके से असमानता फल-फूल रही है, जाओ देखो।
तुम मिटा लो जातिवाद को पूरे तरीके से, अगर अहम् नहीं मिटा तो (आदमी) आदमी और आदमी में भेद करने के दस और तरीके जुगाड़ लेगा, किसी और नाम से। ब्राह्मणवाद नहीं बचेगा, कोई और वाद आ जाएगा, पूँजीवाद आ जाएगा, साम्यवाद आ जाएगा, कोई वाद आ जाएगा। हर वाद क्या करता है? बाँटता है न, भेद करता है। इतिहास की पूरी यात्रा ही यही रही है कि बँटवारा तो रखना ही है, बाँटने के कारण नए-नए हम खोज लेते हैं। बाँटने का मूल कारण यही है — अहंकार। ये जो हम नए-नए कारण खोजते हैं, नए कारण नहीं हैं, बस मूल कारण के ही नए-नए नाम हैं। नाम बदल-बदल कर क्या पाओगे?
बात समझ में आ रही है?
बाँटने का तो एक तरीका ये भी हो सकता है कि 'हम लोग हैं समानतावादी और वो लोग हैं असमानतावादी। हम उनसे अलग हैं, देखो। हम और वो असमान हैं क्योंकि हम समानतावादी हैं और वो समानतावादी नहीं हैं, तो हम और वो असमान हैं।' क्या बात है! अहम् अपनेआप को पहचान देने का तरीका ढूँढ लेगा, तुम मिटा लो ब्राह्मणवाद को।
और ब्राह्मणवाद को निश्चित रूप से मिटना ही चाहिए। बहुत मूर्खता की बात है ये सोचना कि सिर्फ़ जन्म के आधार पर कोई ऊँचा हो गया, कि कोई नीचा हो गया, या किसी को कोई विशिष्ट सुविधा मिलनी चाहिए या किसी का कोई विशिष्ट काम-धंधा तय हो गया। ये तो सीधी-सीधी मूर्खता की बात है। इसका तो प्रतिकार करने के लिए, इसका नकार करने के लिए तो कोई बहुत आध्यात्मिक तर्क चाहिए भी नहीं।
विज्ञान ही काफ़ी है आपको ये प्रमाणित कर देने के लिए कि जिस तरह का जातिवाद हमनें अपनाया है, वो व्यर्थ है। उसका कोई तार्किक आधार नहीं है। उससे अगर कुछ मिला है तो बहुत सारा नुक़सान, व्यक्ति को भी और समाज को भी। तो ब्राह्मणवाद तो हट के रहेगा, हट रहा ही है। कुछ बस उसके अवशेष बचे हैं, उनको भी समय की धारा अगले कुछ वर्षों नहीं तो कुछ दशकों में बिलकुल साफ़ कर देगी।
पर असली समस्या ब्राह्मणवाद नहीं है, वो तो साफ़ हो जाएगा। असली समस्या ये है कि ब्राह्मणवाद साफ होगा तो कोई अन्य वाद खड़ा हो जाएगा, क्योंकि जो मूल शैैतान था वो तो अपनी जगह बैठा रह गया न सुरक्षित। क्या नाम है उसका? अहम्। वो बैठा रह गया और वो हँस रहा है और वो कह रहा है, 'ये देखो, ये एक वाद हटाते हैं, दूसरा वाद ले आते हैं और सोचते हैं कि हमने बड़ी तरक्क़ी कर ली। इन्हें समझ में ही नहीं आता कि इनको नचाने वाला खुफ़िया शैतान असली है कहाँ और कौन।'
समतामूलक समाज बनाने का एक ही तरीका है — समझ लीजिए — अध्यात्म। अध्यात्म के बिना कोई समानता संभव नहीं है, बड़ी थोथी समानता होगी। अध्यात्म के बिना जो समानता होगी, वो ऐसी ही होगी कि पब्लिक पार्क में घुसने का सबको एक समान अधिकार है। अच्छा, ठीक है। मूर्खताएँ करने का सबको एक समान अधिकार है। ठीक!
ये क्या है? इससे क्या पा लोगे?
मैं नहीं कह रहा कि ये नहीं होना चाहिए, मैं नहीं कह रहा कि पार्क में घुसने के अधिकारों में भी असमानता होनी चाहिए। वो तो होनी ही चाहिए, लेकिन उतने भर से क्या पा लोगे? उतने भर से कुछ नहीं मिलने का है। आदमी और आदमी के भीतर द्वेष तो कायम ही रह जाएगा। पार्क में घुसने का अधिकार इनको भी रहेगा और इनको भी रहेगा (सामने बैठे दो श्रोताओं को बताते हुए) और दोनों घुसेंगे और देख एक-दूसरे को आग्नेय नेत्रों से ही रहेंगे। दोनों इस मामले में बिलकुल समान होंगे। ये उससे रंजिश रखता है और वो इससे दुश्मनी रखता है। और दोनों को पार्क में घुसने का समान अधिकार है और दोनों एक-दूसरे से एक समान दुश्मनी रखते हैं। इस प्रकार की समानता लाकर के कर क्या लोगे भाई?
आज से ये बात याद रख पाएँगे? समानता के लिए एक ही सही नाम है, क्या? आत्मा। सिर्फ़ वहाँ पर समानता है, अन्यथा समानता नहीं होती, न मन में, न समाज में, न संसार में समानता संभव ही नहीं है।
तो जो इक्वालिटी (समानता) की बात करते हों, उन्हें आध्यात्मिक होना पड़ेगा। अब तुर्रा ये है कि बात तो करनी है समानता की, लेकिन अध्यात्म के नाम से बड़ी समस्या हो जाती है। कहते हैं, 'नहीं-नहीं-नहीं, अध्यात्म नहीं चाहिए, समानता चाहिए।' ये असंभव बात कर दी न कि अध्यात्म तो नहीं चाहिए लेकिन समानता चाहिए। कैसे मिल जाएगी?
अगर अध्यात्म नहीं है और फिर भी समानता है, तो जानते हो वो कौन-सी समानता है? सबको मूर्खता का एक समान अधिकार। वो ऐसी समानता है फिर। ऊपर से थोपी गई समानता, व्यवस्था द्वारा चढ़ाई गई समानता सिर्फ़ सबको एक समान मूर्खता करने की और एक समान बंधन में रहने की समानता है। तुम अपनी पसंद की मूर्खता कर सकते हो, तुम भी अपनी पसंद की मूर्खता कर सकते हो, दोनों को मूर्खता करने का एक समान अधिकार है।
जिस तरह की समानता दुनियाभर के संविधान अपनी-अपनी जनसंख्याओं को देते हैं, वो यही समानता है। ये ऊपर से दी गई, बाहर से दी गई समानता है, ये आरोपित समानता है।
वास्तविक समानता व्यक्ति के हृदय से उठती है। जब वो जान जाता है कि भेद में रहने से, अहम् को पोषित करने से कोई फ़ायदा हो नहीं रहा है। वो कहता है, 'जिस-जिस मामले में मैंने अपनेआप को सीमा में बाँधा है, वहाँ-वहाँ मैंने दुःख पाया है। मैं क्यों इन सीमाओं में अपनेआप को बाँधूँ?' व्यक्ति जैसे-जैसे खुद को परिभाषित करने वाली हर सीमा का निरर्थक होना देखता जाता है, वैसे-वैसे उस सीमा से वो मुक्त होता जाता है। जैसे-जैसे आप सीमाओं से मुक्त हो गए, समानता उतरी।
बात समझ में आ रही है?
अब ये भी समझ में आ रहा होगा कि क्यों दुनिया के सभी देश समानता के सिद्धांत, समानता के आदर्श को अपनाने के बाद भी पाते हैं कि उनमें भीतर बड़ी उथल-पुथल, बड़ा वर्ग-द्वेष, बड़ी असमानता, बड़ा विभाजन मौजूद ही है। क्योंकि संविधान भर में समानता शब्द लिख देना काफ़ी नहीं है, उसके आगे बहुत काम करना पड़ता है। और वो काम व्यवस्था पर नहीं, आदमी पर करना पड़ता है। आदमी को अहम् से उठाकर आत्मा तक ले जाना पड़ता है, तब समाज में भी समानता दिखाई पड़ती है।
समझ में आयी बात?
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