प्रश्नकर्ता: नमस्ते, प्रशांत जी! तो मेरा ये सवाल था कि आपने आइआइटी निकाला है, आइआइएम निकाला है, आप सिविल सर्विसेज में भी रहे तो आपके जीवन में ऐसा कौन सा टर्निंग पॉइंट था जिससे आपने सोचा कि यार, अब मुझे संतोष नहीं मिल रहा है या क्या चीज़ थी जिसने आपको मोटिवेट (प्रेरित) किया टू गो इन टू द वैदांतिक कल्चर (वेदांतिक संस्कृति में जाना है) और लोगों का पथप्रदर्शन करने के लिए?
आचार्य प्रशांत: नहीं, ऐसा कोई विशेष टर्निंग पॉइंट या कोई ख़ास घटना नहीं थी। दुनिया जैसी है, तुम्हारी और मेरी शक्लें जैसी हैं ये तो साफ़-साफ़ दिखती हैं न? कोशिश न करो तब भी दिखती हैं। तो बस ये जो हमारे आस-पास की दुनिया है इसी को देखकर के ये स्पष्ट था कि जैसा चल रहा है मामला ऐसा चलने नहीं दिया जा सकता। बदलाव लाना पड़ेगा। बस यही। कोई ख़ास दुर्घटना नहीं हुई थी जीवन में। ब्रेकअप के बाद स्पिरिचुअल (आध्यात्मिक) नहीं हो गया था। (श्रोतागण ताली बजाते हैं)
प्र २: आचार्य जी, मेरा सवाल ये था कि आज हम सोशल मीडिया पर मोटिवेशनल (प्रेरक) वीडियो वग़ैरा देखते हैं। तो वो मोटिवेशन आधे घंटे-पौने घंटे में ख़त्म हो जाता। आपने आइआइटी निकाला, सिविल सर्विस के एग्जाम निकाली और आज आप नेशनल बेस्ट सेलिंग ऑथर (सबसे ज़्यादा बिकने वाली पुस्तकों के लेखक) भी हैं।
तो आपने आपका मोटिवेशन कैसे कांस्टेंट (नियत) रखा? और आप हर साल नयी-नयी किताबें निकालते हैं। आपका क्या मोटिवेशन (प्रेरणा) है?
आचार्य: नहीं, हर साल नहीं निकलती। लगभग हर हफ़्ते निकलती हैं (श्रोतागण ताली बजाते हैं)। और ये मैं कोई अपने बड़प्पन में नहीं बोल रहा हूँ। ऐसा तथ्य है इसलिए बता रहा हूँ।
देखो, जैसे बाज़ार की हर चीज़ तुम्हें थोड़ी देर संतुष्ट करके फिर तुमको बेचैन रखने के लिए है ताकि तुम लौटकर आओ बाज़ार में। उसी तरीक़े से ये मोटिवेशन वग़ैरा का बाज़ार है। वास्तव में, एक जो शॉपिंग माॅल होती है वो और ये जो मोटिवेशन का गर्मागर्म बाज़ार है, ये दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं। वो शॉपिंग मॉल बिना मोटिवेशन की दुकान के चल नहीं सकती। और मोटिवेशन वाले सब जो हैं वो काम यही करते हैं कि तुम्हें मोटिवेट करते हैं बार-बार शॉपिंग मॉल के पास लौटकर जाने के लिए। ये दोनों चीज़ें चाहिए होती हैं।
और ये सबकुछ कुल मिलाकर के इसलिए है ताकि तुम्हें सच्चाई से दूर रखा जा सके। और सच्चाई ये है कि जैसे हम जी रहे हैं और जैसी दुनिया की बाज़ारें हैं इसमें तुम्हें कोई संतुष्टि मिलने नहीं वाली है।
ये जो पूरा तंत्र है और पूरी व्यवस्था है और जितनी हमारी ज़िंदगी की संस्थाएँ निर्मित कर दी गयी हैं ये सबकुछ हमें बेवकूफ़ बनाने का आयोजन है। जो लोग बुज़ुर्ग हो जाते हैं उनको धीरे-धीरे ये बात समझ में आने लगती है पर वो फँस चुके होते हैं। वो कुछ कर नहीं सकते।
चालीस-पचास की उम्र के बाद न, तुम्हें खटका होने लगता है कि कुछ तो गड़बड़ है; जैसा मुझे बताया गया था ज़िंदगी वैसी नहीं है। चीज़ें उस तरह की है ही नहीं जैसा कहानियों में में होती हैं।
पर क्या करोगे? तब तक इतना ज़्यादा तुम निवेशित, इनवेस्टेड हो चुके होते हो ज़िंदगी में कि तुम कहते हो, ‘अब कदम वापस कैसे खींचें?’ और जवान लोगों को उनको हँसी-ठठ्टे और काम वासना से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती। तो वो ज़िंदगी पर कुछ ग़ौर करे न?
तुम्हारे लिए मनोरंजन ही मनोरंजन के कितने साधन हैं। तुम्हें हँसाने वाले और उत्तेजित करने वाले ही लोग तुम्हारे आस-पास बहुत मौजूद हैं। जब इस तरीक़े की नशे की सामग्री तुम्हारे आस-पास ही रखी हुई है तो तुम्हें होश आयेगा कहाँ से?
जिस आदमी की बगल की सीट पर हमेशा दो बोतलें तैयार रहती हैं, यही उसकी संगति है। अब बस, उन बोतलों के नाम हैं: सुरेश और महेश (श्रोतागण हँसते हैं)। वो उसके जिगरी यार हैं, बेस्ट फ्रेंड्स हैं। कहाँ से होश आएगा?
कुछ समझ में आ रही है बात?
क्यों चाहिए होता है मोटिवेशन (प्रेरणा), भाई? जब कुछ ऐसा काम कर रहे होते हो जिसको तुम समझते ही नहीं, जिस काम को तुम समझ जाते हो उसके लिए मोटिवेशन थोड़े ही चाहिए; उसके लिए तो हक़ीक़त काफ़ी है।
तुम ट्रेन पकड़ने जा रहे हो और तुम दौड़ रहे हो, ठीक है? अपनी गाड़ी तेज़ी से चला रहे हो। उसके बाद गाड़ी—जाओगे—पार्क करोगे। और उसके बाद सामान उठा करके भागते हुए प्लेटफ़ार्म की तरफ़ जाओगे। फिर प्लेटफ़ार्म पर भी भागोगे अपने डब्बे तक पहुँचने के लिए। बीच-बीच में रुक जाते हो और मोटिवेशनल वीडियो देखते हो? (श्रोतागण हँसते हैं) कि अब मोटिवेशन नहीं बचा ट्रेन पकड़ने का। फिर कोई आता तुमसे बोलता है, 'तू कर तुझसे होगा।' (श्रोतागण ताली बजाते हैं)
ऐसा होता है क्या? वहाँ तुम्हें मोटिवेशन नहीं चाहिए होता। वहाँ तुम्हें घड़ी चाहिए होती है। द फ़ैक्ट इज़ इनफ , तथ्य काफ़ी है। क्योंकि तुम समझते हो कि तुम्हें क्या करना है और वो करने में क्या भूल हुई जा रही है। तुम्हें दोनों बातें पता हैं— तुम क्या चाह रहे हो और तुम्हें ये भी पता है कि तुम कहाँ पर हो।
मैं चाह रहा हूँ अपनी ट्रेन, अपने डब्बे तक पहुँचना और मुझे पता है कि चार मिनट बचे हैं और बहुत पीछे हूँ। किसको चाहिए मोटिवेशन ? किसको चाहिए? मोटिवेशन उनको चाहिए जो कोई काम बिलकुलअंधे होकर कर रहे हैं।
तो भीतर से कोई ललक कोई ऊर्जा है ही नहीं। लेकिन डर के मारे वो काम करना भी पड़ रहा है। पापा पीट देंगे। तो क्या करें? तो फिर वो अपनेआप को वही डोपामीन शॉट देते है। कैसे? विडियो देखकर के। कि अच्छा—ये मोटिवेशन की किताब पढ़ ली। ये वीडियो देख लिया। उससे थोड़ी देर के लिए थोड़ी ऊर्जा आ जाती है। और वो थोड़ी देर के लिए आएगी।
वह वैसे ही है जैसे तुम किसी गाड़ी को बाहर से धक्का दे दो। इंजन उसका चल नहीं रहा है, बाहर से धक्का दे रहे हो। कितनी आगे जाएगी? कितना आगे जा सकती है?
मैं कहा करता हूँ कि असली मोटिवेशन वो होता है जैसा कृष्ण ने अर्जुन को दिया था। वो है मोटिवेशन और उसका नाम होता है ज्ञान। उसका नाम होता है समझदारी। वहाँ भी वो उसको कुछ करने के लिए बोल रहे थे। वो कर नहीं रहा था।
सामने बहुत बड़ी सेना खड़ी है, लड़ाई करनी है और आपका जो प्रमुख योद्धा है वो ऐन मौक़े पर बिलकुल लुचुरपुचुर हो रहा है। वो कह रहा है, ‘मैं नहीं लड़ूँगा, मुझे भागने दो। यहाँ कहाँ फँस गया? मुझे लड़ाई करनी ही नहीं है’। तो उन्होंने ये थोड़े ही कहा था उससे, ‘तू कर, तू कर सकता है'। ऐसा बोला था उन्होंने उसको? बोला था? यू कैन विन (तू जीत सकता है)।
ऐसा तो कभी बोला ही नहीं कि तुम लड़ो तो तुम जीतोगे ज़रूर; एक बार भी नहीं बोला। तो कैसे जिताया उसको? उसको बस समझाया कि ये युद्ध वास्तव में क्या है। एक बार वो समझ गया कि युद्ध क्या है, उसके बाद उसे बोलने की ज़रूरत नहीं होती है कि तुम लड़ाई करो। उसको ये ललचाने की ज़रुरत भी नहीं पड़ती है कि जीत जाओगे तो क्या-क्या मिलेगा। बल्कि उल्टा हो गया। उसको तो निष्काम कर्म बोला।
निष्काम कर्म समझते हो? जहाँ तुमको पता भी नहीं होता कि जो तुम कर रहे हो उससे क्या मिलेगा? किसको मिलेगा? न पता होता है, न परवाह करते हो। इसको कहते हैं निष्काम कर्म।
तो उसको ये नहीं बोल रहे हैं कि तू लड़ाई कर। तुझे सोने का मुकुट मिलेगा। विजुलाइज (कल्पना) कर जीतने के बाद कैसे-कैसे मज़े आने वाले हैं। सारी अप्सराएँ तेरी हो जाएँगी। विजुलाइज करो। विजुलाइज करो कि सक्सेस (सफलता) के बाद क्या-क्या मिलेगा।
ऐसा कुछ करवाया कृष्ण ने अर्जुन से? कुछ भी नहीं। बस, सीधी-साधी ज़मीनी हक़ीक़त— ‘ये ज़िंदगी है, ये तुम हो, अर्जुन! झूठा अहंकार ये होता है, सच्ची आत्मा ये होती है’। इतना बताना काफ़ी है। और उसके बाद फिर जो होना था वो हुआ।
और उस युद्ध में ये भी हो सकता है कि अर्जुन की हार हो जाती। बहुत सारे ऐसे युद्ध हुए हैं जिसमें जो सही पक्ष है वो हारा भी है। लेकिन उससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इतना काफ़ी है कि जो सही काम था वो किया जो सही लड़ाई थी वो लड़ी। अंजाम जो हुआ सो हुआ। कौन सा मोटिवेशन चाहिए? जिस किसी को तुम देख लो कि उसे मोटिवेशन की ज़रूरत है, समझ लो, आदमी ज़रा हल्का है ये। इसकी ज़िंदगी में कोई गहराई नहीं है। और इसको बुरा नहीं लगता जब इसे कोई बेवकूफ़ बनाता है। क्योंकि सबसे पहले तो इसको बेवकूफ़ कौन बना रहा है? वो व्यक्ति जो स्क्रीन पर है, मोटिवेटर ( प्रेरक)।
वह मोटिवेटर हमेशा बोल रहा होता है, ‘जो कर रहे उसमें आगे बढ़ो, तुम कर सकते हो, ऐसा-वैसा। वो कभी तुमसे नहीं पूछता कि कर क्या रहे हो। तुम ऐसा कौन सा व्यर्थ का काम कर रहे हो जिसके लिए तुम्हें मोटिवेशन की ज़रुरत पड़ रही है? क्योंकि काम अगर सही होता तो काम ही जान बन जाता है। फिर मोटिवेशन नहीं चाहिए होता।
तुमने काम ही ग़लत उठा लिया है। तुमने काम ही अपने अंधेपन में या सामाजिक दबाव के कारण उठा लिया है। ‘हर कोई किसी एँट्रेंस एग्जाम (प्रवेश परीक्षा) की तैयारी कर रहा है तो मैं भी करूँगा। अब तुम्हारा दिल तो है नहीं उसमें, तो फिर तुम्हें मोटिवेशन चाहिए होता है। जब काम ही ग़लत उठाया है तो मोटिवेट होकर भी क्या होगा? और जब काम ग़लत उठाया है तो बहुत सारे मोटिवेशन की ज़रूरत पड़ती ही पड़ती है।
सही ज़िंदगी जियो। वो अपनेआप में सबसे बड़ा डोपामीन शॉट होती है। वेदांत उसको प्रसन्नता या हर्ष भी नहीं बोलता। वो उससे आगे का नाम देता है— आनंद। आनंद चीज़ दूसरी है। वो ख़ुशी से बहुत ऊपर की बात है। और वो सही ज़िंदगी जीने का पुरस्कार होती है।
पता नहीं चलेगा तुम्हें कि कोई आदमी ख़ुश है। तुम बता सकते हो खुश क्यों है? अभी सौ रूपए मिल गए कहीं गिरे हुए, खुश है। कोई आदमी आनंदित है। बता भी नहीं पाओगे आनंदित क्यों है। ख़ुशी की वजह होती है। आनंद अकारण होता है। लेकिन वो तभी मिलता है जब ज़िंदगी सही जियो। और उसके ऊपर कोई चीज़ होती नहीं, ज़िंदगी में। दूसरी भाषा में उसे प्रेम कहते हैं।
एक, मैं कह रहा हूँ तुम्हें पता होना चाहिए कि क्या करना है तब मोटिवेशन की ज़रूरत नहीं पड़ती। और उसी को दूसरे शब्दों में प्रेम कहते हैं। अगर प्रेम तुमसे काम करवा रहा है तब भी मोटिवेशन की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। पर असली प्रेम; वो लड़की-लड़के वाले की बात नहीं हो रही।
वह अपनेआपमें सबसे ऊँची प्रेरणा बन जाता है। उससे अथाह ऊर्जा अपनेआप उठती है। फिर ये नहीं कहोगे कि अरे, अब आगे कैसे बढें? अब थक गए। चलो, सो जाते हैं। अब कल पढ़ाई कर लेंगे।
फिर वो सब नहीं होती बातें। हमारे पास दोनों की कमी है— न समझ है, न प्रेम है। तो फिर हमें क्या चाहिए? ‘कम ऑन , उठ! भाग! चल! फिर उड़कर दिखा!' (श्रोतागण हँसते हैं) और तुम उड़ ही लिए।
“कबीरा मन पंछी भया, उड़के चला आकाश। ऊपर से ही गिर पड़ा, मन माया के पास।।”
बहुत ज़ोर से उड़े, धड़ाम से गिरे। और जब जितनी ज़ोर से गिरते हो फिर उतनी ज़ोर से कहते हो— और मोटिवेशन चाहिए। ये एडिक्शन (व्यसन) है।