प्रश्नकर्ता: गीता के सातवें अध्याय में प्रकृति के बारे में समझाने के लिए धन्यवाद। अपरा-प्रकृति के आठ पदार्थों के बारे में जानकर अपने भीतर कुछ बदलाव आया है, कृपया अब इस विषय को और गहराई से बताइए।
दसवें अध्याय के बाईसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि, "मैं भूतों में चेतना हूँ।" चेनता का अर्थ मेरे लिए है अनुभव करने की एक व्यवस्था। मेरे अनुसार जो भी अनुभव होता है वह कितना भी स्थूल और भौतिक हो, हो ही इसलिए पाता है क्योंकि उसकी एक इमेज़ या छवि मन के पर्दे पर बनती है। अगर यह छवि नहीं बने तो अनुभूति नहीं होती। तो यह सूक्ष्म छवि, स्थूल पदार्थो से ज़्यादा महत्वपूर्ण और बुनियादी है। इस छवि के उत्तर में पुरानी एकत्रित सूचना से, डेटा से कुछ ऊपर आ जाता है अर्थात चेतना की सतह पर आ जाता है। यह मेरे स्तर की चेतना है और यह बहुत मशीनी है, एक कंप्यूटर एप्लीकेशन की तरह। श्रीकृष्ण किस चेतना की बात कर रहे हैं? कृपया चेतना और पदार्थ के अंतर को और स्पष्ट कीजिए।
आचार्य प्रशांत: दसवें ही अध्याय में चेतना के बारे में कुछ बातें स्पष्टता से समझा रहे हैं श्रीकृष्ण। सबसे पहले वह यह कह रहे हैं कि जिसको आप जड़ और चेतन कहते हो, जंगम और स्थावर कहते हो, चर-अचर कहते हो, वो एक हैं उनको अलग मत जान लेना।
"भूतों में चेतना हूँ।" भूत माने तो पदार्थ। अब आपको इसपर आश्चर्य होना चाहिए कि कह रहे हैं कि, "मैं पदार्थो में चेतना हूँ।" हाँ, पदार्थों में ही जो सबसे सूक्ष्म पदार्थ है उसको चेतना कह रहे हैं। वह कह रहे हैं चेतना भी है तो पदार्थ ही, मटीरियल ही है और यह बात बिलकुल ठीक है। हमारी चेतना क्या मस्तिष्क से अलग होकर रह सकती है? आप अपने-आपको बहुत चैतन्य जानते होंगे, अभी मस्तिष्क पर एक डंडा पड़ जाए, कहाँ गई चेतना? खत्म हो गई न? और मस्तिष्क क्या है? भौतिक, पदार्थगत ही है न? भूतों से ही बना हुआ है। तो हमारी चेतना तो भौतिक ही है, भूतों पर ही आश्रित है। और यही इस चेतना की विवशता है, यही इसका रोना है कि यह आश्रित है पदार्थ पर। चूँकि यह पदार्थ पर आश्रित है इसीलिए पदार्थ को ही देख पाती है। यह इसकी स्थिति है और यही, मैं कह रहा हूँ इसका रोना है, देख पाती है पदार्थ को और पदार्थ से इसकी प्यास बुझती नहीं।
इसीलिए संतो ने, जानने वालों ने कुछ बहुत बेबूझ बातें कही, समझ में ही ना आएँ ऐसी। वो कहते हैं कि उस दिन समझोगे जिस दिन बिना पाँव के चलने लगोगे, उस दिन समझोगे जिस दिन बिना आँख के देखने लगोगे, उस दिन समझोगे जिस दिन बिना कान के सुनने लगोगे, उस दिन समझोगे जिस दिन समझने के लिए मन का इस्तेमाल नहीं करोगे, मन माने यहाँ मस्तिष्क। जब मस्तिष्क का इस्तेमाल किए बिना समझ जाओ तब समझे। जब आँखों का प्रयोग किए बिना देख लो तब देखा तुमने।
और इसी बात को उल्टे तरीके से भी कहते हैं कि जो सच है उसे आँखें देख नहीं सकती, जो सच है उस तक चलकर कदम जा नहीं सकते, जो सच है उसका ज़िक्र ज़ुबान कर नहीं सकती, जो सच है उसे कान सुन नहीं सकते। और-तो-और छोड़ दो, अवतार, जो सशरीर हैं, जो देह-युक्त हैं उनके बारे में भी ऐसी ही बात कही गई है।
तुलसीदास रामचरितमानस में रामचन्द्र का कुछ ऐसे ही वर्णन करते हैं। कहते हैं बिना पाँव के चलते हैं वो। यह सब प्रतीक हैं, इनका अर्थ समझिए। बोध तभी हो सकता है, असली घटना तभी घट सकती है जब वह शरीर पर आश्रित ना हो, जब तक शरीर पर आश्रित है तब तक बात बनेगी नहीं। इसीलिए देहाभिमान को मूल व्याधि माना गया है। हमारा अहं देह से जुड़ गया है और इसीलिए मुक्ति भी और कुछ नहीं है, यही है — विदेह हो जाना। जो देह की घटनाओं को अपनी घटना मानना छोड़ दे वह मुक्त हो गया। विदेह-मुक्त कहते हैं उसको। देह में जो कुछ हो रहा है उसे अपना मानना छोड़ दे और देह में मस्तिष्क भी सम्मिलित है।
मस्तिष्क में क्या है? विचार हैं, भावनाएँ हैं, बुद्धि है, स्मृति है। शरीर की पूरी व्यवस्था ही मस्तिष्क से संचालित हो रही है। जो मस्तिष्क की घटनाओं को अपना मानना छोड़ दे, जो मस्तिष्क से दूरी बना ले गया वह मुक्त हो गया। तब समझो कि तुम पूर्ण चैतन्य हुए, नहीं तो जो हमारी चेतना है उसको जड़ ही मानना चाहिए। जड़-चेतन का जो अंतर हमने बना रखा है वह झूठा है।
हम कह देते हैं कि हम चेतन हैं, पत्थर जड़ है, हम ऐसे ही सोचते हैं न? हम चेतन हैं और पत्थर जड़ है। अब पत्थर पदार्थ है न? पत्थर पदार्थ है, अच्छा, ठीक है। मान लो कि वह जो पत्थर है वह शक्कर का है और तुम अच्छी तरह जानते हो कि शक्कर जब शरीर में जाती है तो मस्तिष्क पर उसका असर पड़ता है। मस्तिष्क थोड़ा खुशनुमा महसूस करने लगता है अगर कोई मीठी चीज़ अन्दर चली जाए। इसीलिए मेहमानों को मीठा परोसने की परम्परा रही है।
तुम जिसका मन थोड़ा प्रसन्न करना चाहो, जिसका मूड तुम अच्छा करना चाहो, उसे मीठा खिला दो। तो जब तक तुम्हारे सामने वह गुड़ जैसा कुछ रखा हुआ है, या शक्कर का बहुत बड़ा ढेला रखा हुआ है तुम बार-बार बोलोगे, "यह क्या है? जड़ है, यह तो जड़ है, यह तो जड़ है", अच्छा ठीक है। अब उसी जड़ चीज़ को ज़रा इस चेतन चीज़ में प्रविष्ट करा दो फिर देखो क्या होता है। तुम्हारी चेतना बदल गई न। थोड़ी देर पहले मुँह लटकाए घूम रहे थे, अब आइसक्रीम खा ली मीठी-मीठी, कस्टर्ड खा लिया, अभी कैसे हो गए हो? बोलो, कैसे हो गए हो? चेतना बदल गई न? अगर जड़ और चेतन में इतना अन्तर होता तो जड़ के भीतर जाने से चेतन कैसे बदल जाता? पदार्थ की प्रतिक्रिया तो पदार्थ के साथ ही होगी न, बोलो? अणु-परमाणु, अणु-परमाणु से ही तो प्रतिक्रिया करेंगे। अगर जड़ के भीतर जाने से चेतन बदल गया तो इसका अर्थ है कि जड़ और चेतन एक ही हैं भाई।
अरे, यह क्या हो गया। हम तो अपने-आपको बड़े गर्व के साथ कहते थे कि हम तो कोंशियस हैं, चेतन हैं पर यह तो पता चल रहा है कि हम जड़ पदार्थ भर हैं। जैसे शक्कर का ढेला वैसे ही हम। उसपर भी चीज़ें प्रतिक्रिया कर जाती हैं, हमपर भी चीज़ें प्रतिक्रिया कर जाती हैं।
चलो, और करीब का उदरहरण ले लो। इंजेक्शन में जो भरा होता है वह जड़ पदार्थ होता है या कोई चैतन्य वस्तु होती है? जड़ पदार्थ ही होता है। पर वही इंजेक्शन तुम को लगा दिया गया और तुम मनोरोगी हो, मान लो तुम डिप्रेशन के मरीज़ हो — आजकल सब डिप्रेशन के ही मरीज़ हैं। बड़ा चलन है — तो वह तुमको लगा दिया जड़ पदार्थ और तुम्हारा डिप्रेशन कम-से-कम थोड़ी देर के लिए छूमंतर। तो यह क्या हुआ? जड़ पदार्थ ने तुम्हारी मन की पूरी दशा बदल दी, बदल दी कि नहीं बदल दी? तो इसका मतलब यह मन की दशा भी क्या है? जड़ ही तो है न? क्योंकि जड़ प्रतिक्रिया किससे करेगा? जड़ से ही तो करेगा। लो! यह जो तुम खाना खाते हो इसको तुम क्या बोलते हो? चेतन बोलते हो, जड़ बोलते हो?
श्रोतागण: जड़।
आचार्य: पर वह जब अंदर आ जाता है तो तुम बोल देते हो, "मैं तो चेतन हूँ"। और यह शरीर बना पूरा-का-पूरा किससे है? जड़ पदार्थ से।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं — बाज आओ, बाज आओ, इस ग़लतफ़हमी से बाहर आओ कि तुम चैतन्य हो, चैतन्य बस वो है जो शरीर से दूर हो गया। जिसका देहाभिमान मिटा उसको सिर्फ़ अधिकार है कहने का कि, "मैं चैतन्य हूँ", बाकि सब जड़ हैं, बाकि सब मिट्टी, पत्थर, पानी हैं। हम बिलकुल वैसे ही हैं जैसे मिट्टी का कोई ढेला, हम बिलकुल वैसे ही हैं जैसे पानी की कोई बूँद। उनका अपने ऊपर कोई अधिकार नहीं होता न? वैसे ही हमारा भी अपने ऊपर कोई अधिकार नहीं है। हमारा है अपने ऊपर कोई अधिकार? अभी कोई आकर दो-चार गाली दे दे फिर देखो कैसे लाल हो जाएँगे। जैसे कोयले का अपने ऊपर कोई अधिकार नहीं होता, उसे आग में डाल दो, लाल हो जाता है न? वैसे हमें भी कोई गाली दे दे, हम लाल हो जाते हैं तो हमारा कहाँ अधिकार है अपने ऊपर।
हम क्या हैं? जड़। अब कोई आकर के बोल दे 'जड़बोंग', तो कितना बुरा लगता है पर यहाँ तो कृष्ण भी यही कह रहे हैं कि तुम जड़ हो। जड़ माने वह जो जीवित है ही नहीं क्योंकि जीवन का सम्बंध ही चेतना से है, हम चैतन्य हैं ही नहीं। हम जड़ हैं। या ऐसे कह लो कि हम जिसे चेतना समझते भी हैं वह जड़ता ही है और इसी तरीके से फिर जिसे हम जड़ कह रहे हैं वह जड़ नहीं है उसको भी या तो चेतन मानो।
अब आपको समझ में आएगा कि भारत में क्यों सब जड़ पदार्थों की पूजा हुई। यह बड़ी होशियारी का काम था। भारत ने कहा — देखो भाई! हम अपने-आपको तो चेतन मानते ही हैं, और हमें यह भी दिख गया है कि हम हैं मिट्टी, पानी, पहाड़ जैसे ही। और हमें यह भी दिख गया है कि जो हम हैं वही मिट्टी-पानी हैं। हम अपने-आपको चेतन मानते हैं और हमे यह भी दिख गया है कि जो हम हैं वही पहाड़ है, वही पेड़ है, वही मिट्टी है। अपने-आपको तो चेतन मानते हैं तो फिर उनको भी हमें चेतन मानना ही पड़ेगा न? अब दो विकल्प हैं। या तो यह कह दो कि, "हम भी जड़ हैं" या यह कह दो कि, "वो भी चेतन हैं"।
तो हमने कहा कि, "देखो यह तो गड़बड़ हो जाएगी कि हम यह कह दें कि हम जड़ हैं। वह हमसे किया नहीं जाएगा, कैसे मान लें कि हम जड़ हैं? और हम इसलिए भी नहीं कहेंगे कि हम जड़ हैं क्योंकि हमें विशुद्ध चैतन्य की प्यास तो है ही न। भले ही जड़ता हममें भरपूर हो लेकिन ऊच्चतम चेतना की प्यास तो हममें है ही, तो देखो हम अपने-आपको तो चैतन्य ही मानेंगे। लेकिन अपने-आपको चैतन्य मानेंगे तो ईमानदारी की बात यह है कि फिर हम यह भी नहीं कहेंगे कि पत्थर जड़ है। फिर हम यह भी मानेंगे कि अगर मैं चैतन्य हूँ तो पत्थर भी चैतन्य है।"
फिर भारत ने सबकी पूजा की। पत्थरों की पूजा कर डाली, पहाड़ों की पूजा कर डाली। कोई चीज़ बताओ जिसकी यहाँ पूजा नहीं होती? और उसके पीछे अंधविश्वास नहीं है, उसके पीछे गीता का दसवाँ अध्याय है। कि "पार्थ! जड़-चेतन अलग-अलग नहीं है, ग़लतफ़हमी में मत जीना।" पूरी तरह जड़ कुछ है नहीं, और पूरी तरह चेतन वह हुआ जो शरीर भाव से मुक्त हो गया। शरीर भाव से मुक्त तो यहाँ कोई दिखता नहीं न, तो सब पत्थर, पानी जैसे ही लोग हैं।
आज के ही किसी प्रश्न में क्या किसी ने ऐसा लिखकर भेजा है — वी आर व्हाट वी ईट (जैसा हम खाते हैं, वैसे ही बन जाते हैं)? नहीं? तो कहीं और पढ़ लिया होगा।
किसी ने शायद यूट्यूब पर टिप्पणी की है या कुछ ऐसा है कि "आप तो बार-बार बात करते हैं मुक्ति की लेकिन बहुत लोग तो शरीर की ही बात करते रहते हैं, वो कहते हैं भोजन ठीक करो, शरीर पर ध्यान दो, जैसा अन्न वैसा मन। तो यह क्या बात है?"
मैं कह रहा हूँ — जैसा अन्न वैसा मन, तो फिर यह मन बड़ा मजबूर मन होगा। अगर शरीर की स्थिति आपकी स्थिति बन गई तो फिर तो आप खत्म हो जाएँगे। और अगर आप वही हैं जो आप सब कुछ खाते हैं तो मुझे बताइए कि सुकरात ने जब ज़हर पिया था तो क्या सुकरात ज़हरीले हो गए थे? आध्यात्मिक हल्कों में आजकल यह सब भी बहुत प्रचलित है कि तुम अगर अपने देह पर ध्यान दे दो, और अपने भोजन पर ध्यान दे दो तो मुक्ति तो समझ लो हो ही गई अस्सी प्रतिशत। और इससे ज़्यादा मूर्खता का कोई सिद्धांत हो नहीं सकता।
आजकल गुरु लोग हैं जो सबसे ज़्यादा भोजन की ही बात करते हैं, भोजन और शारीरिक चीज़ें, भौतिक चीज़ें। सुकरात ने ज़हर पिया था, तो अन्न उस वक़्त उनका क्या हो गया है? ज़हर। शरीर पूरा ज़हरीला हो गया है, शरीर ज़हरीला हो गया, क्या सुकरात भी ज़हरीले हो गए थे? हो गए थे क्या?
मंसूर का शरीर खंडित किया जा रहा था, क्या मंसूर भी खंडित हो गए थे? चेतना खंडित हो गई थी उनकी? तो ये बेवकूफी की बात है कि तुमने अगर भोजन पर ध्यान दे लिया तो सब ठीक हो जाएगा। मैं भोजन की उपयोगिता से इन्कार नहीं कर रहा, मैं नहीं कह रहा कुछ भी खाओ लेकिन मैं इस अंधविश्वास, इस रूढ़ि से आपको मुक्त करना चाहता हूँ कि अध्यात्म में भोजन कोई केंद्रीय बात है। सच तो यह है कि सुकरात ने जब ज़हर पिया उसके बाद उनका तेज और निखर गया।
अगर हम वही हैं जो हमारा अन्न है तो ज़हर पीने के बाद तो सुकरात को कैसा हो जाना चाहिए था? बिलकुल विषैला। ज़हर-बूझी बातें करते, कहते "ये नालायकों ने, कमीनों ने मुझको ज़हर पिला दिया है।" यही तो कहलाते हैं न ज़हर-बूझे शब्द। पर जब सुकरात ने ज़हर पी लिया, उसके बाद उनकी वाणी और ज़्यादा ओजस्वी हो गई थी। कौन कह रहा है?
अगर आप अपने अन्न पर ही आश्रित हैं तो बहुत मजबूर जीवन है आपका। और अगर आप अपनी देह पर ही आश्रित हैं तो आपसे बेबस कोई नहीं। इस भावना में बिलकुल मत रहिएगा कि भोजन इत्यादि नियंत्रित करके आप मुक्ति के पथ पर बहुत आगे निकल जाएँगे। हाँ, भोजन पर बिलकुल ध्यान देना चाहिए पर इस तरह ध्यान देना चाहिए कि, "क्या है जो मैं सिर्फ़ इंद्रियों के भोग के लिए खा रहा हूँ, और क्या है जो शरीर के लिए आवश्यक है?" फिर वह मन के अनुशासन का अंग बनता है न? क्योंकि मन अगर चटपटी चाट की ओर आकर्षित हो रहा है तो फिर वह चटपटी खबरों की ओर भी आकर्षित होगा।
तो भोजन पर इस दृष्टि से अनुशासन रखना चाहिए। अन्यथा तो शरीर स्वयं जानता है कि उसे क्या खाना है। आध्यात्मिक साधना शरीर को और ज़्यादा परिष्कृत करने की नहीं है, आध्यात्मिक साधना शरीर को उसके हाल पर छोड़ देने की है। तुम शरीर को कितना परिष्कृत कर लोगे भाई? जिन लोगों ने शरीर की बहुत शुद्धि भी कर ली, सुबह-सुबह उनके शरीर में क्या भरा रहता है? मल। लो! ये तो जीवन भर शरीर को शुद्ध कर रहे थे और शरीर में भरा हुआ है तीन किलो दहकता हुआ मल। क्यों भाई तुमने तो भूत शुद्धि कर ली थी न? यह सड़ा हुआ मल कहाँ से आ गया तुम्हारे भीतर? शरीर को तुम कितना भी साफ कर लोगे वह मल, मूत्र, दुर्गन्ध का अड्डा रहेगा ही रहेगा। उसमें मौत बैठी हुई है भाई! जहाँ मौत बैठी हुई हो, वह जगह क्या दैवीयता से परिपूर्ण हो जाएगी कभी?
रमण महर्षि आधुनिक युग में ज्ञानयोग के सबसे ऊँचे ऋषि हुए। और रामकृष्ण परमहंस भक्ति मार्ग के सबसे ऊँचे शिखर हुए। और ज्ञान और भक्ति दोनों के ही उच्चतम पदों पर आसीत इन दोनों विभूतियों के शरीरों को कैंसर हुआ, दोनों को कैंसर हुआ। शरीर की तो ये जात है। तुम रमण महर्षि हो चाहे तुम रामकृष्ण हो, शरीर में तो कैंसर बसा हुआ है। या तो तुम यह बोल दो कि दोनों के शरीर में कुछ खोट थी, खोट कुछ नहीं थी, शरीर ऐसा ही है — मल, मूत्र, दुर्गन्ध, बीमारी। क्या करोगे शरीर की सफाई कर-करके, कर-करके?
साहब हमारे बता गए हैं —
"नहाए-धोए क्या भया, जो मन मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे, धोए बास न जाए।।"
क्या तुम लगे हुए हो कि बाहरी सफाई, कि आंतरिक सफाई।
हमारे यहाँ लोग आते हैं, वह दूसरी आध्यात्मिक संस्थाओं से भी उठ-उठ कर आ जाते हैं। तो यहाँ आएँगे, यहाँ देखेंगे तो कहेंगे — यहाँ भोजन पर कोई नियंत्रण, नियम है ही नहीं। यहाँ एक ही नियंत्रण है बस — माँस, मछ्ली, अंडे की बात मत कर लेना, ना दूध से बने किसी पदार्थ की। उसके अलावा जो करना है करो, हम नहीं पूछते। बोलते हैं, "लेकिन प्याज़?" हमने कहा, "उसका कुछ नहीं।" बोलते हैं, "इससे यह होता है, उससे वह होता है, शरीर की शुद्धि तो बहुत आवश्यक है न।" तो हम कहते हैं, "ठीक है कर लो शरीर की शुद्धि। प्याज़ नहीं बगेगा, ठीक है मत बनाओ। हमें प्याज़ से बहुत आसक्ति नहीं है, तुम नहीं चाहते यहाँ रसोई में बने, ठीक है नहीं बनेगी।"
शरीर की शुद्धि का बड़ा आयोजन है। चार महीने बाद उनके मन की औक़ात दिख जाती है। बहुत शुद्ध भोजन करते हैं, बहुत शुद्ध शरीर को भी रखते हैं, रोज़ नहाते हैं, और मन? उठ-उठ कर ब्रह्म-मुहूर्त में नहाते हैं, और मन?
यह बड़े-से-बड़ा अंधविश्वास है कि जैसा अन्न वैसा मन। कुछ रिश्ता है पर बहुत दूर नहीं जाता रिश्ता। शराब पियोगे, मन बहकेगा, कुछ रिश्ता है लेकिन बात तो तब है न जब सुकरात जैसे हो जाओ कि ज़हर पी रखा है लेकिन प्राण फिर भी तुम्हारे तेज से भरे हुए हैं।
अगर तुम्हारे चित्त की दशा तुम्हारे भोजन पर ही आश्रित है तो बताओ क्या करोगे अगर तुम्हें तुम्हारे अनुकूल भोजन नहीं मिला, तो फिर क्या करोगे? यह तो चित्त बिगड़ गया न तुम्हारा? यह तो बड़ी ग़ुलामी हो गई कि, "जब तक हमें अनुकूल भोजन नहीं मिलता तब तक हमारा चित्त स्थिर ही नहीं रहता", यह तो ग़ुलामी हो गई न कि नहीं हो गई? शरीर की शुद्धि अच्छी बात है पर उससे कहीं ज़्यादा अच्छी बात है शरीर से मुक्ति।
अच्छे से समझ लो। मैं शरीर को अशुद्धि में रखने का पक्षधर नहीं हूँ। मैं नहीं कह रहा हूँ कि नहाओ ही मत और सड़क पर जितना मैला-कुचैला पड़ा हो जाकर के खा लो, मैं यह नहीं कह रहा हूँ। मैं बस इस अंधविश्वास पर प्रहार करना चाहता हूँ कि शरीर की शुद्धि से ही मुक्ति मिल जाएगी, ना! शरीर की शुद्धि निश्चित रूप से अच्छी बात है पर उससे मुक्ति नहीं मिल जानी, यह बात अच्छे से समझ लो। मुक्ति नहीं मिल जानी क्या, मुक्ति की दिशा में शुद्धि बहुत दूर तक तुम्हें ले ही नहीं जा सकती।
ना शुद्धि ले जा सकती, ना ही अशुद्धि। क्योंकि शरीर को अशुद्ध रखना भी एक फ़ैशन है, एक प्रचलन है। आधुनिक अघोरी भी होते हैं। वो कहते हैं, "गंदा रखो शरीर को, यह जीवन के प्रति एक बहुत सशक्त वक्तव्य है हमारा कि हम तो गंदे रहते हैं।" कहते हैं, "हमें यह दुनियादारी की रस्में और नैतिकता से प्रेरित साफ़-सफ़ाई बिलकुल पसंद ही नहीं, तो हम तो गंदे रहेंगे।" ऐसे भी घूम रहे हैं।
नागा बाबा भी ये हैं और लिबरल हल्कों में चले जाइए वहाँ भी मिलेंगे। जो जगहें थोड़ा सा बाईं तरफ को झुकी हुई हैं, वाम-हस्त को, वहाँ भी यह खूब चलता है, ना नहाना और शराब छलकाए रहना और सिगरेट का छल्ला उड़ाना। वो कहते हैं, "यह सब शुचिता और सफ़ाई इत्यादि तो ब्राह्मणवाद है। हम उसका विरोध करते हैं, हम उसका विरोध करेंगे गंदे रह करके। तो हम नहाएँगे नहीं, शराब में डूबे रहेंगे, सिगरेट उड़ाते रहेंगे।" जब शरीर की शुद्धि से ही कुछ नहीं मिलने वाला तो पागलों शरीर की अशुद्धि से क्या मिल जाएगा?
शरीर वह चीज़ है जिसको बहुत साफ़ रखोगे तो भी कुछ हासिल नहीं होने वाला तो उसे गंदा रखकर क्या हासिल कर लोगे? कुल मिला-जुला कर बात यह है कि तुम शरीर को साफ़ रख लो चाहे गंदा रख लो, बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाओगे। ध्यान कहीं और लगाओ न। असली जगह ध्यान लगाओ, इतना ध्यान शरीर पर लगाना किसी काम का नहीं। ना तो यह ध्यान काम आएगा कि शरीर को साफ रखना है, ना यह ध्यान काम आएगा कि शरीर को गंदा रखना है।
समझाने वाले इसको समझा गए कि जड़ चीज़ में चेतना का पंछी फड़फड़ा रहा है। "दस द्वार का पिंजरा, तामे पंछी पौन, बंद रहे तो अचरज है, उड़े तो अचरज कौन।" यह पिंजरा है, पिंजरा कैसा होता है? जड़ ही होता है न? लोहे का होगा, ईंट-पत्थर का होगा। तो पुराने साहबों ने समझाया है कि यह दस द्वार का पिंजड़ा है, इसमें दस द्वार हैं, आँख, कान, मुँह ये सब। और इसमें पंछी बंद है, कौनसे पंछी की बात हो रही है? आत्मा की नहीं। उस चेतना की जिसका स्वभाव तो है आत्मा पर जो फँस गई है जड़ता में। जिसका स्वभाव क्या है? आत्मा का आकाश, और वह फँस गई है जड़ पिंजड़े में। "तामे पंछी पौन।" वह फँसा हुआ है और अचरज यह है कि वह बंद रह जा रहा है।
इस बात में अचरज मत मानना कि वह उड़ जाए, उड़ना तो है ही उसको, "उड़े तो अचरज कौन?" पंछी को पिंजरे पर उतना ही ध्यान देना है जितना पिंजरे से भागने के लिए चाहिए। पिंजरे में पंछी बंद है उसे पिंजरे पर ध्यान तो देना ही पड़ेगा, पर एक होता है पिंजरे पर ध्यान देना कि पिंजरे को चमका रहे हैं, रंग-रोगन कर रहे हैं - हम में से ज़्यादातर लोग पिंजरे के साथ यही करते हैं और खासतौर पर जो आध्यात्मिक हो गए वो तो खूब यह करते हैं। उनका सारा ध्यान ही शरीर पर जाने लगता है। तुम पगला गए हो? जिस पिंजरे में तुम क़ैद हो तुम उसकी साज-सज्जा कर रहे हो?
पंछी को पिंजरे पर निसंदेह ध्यान देना चाहिए, पर किस दृष्टि से? कि कैसे इसमें से निकल भागूँ, कौनसी तीली तोड़ूँ इसकी? कहाँ मिलेगी ताले की चाबी? इस दृष्टि से देखो पिंजरे को, इस दृष्टि से मत देखो कि यही तो घर है, इसी में तो रहना है।