संवेदनशीलता, भावुकता नहीं || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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संवेदनशीलता, भावुकता नहीं || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्नकर्ता: क्या संवेदनशीलता भी किसी प्रकार की वृत्ति है?

आचार्य प्रशांत: संवेदना–सम्+वेदना। मूल शब्द है ‘विद्’; ‘विद्’ का अर्थ है ‘जानना’। वो वही शब्द है जिससे वेद निकले हैं। ‘विद्’ से ‘विद्या’, वेदना उठती ही इसलिए है क्योंकि तुम्हारे भीतर कुछ है जो जानता है कि तुम्हारे तरीके झूठे हैं। अगर तुम पूर्णत: यंत्र होते तो कभी वेदना का अनुभव ही नहीं होता।

चाकू से हत्या की जाती है, पर चाकू को वेदना नहीं उठती। लेकिन हत्यारे को वेदना उठ सकती है। हत्यारे को वेदना इसलिए उठती है क्योंकि उसके भीतर ‘विद्’ विराजमान है। जानने वाला विराजमान है। उसी जानने वाले के कारण वेदना उठती है।

तुम्हें अगर जीवन में बड़े कष्ट हैं, तो ये अच्छी ख़बर है, इससे यही पता चलता है कि अभी मर नहीं गए हो।

अगर तुम्हारा हृदय अभी भी काँपता है, अगर तुम रोते हो, परेशान होते हो, तो एक तरीके से ये शुभ लक्षण हैं। इससे यही पता चलता है कि अभी भीतर कोई है, जो तुमको पुकार-पुकार कर कह रहा है, "बदलो, बदलो, ये ठीक नहीं है", इसी कारण कष्ट हैं तुम्हें। कष्ट का अर्थ ही है कि भीतर चेतना का स्रोत बैठा ही हुआ है।

लेकिन साधारण मन, सोया हुआ मन, वेदना को मात्र कष्ट समझता है। वो कहता है, "वेदना का अर्थ है पीड़ा", वो वेदना का अर्थ ज्ञान से ले नहीं पाता। संवेदना का अर्थ ये हुआ, "मेरे भीतर वो बैठा हुआ है, वो जानने वाला, और उसकी दृष्टि से मैं पूरी दुनिया को देख रहा हूँ। जितने कष्ट हैं, मुझे सब साफ़ दिखाई दे रहे हैं, और मैं उनका सही अर्थ भी कर पा रहा हूँ।"

संवेदना ही करुणा है।

याद रखना ‘विद्’ से वेदना आया है, पर यदि अज्ञान है तो वेदना मात्र कष्ट बनेगी; यदि ज्ञान है वेदना कष्ट नहीं, करुणा बनेगी। जब वेदना करुणा बन जाए तो उसे संवेदना कहते हैं। करुणा का अर्थ दया नहीं है। करुणा का अर्थ है, "मैं ठीक-ठीक जान रहा हूँ कि तुम्हारा कष्ट नकली है, मैं कष्ट की वास्तविकता जान गया हूँ", संवेदना के मूल में भावुकता नहीं है, विद्या है। यह भूलना नहीं।

संवेदना में भाव का कोई स्थान नहीं है; ‘बोध’ का स्थान है, ‘विद्’ का स्थान है, ‘जानने’ का स्थान है।

संवेदना का अर्थ ये नहीं है कि तुमने किसी को रोते देखा और तुम रोने लग गए। संवेदना का अर्थ है कि तुमने किसी को रोते देखा और तुम जान गए कि उसका जो कष्ट है, वो कितना नकली है। और जब तुम जान जाते हो कि कष्ट नकली है, मात्र तभी तुम उसके कष्ट का उपचार भी कर सकते हो।

हमने शब्दों के बड़े विपरीत, बड़े ख़तरनाक और बड़े निरर्थक अर्थ कर लिए हैं। हमने संवेदना का अर्थ भावुकता से लगा लिया है। हमने संवेदना का अर्थ एक प्रकार की मूर्खता से लगा लिया है। बच्चा नाहक चिल्ला रहा है, माँ बार-बार उसके पास दौड़ कर जा रही है, हम कहते हैं, "संवेदना है।" किसी का लाख रूपये का नुकसान हो गया है, वो छाती पीट रहा है, आप जाकर के उसे गले लगा लेते हैं, और आप कहते हैं "ये संवेदना है"; ये मूर्खता है, ये संवेदना नहीं है। संवेदना में तो सबसे पहले विद्या है, जानना है, वास्तविक रूप से जानना है।

करुणा का ये अर्थ नहीं होता कि, "मुझे बहुत बुरा लग रहा है कि तुम्हें कष्ट है।"

करुणा का अर्थ होता है कि "मैं जानता हूँ कि सारा कष्ट नकली है, और इसी कारण उसे दूर किया जा सकता है।" करुणा का या संवेदना का अर्थ दया नहीं है, भावुकता नहीं है। ये भूल मत कर देना। हम कई बार बात कर चुके हैं कि संवेदनशीलता, भावुकता नहीं है। पर इतनी बार बात करने के बाद भी मैं देखता हूँ कि हम संवेदनशीलता के नाम पर भावुकता को ही प्रश्रय दिए जाते हैं। हमें बिलकुल नहीं पता होता कि हम करें क्या।

मैं तुमसे कल भी कह रहा था, अभी फिर दोहरा रहा हूँ, जो आदमी अभी अधजगा है, उसके लिए ‘युद्ध’ है, और वो स्वयं एक सैनिक है। और सैनिक के कदम डगमगाने नहीं चाहिए। सैनिक में तो एक गहरा आंतरिक अनुशासन होना चाहिए कि, "अभी मैं युद्ध पर हूँ, मैं फ़ोन पर बात करने नहीं चला जाऊँगा।" पर नहीं, आपको लगता है कि इसी में संवेदना है। इसमें संवेदना नहीं है, यह तुम्हारा आत्मघात है, तुम अपने ही दुश्मन हो।

तुम कैसे किसी की मदद करोगे जब तुम खुद कुछ समझते नहीं? डूबते हुए की मदद उसके साथ डूब कर नहीं की जा सकती, क्या ये छोटी-सी बात स्पष्ट नहीं है तुम्हें? मूर्ख की मदद उसके जितना मूर्ख बन कर नहीं की जा सकती। पर तुम्हारे मन में एक तर्क बैठा दिया गया है कि रोते हुए की मदद उसके साथ रो कर की जा सकती है, और तुमने कभी जाँचा नहीं कि इस तर्क में कुछ दम है भी या नहीं।

प्र: फिर सेवा का क्या अर्थ है?

आचार्य: सेवा कैसे करोगे? अस्पताल में मरीज़ है, डॉक्टर कैसे सेवा करेगा? तुम्हें शरीर का कुछ पता नहीं, मन का कुछ पता नहीं, तुम्हें इलाज के औज़ारों का कुछ पता नहीं, तुम सेवा कैसे करोगे? मैं कई बार उस शराबी की कहानी सुना चुका हूँ, फिर सुना देता हूँ; एक शराबी रात में झूमता, बहकता सड़क पर चला जा रहा था। वो देखता है कि सड़क पर दुर्घटना हो गई है, और एक आदमी सड़क के किनारे पड़ा हुआ है, उसके सिर से खून बह रहा है। उसे देखकर शराबी कहता है कि सेवा करनी चाहिए, और वो सेवा कर देता है। सिर से खून बह रहा है, वो उसकी वहीं पर ब्रेन सर्जरी कर देता है। शराबी कहता है, "इसके सिर में चोट लगी है, दुर्घटना हुई थी, मैं सेवा करूँगा", और वो सेवा कर देता है। वहीं उस आदमी की ब्रेन सर्जरी कर देता है। क्या यह सेवा है? क्या आपको सेवा का अर्थ स्पष्ट है?

शरीर की भी सेवा करनी हो तो शरीर को समझना पड़ता है। पाँच साल का तो ऍम.बी.बी.एस. कोर्स करना पड़ता है, और फिर उसके आगे की भी पढ़ाई! सिर्फ़ शरीर की सेवा करने के लिए इतनी तैयारी करनी पड़ती है। दसों साल की पढ़ाई, और फिर उसके बाद दसों साल का अनुभव चाहिए सिर्फ़़ शरीर की सेवा करने के लिए; शरीर भी छोड़ो, शरीर के छोटे-से हिस्से दाँत की भी सेवा करनी हो, तो उसके लिए भी दसों साल की तैयारी चाहिए, समझ चाहिए, जानकारी चाहिए। तब करते हो न सेवा या यूँ ही किसी के दाँत में दर्द है, तो जाकर खींच लेते हो, कि उखाड़ दिया, सेवा कर दी?

सेवा की शर्त है: समझदारी।

जो समझता नहीं, वो सेवा क्या करेगा! तुम सेवा करने को बहुत उत्सुक हो कि माँ-बाप की सेवा करेंगे। तुम में ज़रा-सी भी समझ है? तुम जानते हो कि सेवा क्या है? शरीर को थोड़ा जानने के लिए दसों साल लग जाते हैं, तो सोचो मन, जिसके भीतर शरीर वास करता है, उस मन को जानने के किए कितना तप चाहिए। क्या तुमने वो तप किया है? क्या तुम सेवा करने के काबिल हो? तुम्हारे माध्यम से सेवा हो सकती है क्या किसी की? पर लगे हुए हैं कि सेवा करेंगे, बड़ा अहंकार है इसमें तुम्हारा। तुम दावा करना चाहते हो कि, "मुझमें योग्यता है सेवा करने की।"

मैं तुमसे कह रहा हूँ कि तुममें योग्यता ही नहीं है सेवा करने की। तुम कहते रहो कि, "मुझे सेवा करनी है!" तुमसे होगी ही नहीं, और सेवा के नाम पर तुम हत्या ज़रूर कर दोगे। माँ-बाप बच्चों की सेवा कर रहे हैं, बच्चे माँ-बाप की सेवा कर रहे हैं, और क़त्ल हो चारों ओर रहे हैं। पत्नियाँ, पतियों की सेवा कर रहीं हैं, पति, पत्नियों की सेवा कर रहे हैं, और उसके नाम पर सिर्फ़ हिंसा है। सेवकों का जगत है ये, सब सेवक हैं, सब सेवा ही करने को आतुर हैं!

एक सूत्र दिए देता हूँ, समझ लेना: जब कोई आए और बड़ी उत्सुकता दिखाए कि आपकी सेवा करनी है, तो इतना ज़रूर देख लेना कि उसने अपनी सेवा कर ली है या नहीं। जो अपना हितैषी नहीं हो पाया, वो तुम्हारा हितैषी क्या ख़ाक होगा! और जब तुम्हारे मन में ये भाव उठे कि, "मुझे किसी की सेवा करनी है", तो स्वयं से ये पूछ लेना, "क्या मैं इस काबिल हूँ? अपनी सेवा कर ली?" दूसरों की करने निकल पड़े! "मैं जा रहा हूँ सहारा देने, दुनिया को मेरे सहारे की ज़रूरत है। अरे! परिवार की हालत बहुत ख़राब है, मैं सहारा दूँगा।" अपनी शक्ल देखो, तुमसे ज़्यादा बेसहारा कोई है क्या?

अपनी हालत देखो, तुम्हारी हालत वैसी ही है जैसे कि एनीमिया का कोई मरीज़ रक्तदान करने जा रहा हो। एनीमिया समझते हो न? खून की कमी की बीमारी। ये साहब रक्तदान करने चले हैं, सेवा करेंगे! और ये बड़ा मज़ेदार दृश्य है, एक अस्पताल में अस्सी, नब्बे, सौ, हज़ार, अनगिनत बिस्तर लगे हुए हैं, और उसमें सब एनीमिया के मरीज़ बैठे हुए हैं, और सब एक दूसरे को रक्तदान कर रहे हैं। किसी को तुम रक्त दे रहे हो, कोई तुम्हें रक्त दे रहा है, और इसी पारस्परिक खून की कमी का नाम है – जगत। यहाँ किसी के पास कुछ है नहीं, पर भ्रम सबको बना हुआ है कि, "हम बड़े दाता हैं।"

माँ बच्चे को प्यार दे रही है, सच में? तुम बेवकूफियों के अलावा बच्चे को क्या दे सकती हो? पर अहंकार तुम्हारा सघन है, तुम्हारा दावा यह है कि, "हम बच्चे को बहुत कुछ देते हैं, और इसीलिए हमारा बच्चे के पास रहना ज़रूरी है। हम ना दें तो बच्चे का होगा क्या?" तुम हटकर देखो कि क्या होगा बच्चे का। वो परमात्मा का बच्चा है, तुम हट कर देखो। और तुम झूठी माँ हो, तुम बीच में व्यर्थ ही खड़ी हो, तुम हट कर देखो।

तुम्हारा अहंकार है कि तुम बच्चे की सेवा कर रही हो। तुम किसी की सेवा नहीं कर सकतीं। जब तुम अपनी सेवा नहीं कर पाईं, तो बच्चे की क्या करोगी। अपने जीवन को देखो, अपनी तेजहीनता को देखो, बच्चे को क्या दे दोगी। वही दोगी जो सदियों से माँ-बाप दिए आ रहे हैं – मूढ़ता, बीमारी। वही तुम भी दे रही हो अपने बच्चे को।

पर अहंकार बड़ा घना है। "देखिए साहब, हम फँसे हुए हैं, हमारी बड़ी जिम्मेदारियाँ हैं", अच्छा लगता है न यह मानना कि, "मेरी कुछ उपयोगिता है जगत में, मेरे होने से फ़र्क पड़ता है, मैं ना रहूँ, तो कोई रोयेगा।" बड़ा अच्छा लगता है अहंकार को। तुम घर पहुँचते हो, तुम्हारी बीवी आँसुओं में डबडबाई आँखें लिए तुम्हारे सामने खड़ी हो जाती है, "तुम देर से आए, मुझे बड़ा बुरा लगा", दो आँसू तुम्हारे ऊपर भी गिर पड़ते हैं। कितना अच्छा लगता है, "आहाहा! कोई मेरा इंतज़ार कर रहा था, मेरी कुछ उपयोगिता है। मेरे होने और ना होने से फ़र्क पड़ता है। ये देखो, एक इंसान है जिस पर कितना फ़र्क पड़ रहा है मेरे होने या ना होने से।"

तुम दो घण्टे के लिए बच्चे से दूर हो जाते हो, वापस आते हो और देखते हो कि बच्चा तुम्हारे लिए कुलबुला रहा था, अहंकार को बड़ा सुख मिलता है कि "देखो, मैं नहीं था, तो ये कुलबुलाया", और यदि तुम्हें प्रयोग करके देखना हो तो देखना। जिस दिन तुम घर वापस आओ और पाओ कि बीवी तुम्हारा इंतज़ार नहीं कर रही थी, तो तुम्हें दुःख होगा। प्रयोग करके देख लेना। तुम किसी को फ़ोन करो, काफ़ी महीनों बाद, और तुम पाओ कि उसे तुम्हारे फ़ोन का इंतज़ार ही नहीं था, तो तुम्हें यह जानकर दुःख होगा। तुम्हें अच्छा लगता है यह सोचकर कि, "मैं किसी की सेवा कर सकता हूँ, किसी को मेरी ज़रूरत है।"

साहब, किसी को आपकी ज़रुरत नहीं है, आप मुफ्त ही जान दे रहे हैं!

दुनिया बिलकुल मज़े में चलेगी आपके बिना भी, आप प्रयोग करके देख लीजिए। आप थोड़ी देर के लिए आत्महत्या की कल्पना करके देखिए, की जा सकती है; जैसे जीवन एक कल्पना है, वैसे आत्महत्या की कल्पना भी की जा सकती है। आप थोड़ी देर के लिए आत्महत्या कर लीजिए, या दुनिया से गायब हो जाइए, और देखिए कि दुनिया का चक्र पहले की तरह ही घूम रहा है या नहीं।

बड़े-बड़े आए, बड़े-बड़े चले गए, दुनिया की सेहत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता। माएँ मरती रहती हैं, बच्चे पलते रहते हैं। और बेहतर पल जाते हैं। किन्तु आप सेवा करने के लिए बड़े उत्सुक हैं, "हम ना होंगे तो क्या होगा?" आपको दिखाई भी नहीं देता कि इसमें आपकी अहंता छिपी हुई है। कुछ नहीं होगा। आप चार दिन को नहीं, चालीस दिन को घर छोड़ दीजिए, कुछ नहीं होगा। हाँ, आपका अहंकार टूट जाएगा, जब आप चालीस दिन बाद घर लौटेंगे, "अरे कुछ नहीं हुआ! मैं चालीस दिन तक घर नहीं थी, कुछ भी नहीं हुआ।" बड़ी ठेस लगेगी अहंकार को।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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