स्वयं से छिटका हुआ मन है परमात्मा

Acharya Prashant

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स्वयं से छिटका हुआ मन है परमात्मा

आचार्य प्रशांत: कहानी है, सुनिएगा।

एक बार गोकुल में बाल कृष्ण बीमार पड़ गए। कोई वैद्य, दवाई, जड़ी–बूटी उन्हें ठीक ना कर पाए। गोपियाँ उनसे मिलने आईं और उनकी ऐसी हालत देखकर उनकी आँखों में आँसू आ गए। भगवान ने उन्हें रोने से मना किया और उनसे कहा कि अगर वो चाहें तो वो ठीक हो सकते हैं; यदि गोपियाँ चाहें तो वो ठीक हो सकते हैं। गोपियों ने उपाय पूछा।

कृष्ण ने कहा कि, ‘तुम्हारे चरणों से बना चरणामृत मुझे मेरी बीमारी से मुक्त कर देगा।’ गोपियाँ ये सुनकर अचरज में पड़ गईं। उन्हें ये पाप लगा कि भगवान को अपना चरणामृत पिलाएँगे।

तभी कृष्ण की प्रियतमा राधा आ गईं। राधा को जब पता चला कि कृष्ण अपने रोग का क्या इलाज बता रहे हैं तो वो तुरंत तैयार हो ग‌ईं। राधा ने अपने चरणों को धोकर चरणामृत बनाया और कृष्ण को इसका पान करवाया। कृष्ण ने वो चरणामृत पिया तो स्वस्थ हो गए। आख़िरी वाक्य कहता है कि कृष्ण ने कहा, "अटूट प्रेम में इतनी शक्ति है कि वो विश्वास और आस्था के साथ किए गए हर कार्य को सिद्ध कर देता है।"

खेल ज़रा निराले हैं। सूली से कुछ समय पूर्व ही जीज़स ने अपने सारे शिष्यों के पाँव पखारे। बात अजीब है! ईश्वर का पैगंबर दुनिया छोड़ने को है। दुनिया का महाभाग्य कि वो अवतरित हुआ। दुनिया को उसके चरण पूजने चाहिए, उसकी वंदना करनी चाहिए, पर इसकी जगह वो अपने शिष्यों के सामने सिर झुका रहा है। क्या बात है ये?

कौन है कोई कृष्ण? कौन है कोई जीज़स? क्या संबंध है उसका धरती से, लोगों से? पड़ी क्या है उसको यहाँ होने की? क्यों आ गया? कहाँ से आ गया?

हम तो इसलिए हैं क्योंकि हमारी वृत्तियों की अपूर्णता है। हम तो इसलिए हैं क्योंकि अतृप्त कामनाएँ थीं जो शरीर बन बैठीं। अतृप्त और विक्षिप्त, पागल। ठीक वैसे ही कि जैसे कोई पागल कभी सब्जियों के बाज़ार में जाए, कभी तेल के बाज़ार में जाए, कभी खेल-खिलौनों के बाज़ार में जाए, कभी वस्त्रों के बाज़ार में जाए, ये सोचकर कि ये अलग-अलग बाज़ार उसे तृप्ति दे देंगे। ठीक वैसे ही आम-आदमी शरीर धारण करता है। भाव यही होता है कि संसार उसे उसकी विक्षिप्तता से और अतृप्ति से मुक्ति दे देगा।

तो हम तो इस वजह से आ जाते हैं। बोध का अभाव होता है। यह जान ही नहीं पाए होते हैं कि जो तुम्हें चाहिए वो इस लोक में नहीं, किसी लोक में नहीं, इस जन्म में नहीं, किसी जन्म में नहीं। तो बार-बार कोशिश करते रहते हैं, कभी इस बाज़ार, कभी उस बाज़ार। एक पागल बाज़ार-दर-बाज़ार फिरता है और मन जन्म-दर-जन्म फिरता है, मृत्यु-दर-मृत्यु फिरता है। एक जगह से ठोकर खाता है, दूसरी जगह आज़माइश करता है, हमारा तो ये हिसाब है। हम तो हैं ही इसीलिए क्योंकि पागल हैं, विक्षिप्त हैं। फिर कह रहा हूँ, हम हैं ही इसीलिए क्योंकि हम पागल हैं। संसार के बाज़ार में हम आए हैं कि यहाँ से कुछ मिल जाएगा। ये जीज़स को क्या पड़ी है? कृष्ण को क्या पड़ी है? वो क्यों आ जाते हैं?

प्रश्नकर्ता: दूसरे लोगों को बताने के लिए।

आचार्य: ये दूसरे लोग कौन हैं? जिन्हें आप दूसरे लोग कह रहे हैं उन्हें जानिएगा क्या हैं। वो है स्वयं से छिटका हुआ परमात्मा। ये मन की परिभाषा है, ये मन का नाम है। कौन है मन? स्वयं से छिटके हुए परमात्मा को मन कहते हैं। और वही मन जब इंद्रियों के माध्यम से देखा जाता है तो जीव दिखाई पड़ता है। परमात्मा स्वयं से छिटका हुआ है और स्वयं से दूर होकर विक्षिप्त सा हो गया है।

कोई इसको कहता है कि विक्षिप्तता का वह स्वांग कर रहा है, कोई कहता है कि लीला है। हम, हम से दूर होकर; मन, दिल से दूर होकर पगला से गए हैं। जैसे पूर्ण परमात्मा, जैसे निराकार परमात्मा ने आकार लिया हो और जो कुछ भी आकार लेगा वो सीमित हो जाएगा न। हर सीमित चीज़ का ही आकार होता है। और जिसका स्वभाव है असीमित होना, अनंत होना, उसने खेल-खेल में सीमाएँ ले ली हैं तो वो उन सीमाओं में घुटा-घुटा अनुभव करता हो। ये है हमारी जीवन गाथा।

अनंत क्षुद्र बन बैठा है पर क्षुद्रता उसे सुहा नहीं रही। निर्गुण ने तमाम गुण धारण कर लिए हैं पर ये गुणों का बोझ उसे कुछ पसंद नहीं आ रहा। निर्मल ने तमाम तरह की मलिनताएँ ओढ़ ली हैं पर मलिनताएँ उसका स्वभाव नहीं है। निर्विकार विकार युक्त होकर के खेल खेलता है। खेलना तो ठीक है, विकार क्यों चाहिए? विकारों से उसका कुछ सामंजस्य बनता नहीं। परमात्मा जैसे इंसान बनकर ख़ुद ही फँस गया हो, परेशान हो गया हो। ये हमारी कहानी है।

परमात्मा जैसे अपनी ही शक्तियों का उपयोग करके स्वयं को भूल गया हो। परमात्मा जैसे, ध्यान से सुनना, अपनी ही माया में फँस गया हो और माया उसे नाच नचा रही है। कभी इस बाज़ार भेजती है, कभी उस बाज़ार भेजती है। कभी ये उम्मीद दिखाती है, कभी वो सपना। परमात्मा फँसा है, जीव नहीं।

धरती पर ये जो तमाम जीव दिखाई देते हैं ये नहीं फँसे हैं, कौन फँसा है? परमात्मा। और फँसा भी वो किसमें है? अपनी ही माया में। तो छुड़ाने कौन आएगा, भाई? कोई और कोई नहीं फँसा है, स्वयं परमात्मा फँसा है और फँसा भी किसमें है? अपनी ही माया में। तो छुड़ाने कौन आएगा? किसी और को छुड़ाने आ रहा है क्या? तो दूसरे लोगों की कोई बात नहीं है। किसको छुड़ाने आ रहा है? ख़ुद को छुड़ाने आ रहा है। किसी पर एहसान नहीं कर रहा।

आपके एक हाथ में पीड़ा हो, उसको आप दूसरे हाथ से दबाएँ तो आप किसी और पर एहसान कर रहे हैं क्या? जवाब दो। तुम्हारे बाल उलझे हुए हों और तुम उन्हें अपनी उँगलियों से सुलझाओ, तुम किसी और पर एहसान कर रहे हो? तुम्हारे ही पाँव में काँटा लगा है, उसे तुम अपने ही हाथ से हटा रहे हो, किसी और पर एहसान कर रहे हो क्या? नहीं न।

अवतार कौन होता है, समझ रहे हो? परमात्मा अपने-आप पर ही मेहरबान हुआ है। बढ़िया बात! ये तो हमने कह दिया कि परमात्मा अपने-आप पर मेहरबान हुआ है पर जिस पर मेहरबान हुआ है, वो कौन है? वो, वो परमात्मा है जो अभी माया के प्रभाव में है। उसको कुछ समझ में आ रहा है मेहरबानी किस पर, किसकी? उसको नहीं समझ में आ रहा। उसको समझ में आ रहा होता इतना तो वो उसी समझ का उपयोग करके स्वयं ही माया से मुक्त ना हो गया होता? जीव को अगर इतना समझ में आ रहा होता कि अवतार उस पर मेहरबानी करने आया है, तो वो उसी समझ का उपयोग करके स्वयं ही माया से मुक्त ना हो गया होता?

जीव तो माया में मग्न है। वो माया से ही संत्रास पाता है और माया में ही समाधान खोजता है। गरजमंद कौन हुआ फिर? जीव तो मग्न है तो गरजमंद कौन है? परमात्मा गरजमंद है, अवतार की गरज है। जीव तो मग्न है। जीव ने कहा था क्या कि अवतार आए? जीव को तो अवतार बल्कि एक विघ्न की तरह लगता है, ‘ये आ कहाँ से गया!’

अवतार को तो फिर चमत्कार दिखाने पड़ते हैं और तमाम तरह के अजूबे, कारनामे, तरह-तरह के जादू ताकि जीव को ज़रा भरोसा आए। नहीं तो जीव यही कह रहा होता है कि, “भाई, तू अपना रास्ता देख। ये मेरा घर है, ये मेरी बीवी है, ये मेरी दूकान है। मेरा काम चल रहा है। तेरी क्या ज़रूरत है?” ये जीव का एहसान होता है कि वो राज़ी हो जाए मुक्ति के लिए।

ये गंगा उल्टी बह रही है। समझना, ये जीव की अनुकंपा है कि वो अवतार को हाँ बोल दे। नहीं तो बड़े अवतार आते हैं और वो गीत ही गाते रह जाते हैं। परमात्मा की धुन सुनाते रह जाते हैं और जो उनके सामने बैठे होते हैं वो नींद के आगोश में सोए रह जाते हैं।

ये जीव का एहसान होता है कि वो अवतार की बात सुन ले। अवतार उनके सामने नतमस्तक रहता है, करबद्ध खड़ा रहता है कि जैसे माँ छोटे बच्चे को मनुहार करके कहती हो, “बेटा राजा! थोड़ा सा खाना खा ले न।” अब ये तो कोई समझदार होगा जो कहेगा कि गरज बच्चे की है। बच्चा नहीं खाएगा तो भूखा रह जाएगा और कमज़ोर पड़ेगा, पर जब माँ बच्चे को आग्रह करके खिला रही होती है तो देखा है पलड़ा किसका भारी होता है? किसका? बच्चे का।

बच्चा इधर से उधर भाग रहा है। वो बादशाह है। वो कह रहा है ‘ऐसे नहीं खाएँगे, पहले घोड़ा बनो। नहीं ऐसे नहीं खाएँगे, पहले वो चार खिलौने लेकर आओ। और ये क्या ले आए हो खिलाने के लिए? पहले ज़रा इसे गरम करो। इसमें अचार-वचार डालो।’ आप कहेंगे, “देखिए ये तो अन्याय है। पहली बात तो बच्चा माँ से है। दूसरी बात, बच्चा अनाड़ी है। तीसरी बात, माँ मनुहार कर रही है, विनती कर रही है, लाड़ कर रही है। बच्चे का यूँ अकड़ना, रूठना, भाव दिखाना ये शोभा नहीं देता। ये तो अन्याय है।” होगा अन्याय; दुनिया ऐसी ही है।

तो हर अवतार बेचारा बड़ी दयनीय हालत में रहता है। कहने को गुरुजन और ज्ञानीजन बता गए हैं कि शिष्यों को गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए, तथ्य ये है कि मन-ही-मन गुरु हर समय नतमस्तक रहता है। “महाराज! सुन लो, समझ लो, किसी तरीके से”, क्योंकि झुकेगा तो वो न जिसे समझ में आ रहा होगा कि यदि ये समझने की घटना ना घटी तो कितना बड़ा नुकसान है। माँ जानती है कि बच्चे ने खाना नहीं खाया तो कितना बड़ा नुकसान है। बच्चा जानता है क्या?

गुरु जानता है कि अगर शिष्यों ने नहीं समझा तो कितना बड़ा नुकसान है। शिष्य क्या कह रहे हैं? शिष्य कह रहे हैं, "नहीं समझा तो नहीं समझा, ज़िंदगी तो यूँ भी मस्त है।” तो झुकता तो वही है न जो समझता है। कृष्ण यूँ ही बीमार नहीं पड़ते। आपकी कहानी ने कहा कृष्ण बीमार पड़ गए। कृष्ण को और क्या बीमारी लगेगी, कृष्ण तो एक ही उद्देश्य के लिए आए हैं। क्या? धर्म संस्थापनार्थाय। उनको तो और कुछ है नहीं तो वो बीमार भी क्यों पड़ेंगे?

और धर्म की संस्थापना कैसे नहीं हो पाएगी? ऐसे ही तो नहीं हो पाएगी न क्योंकि आसपास जो लोग हैं उनमें अधर्म फैला हुआ है। वो कृष्ण की बात सुनने को राज़ी नहीं हैं। तो कृष्ण उनसे विनती कर रहे हैं हाथ जोड़कर के, “अरे! सुन लो मेरी बात।” कृष्ण का गोपियों से कहना कि ‘भाई, तुम्हारा चरणामृत ही मुझे ठीक कर सकता है’, ये इसी बात का सूचक है। ‘मैं तुम्हारे आगे झुकता हूँ। तुम सुधर जाओ, मैं ठीक हो जाऊँगा। मेरे पैदा होने का और प्रयोजन ही क्या है?’

भूलिएगा मत, चर्चा की शुरुआत हमने कैसे की थी। आम-आदमी के पैदा होने का प्रयोजन क्या होता है? उसकी अतृप्त वृत्तियाँ। कृष्ण इसलिए नहीं पैदा होते। कृष्ण तो पैदा हुए हैं गोपियों के लिए, कृष्ण तो पैदा हुए हैं धर्म के लिए। अपने लिए नहीं पैदा हुए। उनकी अपनी क्या मंशा है? उनके जीवन में अपने लिए क्या आकांक्षा है?

तो कृष्ण हाथ जोड़कर नमन करते हैं, ‘अरे! सुन लो मेरी बात। किसी तरीके से सुन लो मेरी बात।’ यहाँ पर तो मामला ज़रा अति प्रत्यक्ष हो गया है कि कह ही दिया कि 'अपना पाँव धो और पाँव धोकर के मुझे पानी पिला दो। 'तो दिख ही गया कि अरे! यह तो बिलकुल ही झुक गए।

अन्यथा गीता के मैदान पर, कुरुक्षेत्र में भी तो यही हो रहा है। चित्रों को देखोगे तो ऐसा दिखाई देगा कि कृष्ण खड़े हुए हैं और अर्जुन उनके सामने झुका हुआ है। सूक्ष्म दृष्टि से देखोगे तो बात दूसरी है। अर्जुन अड़ा हुआ है और कृष्ण नीचे पड़े हुए हैं, ज्यों गरज कृष्ण की हो। वो मानने को राज़ी नहीं, वो समझाए जा रहे हैं। शुरू में तो यह भी कह देता है कि 'आप मुझे भ्रमित क्यों कर रहे हैं?'

कृष्ण ये भी तो कह सकते थे, “तू मूर्ख, जड़! तुझे समझ में नहीं आ रहा, तू जान। तेरा कर्म, तेरा कर्मफल, तू भुगतेगा। मुझे क्या लेना देना! मैं तो इन सब घटनाओं से अस्पर्शित हूँ। मैं तो निस्पृह हूँ। मैं तो कृष्ण हूँ। मुझे किसी युद्ध से क्या लेना-देना!” पर देखो कृष्ण को, वो मेहनत करे जा रहे हैं, एक अध्याय, दो अध्याय, तीन अध्याय, चार अध्याय और अर्जुन बादशाह की तरह कह रहे हैं, “नहीं! अभी समझ में नहीं आया, एक और। नहीं अभी बात बनी नहीं। थोड़ा और समझाओ।”

ठीक है, शब्दों का उसका जो चयन है वो दर्शाता है कि जैसे वो बड़ा विनीत हो। कभी मधुसूदन कहेगा, कभी केशव कहेगा, कभी प्रभु कहेगा। शब्दों से ऐसा लग रहा है जैसे अर्जुन प्रार्थी है, जैसे अर्जुन शिष्य है, कि भक्त है, पर ग़ौर से देखो कि हो क्या रहा है। अर्जुन तो भागने को तैयार है। कृष्ण उसे पीछे से पकड़े हुए हैं। अर्जुन थोड़े ही न आया है कृष्ण के पास कि 'कृपा करके मुझे गीता का पाठ दें।' गीता तो जैसे अर्जुन पर जबरन थोपी जा रही है। अठारहों अध्यायों में किसी भी अध्याय पर आकर यदि कृष्ण कह देते कि 'इतनी ही है', तो अर्जुन कहता, "ठीक।" तुम्हें क्या लगता है अर्जुन और माँग करता और कहता कि ‘नहीं, अभी छह बचे हैं’? अर्जुन कहता, ‘बिलकुल ठीक!’

गुरु शिष्य का संबंध ऐसा ही होता है। अवतार और संसार का संबंध ऐसा ही होता है। ऊपर-ऊपर से देखने पर ऐसा लगता है कि जैसे अवतार आया है संसार को अनुग्रहित करने। जैसे अवतार का उतरना संसार के लिए बड़ी बधाई की बात है, कि जैसे संसार धन्य हुआ अगर कृष्ण अवतरित हो गए, जीज़स अवतरित हो गए। पर वास्तव में होता क्या है ये तो तुम किसी अवतार से जाकर पूछो, गुरु से पूछो, वो बताएगा।

वो कहेगा, "संसार तो मुझे ऐसे देखता है जैसे मैं संसार पर बोझ हूँ।" वो पूछता है, “आप आ कहाँ से गए? हाँ जी, आपको किसने बुलाया? कोई आमंत्रण पत्र, कोई वीज़ा इत्यादि है आपके पास? कहाँ से पधारे आप? इस लोक के तो आप हैं नहीं।” और वो कहता है, “सुन लो मेरी बात, सुन लो।” लोग कहते हैं, “हमें नहीं सुननी। हम ठीक हैं।”

अब उसको दिख रहा है कि नहीं ठीक हैं और लोग कह रहे हैं कि, 'हम तो ठीक हैं'। जैसे किसी शराबखाने में कोई एक आदमी हो जिसने पी ना रखी हो। जैसे किसी पागलखाने में कोई एक हो जो पागल ना हो। वो तो पागलों के पाँव ही पूजेगा। वो कहेगा, ‘महाराज!’ और अगर वो पागलखाने में, शराबखाने में, इस संसार में आया ही इसलिए हो क्योंकि उसे लोगों को उनके नशे से, उनके पागलपन से मुक्ति दिलानी हो, तब तो वो बीमार ही पड़ जाएगा। जितना कष्ट वास्तव में एक अवतार सहता है उतना और कोई नहीं सहता। पागलों के बीच रहकर पागल ना होना बड़े कष्ट की बात है।

कहानी सुनी होगी आपने कि किसी राज्य में एक कुआँ था। एक जादूगर आया और उसने उसके पानी में जादू कर दिया। उसने कहा कि जो भी इसे पीयेगा वो पागल हो जाएगा। राजा था, राजा का मंत्री था, इन दोनों ने बड़ी कोशिश की। राज्यभर में ढिंढोरा पिटवाया, लोगों को सजग किया, आगाह किया – पानी मत पी लेना।

पर लोगों की वृत्ति कुछ ऐसी होती है कि जिस काम के लिए मना करो उसको वो सबसे पहले करते हैं। लोगों ने पानी पी लिया। एक-एक करके सब पीते गए। एक दिन बीतते-बीतते पूरा राज्य पागल हो गया था। राजा बचा था और राजा का बुद्धिमान, विश्वासपात्र मंत्री। महल के चारों ओर पागलों का शोर। राजा ने मंत्री से पूछा, "कोई सलाह है, क्या करें?" मंत्री ने कहा, "चलिए पानी पी लेते हैं; और कोई सलाह नहीं है। चलिए उसी कुएँ का पानी हम भी पी लेते हैं।”

पागलों के बीच में रह करके पागल ना होना बड़ी श्रद्धा की बात है। उसके लिए बड़ा बल चाहिए। वो बड़ी विरल घटना है।

उपनिषद् सूत्रों से पहले शांति पाठ में कहते हैं कि गुरु और शिष्य एक दूसरे से वैमनस्य ना रखें, दुर्भावना ना रखें। वो अच्छे से जानते हैं कि जो हम अब कहने जा रहे हैं वो सुनकर के गुरु और चेले में खटपट होनी पक्की है। चेला कहेगा, “ये बता क्यों रहे हो। हमें ये चाहिए नहीं और जो कुछ बता रहे हो उससे तो हमारी दुनिया उजड़ जानी है।”

और गुरु कहेगा, “मैं जो बता रहा हूँ वो तेरे भले के लिए बता रहा हूँ। तुझे बात समझ में क्यों नहीं आती!” तो दोनों में अनबन होनी पक्की है। तो पहले ही परमात्मा से प्रार्थना की जाती है उपनिषद् शुरू होने से पूर्व ही, "मुझे बचाना।”

यह सारी बातें देख रहे हो न किधर को इशारा कर रही हैं? तुम तो अपनी विक्षिप्त हालत में तीन साल का बालक बने बैठे हो। सुना है, दैट व्हिच यू आर लुकिंग फॉर इज़ लुकिंग फॉर यू ? तुम नहीं तलाश रहे हो उसको, वो तुम्हें तलाश रहा है। तुम्हारा बस चले तो कभी पकड़ में ही ना आओ। वो तलाशता ही रह जाए और उस पर तुर्रा ये कि तुम कहते हो कि ‘हम साधक हैं, हम मुमुक्षु हैं। हम परमात्मा को तलाशने के लिए कभी तीर्थ जाते हैं, कभी पहाड़ पर चढ़ जाते हैं, कभी नदी में घुस जाते हैं, कभी काबा पहुँच जाते हैं’, न जाने क्या-क्या।

ये तुर्रा है, ‘हम तलाश रहे हैं।’ तुम तलाश रहे हो? तुम सिर्फ़ भाग रहे हो। कोई एक अगर मुमुक्षु है तो वो परमात्मा है। मुक्ति उसको चाहिए। तुम्हें मुक्ति चाहिए क्या? ईमानदारी से बताना, तुम्हें मुक्ति चाहिए? अभी आपसे कहा जाए कि दस चीज़ें लिखिए जो आपको चाहिए। उसमें मुक्ति किस नंबर पर आएगी? जल्दी बताइए!

(सामूहिक हँसी)

किसी दिन आप दफ़्तर में बैठे हों और कोई कहे कि ‘लिखो, जीवन में दस चीज़ें क्या चाहिए?’ एक से दस तक कहीं मुक्ति का स्थान आएगा? तो हमें थोड़े ही चाहिए मुक्ति; मुक्ति भी परमात्मा को ही चाहिए। इसीलिए कहा गया है कि आत्मा का स्वभाव है मुक्ति। परमात्मा की छवि बनाना मत और छवि बनाने का मन करे तो ऐसी बना लेना कि जैसे कोई बेहाल, थकी, कातर माँ खाने की थाली लेकर के एक उपद्रवी, शैतान छोकरे के पीछे भागती हो और वह कभी जीभ दिखाता हो, कभी अंगूठा, कभी मुँह बनाता हो, चिढ़ाता हो और भाग जाता हो, “मैं नहीं पकड़ में आने का!” वो हम हैं।

परमात्मा बेचारे की तो बड़ी दयनीय स्थिति है, करुणा का पात्र है। कभी किसी से बोलता है, 'खा लो!' किसी से बोलता है, 'बोल दो।' किसी से कहता है, 'सुन लो।' किसी से कहता है, 'जग जाओ।' जिससे कहेगा, ‘बोल दो’, वो कहेगा, ‘हऽऽऽ।’ जिससे कहेगा, जग जाओ, वो कहेगा, ‘हुऽऽऽ।’ सब उसे दुरदुराते रहते हैं और वो बेचारा ऐसे, ‘थोड़ी सी सुन लो न!’

बेकद्रे प्रेमियों को देखा है न? वो रात में दो बजे घर पर इंतज़ार कर रही है। ये संसार में मगन है, घर ही नहीं लौटना चाहते। वह इंतज़ार कर रही है कि, "आ जाएँ, ये घर नहीं आएँगे तो मुझे नींद कैसे आएगी।" पर ये संसार में मगन है।

परमात्मा भी ऐसा ही है। वो घर में बैठे इंतज़ार कर रहा है, “आ जाओ, वापस आ जाओ। घर आ जाओ न, कम बैक होम ।” और तुम कह रहे हो, "अरे साहब! दुनिया में क्या चाँदनी है, क्या रोशनी, मौज-ही-मौज है।"

और कोई घर पर इंतज़ार कर रहा है तुम्हारा। तुम लौटना ही नहीं चाहते और फिर घर आते हो और देखते हो कि इंतज़ार कर रहा है तो उसी पर चिंघाड़ते हो, “ये सब दबाव बनाने के तरीके हैं। ये नहीं चलेगा। हमारा इंतज़ार ना किया करो।” वो भोजन दिखाता है, तुम थाली उठा कर फेंक देते हो। तुम्हारा पेट तो संसार से भरा हुआ है। बाहर से ही खूब खाकर, चबाकर, पीकर आए हो। गाली-गलौज और करते हो घर पर।

पुराणों की कथाओं में मिठास बहुत है पर उनको मिष्ठान मात्र मत बना लीजिएगा, कि ‘आहाहा, क्या बढ़िया रसमलाई है!’ वो किधर को इशारा कर रही हैं, समझिएगा। जो गहन बातें सूत्रों के द्वारा कहने में भी मुश्किल होती हैं उन्हें कहानियों के द्वारा अभिव्यक्त कर दिया जाता है, और इसीलिए कथाओं ने जितना मानव के हृदय को स्पर्श किया है उतना सूत्र और सिद्धांत कभी नहीं कर पाए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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