उचित कर्म कौन सा है? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2015)

Acharya Prashant

12 min
158 reads
उचित कर्म कौन सा है? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2015)

कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला। गुरु की करनी गुरु जाने, चेले की चेला।। ~ संत कबीर

आचार्य प्रशांत: दो तरह की करनी हैं। मूल पर जाइए। तीन शब्द हैं इसमें जो महत्वपूर्ण हैं: करनी, गुरु और चेला। करनी, गुरु और चेला, मतलब करनी दो अलग-अलग जगहों से आ सकती है।

कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला।

गुरु की करनी गुरु जाने, चेले की करनी चेला।।

करनी के दो अलग-अलग स्रोत - गुरु और चेला।

अब ‘कृष्णमूर्ति’ की भाषा में देखें तो जो करनी गुरु से आती है वो एक्शन कहलाती है, और जो करनी चेले से आती है वो एक्टिविटी कहलाती है। कृष्ण की भाषा से देखें तो जो करनी गुरु से आती है वो कहलाती है ‘निष्काम कर्म’ और जो करनी चेले से आती है वो ‘सकाम कर्म’ कहलाती है। बस यही है।

कबीर साफ़-साफ़ कह रहे हैं कि इन दोनों तरह की करनीयों में ज़मीन-आसमान का अंतर रहेगा। अगर स्थूल है दृष्टि, ठीक से देख नहीं पा रहे हो, तो ऐसा ही दिखाई देगा जैसे सिर्फ़ कर्म हो रहा है। पर गुरु से जो कर्म होता है उसमें गुरु कर्ता है और चेला कर्ता दिखते हुए भी अकर्ता होता है। यदि कर्म का उद्गम गुरु से है - ‘गुरु’ को यहाँ मैं किस अर्थ में कह रहा हूँ?

प्रश्नकर्ता: आत्मा।

आचार्य: यदि कर्म का उद्गम गुरु से है तो उसमें दिखाई तो यही पड़ेगा कि कर कौन रहा है?

प्र: चेला।

आचार्य: चेला, कि मन से सोचा जा रहा है, हाथ-पाँव से करा जा रहा है। तो चेला कर्ता दिखते हुए भी अकर्ता रहेगा और वास्तविक कर्ता कौन रहेगा?

प्र: आत्मा।

आचार्य: और जो कर्म चेले से निकल रहा है उसमें चेला ही कर्ता रहेगा। जो ‘कर्मयोग’ और जो पूरा ‘कर्म-सन्यास योग’ है, उसका पूरा सार बस यही है कि ‘दोनों ही स्थितियों में पार्थ, कर्म तो तेरे माध्यम से होना ही है। हाँ, तू बस इतना कर कि तू उस कर्म का कर्ता ना रह।’ कर्म का त्याग बिलकुल संभव नहीं है, कर्म चाहे गुरु से उद्भूत हो रहा हो या चेले से, होगा किसके माध्यम से?

प्र: चेले।

आचार्य: तो पार्थ तू ये तो कह ही नहीं सकता कि ‘मैं कर्म नहीं करूँगा।’ कर्म तो करना होगा और कर्म का ना करना भी अपने आप में एक कर्म है। तो कर्म तो तू कैसे रोक लेगा? बस तू इतना कर ले कि जो कर्म हो रहा है उसका कर्तृत्व समर्पित करता चल, कि ‘कर रहा हूँ लेकिन जानता हूँ कि करने वाला कोई और है। कर रहा हूँ, करने के मार्ग में बाधा नहीं बनूँगा लेकिन करने वाला कोई और है।’

‘करने के मार्ग में बाधा नहीं बनूँगा और ना ही करने का श्रेय लूँगा। करने वाला कोई और है।' बस यही है।

दोनों तरह के कर्मों में खूब अंतर होता है। कोई आदमी चला जा रहा है रात में। अगर ध्यान से नहीं देखोगे तो बस इतना कह पाओगे कि ‘चल रहा है’। ध्यान से देखोगे तो ये भी हो सकता है कि नींद में चल रहा हो। अब कुछ बात खुलेगी, और ध्यान से देखोगे तो ये भी पता चले सकता है कि होश में चल रहा है।

दो व्यक्ति हों, एक नींद में चल रहा हो, एक होश में चल रहा हो, देखने में ऐसा लग सकता है कि दोनों?

प्र: चल रहे हैं।

आचार्य: बस चल ही रहे हैं और एक जैसे चल रहे हैं, लेकिन चलने-चलने में बड़ा अंतर है। नज़र-नज़र में बड़ा अंतर है, वचन-वचन में बड़ा अंतर है, खाने-खाने में बड़ा अंतर है, बोल-बोल में बड़ा अंतर है, भाव-भाव में बड़ा अंतर है। है सब वही। इसीलिए जो सुधि मन होता है वो सतह पर बहुत ध्यान नहीं देता है। वो यह नहीं देखता है कि तुमने क्या किया। वो ये देखता है कि करने के पीछे कौन है कर्ता। चेले ने किया या गुरु ने किया।

चेले ने किया तो ‘भाग यहाँ से!’, गुरु ने किया तो ‘सादर प्रणाम’।

जब गुरु करता है तो कौन कर्ता है? ‘प्रेम’ कर्ता है। अब मान लो मुझे ये चाय दी गई है। अब चाय तो किसी के भी यहाँ चले जाओ रख ही देते हैं। औपचारिकता की बात है। पर चाय रखी गई है सामने तुम्हारे, अगर तुम्हारे पास दृष्टि होगी तो तुम देखोगे कि, ‘ठीक है, हाथ ने कप को उठाया, तुम्हारे सामने रख दिया, उसके पीछे क्या है?’ यदि औपचारिकता है, तो चाय रखने वाला कौन हुआ?

प्र: चेला।

आचार्य: अगर प्रेम है तो चाय रखने वाला कौन हुआ?

प्र: गुरु।

आचार्य: औपचारिकता है या प्रेम है, ये पहचानेगा कौन?

प्र: गुरु।

आचार्य: और नहीं पहचाना तो कौन है इधर?

प्र: चेला।

आचार्य: तो चेले को कभी पता भी ना चलेगा कि चेला है कि गुरु है। गुरु ही गुरु को जान सकता है। फिर बहुत अंतर नहीं पड़ता कि बाहर-बाहर से क्या हो रहा है। इसीलिए ये सब कहानियाँ रही हैं भारत में कि शबरी ने झूठे बेर दे दिए, खा गए राम, क्योंकि देने वाला कौन था?

प्र: गुरु।

आचार्य: गुरु। अब फ़र्क नहीं पड़ता कर्म क्या है। होगा कोई कर्म। देने वाला कौन है? गुरु दे रहा है न। गुरु जो भी दे वो प्रसाद है। झूठा बेर, कोई बात नहीं, प्रेम से आया है न। प्यार से जो भी दोगे वो लेना पड़ेगा। प्यार से झूठा बेर मिले तो लेना पड़ेगा, प्यार से सुदामा चूड़ा लेकर आ गया था, तो लेना पड़ा। कह नहीं सकते कि ‘राजा हैं, कैसे ले लें?' लेंगे, प्यार से दिया है न तो लेना पड़ेगा।

गुरु में, सत्य में, और प्रेम में कोई अंतर नहीं है न? तो लेना पड़ेगा। वहाँ पर तुम्हारा सोचना-विचारना नहीं चलता है, वहाँ तुम्हारा चुनाव नहीं चलता है, प्यार से जो भी मिलेगा लेना पड़ेगा। कोई बच्चा आए तुम्हारे पास और प्यार से तुम्हारा नाम रख दे ‘छि-छि’। तुम उसे डाँट नहीं सकते अब। उसने तुम्हारा नाम रख दिया तुम्हें लेना पड़ेगा क्योंकि ये नाम उसने तुम्हें कैसे दिया है?

प्र: प्रेम में।

आचार्य: प्यार से दिया है। जो प्यार से दे वो गुरु हो गया। वो गुरु ने दिया है वो लेना पड़ेगा, मना कैसे कर सकते हो। कोई आ कर तुम्हें थप्पड़ मार दे, जल्दी से उबल मत जाना। देखना किसने मारा है, चेले ने मारा है तो?

एक तो चेला, ऊपर से थप्पड़ मार दिया। और गुरु ने मारा है तो कोई सत्य बात होगी तो ही है, और घृणा में नहीं प्रेम में ही मारा होगा। ठीक है, तो प्रसाद है लेना पड़ेगा, रखो।

कृष्णमूर्ति को बोलना हो तो क्या बोलेंगे?

‘एक्टिविटी इज़ कंडिशन्ड एंड एक्शन इज़ फ्रेश एंड बोर्न आउट ऑफ़ इंटेलिजेंस’ , वो वही है।

चेला जब करे, उसको कड़ी आँख दिखाओ, ‘फिर करने लग गया’, और गुरु जो करे उसके सामने नतमस्तक हो जाओ, उसमें बाधा मत डालो।

गुरु संवेदनशील भी बहुत होता है। उसके रास्ते में बाधा डालो तो वो रुक जाता है। उसे ज़रा भी ये पसंद नहीं है कि ज़ोर ज़बरदस्ती करनी पड़े। उसके सामने विनीत होकर सुनोगे तो वो अपनी बात बोलेगा, और अगर उसको पता है कि तुम्हें तो अपनी ही चलानी है तो वो कुछ बोलेगा नहीं, या बोलेगा भी तो बस इतना ही, क्या?

‘गो अहेड’ (जो करना है करो), कोई ज़वाब ही नहीं देगा।

प्र: आचार्य जी, इरादा शब्द होता है, जैसे कर्म के पीछे का इरादा...

आचार्य प्रशांत: नहीं, ये इरादा नहीं है, ये मूल की बात है। असल में जब भी इरादे होंगे, तो वो चेला होगा। गुरु हमेशा बिना इरादे के होता है, क्योंकि इरादा मतलब मोटिवेशन , इरादा मतलब लालच, बल्कि सबसे साफ़ इरादे भी साफ़ लालच होते हैं। तो ये जो कॉमन विज़डम है न कि ‘ये मत देखो मैं क्या कर रहा हूँ, मेरे इरादे देखो’, ये मूर्खतापूर्ण बात है। इरादे नहीं। हाँ, इरादे के बिना हो तुम तो बात अलग थी।

प्र: आचार्य जी, चेला जो भी करता है उसे पता कैसे होता है कि वो क्या कर रहा है?

आचार्य: चेले को कुछ पता नहीं होता।

प्र: तो कैसे होता है फिर? कौन कर रहा है? जो चेला कर रहा है वो चेला थोड़े ही कर रहा है।

आचार्य: नहीं, अब कर तो रहा ही है न, ये चल तो रहा ही है पंखा। जो तुम कह रहे हो बिलकुल ठीक कह रहे हो, कि लग तो ये रहा है पंखा चल रहा है पर वास्तव में पंखा थोड़े ही चल रहा है। कोई और बैठा है कलाकार उसने चलाया होगा, पंखे ने खुद को थोड़े ही चलाया। यही कह रहे हो न?

प्र: मैं कह रहा हूँ जैसे कोई अगर बेवकूफ़ी की हरकत कर रहा है।

आचार्य: कंडिशन्ड हरकत। बस कंडीशन्ड बोलो।

प्र: कैसा भी एक्शन हो, कर वो थोड़े ही रहा है।

आचार्य: वही पंखे का उदाहरण ले लो। करने वाला, बिलकुल ठीक कह रहे हो, माया के पीछे कोई बैठा हुआ है, बिलकुल ठीक बात है। पर फिर ये दिखाई भी तो दे न कि मैं नहीं कर रहा हूँ। यहाँ तो चेला है, उसका सबसे बड़ा तुर्रा ही यही है कि ‘हम ही तो कर रहे हैं’। अगर इस पंखे को ये अक्ल आ जाए कि ‘मैं तो भैया मशीन हूँ, मैं क्या कर रहा हूँ’ तो उस दिन ये तर जाएगा।

प्र: आचार्य जी, गुरु को गुरु जान सकता है। और जब थप्पड़ पड़ा है तो चेला हो या गुरु, लेकिन थप्पड़ खाया तो चेले ही ने न...

आचार्य: थप्पड़ खाते ही अगर थप्पड़ ठीक का पड़ा है, तो थप्पड़ खाते ही क्या होगा? चेले का चेलापन थोड़ा कम होगा न? थप्पड़ क्यों मारा जाता है?

प्र: वो ग़लत है ये बताने के लिए।

आचार्य: थप्पड़ विधि होती है न, थप्पड़ विधि होती है चेले को जगाने की। जगा हुआ चेला ही तो गुरु है। तो थप्पड़ पड़ते ही उसको सब समझ आ जाएगा कि ‘अच्छा, ठीक है’। और अगर थप्पड़ ठीक से नहीं मारा गया तो वैसे भी फिर थप्पड़ मारने वाला कौन है?

प्र: चेला।

आचार्य: तो फिर तो वो डिज़र्व ही करता है कि उसको एक पड़े। अगर थप्पड़ ठीक पड़ा है तो वो थप्पड़ अपना काम करेगा न, क्या करेगा वो?

सभी श्रोतागण: जगा देगा।

प्र: और फिर भी नहीं जगा तो?

आचार्य: तो फिर जिसने थप्पड़ मारा वही बेवकूफ़ है। उसे मारना ही नहीं चाहिए था। तो इससे तुम्हें गुरु के बारे में एक बात और पता लगती है। एक-आध बार थप्पड़ मारे और चेला तब भी न जागे, तो गुरु अगर गुरु है तो बार-बार मारेगा?

प्र: नहीं, मारेगा।

आचार्य: वो मारना बंद कर देगा।

यही सब विवेक होता है। पिछली बार हमने कहा था विवेक का अर्थ होता है ये देखना कि क्या गंभीरता से लें, क्या नहीं। उसी बात को ऐसे कह सकते हो, विवेक का अर्थ होता है गुरु के लिए ये देखना कि किस हद तक थप्पड़ मारना है और कब छोड़ देना है कि ‘तू जा, हम थप्पड़-वप्पड़ भी नहीं मारेंगे तुझे’। यही विवेक है, सीमा कहाँ पर खींचनी है और कहाँ पर जा कर रुक जाना है। और इस संसार में कुछ भी असीम नहीं होता, यहाँ पर तो सीमाएँ खींचनी ही पड़ती हैं, कितना बोलना है, कितना खाना है, कितनी दूर जाना है।

जीवन ही सीमित है, संसार का अर्थ ही है समय, वो सीमित होता है हमेशा। तो जहाँ कहीं भी सीमा खींचनी हो, वहीं पर विवेक।

प्र: आचार्य जी, जैसे कोई लक्ष्य था वो पूरा हो गया कि ‘ये करना था और प्राप्त कर लिया ये चीज़’, ठीक है। तो उस पर या तो उछल-उछल कर ख़ुशी मनाओ या फिर लगने लगता है कि ये बहुत मेहनत कर के हुआ है और अब ये स्टैण्डर्ड मेन्टेन करने के लिए और मेहनत करनी पड़ेगी भविष्य में। तो उससे अच्छा है कि लैट इट गो (जाने दो), ‘ठीक है आ गया, आ गया अभी आगे आएगा नहीं आएगा, कोई नहीं’।

आचार्य: नहीं, ये इस कारण से लैट गो करना चाहते हैं तो नहीं कर पाएँगे। ये तो आप एक तर्क दे रहे हो। तर्क के जवाब में तो हमेशा तर्क आ ही जाता है।

कुछ भी इसलिए नहीं छूटता कि आपके पास एक समुचित तर्क आ जाता है, कुछ भी इसलिए छूटता है क्योंकि आप भूल जाते हो उसको, आप पकड़ना भूल जाते हो।

जो छूटता है वो इसलिए नहीं छूटता कि आपने उसको देखा, सोचा, विचारा और एक उचित तर्क निकाल के उसको छोड़ दिया। जब छूटेगा तो आपको पता चलेगा कि छूटा इसलिए क्योंकि पकड़ना भूल गए। याद रखना पड़ता है न और याद रखना अपने आप में एक श्रम है, एक टास्क होता है याद रखना, कि पकड़ना है, पकड़ना है; और भूल गए।

जैसे ऐसे समझिए कि किसी से आपका सम्बन्ध तभी हो जब आप रोज़ उसे ईमेल लिखें। जब आपको दिखाई देने लगेगा ‘कि यार, व्यर्थ है’, तो आपको उसे छोड़ना नहीं पड़ेगा, आप वो ईमेल लिखना भूल जाओगे। वो अपने आप छूट जाएगा। तो एफर्ट नहीं करना पड़ा, वो अपने आप ही अनुपयोगी हो गया, उसका आपके जीवन में जो स्थान था वो खत्म हो गया, अब छूट जाएगा आपसे।

आप देखिएगा आपकी ज़िंदगी में जो भी छूटा है वो ऐसे ही छूटा होगा कि उसके छूटने के बड़े दिनों बाद याद आता है ‘अरे! छूट गया’।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories