तुम्हारे कर्म ही बताएंगे कि तुम कौन हो || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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तुम्हारे कर्म ही बताएंगे कि तुम कौन हो || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: ‘ज्ञानयोगी’ और ‘कर्मयोगी’ में क्या अंतर है? आदमी कैसे जाने कि वह किस मार्ग पर है? जहाँ ज्ञान है वहीं कर्म है, जहाँ कर्म है वहीं ज्ञान है, तो इनमें भेद क्या है?

वक्ता: कोई भेद नहीं है। कोई भेद है ही नहीं। आप कहाँ से देख रहे हो, इसका भेद है। आप कहाँ पर खड़े हो, इसका भेद है। कौन बात कर रहा है, इसका भेद है। एक व्यक्ति होता है जिसकी दृष्टि आचरण पर होती है, वो अपनेआप को जब जानना चाहेगा, वो जब आत्म-ज्ञान भी चाहेगा, तो वो यही करेगा कि अपनी दिनचर्या को देखे, जीवन कैसा जा रहा है। इसके लिए भी उसके पास यही मापदंड होगा कि अपने कर्मों को देखे कि सुबह से शाम तक करता क्या है।

इस व्यक्ति की दृष्टि थोड़ी स्थूल है, कर्म दिखाई पड़ते हैं। इसमें कोई गलती नहीं है, ठीक है। हम सभी को कर्म दिखाई पड़ते हैं, आँखे देखती हैं – हाथ कहाँ को चल रहे हैं, क़दम किधर को जा रहे हैं, किसको क्या बोल दिया – सारे कर्मों पर नज़र है। तो ये स्वयं को जानने के लिए कर्म को देखता है। इसका जो प्राइमरी इंडिकेटर (प्राथमिक सूचक) है, जहाँ से ये संचालित होता है, वो कर्म है – तो आप इसको ‘कर्मयोगी’ कहलोगे। ये नहीं मानेगा कि जीवन पर कोई प्रभाव पड़ा है, कि कोई बदलाव आया है, जब तक इसे कर्मों में बदलाव नहीं दिखाई देगा।

और एक दूसरा व्यक्ति है, जो कहता है, “मुझे कर्मों की कोई विशेष चिंता ही नहीं है। मैं नहीं देख रहा हूँ कि कर्म दाएँ जा रहा है या बाएँ जा रहा है।” ये कह रहा है, “मुझे तो बस इस बात की चिंता है कि कर्म आ कहाँ से रहा है?जीवन संचालित किस बिंदु से हो रहा है? क्या कर रहा हूँ, यह बात गौण है। बात निकल कहाँ से रही है, वो प्रमुख है। मैं वहीं पर बैठूँगा, वहीं पर केन्द्रित रहूँगा,” – ये ज्ञानयोगी हो गया।

इसी कारण पारंपरिक रूप से भी ज्ञान मार्ग को ऊँचे से ऊँचा रखा गया है, क्योंकि वो सूक्ष्तम मार्ग है। जिन लोगों की नज़र इतनी पैनी नहीं कि वो मन में झाँक कर देख सकें, जिनको सिर्फ़ स्थूल नज़र आता है, कर्म का मार्ग उनके लिए है। फिर बढ़ते-बढ़ते स्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं, कि कर्म का मार्ग एक प्रकार से आचरणबद्धता का मार्ग हो गया। तो ‘कर्मयोग’ का अर्थ ये बन गया कि जो लोग इस-इस प्रकार का आचरण करते हों, वो कर्मयोग के पथ पर हैं। ऐसा कुछ बन गया। लेकिन बात बिल्कुल ठीक है – कर्म ही ज्ञान है, ज्ञान ही कर्म है – पर किसके लिए? हमेशा सवाल ये पूछना चाहिए, “किसके लिए?”

“ज्ञान ही कर्म है,” – ये बात दिखाई भी तो देनी चाहिए ना। “मेरा कर्म या तो ज्ञान से निकलता है, या अज्ञान से निकलता है। या तो गहरी समझ से निकलता है, या गहरी नासमझी से निकलता है। मेरा कर्म मेरे मन की गुणवत्ता का प्रतीक है,”- ये स्पष्ट भी तो होना चाहिए ना? जिनको ये नहीं स्पष्ट हो पा रहा, उनसे कहा जाता है, “ये पैमाने हैं, और इन पैमानों पर जाँच लो अपने कर्मों को।” उनसे कहा जाता है, “देखो कि क्या अब गुस्सा ज़्यादा आता है?” उनसे ये नहीं कहा जा पाएगा कि, देखो क्या मन में वृत्तियाँ अभी भी बैठी हैं? वृत्तियाँ नहीं दिखाई पडतीं, गुस्सा दिखाई पड़ता है – तो फिर वो गुस्से को देखेंगे। उनका जो सेल्फ-ऑब्जरवेशन(आत्म-अवलोकन) है, वो ज़रा स्थूल है। कोई बुराई नहीं है उसमें, क्योंकि जो भी वृत्ति है, वो अन्तत: स्थूल रूप में भी, प्रकट तो होती ही है। तो स्थूल को ही देख लो, कोई दिक्क़त नहीं है।

इसीलिए जन-साधारण के लिए, अधिकतम लोगों के लिए ‘कर्मयोग’ बड़ा अच्छा मार्ग है। समझ रहे हो? “ऐसा-ऐसा करो, ऐसा-ऐसा करो।” लेकिन दिक्क़त उसमें ये आ जाएगी कि अन्तस से तो आचरण निकलता है, पर आचरण कर-कर के कोई अन्तस को प्राप्त कर लेगा, इसकी सम्भावना ज़रा कम होती है।

सम्भावन होती है, ऐसा नहीं है कि सम्भावन नहीं होती, पर आप एक विशेष प्रकार का आचरण करेंगे, आप एक विशेष प्रकार के कर्म में उतरेंगे, तो वो कर्म अन्तत: आपके मन को धो देगा – ये हो भी सकता है, और नहीं भी हो सकता है, क्योंकि हज़ार प्रकार के मन हैं। एक प्रकार के मन पर एक विधि चल सकती है, दूसरे प्रकार के मन पर वो विधि नहीं चलेगी।

प्रत्येक प्रकार का जो आचरण हमें सिखाया जाता है कि, “करो ऐसा”, वो एक विधि ही है। यदि कहा जाता है कि, “सुबह उठ कर नहा लो,” तो वो विधि है। वो विधि हो सकता है अधिकाँश लोगों पर क़ामयाब हो, पर एक अंश ऐसा भी होगा जिसपर उस विधि का कोई असर नहीं पड़ेगा। यदि कहा जाता है कि, “पूजा-अर्चना, आरती करो,” ये सब कर्मयोग हुआ, एक प्रकार का आचरण है ये, “करो,” तो एक बड़ी तादाद होगी ऐसे लोगों कि जिनको इससे लाभ होगा। पर ऐसे भी लोग होंगे जिनपर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।

लेकिन ज्ञान में कोई संभावना ही नहीं है कि कर्म ना तब्दील हो। आचरण से अन्तस मिले, हो भी सकता है, नहीं भी। पर अन्तस से आचरण बदलेगा ही बदलेगा, सौ प्रतिशत। कोई संभावना ही ऐसी नहीं है कि ज्ञान हुआ, बोध उठा, पर कर्म नहीं बदला। हो ही नहीं सकता।

श्रोता १: आचरण से अन्तस के बदलने की सम्भावना पर मुझे बड़ा संशय है। मैंने इससे लोगों का अहंकार बहुत पुष्ट होते देखा है। मेरी माँ अगर सुबह छ: बजे न उठें, तो उनको बड़ी ग्लानि उठती है कि – “मैं कैसे सो गयी आधे घंटे ज़्यादा।”

वक्ता: देखिये कर्म का जो मार्ग है, उसमें भी उद्धेश्य यही है कि कर्म से ज्ञान जागृत हो जाए। थोड़ा-सा मैं कुछ बोलने जा रहा हूँ, समझियेगा इसको। आप यदि सांख्य की भाषा में बात करें, तो आप दो हैं – आप पुरुष हैं, और प्रकृति हैं। जितना भी कर्म है, वो प्रकृति के दायरे में आता है ना? आपने आज तक नहीं सुना होगा किसी को कहते हुए, शास्त्रीय रूप से कि, “मैं प्रकृति हूँ।” हाँ, प्रकृति हैं आप, पर प्रकृति से तादात्मय करना नहीं है।

मूलतः आप पुरुष हैं, और पुरुष का स्वभाव कर्म नहीं है, बोध है। यही कारण है कि ज्ञानमार्ग आपके अपने स्वभाव के ज़्यादा क़रीब है, क्योंकि कर्म है प्रकृति में। कर्म है प्रकृति में, कर्म है हाथों में, कर्म है मन में। और बोध है आत्मा में। और आप वही हैं, आप वही हैं।

कर्म का भी उद्धेश्य यही है कि आप अपने ज्ञान-रूप को पहचान लें। पर अगर कर्म अपनेआप में बस एक चक्र बन गया है, वो ज्ञान की तरफ़ नहीं ले जा रहा, तो वो कर्म फ़िज़ूल है। आप सुबह-शाम करते होंगे जो भी करते होंगे, उससे अगर आपका भीतर का दिया नहीं जल रहा, तो वो कर्म फ़िज़ूल है।

श्रोता १: क्योंकि हम बहुत बड़ी संख्या में लोगों को देखते हैं इस तरह के आचरण करते हुए, पर उनमें कोई तबदीली नहीं होती है।

वक्ता: कोई तब्दीली नहीं होती है।

देखिये, नज़र हमेशा इस पर रहे कि आचरण, आचरण ना रह जाए, क्योंकि जब आचरण करने के लिए कहा भी जा रहा है, तो इसलिये कहा जा रहा है कि ज्ञान जग जाए। कर्मयोग अपने आप में पूरा नहीं है। दोहरा रहा हूँ मैं इस बात को कि – कर्म का भी उद्धेश्य यही है कि ज्ञान जग जाए। ज्ञान का ये उद्धेश्य नहीं है कि उचित कर्म हो जाए, क्योंकि ज्ञान अपने आप में पूरा है। और मैं यहाँ पर ‘ज्ञान’ बोध के सन्दर्भ में कह रहा हूँ कि – बोध यदि है, तो कर्म की फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं। पर कर्म आप कर भी रहे हो, तो भी फ़िक्र करने की ज़रूरत है कि इस कर्म से बोध जग रहा है, या नहीं जग रहा है।

अंतर समझियेगा। बोध उठ गया, तो कर्म को भूलो। मस्त हो जाओ, जो होता है हो।

श्रोता ३: बोध से तो जो कर्म है, वो उसका फल है।

वक्ता: वो उसका फल है। और बोध है, तो फल मीठा ही होगा।

~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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