न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा | इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते || ४, १४ ||
कर्मों के फल में स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्मफल लिप्त नहीं करते—इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्लोक १४
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। श्लोक चौदह में श्रीकृष्ण के कौन से तत्वों को जान लेने से हम कर्मों से मुक्त हो जाते हैं? मैं अपने जीवन में कर्मों के फल को लेकर चिंतित रहता हूँ। जब फल आशा अनुसार नहीं मिलता तो निराशा हावी हो जाती है और कर्मों के ऊपर से विश्वास भी कमज़ोर होता है।
आचार्य प्रशांत: तत्वों से नहीं जानना है, ‘श्रीकृष्ण’ तत्व को जानना है। बहुत सारे तत्व नहीं हैं, एक ही तत्व है—एक भी तत्व नहीं है, अद्वैत तत्व है।
हमारे सामने कृष्ण के भी वचन हों तो उसके साथ हम अपनी मान्यता ज़रूर जोड़ते हैं। अगर तुम श्लोक में जाओगे तो श्लोक में तो तत्व का उल्लेख भी नहीं है। श्लोक तो इतना ही कह रहा है कि "जो मुझे जान गया, वो अब कर्मों से नहीं बँधता।"
देखो हुआ क्या है, श्लोक में तत्व की बात ही नहीं है, अनुवादक ने लिख दिया है कि जो ‘कृष्ण’ तत्व को जान गया, वो नहीं बँधता। और प्रश्नकर्ता ने कहा, “आचार्य जी, उन तत्वों के बारे में बताइए जिनको जान लेने के बाद नहीं बँधते।” अरे, कौन से तत्व? है कहाँ तत्व? देख तो लीजिए श्लोक को; "जो मुझे जान लेता है, वह कर्मों से नहीं बँधता।"
कह रहे हैं, "मैं अपने जीवन में कर्मों के फल को लेकर चिंतित रहता हूँ। जब फल आशा अनुसार नहीं मिलता तो निराशा हावी हो जाती है और कर्मों के ऊपर से विश्वास भी कमज़ोर होता है।"
कर्मों के फल को लेकर चिंतित रहो बिलकुल, पर तुम्हें यह तो पता हो कि तुम्हें फल खाना कौन सा है। कौन सा फल तुम्हारे काम आएगा, इसका कुछ पता है तुमको? वह फल तुम्हें कर्म से मिलता हो तो बेशक तुम गहन कर्म में उतर जाओ।
दिक़्क़त यह है कि हम फल भी वो चाहते हैं जो फल हमारे किसी काम का नहीं होगा, और कर्म हम सब करते फल की आशा में ही हैं। जब हमें यही नहीं पता कि कौन सा फल हमारे काम का है तो हमारा कर्म भी गड़बड़ हो गया न? ऐसा कर्म कर डाल रहे हैं जो करने की ज़रूरत ही नहीं थी, उसमें समय बर्बाद करा, ऊर्जा बर्बाद करी। जो कर्म करना चाहिए था, वो करा ही नहीं।
कौन सा फल तुम्हारे काम का है, यह तुम्हें इसलिए नहीं पता क्योंकि तुम्हें यही नहीं पता कि तुम हो कौन। तुम गाय हो तो तुम्हें एक फल चाहिए, तुम बन्दर हो तो तुम्हें दूसरा फल चाहिए, तुम इंसान हो तो तुम्हें तीसरा फल चाहिए। तुम हो कौन, तुम कौन सा फल चाहते हो? बन्दर को भी पता होता है कि उसे कौन सा फल खाना है। जंगल में इतने फल होते हैं हज़ार तरीके के, उसमें कुछ कड़वे विषैले भी होते हैं, बन्दर उन्हें नहीं खाएगा।
इंसान अकेला है जो किसी भी फल के पीछे चल लेता है, बस थोड़ा विज्ञापन दे दो। “खाओ, खाओ। बढ़िया फल है। अभी-अभी इसके चमत्कारिक गुणों के बारे में पता चला है। इसको खाने से वीर्य वृद्धि होगी। खाओ, खाओ। अभी-अभी फ्रांस की एक अद्भुत प्रयोगशाला ने यह निष्कर्ष निकाला है।” “ये फल खाइए। इससे पचास तरह की सिद्धियाँ आ जाएँगी, पानी पर चलने लगेंगे।” नहीं, बात यह नहीं है कि पानी पर चलना बेवकूफ़ी का ख़याल है, बात यह है कि ये साहब रेगिस्तान में रहते हैं, और ये उस फल के पीछे भाग रहे हैं जो इन्हें पानी पर चला देगा।
हममें से भी अधिकतर लोग ऐसे ही हैं न? जो फल तुम माँग रहे हो, वो तुम्हारे काम का है क्या? वो मिल भी गया तो करोगे क्या उसका? जैसे गंजे को कंघी। बड़ी मेहनत करके लाए हैं सोने की कंघी। अब करोगे क्या उसका? तुम हो कौन? ये पता तो करो।
जैसे कोई गैंगस्टर हो, वो बीमार पड़ा तो दवा की दुकान में गया, वहाँ ठाँय-ठाँय दो फायर मारे और बोला, “दुकान मेरी है।” वो भाग गए सब दुकानदार छोड़कर। ठीक है, पूरी है तुम्हारी दुकान, अब करोगे क्या इसका? जब तुम्हें यह पता ही नहीं कि तुम्हारी बीमारी क्या है, तुम्हें दवा क्या चाहिए, तो ये पूरी दुकान भी तुम्हें मिल गई तो इसका करोगे क्या?
तुम कौन हो, तुम्हें चाहिए क्या, ये पता तो करो। ये तो पक्का है कि आज तक तुमने जो चाहा, वो तुम्हारे काम आया नहीं—तभी और चाहते जा रहे हो, और चाहते जा रहे हो, और चाहते जा रहे हो। कुछ ऐसा चाह लिया होता कि चाहने का ही अंत हो जाता तो और ज़्यादा, और ज़्यादा चाहना नहीं पड़ता न?
तो यह सूत्र है; वो चाहो जिसको चाहने के बाद और कुछ चाहने की ज़रूरत पड़े ही नहीं। एक बार चाह लिया तो चाह लिया, यह चाहत आख़िरी है।
तब मज़ा भी है। फ़िर तो ये है कि जिसको चाहा, वो कुछ ऐसा होना चाहिए जो मिले न आसानी से, अप्राप्य हो, बहुत दूर का हो। बड़ी दुस्साहसी चाहत चाहिए, कुछ ऐसा माँग लो जो मिल ही नहीं सकता।
ऐसा कुछ माँगने के लिए जिसको माँग रहे हो, उससे प्रेम चाहिए। इतना प्रेम कि वो बहुत दूर का है, अप्राप्य है तो भी लगे कि दिल में है, मिला ही हुआ है। अब वो इतना बड़ा प्रोजेक्ट हो जाएगा, ऐसा बड़ा अभियान हो जाएगा कि जीवनभर उसी को चाहते रह जाओगे, वो मिलेगा नहीं, कुछ और चाहने की फ़ुर्सत नहीं मिलेगी। अब एक ही चीज़ है, उसी को चाहते हैं, और चाहे जा रहे हैं—चाह में सातत्य आ गया। ये नहीं कि आड़ी-तिरछी, बिखरी हुई, टूटी-फूटी चाह है—अभी इसको चाहा, कल उसको चाहा, परसों उसको चाहा—ये कोई चाह है?
कह रहे हैं, "फल आशा अनुसार नहीं मिलता तो निराशा हावी हो जाती है।" और आशा अनुसार मिलता है तो क्या हावी होता है? तब फल हावी होता है। जब फल आशा अनुसार नहीं मिलता, तब कह रहे हैं कि निराशा बड़ी लगती है, अपने ऊपर से विश्वास हटता है। ऐसा तो नहीं होगा कि कभी भी तुम्हें इच्छित फल मिलता ही नहीं होगा तुम्हारे कर्मों का। कभी-कभार ऐसा भी होता होगा कि जो चाहते हो, वो मिल जाता है। ये भी तो बताओ कि जब चाहते हो और मिल जाता है, तब क्या दुर्दशा होती है तुम्हारी?
सुना है न वो पुराना चुटकुला? एक खोजी, शोधक, रिसर्चर पहुँचा एक पागलखाने में, वो बोला कि आपके यहाँ के जो चुनिंदा, खतरनाक, शातिर हों, नामवर पागल, उनसे मिलवाइए। तो बोले, "हाँ, एक-दो हैं, चलिए।"
एक के पास ले गए और वह बिलकुल गोरिल्ला बना बैठा था। ये कर रहा है, वो कर रहा है, दीवारें तोड़ रहा है, सलाखों पर सिर मार रहा है। अकेला उसको बंद कर रखा था।
पूछा, "क्या हुआ, इतना क्यों पागल हो गया?"
बोले, "ये जिसको चाहता था ज़िन्दगी में वो लड़की मिली नहीं इसको। इसकी सब आशा बर्बाद हो गई, टूट गया। एकदम ऐसा हो गया है।"
तो शोधक बोला, "अच्छा, अच्छा।" वो भी घबरा गया, बोला कि 'जाते हैं'।
तो बोले, "एक और है, उसको भी देख लीजिए।"
"और को देखकर क्या करेंगे, इससे ज़्यादा पागल कौन हो सकता है?”
"है इससे भी पागल एक।"
उसको लेकर गए। उस पागल को तो पागलखाने से भी दूर रखा हुआ था। एकदम जो जानवरों का कटघरा होता है, उसके भीतर उसको बंद कर रखा था विशेष पिंजरे में। वो अंदर गुर्रा रहा था और हुंकार रहा था, पता ही नहीं चल रहा था कि ये जानवर कौन सा है। हर तरीके के जानवर उसमें लक्षण दिखाई दे रहे थे। तो पूछा गया, “इसको क्या हुआ?”
तो बोले, "इसको जो चाहिए थी लड़की, वो इसको मिल गई।"
(श्रोतागण हँसते हैं)
तो इतना तो बता दिया कि जब आशा अनुसार फल नहीं मिलता तो बड़ी निराशा मिलती है, वो तो तुम बता ही नहीं रहे हो जो चाहा था और मिल गया है, उसका ज़िक्र कौन करेगा? और कष्ट तुम्हें उसका तो थोड़ा बहुत ही हो सकता है जो मिला नहीं; क्योंकि जो नहीं मिला, वो नहीं मिला, वो तुम्हारी ज़िन्दगी में अब मौजूद नहीं है। ये दिनभर तुम्हें कष्ट कौन देता है, वो जो मिल गया या वो जो नहीं मिला? उसकी बात छुपा गए।
कह रहे हैं कि निराशा गड़बड़ चीज़ है। निराशा नहीं गड़बड़ चीज़ है, आशा गड़बड़ चीज़ है। तुम्हें अगर अपने ऊपर से निराशा ही हो जाए तो तुम मुक्त ही हो गए। दिक़्क़त ये है कि तुम्हारी आशा नहीं टूटती। इतनी पिटाई होने के बाद भी आशा बनी ही हुई है। आशा को नाम भी अपना दे दिया, ‘आशा सक्सेना’।
तुम्हारी आशा से वो थोड़े ही मिलेगा जो फल तुम्हें वास्तव में चाहिए। वो चीज़ कुछ और होती है, उसके लिए गुण दूसरे चाहिए; उसके लिए समर्पण चाहिए, उसके लिए अध्यात्म चाहिए। मात्र कामना, वासना से काम नहीं चलेगा। चीज़ बहुत बड़ी हो तो उसकी तो तुम्हें कामना उठती ही नहीं है। देखा है, वही चीज़ें माँगते हो जो अपनी पहुँच के भीतर की होती हैं।
मुमुक्षा का अर्थ होता है वो माँग लेना जिसको माँगना ही एक धृष्टता है, एक दुस्साहस है। पर प्रेम धृष्टता न करे तो प्रेम कैसा!
उसको माँगो, और वो इतना बड़ा है कि फल की आशा रहेगी ही नहीं, फ़िर जीवन एक सतत प्राप्ति में गुज़रता है। विरोधाभासी बात है, प्राप्त किया नहीं पर प्राप्ति में गुज़रता है।
छोटी चीज़ का यही नुकसान है, उसको प्राप्त भी कर लिया तो अप्राप्ति रहती है। बड़ी चीज़ का यही फायदा है, वो अप्राप्त भी है तो भी प्राप्त है।
बोलो क्या चाहिए? उसके पीछे जाना चाहते हो जिसे पा भी लिया तो भी सूनापन रहेगा या उसके पीछे जाना चाहते हो जो नहीं मिला तो भी ज़िन्दगी गुलज़ार रहेगी?