शराबखाने में और वक़्त बिताने से होश में नहीं आ जाओगे || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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शराबखाने में और वक़्त बिताने से होश में नहीं आ जाओगे || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: सर, आपने बताया था कि हमारा मन इसीलिए परेशान रहता है क्योंकि उसको, उससे भी बड़ा कुछ चाहिए होता है| जो सामान्य विचार आते हैं, वो काफ़ी नहीं हैं कि उसको शांत कर पाए, उसको उससे भी बड़ा कुछ चाहिए, उसको उसके स्रोत की तलाश होती है| तो क्या है सर, जो उसका स्रोत है और उसे कैसे पाया जा सकता है?

वक्ता: पाना मन की उद्विग्न भाषा है| जो पाना शब्द है ना, ये तो यही बताता है कि मन अपने चक्र के भीतर ही है| देखो, हम क्या करते हैं, क्या पाया जा सकता है? मन जब कहता है ‘कुछ पाना है,’ तो क्या-क्या है, जो उसने पाया है और क्या-क्या है जो वो पाने की कल्पना कर सकता है? तुम ये पेन पा सकते हो, तुम ये शर्ट पा सकते हो, तुम ये टी.वी पा सकते हो, तुम ये दरवाज़ा पा सकते हो, तुम किसी व्यक्ति को पा सकते हो, तुम इज्ज़त पा सकते हो, तुम पैसा पा सकते हो, तुम घर पा सकते हो, तुम कोई औदा पा सकते हो, ये सब पा सकते हो|

श्रोता: पाने से मेरा मतलब है कि उस स्टेज पर पहुँच जाना, जहाँ मेरा मन ना भटके|

वक्ता: ठीक है, स्टेज माने अवस्था?

श्रोता: जी|

वक्ता: तुम किसी अवस्था पर पहुँच सकते हो| अब अवस्थाएं क्या होती हैं? अवस्थाएं जितनी होती हैं, मन की होती हैं ना, मन की दुनिया के भीतर ही तो होती हैं? तो जैसा ‘पाना’ शब्द है, ठीक वैसा ही ‘अवस्था’ शब्द है| तुम कह सकते हो कि, “मुझे मन की किसी दूसरी अवस्था में जाना है” और जो सारी अवस्थाएं हैं, वो हैं किसकी?

श्रोतागण: मन की|

वक्ता: है तो मन की ही ना? मन के बाहर की तो नहीं है? या कभी ऐसा कहता हो कि, “मैं मन को, मन के आगे की किसी अवस्था में ले जाना चाहता हूँ?” वो वैसी ही बात होगी कि, ‘’मैं अपनी कार को आसमान में उडाना चाहता हूँ|’’ तुम खूब इच्छा कर सकते हो कि, “मैं कार में घूमूं,” पर घूमोगे भी तो कहाँ घूमोगे? सतह पर ही घूमोगे ना? या तारामंडल में घूमोगे, कार ले कर के? सतह पर ही घूमोगे, अधिक से अधिक यह कर सकते हो कि रोड से उतार दोगे, खेत में चला लोगे|

श्रोता: फ्लाई-ओवर पर ले जाओगे|

वक्ता: फ्लाई-ओवर पर ले जाओगे, फ्लाई-ओवर से नीचे भी डाल सकते हो पर आकाश गंगा में तो नहीं उड़ाओगे| मन की कोई अवस्था ऐसी नहीं होती, जो दैवीयता को स्पर्श कर सके|

जो तुम पाना चाहते हो वो कोई पाने की वस्तु है ही नहीं, सिर्फ वस्तुएं ही पाई जा सकती हैं|

और ये बड़ा अहंकार है हमारा कि हम पाने की भाषा में बात करते हैं क्योंकि पाने की भाषा में बात करते ही हमने परमात्मा को भी वस्तु बना दिया|

हम कहते हैं, “जैसे हर चीज़ अपनी जेब में रख कर घूमते हैं, वैसे ही ‘उसको’ भी जेब में रख कर घूमेंगे; पाना है मुझे| ये पा लिया, ये पा लिया, अब वो भी पाना है|” पा कैसे लोगे? पाना शब्द ही गड़बड़ है, उसका आयाम ही उल्टा है| पाया नहीं जाता| मन जो हमेशा पाने की फ़िराक में रहता है, उसकी पाने की कोशिश से ज़रा अलग हुआ जाता है| उसके पाने की कोशिश पर जरा हँसा जाता है| और जब तुम हँस रहे होते हो, तो वो हँसी फिर तुम्हारी नहीं होती, वो हँसी उसकी होती है जिसे तुम पाना चाहते थे, पा लिया|

जब अपने पाने की कोशिश पर हँस लोगे, तो समझना कि पा लिया|

पर जिस दिन तक पाने की कोशिश है, उस दिन तक समझ पाने की कोई संभावना नहीं है|

श्रोता: सर जब तक वर्ल्ड से आशा है|

वक्ता: हाँ-हाँ, उम्मीद यही है तुम्हारी कि यहीं-कहीं छुपा ज़रूर है| किसी कुए में मिल जाएगा, किसी विदेशी बैंक के लॉकर में मिल जाएगा| “दुष्प्राप्य है, लेकिन प्राप्ति के बाहर नहीं है| कोशिश करूँगा, ज़ोर लगाऊंगा, तिकड़म लगाऊंगा, बुद्धि लगाऊंगा, तो पा जाऊँगा|”

श्रोता: सर, हमें बचपन से ही इस तरीके में कंडीशन किया गया है कि हमारा हमेशा कुछ ना कुछ माइंड में चलता ही रहता है, ये पाना है, वो पाना है| तो ये मतलब कभी-कभी बहुत मुश्किल फ़ील होता है कि मन समझता ही नहीं है|

वक्ता: छोटे-छोटे बच्चे थे वो लोग, जिन्होंने तुम्हें ये सब धारणाएं दे दी, बच्चे बच्चों को खेल खिला रहे थे, कुछ बच्चों के नाम होते हैं सोनू-मोनू, कुछ बच्चों के नाम होते हैं मम्मी-पापा| उनको गंभीरता से थोड़ी लेते हैं| बच्चा, बच्चे को ज्ञान दे रहा है, देखा है ना? छोटे बच्चे कई बार खेल खेलते हैं, तो उसमें लड़कियाँ मम्मी बन जाती है| और वो चार साल की बैठी है, वो मम्मी है, और वो औरों को खूब शिक्षा दे रही है, “शाम को घर टाइम पर आया कर, और तुम यहाँ आओ” तो वो ढेड़ साल का जो चिबिल्ला जो है, वो आ गया “तुम ठीक से खाना नहीं खाते,” और उसके कान खींच रही है और उसको सिरप पिला दिया| तो वैसे ही माँ-बाप होते हैं|

श्रोता: पर सर, वो भी गलत नहीं है, उन्होंने हम से कहीं ज़्यादा दुनिया देख रखी है तो उन्हें भी कई बार..

वक्ता: देखते रहो, सपने जितने देखने है, उससे क्या सीख लोगे? किसी ने दो घंटे सपने देखे, कोई आठ घंटे से देख रहा है, बल्कि जो आठ घंटे से देख रहा है वो ज़्यादा भ्रमित रहेगा|

श्रोता: उसकी और ज़्यादा स्ट्रोंग कंडीशनिंग|

वक्ता: कोई दो घंटे से पी रहा है, कोई आठ घंटे से पी रहा है, किसकी सुनोगे? किसकी सुनोगे?

तो ये तुम्हारा तर्क होता है कि उन्होंने दुनिया ज़्यादा देखी है| दुनिया क्या है? बेहोशी का अड्डा है| जितना अनुभव इकट्ठा करोगे उतनी तुम्हारी बेहोशी गहराएगी, उतने तुम्हारे संस्कार गहरएंगे, उतनी तुम्हारे नैतिकता गहराएगी| कभी सुना है कि कोई अस्सी साल में जा कर के बोध को प्राप्त हुआ? जिनकी आँख खुलती है बीस, पच्चीस, तीस में खुलती है; जितने बैठे हैं देखो उनको| तो क्या रखा है उम्र में और अनुभव में? पर जिनके पास उम्र और अनुभव के अलावा और कोई पूंजी ही नहीं है, वो क्या बोलेंगे? कि सबसे बड़ी बात क्या है? उम्र और अनुभव क्योंकि उनके पास उम्र और अनुभव के अलावा कुछ है ही नहीं| तो वो तुमसे कहेंगे, “देखो, अनुभव की इज्ज़त किया करो| अरे! हमने दुनिया देखी है, धूप में बाल थोड़ी सफ़ेद किए हैं|”पर कहीं भी सफ़ेद किए हों, क्या फ़र्क पड़ता है? बहुत लोग हैं जिनके बिना धूप के ही सफ़ेद रहते हैं! दिक्कत ये है कि आपके पास आपके वर्षों के अलावा और कुछ है नहीं| कोई आपसे पूछे कि, ‘’जिंदगी भर किया क्या?’’ तो आप कहेंगे, “समय गिना, जन्मदिन मनाए, अब साठ के हो गए, अब सत्तर के हो गए|” वो वर्ष खाली हैं, खाली हैं!

श्रोता: पर सर, ऐसा लगता है कई बार कि अंदर से सबको पता है पर नैतिकता में सब फंसा हुआ है|

वक्ता: तो क्यों फंसे हुए हो?

श्रोता: सर, बूढ़े लोग हैं और ये सब|

वक्ता: देखते नहीं हो ना, समझते नहीं हो| जितना तुम्हारा देह भाव गहरा रहेगा, उतना ज़्यादा तुम उम्र को इज्ज़त दोगे| सवाल ये नहीं है कि तुम्हारे भीतर ये संस्कार कहाँ से आ गया कि कोई बूढ़ा होते ही इज्ज़त का पात्र हो जाता है; सवाल ये है कि तुम अपनी देह को किस रूप में देखते हो? क्योंकि जो किसी दूसरे को इस कारण इज्ज़त देगा कि उसके बाल पक गए हैं, वो स्वयं भी यही अपेक्षा रखेगा कि, ‘’मुझे भी मेरी उम्र के अनुसार अब आदर मिले|’’

तुम्हारे मन से ये भावना हट जाए — दूसरे को छोड़ो — तुम्हारे मन से अपने लिए ये भावना हट जाए कि, “मैं शरीर हूँ, और मुझे मेरी उम्र के अनुसार व्यवहार मिलना चाहिए,” तो फिर तुम पूरे संसार को उसकी उम्र की मुताबिक नहीं देखोगे| तुम अपने आप को उम्र के मुताबिक़ देखते हो ना, इसीलिए पूरी दुनिया को उम्र के मुताबिक देखते हो| तुम कहते हो, “अभी तो मैं जवान हूँ, अभी तो मेरी ये उम्र है, वो उम्र है|” जब तुम अपने आप को कहते हो कि, ‘’मैं जवान हूँ. और जवान होने से ये निर्णय होता है कि मुझे क्या करना चाहिए,’’ तो तुम दूसरे को भी कहते हो कि, “अब ये जवान नहीं है और इसकी प्रौढ़ता से निर्णय होगा कि ये क्या करे?”

अपने आप को तो पहले जवान कहना बंद करो ना! पर जवानी के जितने मज़े होते हैं, वो तुम ले लेते हो, “अभी हम जवान है, अभी हमें जिम्मेदारी उठाने की क्या ज़रूरत है|” जब तुम अपने लिए एक पैमाने का उपयोग करके फायदे लूट रहे हो, तो उसी पैमाने की वजह से तुम्हें दूसरे को भी फायदे देने पड़ जाते हैं ना?

श्रोता: पैमाना ही हटाना होगा|

वक्ता: पैमाना ही हटाना होगा| अब अपने आप को जवान कहते हो; एक ओर तो अच्छे तरीके से समझते हो कि कामेक्षा क्या है? कामुकता क्या है? वंश वृद्धि क्या है? दूसरी ओर ये भी कहते हो कि, “अभी तो हमारा समय है; हम अभी नहीं सम्भोग करेंगे, तो कब करेंगे?” मन का एक हिस्सा है, जो कि जानता है कि नहीं, ये सब तो और नरक में ढकेलने वाली बातें है? तो करते भी हो और अपने ही प्रति घृणा से भर जाते हो, फिर कोई बूढ़ा दिखता है जो किसी काम क्रिया में उद्यत नहीं होता, क्योंकि उद्यत हो ही नहीं सकता| तो ज़ाहिर सी बात है कि उसके प्रति थोड़ा सम्मान उठता है तुम्हारे मन में, उसके प्रति सम्मान क्यों उठ रहा है? क्योंकि अपने प्रति तिरस्कार उठ रहा है|

“मैं कैसा कमीना, कल पूरी रात बिस्तर तोड़ता रहा, और ये देखो ये बाऊ जी हैं, ये खांस रहे थे बगल के कमरे में; ये कितने आदरणीय हैं| मेरे कमरे से ट्रेन की पटरी जैसी आवाज़ आ रही थी, जैसे ट्रेन चलती है खटर-खटर खटर-खटर, उनका खांसना सुनाई भी नहीं दिया ठीक से|” बड़ी ग्लानि उठती है, कहते हो, “लेट जाइए बाबू जी, थोड़ा पाओं दबा दे आपके|” ये सम्मान की भावना क्यों उठ रही है? क्योंकि अपने को ले कर के बड़ा दोहराव है, बड़ी घृणा है अपने आप से|

श्रोता: पर सर सवाल वही है कि मन है, तो विचार तो आएंगे ही| ठीक है! हमारे हाथ में है कि कैसे विचार लाना चाहते हैं|

श्रोता: अच्छा! (सब हँसते हैं)

श्रोता: कंडीशन की वजह से है सर, कंडीशन की वजह से हैं जैसे आना चाहते हैं वो आते हैं, जो हम लाना चाहते हैं, वो नहीं आते| बहुत विरोधाभासी बातें हैं|

वक्ता: नहीं, कोई विरोधाभास नहीं है| तुम कोई हो ही नहीं| तुम, तुम्हारे विचार हो; उसके अतिरिक्त तुम कुछ हो नहीं| ये दंभ मत रखना कि तुम चयन करते हो विचारों का, चयन करना भी अपने आप में एक विचार है| उसका चयन किसने किया? तुम कहते हो कि, “मेरी चॉइस है” मैं तुमसे पूछ रहा हूँ, डीड यू चूज़ यौर चॉइस? नहीं समझे? तुम्हें इसमें और उसमें चुनना है; तुम कह सकते हो, “आई चूज़ हिम |” अब मैं पूछ रहा हूँ डीड यू चूज़ टू चूज़ हिम ? नहीं समझे मेरी बात?

श्रोता: वो तो खुद ही होता है|

वक्ता: वो तो खुद ही हो गया ना, तुम्हें पता भी नहीं है कि कोई विचार तुम्हें क्यों आ रहा है| तुम्हें कैसे पता की कोई चेहरा तुम्हें क्यों भा गया? पता है क्या? फिर कहते हो, “मेरा चुनाव है|” तुम्हारा चुनाव कैसे है? ये वैसी सी ही बात है, जैसे तुम कहो कि, “मेरी आँखे नीली हैं|” तुम्हारी आँखे नीली कैसे हैं? तुमने चुना था क्या? जब तक मन के साथ अपने आप को जोड़े रहोगे, तब तक तुम ही ऊर्जा दोगे मन को| तुम मत दो उर्जा मन को, वो थोड़ी देर में गिर जाता है, शांत होकर बैठ जाता है|“मेरा मन, मेरा मन” कर-कर के मन को तुम चालू रखते हो| मेरा मन बोलना बंद करो, मन है, वो मन फिर ख़त्म हो जाता है| मन मशीन है, पर उस मशीन में तेल डालने वाले तुम हो| बड़े जबरदस्त किस्म की मशीन है, बस उसमें एक कमी है कि फ्यूल उसे बाहर से चाहिए होता है| वो तुम मत दो, वो बहुत आगे तक चलेगी नहीं| इसीलिए आज पहली बात मैंने ये बोली थी कि अपने अँधेरे के समर्थन में मत खड़े हुआ करो| वही कह रहा था कि अपने अँधेरे को फ्यूल मत दिया करो|

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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