तुम्हारी परम मुक्ति में यह भी शामिल है कि तुम अमुक्त रहे आओ || (2016)

Acharya Prashant

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तुम्हारी परम मुक्ति में यह भी शामिल है कि तुम अमुक्त रहे आओ || (2016)

आचार्य प्रशांत: जो आप मन के गहरे तल पर चाहते नहीं वो आपको कभी मिल नहीं सकता। इस सत्र से आप कुछ लेकर नहीं जाएँगे यदि आप लेने आए ही नहीं हैं।

गुरु कौन है? प्रकाश में प्रवेश करने की आपकी इच्छा ही गुरु है।

वही आतंरिक इच्छा बाहर अनेकों रूप ले सकती है। जब आप चाहते हो ‘जानना’, जब आप चाहते हो ‘मुक्ति’, जब आप चाहते हो ‘सच्चाई’, तो जगत में रास्ते खुल जाते हैं जानने के; उसको आप गुरु का नाम दे सकते हो। पर प्रथमतया गुरु तो आपकी अपनी गहरी हसरत है। वो दिल में उठती है तो फिर संसार में भी कोई मिलेगा जिसे आप नाम से संबोधित कर सको कि, “ये गुरु है मेरा।” और यदि दिल में ही वो हसरत उठती ना हो, या आप उसके विरुद्ध खड़े हों, या आप उसे दबाने को तत्पर हों, तो बाहर कोई मिलेगा नहीं।

बाहर कोई नाम का गुरु मिला भी तो वो “आपका” गुरु नहीं हो पाएगा; वो “नाम” का गुरु होगा। नाम का गुरु कैसे? कि सब लोग उसे गुरु इत्यादि बुलाते हैं, तो मैंने भी कह दिया गुरु; पर वो आपके लिए ‘गुरु’ नहीं होगा। गुरु तो हमेशा एक मायने में बड़ा व्यक्तिगत होता है। आपके लिए यदि फायदेमंद है, आपको यदि रोशनी दिखाता है, तो गुरु है, नहीं तो काहे का गुरु? दवाई आपको फ़ायदा करे तो दवाई है, नहीं तो काहे की दवाई? आपको नहीं मिलेगा, अगर आपकी अपनी हसरत नहीं है।

अब मैं यहाँ आता हूँ, पहली नज़र पड़ती है इन प्रश्नों पर जो आपने लिखे हैं, जवाब तो तब मिलेगा न जब तुम्हें जवाब चाहिए। तुम जब वहाँ लिख ही इसीलिए रहे हो कि तुम्हें छुपाना है, तुम जब वहाँ लिख ही इसीलिए रहे हो कि तुम्हारे जीवन का जो मूल प्रश्न है उसकी चर्चा होने ही ना पाए तो तुम यहाँ कुछ जानने थोड़े ही आए हो! तुम यहाँ भी वही करने आए हो जो तुम उम्र भर करते रहे हो – धोखा! दिन भर भी अपने साथ धोखा करते हो, यहाँ बैठ कर भी वही कर रहे हो।

एक सवाल पूछ रहा हूँ, तुम यहाँ बैठे हो, तुम्हारे जीवन में जो कुछ भी केंद्रीय उत्पात है, जो तुम्हारी मूल समस्या है, क्या तुम्हें मालूम नहीं है? उस समस्या का बहुधा एक नाम होता है, अकसर एक चेहरा भी होता है, उसका एक लिंग भी होता है। वो समस्या कहीं रहती है, उसका कोई पता-ठिकाना होता है। कहाँ है उसका नाम? आज तक इस कागज़ पर उस समस्या का नाम लिखा है? तुम्हें उसे पालना है तो तुम यहाँ व्यर्थ प्रपंच क्यों करने आ जाते हो? इधर-उधर की बातें लिखोगे! यदि तुम्हारी अभिलाषा होगी, तभी न तुम्हें कुछ मिलेगा!

तुम्हारी परम मुक्ति में ये भी शामिल है कि तुम मुक्ति से दूर भागो।

बड़ी मज़ेदार बात है, समझना! मुक्त होना तुम्हारा स्वभाव है, और तुम्हारी मुक्ति में ये भी शामिल है कि तुम मुक्त ना होना चाहो। तुम इसके लिए भी मुक्त हो।

इतनी गहरी मुक्ति है तुम्हारी। मुक्ति इतना गहन स्वभाव है तुम्हारा कि तुम मुक्त हो, मुक्त ना होने के लिए भी। और तुम्हारी उस मुक्ति को, तुम्हारे उस अधिकार को, उस हक़ को कोई नहीं छीन सकता; कोई गुरु भी नहीं छीन सकता। गुरु भी उससे छोटा है, उसके आगे विवश है। तभी तो बेचारा बस इशारे कर सकता है, आतंरिक ज़बरदस्ती नहीं कर सकता; विवश है। विवश ना होता तो कर देता ज़बरदस्ती। उस ज़बरदस्ती में मूलतः कुछ ग़लत नहीं होता; कर दी जाती! पर की नहीं जा सकती क्योंकि मूल स्वतंत्रता, आध्यात्मिक मुक्ति, आकाश में उड़ान, ये सब किसी को दी ही नहीं जा सकतीं; ज़बरदस्ती देने की बात तो दूर रही। ये तो छोड़ दो कि ये किसी को ज़बरदस्ती दे दोगे कि, “खा! और नहीं खाता तो हम तेरे गले में ठूस देंगे।” ना! ज़बरदस्ती तो दी ही नहीं जा सकती; दी भी नहीं जा सकती। ये तो माँगी जाती है गहरी प्यास के साथ। पूरी उत्कंठा के साथ। सम्पूर्ण समर्पण के साथ इन्हें माँगा जाता है। जब तुम्हारे भीतर से उत्कट प्यास उठती है, जब मन की गहराई से प्रार्थना उठती है, तब सम्भावना बनती है कि तुम्हें मिले। चीज़ तुम्हारी ही है, पर तुम्हें ही माँगनी पड़ती है तब मिलती है। ज़बरदस्ती तो नहीं दी जा सकती।

अब तुम माँगो ही ना! माँगना तो छोड़ो, तुम उसे अवरुद्ध करने पर आमादा हो, तो फिर वही होगा जो तुम चाहते हो – “जनाब! जहाँपनाह का हुक्म सर आँखों पर!”

“आपकी जैसी आज्ञा! आपको नहीं चाहिए? आपको बिलकुल नहीं मिलेगा। आज तक नहीं मिला है, आगे भी नहीं मिलेगा। किस मर्दूद की इतनी हिमाक़त कि जहाँपनाह को वो दे दे जो जहाँपनाह को चाहिए नहीं? जहाँपनाह चाहिए क्या?”

आप अर्ज़ करेंगे, तब पूरा हम फ़र्ज़ करेंगे।

(हँसते हुए) लेकिन पहले तो आप ही अर्ज़ करेंगे। ये क्या अर्ज़ कर रहे हैं आप? (पूछे गए प्रश्न की ओर इंगित करते हुए)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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