भारत में
उपनिषद् भारत में भले ही घर-घर में लोकप्रियता न रखते हों, पर लोकप्रियता बहुधा श्रेष्ठता का मापदंड नहीं होती। उपनिषदों के दर्शन ने आदिकाल से ही भारत और पूरे विश्व में श्रेष्ठतम चिंतकों को प्रेरित किया है।
उपनिषदों के दर्शन और चरित्रों को हम अनगिनत भारतीय ग्रन्थों में पाते हैं। औपनिषदिक विचार के अवलंबन के बिना शायद ही कोई भारतीय ग्रंथ अस्तित्व में आ पाता। महाभारत में, विशेषकर भगवद्गीता में, रामायण में, पुराणों में, स्मृतियों में, मध्यकालीन संतवाणी में, और यहाँ तक कि वेदों से हटकर भी जो नास्तिक दर्शन हैं, उनमें भी उपनिषदों के विचारों को पाया जाता है।
उपनिषदों से साझे सिद्धांत, कथाएँ, चरित्र व पात्र हमें बौद्ध और जैन ग्रन्थों में भी मिलते हैं। वहाँ पर भी आत्मा और कर्म आदि सिद्धांतों का प्रयोग किया जाता है; यद्यपि आत्मा और कर्म से जो उनका अर्थ है, आशय है, वो भिन्न हो सकता है। विशेषकर महात्मा बुद्ध के दर्शन का आधार निश्चित रूप से उपनिषद् ही हैं। बुद्ध को तो निश्चित ही महानतम वेदान्तियों की श्रेणी में रखा जा सकता है।
इसके अलावा जो बहुत सारे भाष्यकार हैं जिन्होंने उपनिषदों पर बात करी है उनको देखकर पता चलता है कि भारतीय दर्शन के पूरे इतिहास पर ही उपनिषदों की कितनी गहरी छाप रही है। वेदान्त दर्शन सब भारतीय दर्शनों में समाविष्ट है, बल्कि सब भारतीय दर्शनों का मूल है।
भले ही कतिपय भारतीय समुदाय वेदान्त क्या, वेद से भी बिलकुल न जुड़े होने का दावा करते हों, पर सभी भारतीय धार्मिक समुदाय अपने मूल रूप में, आधारभूत रूप में, हैं उपनिषदों से ही प्रभावित। विचारणीय है कि उपनिषद् स्वयं बहुत ज़्यादा कभी प्रचलित नहीं हो पाए और उनको जनसामान्य में कभी वो लोकप्रियता नहीं मिली जो कई अन्य दूसरे विचारों-सिद्धांतों या दर्शनों को मिली। लेकिन फिर भी जो कुछ भी दर्शन के तौर पर भारत भूमि से उपजा, उसको प्रेरणा तो वेदान्त से ही मिली है।
तो, उपनिषदों पर तो दार्शनिक और विचारक और पंडित लोग ही व्याख्या करते रहे, लेकिन उपनिषदों से प्रेरित जो कथाएँ थीं, पुराण थे, मूल सिद्धान्त थे, वो जनसामान्य में बड़े प्रचलित हो गए। यहाँ तक कि जो मध्यकालीन भक्ति और अन्य धाराएँ हैं उनपर भी उपनिषदों का प्रभाव साफ़ परिलक्षित होता है।
“सब भेद मिथ्या हैं, आत्मा अखंड है, अटूट है, विविधता माया मात्र है। जहाँ कहीं भी आपको कोई दूसरा दिखाई देता है, या पराया दिखाई देता है, वो सबकुछ बस आँखों का धोखा है, मन का खेल है।“ – इसी सिद्धांत पर फिर आगे चलकर समाज में व्याप्त तमाम कुरीतियों का भी विरोध किया गया। जैसे, जातिप्रथा है, जिसमें ऊँच-नीच की बात है, तो उस पर फिर यही उत्तर दिया गया कि, “देखो जब आत्मा एक है तो ऊँच-नीच कैसे हो सकती है? और जब आत्मा मात्र सत्य है, बाकी सब मिथ्या है तो ऊँच-नीच भी मिथ्या है न।“ जो सुधारवादी धाराएँ भारत में बहीं, मध्यकाल से लेकर के आधुनिक काल तक, उनके मूल में भी उपनिषदों का ही चिंतन है।
दाराशिकोह ने फ़ारसी में जो उपनिषदों का अनुवाद किया था, सम्भावना है कि उससे सूफ़ी चिंतन पर भी काफ़ी प्रभाव पड़ा। त्याग और विलासिता से दूरी, मोह और आसक्ति से दूरी – ये सिद्धांत मूलरूप से उपनिषदों से हैं। और संभावना है कि सूफ़ियों ने भी इन्हें वहीं से ग्रहण किया।
अट्ठारहवीं शताब्दी के सुधारवादी माहौल में राजा राममोहन राय ने सब कर्मकांड व मूर्तिपूजा का खंडन किया परंतु वेदान्त में पूर्ण विश्वास रखा। ब्रह्म समाज के माध्यम से वो उपनिषदों के पाठ को प्रेरणा देते, उन्होंने उपनिषदों का बंगाली, हिन्दी व अंग्रेज़ी में अनुवाद किया व ब्रह्म समाज के माध्यम से उनका प्रचार भी किया।
इसी तरह से आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती भी उपनिषदों से कई बार उद्धृत किया करते थे। रमण महर्षि का जो उपनिषदों से लगाव था उसकी तो क्या ही बात करें! इनके अलावा जिद्दू कृष्णमूर्ति भी जो बात कहते थे, वो मूल रूप से वेदान्त की ही है। स्वामी विवेकानंद का तो कहना ही क्या, उन्होंने तो वेदान्त को भारत में ही नहीं पश्चिम में भी बहुत प्रचारित किया। महात्मा गाँधी भी भगवद्गीता को रोज़ पढ़ा करते थे, उनको अपनी माँ बोलते थे, ईशावास्य उपनिषद् से भी काफ़ी प्रभावित थे, 'ईशावास्य इदं सर्वं' उनका प्रिय श्लोक था। जवाहरलाल नेहरू ने उपनिषदों की गौरवपूर्ण बात करी है ‘भारत एक खोज’ में, भीमराव अम्बेडकर ने भी 'अहम् ब्रह्मास्मि' आदि महावाक्यों को उद्धृत किया ये बताने के लिए कि जातिभेद वगैरह व्यर्थ की बात है, हालाँकि वे यह भी कहते थे कि उपनिषदों के विचार हिन्दू धर्म की मुख्यधारा में समाहित नहीं हो पाए।
तो इस तरह उपनिषदों का प्रभाव तो ज़बरदस्त रहा है लेकिन फिर भी माया का कुछ ऐसा खेल है कि स्वयं उपनिषद् ही हिन्दू धर्म की मुख्यधारा से थोड़ा अलग ही रह गए। कोई भारतीय उपनिषदों का यदा-कदा ही पाठ करता होगा, अधिकांश लोग तो उपनिषदों का नाम भी नहीं जानते।
सम्पूर्ण विश्व में
उपनिषदों से एकदम मिलते-जुलते सिद्धांत हमें ग्रीक दर्शन में देखने को मिलते हैं। उदाहरण के लिए – पाइथागोरस, सुकरात, प्लेटो आदि ईसा पूर्व पाँचवीं से दूसरी शताब्दियों तक के दार्शनिकों के वक्तव्यों में। प्लेटो का 'गुफा का रूपक' तो अवश्य ही उपनिषदों से प्रेरित प्रतीत होता है। मैक्स मूलर ने प्लेटो के लेखन और उपनिषदों के दर्शन के बीच की समानता को अद्भुत माना है। प्लेटो के गुरु सुकरात भी, कहा जाता है कि, एथेंस की सड़कों पर विचरते एक भारतीय दार्शनिक से मिले जिससे उन्होंने ब्रह्म और अब्रह्म के बीच संबंध का ज्ञान पाया। ग्रीक दार्शनिकों का पुनर्जन्म में विश्वास भी संभवतः पूर्व से ही आया।
दाराशिकोह की १६५७ की 'सिर्र्-ए-अक़बरी' नामक पुस्तक में ५२ उपनिषदों का फ़ारसी अनुवाद था। दाराशिकोह ने बनारस से विद्वानों को दिल्ली बुलाया, और लगभग दो वर्ष में यह किताब पूर्ण हुई। सनातन धर्म के प्रति सम्मान और उदारता का दृष्टिकोण रखने के कारण औरंगजेब ने उसे काफ़िर घोषित कर दिया और अंततः उसकी हत्या कर दी। आज इतिहास में दाराशिकोह हाशिये का एक नाम बनकर रह गया है, लेकिन उनका योगदान बहुत आगे तक गया। फ़ारसी से उपनिषदों की एक प्रति फ्रेंच में, फ्रेंकोइस बरनियर, जो बारह साल तक औरंगज़ेब के चिकित्सक थे, द्वारा अनुवादित होकर फ्रांस पहुँच गई। यूरोप में उसका फ्रेंच और लैटिन में अनुवाद हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में जब ब्रिटिश और जर्मन पंडितों ने उपनिषदों का अनुवाद करना शुरू करा, उससे पहले ही दाराशिकोह की किताब पश्चिम में पहुँच चुकी थी।
लगभग सौ साल बाद अब्राहम ऐन्केटिल ने इस किताब का लैटिन में अनुवाद किया, ‘ओपनखट’ नाम से। इसी लैटिन किताब के माध्यम से जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर व अन्य यूरोपियन बुद्धिजीवियों का उपनिषद् से परिचय हुआ। शोपेनहावर की ‘द वर्ल्ड ऐज़ विल एंड रिप्रेजेंटेशन’ छान्दोग्य उपनिषद् पर आधारित है। उनके पास टूटा-फूटा लैटिन अनुवाद आया था, लेकिन फिर भी शोपेनहावर किसी तरह समझ ही गए कि उपनिषदों की मूल बात क्या है।
इसी तरीके से फ्रेडरिक नीत्ज़े और कार्ल गुस्ताव यंग – इन सब पर स्पष्ट रूप से उपनिषदों का प्रभाव था और फिर इसके बाद तो अंग्रेज़ी अनुवाद भी उपलब्ध होने लग गए। जब अंग्रेज़ी अनुवाद उपलब्ध होने लग गए तो कवि जैसे टी. एस. इलियट और राल्फ वाल्डो एमर्सन, व्हिटमैन – जो ट्रांसएन्डेन्टलिस्ट्स कहे जाते थे – उपनिषदों के सिद्धांतों से प्रभावित हुए। सर विलियम जोंस ने तो एक अनुवाद भी किया अंग्रेज़ी में ईशावास्य उपनिषद् का और यही करने वाले आगे थे कार्ल ब्रूक, राजा राममोहन रॉय, मैक्स मूलर आदि चिंतक।
उन्नीसवीं शताब्दी के फ्रेंच दार्शनिक विक्टर कज़िन ने भगवद्गीता के दो अध्यायों का अनुवाद किया। कहा कि, “जब हम भारत के दर्शन की ओर देखते हैं तो वहाँ हमें ऐसे अथाह सत्य का ज्ञान होता है जो हमारे यूरोपियन विचारकों के उथले निष्कर्षों के सर्वथा विपरीत है। हमें विवश होकर के पूर्व के सामने घुटने टेकने ही पड़ते हैं और मानना पड़ता है कि उच्चतम मानव दर्शन का यही जन्मस्थान है।“
फ़्रेडरिक शैलिंग ने शोपेनहावर से भी ज़्यादा उत्कंठित भाषा में उपनिषदों की वंदना की और अपने शिष्य मैक्स मूलर को उपनिषदों के अनुवाद के लिए प्रेरित किया। मैक्स मूलर ने संस्कृत सीखी, ऋग्वेद मे गहरी रुचि दिखाई और अपने समय के प्रख्यात भारतविद् हुए। उनके उत्तराधिकारी पॉल ड्यूसेन ने कहा, “वेदान्त मानव चेतना की सबसे उत्कृष्ट कृतियों में है। बोध वृक्ष पर उपनिषदों से सुंदर कोई पुष्प नहीं और वेदान्त जैसा उत्कृष्ट कोई फल नहीं।“
इमरसन कठ उपनिषद् से प्रभावित थे और उनकी कविताएँ ‘सेलेस्टियल लव’, ‘वुड नोट्स’ व ‘ब्रह्म’ एक सार्वभौम औपनिषदिक सिद्धांत की अभिव्यक्ति करती हैं।
वॉल्ट ह्विटमैन ने अपनी ‘लीव्स ऑफ ग्रास’ व ‘सॉन्ग ऑफ माइसेल्फ’ में अपने अनंत अमर स्वभाव का वर्णन किया है।
ट्रांसएन्डेन्टलिस्ट्स से भी पहले अमरीकी राष्ट्रपति जॉन एडम्स ने उपनिषदों का महान पाठ किया था। अपने जीवन के आख़िरी दिन भी वे अपने मित्र थॉमस जेफ़रसन के साथ वेदान्त विषय पर ही चर्चा कर रहे थे। उनकी व जेफ़रसन की मृत्यु साथ ही हुई।
प्रख्यात वैज्ञानिक बेंजामिन फ़्रेंकलिन ने भी आत्मा की अमरता का वर्णन किया है।
रूसी कहाँ पीछे रहने वाले थे यूरोप और अमेरिका से! लिओ टॉलस्टॉय ने उपनिषदों व भगवद्गीता में गहरी रुचि दिखाई। महात्मा गाँधी को प्रेषित “फ्री हिन्दुस्तान” में छपा उनका पत्र ‘अ लेटर टु अ हिन्दू’ वेदान्तिक सूत्रों व उद्धरणों से भरा हुआ है।
आधुनिक युग में पॉल गौगुइन ने अपनी कृतियों में कर्म विषयक विवेचनाएँ करीं। वे ये भी मानते थे कि पायथागॉरस प्राचीन भारतीय ऋषियों के शिष्य थे।
जेम्स जॉयस ने ‘यूलिसिस’ में, जैक लंडन ने ‘स्टार रोवर’ में, हरमन हेस ने ‘सिद्धार्थ’ में, और रिचर्ड बाक ने ‘जोनाथन लिविंग्स्टन सीगल’ में वेदान्त को ही आधारभूत रखा है। नोबेल पुरस्कार विजेता इसाक बेशविस सिंगर ने, व कवि जॉन मेसफील्ड ने वेदान्त के सूत्रों को कलात्मक अभिव्यंजना दी है। पश्चिम पहुँचने के दो-सौ वर्षों के भीतर ही उपनिषदों ने पाश्चात्य दार्शनिकों, विचारों, लेखकों व कलाकारों पर परिवर्तनकारी प्रभाव डाला है।
तो उपनिषद् ऐतिहाससिक रूप से प्रभावशाली तो बहुत रहे हैं, पर बस उन्हीं चिंतकों और साधकों के लिए जो सच के खोजी हैं। आज समय ऐसा है कि सच की निकटता बहुत आवश्यक हो गई है। तो कालधर्म है कि उपनिषदों को जनसामान्य के बीच भी वो स्थान दिलाया जाए जिसके वे अधिकारी हैं। ‘घर-घर उपनिषद्’ इसी दिशा में एक प्रयास है।