समाज की मदद करने के नकली तरीके

Acharya Prashant

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समाज की मदद करने के नकली तरीके
जिन्हें समाज की मदद करनी हो, वो बाकी सब ढकोसले छोड़ें, एक ही तरीका है मदद करने का, समझो — अध्यात्म। समाज की मदद नहीं हो पा रही, इसीलिए नहीं हो पा रही क्योंकि तुमने मदद करने के नकली और फ़र्जी तरीके पकड़ रखे हैं। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, इस दुनिया में दुख बहुत है। मैं लोगों के दुख देखकर बहुत विचलित हो जाता हूँ और लोगों के दुख बाँटने की कोशिश करता हूँ। मैं प्रकृति, पर्यावरण के लिए भी कुछ करना चाहता हूँ। आचार्य जी, समाज में किस तरह के परिवर्तन लाने की आवश्यकता है और अध्यात्म के ज़रिए कैसे वो परिवर्तन आएगा? अध्यात्म से मैं मेरे देश और मेरे समाज में कैसे अच्छे परिवर्तन ला सकता हूँ?

आचार्य प्रशांत: देखो, बाहर तुम्हें बुरा क्या लग रहा है, वो निर्भर इस पर करता है कि तुम्हें अपने लिए क्या बुरा लग रहा है। किसी को भी पसंद नहीं होता दुनिया जैसी है। तुम किसी से भी पूछोगे कि संसार जैसा है, विश्व जैसा है, आप उससे संतुष्ट हैं क्या, तो उत्तर यही आएगा कि नहीं, जो कुछ चल रहा है वो ठीक नहीं है। क्या ठीक नहीं है? कोई कहेगा, ‘वो सड़क पर ट्रैफ़िक में जाम बहुत लगता है।’ ये वो हैं जो अपने लिए सबसे लाभ की बात यही समझते हैं कि सड़क पर निकलें तो जहाँ जाना है वहाँ तुरंत पहुँच जाएँ। तो इनके लिए संसार के साथ समस्या ही यही है कि जाम बहुत लगता है।

ये अगर पत्रकार होंगे तो तुरंत लेख लिखेंगे, ‘द क्रॉलिंग ट्रैफ़िक ऑफ मुंबई’ (मुंबई का व्यस्त यातायात)। जब किसी को यही दुनिया की सबसे बड़ी समस्या दिखाई दे तो तुम समझ जाओ कि वो व्यक्ति अपने लिए सत्य और मुक्ति की क्या परिभाषा रखता है। उसके लिए मुक्ति है जहाँ चाहो वहाँ जल्दी से पहुँच जाना। ‘तो मुझे अभी शुक्रवार को ताज़ी-ताज़ी जो पिक्चर रिलीज हुई है वो देखने जाना है, जल्दी से पहुँच जाऊँ।’ और ट्रैफ़िक भी सबसे ज़्यादा तो जो पीक आवर्स होते हैं उन्हीं में होता है। आपको अगर ट्रैफ़िक परेशान कर रहा है इतना, तो इसका मतलब आप भी पीक आवर्स के खिलाड़ी हैं, आप भी उन्हीं लोगों में से हैं जिनकी वज़ह से जाम लग रहा है।

भाई! ट्रैफ़िक जाम से परेशान होने वाले लोग कौन हैं? ठीक वही जो ट्रैफ़िक जाम लगा रहे हैं। जो उसमें शामिल ही नहीं हैं, उन्हें कोई परेशानी भी नहीं होगी। तो तुम भी वही हो जो सुबह-शाम दफ़्तर के फेरे लगाया करते हो, तो तुम्हारे लिए मुक्ति की परिभाषा यही है कि अपने दफ़्तर में सरलता से पहुँच जाऊँ, अपना काम-धाम करूँ, पैसा-रुपया जो मिलना है मिले, उसमें समय का निवेश कम-से-कम हो। कोई और होगा, उससे पूछो कि दुनिया में अभी क्या गड़बड़ चल रही है? तो कहेंगे, ‘देखो! अभी दुनिया में गड़बड़ ये चल रही है कि एनर्जी (ऊर्जा) की बड़ी शॉर्टेज (कमी) है, द वर्ल्ड इज़ अनएबल टु मीट द एनर्जी नीड्स ऑफ द पीपल (दुनिया लोगों की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ है)।’

अभी तुम गूगल करो ‘द ग्लोबल एनर्जी क्राइसिस,’ दस-हज़ार तुमको लेख मिलेंगे — कम बोल रहा हूँ। ये व्यक्ति जिसको लगता है कि दुनिया की भी सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि एनर्जी की कमी है, ये अपना लाभ कहाँ देख रहा है? एनर्जी कंजम्प्शन (ऊर्जा उपभोग) में। इसके लिए यही बहुत बड़ी समस्या है कि मुझे मेगावाट में ऊर्जा मिलनी चाहिए, किलोवाट में क्यों मिल रही है और गीगावाट तक कब पहुँचेंगे, मुझे खाना है।

अब उस ऊर्जा का तुम क्या करोगे, बिजली बहकर आती है तार में, वो तार अपने मुँह में तो खोंस नहीं लोगे उसका? करते क्या हो ऊर्जा का? ऊर्जा का यही करते हो कि हवाई जहाज पर उड़कर के जाना है, घर में और भारी-भारी उपकरण चलाने हैं, सब कुछ ऑटोमेट (स्वचलित) करना है। तो ये इनकी लाभ की और मुक्ति की परिभाषा है कि जितनी मैं ऊर्जा खा सकूँ, उतनी मुझे मुक्ति मिली।

क्या करना चाहते हो समाज के लिए, उसके लिए पहले ये तो देखो कि किसी भी व्यक्ति के लिए वास्तविक लाभ कहाँ है। जहाँ व्यक्ति का लाभ है, वहीं समाज का लाभ है। अगर व्यक्ति का लाभ कहाँ है तुमने यही नहीं समझा, तो तुम समाज को किस दिशा में प्रेरित कर पाओगे! और जिसको देखो वही समाज को किसी-न-किसी दिशा में प्रेरित करने में लगा हुआ है, सब डू गुडर्स (अच्छा करने के लिए तत्पर) हैं। सबको कुछ-न-कुछ अच्छा करना है दुनिया में, सब अपनी-अपनी नज़रों में ज़रा ऊँचे टँगा रहना चाहते हैं। कोई नहीं कहता कि मैं कुछ नहीं करता हूँ, एक तरह से सभी हैं सोशल एक्टिविस्ट (सामाजिक कार्यकर्ता)। महीने का एक घंटा हर व्यक्ति किसी-न-किसी सामाजिक कार्य को दे ही रहा है; और महीने का बाकी समय?

आजकल बड़ा प्रचलन है समाज के लिए कुछ करने के नाम पर इस तरह की बातें आगे बढ़ाना कि आप ऑर्गेनिक (कार्बनिक) खाइए और हम आप तक जो फल लेकर आ रहे हैं उसके उत्पादन, पैकेजिंग और लॉजिस्टिक्स की पूरी प्रक्रिया में कहीं भी प्लास्टिक का उपयोग नहीं हुआ है। और हमारा जो उत्पाद है, आप तक कम-से-कम धुएँ के और कार्बन के उत्सर्जन के साथ पहुँच रहा है। और आमतौर पर इस तरह की जो ऑर्गेनिक इत्यादि चीज़ें होती हैं वो महँगी भी होती हैं। और ये करके अपनी नैतिक अंतरात्मा को कुछ लोग खूब शांति देते हैं कि ठीक किया।

अरे! एक बार विज्ञान की ओर भी देख लो, एक बार सीधे-सीधे वैज्ञानिक तथ्यों की भी परवाह कर लो! सबको एक बार मैंने एक रिपोर्ट भेजी थी जिसमें बताया था कि तुम कितना प्रभाव डाल लोगे दुनिया पर अगर तुम शीशे का इस्तेमाल कम कर देते हो, प्लास्टिक का इस्तेमाल कम कर देते हो, बिजली का इस्तेमाल कम कर देते हो, दो प्रतिशत, पाँच प्रतिशत। और जो पहाड़ जैसा उपद्रव है जिसके कारण सब गड़बड़ हो रही है, जो सौ प्रतिशत का वज़न रखता है उसकी तुम बात ही नहीं करना चाहते हो — वो है आबादी, जनसंख्या। उसकी बात नहीं करना चाहते, एक पैसे, दो पैसे की चीज़ की बात कर रहे हो। हज़ार रुपए की चीज़ को बिल्कुल दबा गए, छुपा गए, ऐसी गहरी बेईमानी!

भाई! दुनिया की आबादी अभी अगले चालीस साल तक और बढ़ने वाली है, आज जितनी है इससे भी डेढ़ गुना होने वाली है। और हर देश तरक्की कर रहा है, सब जीडीपी बढ़ा रहे हैं; तरक्की का अर्थ ही है और कंजम्प्शन (भोग)। तुम पृथ्वी पर आने वाले महाविनाश को कैसे रोक लोगे जब तक तुम आदमी के दिमाग के भीतर से तरक्की की इस विकृत अवधारणा को बाहर नहीं निकालते? वो मन जो गृहस्थी को भोगना चाहता है बच्चे पैदा करके, वही मन फिर ज़िंदगी को भोगना चाहता है गुड लाइफ़ के लिए जीडीपी बढ़ा-बढ़ाकर के — देहवाद है ये।

तुम कहते हो, ‘फ़लानी फैक्ट्री है बड़ा प्रदूषण कर रही है,’ तुम कहते हो, ‘फ़लानी इंडस्ट्री में बड़ा प्रदूषण कर रही है,’ ठीक? मुझे एक बात बताना, किसी भी इंडस्ट्री का कोई भी उत्पाद अंतत: किसके द्वारा भोगा जाता है, एंड कंज्यूमर (अंतिम उपभोक्ता) कौन है?

श्रोतागण: पॉपुलेशन (जनसंख्या।)

आचार्य प्रशांत: हम न, जब तक हमारी भोगने की लालसा वैसी ही रहेगी जैसी है, तब तक तुम उस इंडस्ट्री को बंद कैसे कर दोगे? और भोगने की हमारी लालसा सीधे-सीधे देहभाव, बॉडी आईडेंटिफिकेशन से उठती है, उसकी तुम बात ही नहीं करना चाहते। क्योंकि उसकी बात कर दोगे तो तुम्हारे राग-रंग पर असर पड़ेगा, तुम्हारी कामवासना की पूर्ति पर असर पड़ेगा और बच्चे पैदा करने के तुम्हारे इरादों पर असर पड़ेगा।

तुम सब टोकन काम कर रहे हो, सब नॉमिनल (नाममात्र) काम कर रहे हो, तुम औपचारिकता निभा रहे हो और कहते हो कि हमें समाज की सेवा करनी है, प्रकृति की सेवा करनी है। तुम कहते हो कि अरे-अरे! हमने बड़ा अच्छा करा। आप ये फल खाइए, ये ऑर्गेनिक है। ये तो बताइए कि ऑर्गेनिक गेहूँ हो, कि ज्वार हो, कि बाजरा हो, उगेगा तो खेत में ही न? और खेत के लिए ज़मीन कहाँ से ला रहे हो? जंगल काट-काटकर के। उसकी तुम बात नहीं करना चाहते, आएँगे, कहेंगे, ‘देखो! तुम गेहूँ बहुत खाते हो, ग्लूटेन बढ़ गया है, ये खाया करो।’ क्या? क्या चलता है भाई?

श्रोता: ग्लूटेन फ्री।

आचार्य प्रशांत: हाँ! वो चाँद से उतरा है तुम्हारा ग्लूटेन फ्री , जो भी दे रहे हो? या उसको उगाने के लिए खेती की ज़मीन कम लगती है? एक आदमी आज आहार भी जितना लेता है, वो पिछले तीस वर्ष की अपेक्षा ढेड़ गुना हो गया है। वो ठीक भी है, कुपोषण कम हो रहा है, बच्चों का वज़न बढ़ रहा है, लोगों की लंबाई बढ़ रही है, वो ठीक भी है। पर यही चीज़ भी आगे भी होती रहेगी न? लोग जितना खा रहे हैं, वो प्रति व्यक्ति आहार भी बढ़ेगा और उस आहार को लेने वाले व्यक्तियों की संख्या भी बढ़ेगी। तो चाहे ऑर्गेनिक फूड (कार्बनिक भोजन) हो, चाहे इनऑर्गेनिक फूड (अकार्बनिक भोजन) हो, तुम्हें करना क्या पड़ेगा इतनी जनसंख्या के निर्वाह के लिए? बोलो। जंगल ही काटने पड़ेंगे न? तो बात हम ऑर्गेनिक-इनऑर्गेनिक की करे या सीधे-सीधे आदमी की भोगवादी वृत्ति की करें? बोलो। नहीं, उसकी बात नहीं करना चाहते, अध्यात्म की बात नहीं करना चाहते, देहभाव बढ़ता रहे।

देवी जी के फ़ेसबुक पेज पर जाओ तो एक पोस्ट होगी जिसमें ऑर्गेनिक-ऑर्गेनिक होगा और उसके नीचे पोस्ट होगी जिसमें वो अपने बच्चों की किलकारियों का ज़िक्र कर रही होंगी। अरे पागल! तुझे समझ में नहीं आ रहा कि इन बच्चों की किलकारियों ने ही तो बर्बाद कर दिया पूरी पृथ्वी को, हज़ारों-लाखों प्रजातियाँ नष्ट कर दीं और तुम कह रही हो कि मैं इकोलॉजी (परिस्थितिकी) के प्रिजर्वेशन (संरक्षण) के लिए ज्वार और बाजरा आपकी तरफ़ बढ़ा रही हूँ। उससे सेहत बढ़िया हो जाएगी, समाज ग्रीन समाज बनेगा।

जिन्हें समाज की मदद करनी हो, वो बाकी सब ढकोसले छोड़ें, एक ही तरीका है मदद करने का, समझो — अध्यात्म। समाज की मदद नहीं हो पा रही, इसीलिए नहीं हो पा रही क्योंकि तुमने मदद करने के नकली और फ़र्जी तरीके पकड़ रखे हैं। तुम कहते हो, ‘मैं समाज की मदद करने के लिए अपने मोहल्ले में क्लीनलीनेस ड्राइव (सफ़ाई अभियान) चला रहा हूँ।’ हाँ, वो जो सारा कचरा तुम अपने मोहल्ले से हटा देते हो अपने सफाई अभियान में, वो कचरा क्या तुम मंगल ग्रह पर भेजते हो? तुमने बस इतना करा है कि अपनी नज़रों के सामने से हटा दिया है। वो कचरा गया कहाँ? बताओ, कहाँ गया?

श्रोता: किसी और मोहल्ले में।

आचार्य प्रशांत: और तुम कहते हो, ‘हम समाज सेवा करते हैं। आप आइए! हमारा मोहल्ला देखिए, कितना साफ़ है! हमने वेस्ट डिस्पोजल (कचरा निदान) का बड़ा सुंदर सिस्टम (तंत्र) बना रखा है।’ ‘अच्छा क्या है आपका सिस्टम?’ ‘देखिए! गाड़ी आती है और जितना कूड़ा है सब ले जाती है।’ ‘और कूड़ा कितना है?’ कूड़ा तो बहुत सारा है, पर हम फ़ैलने नहीं देते! गाड़ी आती है, सारा कूड़ा ले जाती है।’ ‘कहाँ ले जाती है?’ ‘नहीं! वो हम क्यों बताएँ, कहीं ले जाती है, हमारी आँखों के सामने से ले जाती है।’ ‘तो कहीं और फ़ैलाती होगी?’ ‘नहीं जी! हम इतने गँवार थोड़े ही हैं, हम पिट्स (गड्ढे) बनाते हैं पिट्स , उसमें डालते हैं।’ ‘अच्छा ठीक है, पिट्स में डालते हो, फिर पिट में क्या होता है?’ नहीं, डाल दिया न, उसे ढक दिया।’ ‘तो ढक दिया माने वो चला गया?’ ‘ब-ब! वो-वो! आप बातें बहुत करते हैं!’ और वो मूल स्रोत कहाँ है जहाँ से सारा कचड़ा पैदा होता है? बोलो। तुम्हारी भोगवादिता।

कुछ भी खरीद कर लाते हो, तुमने कभी गौर किया है कि तुम कचड़ा खरीदकर लाते हो? तुमने क्या कुछ भी ऐसा खरीदा है जो कचड़ा न हो? वो चीज़ जो दुकान में बहुत आकर्षक लग रही होती है, क्या घर पहुँचकर के कचड़े का कारण नहीं बनती? बताओ। अच्छा! तुम अपने लिए एक शर्ट खरीद कर लाए, बताओ कितना कचड़ा लेकर आए हो? शर्ट तो पहनोगे, उसके साथ-साथ क्या-क्या आता है? एक वो तुमको बाहर लटकाने का झोला देगा, एक उसके ऊपर का टैग होगा उसमें पिन लगी होगी, उसमें भीतर गत्ता लगा होगा, यहाँ कॉलर में भी प्लास्टिक लगा होगा। जब ज़िस्म है, तो शर्ट चाहिए; और शर्ट है तो कचड़ा है।

‘देखिए, आप इतना आगे तक मत ले जाइए।’ तो कचड़ा हटाना है तो क्या करना पड़ेगा? ज़िस्म ही हटाना पड़ेगा बेटा! कोई और तरीका नहीं है। वेस्ट डिस्पोजल (अपशिष्ट निपटान) से काम नहीं चलेगा, वेस्ट प्रोडक्शन (अपशिष्ट उत्पादन) रोकना होगा। और वेस्ट प्रोडक्शन तुम रोक नहीं सकते जब तक तुम गुड लाइफ़ के खिलाड़ी हो। और गुड लाइफ़ का तो मतलब ही यही होता है — और भोगो! और भोगो!

सुंदर-से-सुंदर, साफ़-से-साफ़ जगह में, कोने में एक कचड़ा पेटी रखी होती है, रखी होती है न? जगह बहुत साफ़ है, एक कचड़ा पेटी रखी होती है। उस कचड़ा पेटी के रखे होने के बावजूद हम कहते हैं, ‘जगह साफ़ है।’ हमें ये सवाल ही नहीं कौंधता कि इस कचड़े के ज़िम्मेदार हम हैं, ये कचड़ा जाएगा कहाँ। मैं सिर्फ़ उदाहरण दे रहा हूँ, मैं समझाना चाह रहा हूँ कि जो समाज की सेवा करना चाहते हों वो बहानेबाज़ी के, ढकोसलें के फ़ालतू तरीके अख्तियार न करें। ये सब बेकार की बात है कि हम देश को स्वच्छ बना लेंगे, ये कर लेंगे, वो कर लेंगे। असली गंदगी है — देहभाव और भोगवादिता। वो गंदगी जब तक नहीं हटाओगे, तब तक गंदगी नहीं हट सकती।

अभी पीलीभीत के पास लोगों ने एक शेर को डंडों से पीट-पीटकर मार डाला, शेरनी थी, बाघिन। क्यों मार डाला, शेरनी उनके घर में घुस रही थी? नहीं, वो शेरनी के घर में घुस रहे थे, तो शेरनी ने एक को घायल कर दिया। तो लोगों ने कहा, ‘ये शेरनी तो हत्यारन है, इसको मारेंगे।’ और पंद्रह-बीस-पचास लोग डंडे लेकर खड़े हैं और पटापट–पटापट उसको पीट रहे हैं और मार डाला। इस लिंचिंग की कोई बात ही नहीं कर रहा। और ये तो बड़ी अनैतिक बात है न, घुसे तुम उसके घर में हो, वो जंगल उसका है, तुम जंगल को काटकर के खेत बना रहे हो।

अभी बड़ी खुशी मनाई गई भारत में कि बाघों की संख्या गिरकर के ग्यारह-बारह-चौदह-सौ हो गई थी, वो बढ़कर के दो गुनी हो गई है। जानते हो, उसी के साथ क्या बढ़ा है? बाघों ने एक-दूसरे को मारना शुरू कर दिया है। जंगल में बाघों ने एक-दूसरे को मारना शुरू कर दिया है, बताओ क्यों?

श्रोता: जगह ही नहीं है।

आचार्य प्रशांत: जगह ही नहीं है। तुमने बाघों की संख्या तो बढ़ा दी, करीब-करीब कृत्रिम तरीके से, वो रहेंगे कहाँ? तो वो आपस में लड़ रहे हैं, एक-दूसरे की हत्या कर रहे हैं। और बाघ एक-दूसरे की हत्या क्यों कर रहे हैं? क्योंकि तुम अपनी आबादी रोकने का नाम नहीं ले रहे, तुम उनकी जगह काटते जा रहे हो, काटते जा रहे। तुम जो बच्चा पैदा कर रहे हो, उसको भी तो घर चाहिए होगा न? और मैं नहीं कह रहा हूँ कि एक भी मत पैदा करो, मैं कह रहा हूँ, ‘एक पर थम जाओ, बस एक पर थम जाओ।’

और बात बच्चे इत्यादि की भी नहीं है, तुम नहीं भी बच्चा पैदा करोगे, बहुत ऐसे हैं जो फ्री लाइफ़ के लिए बच्चे नहीं पैदा करते। वो कहते हैं, ‘हमें बच्चे की ज़िम्मेदारी नहीं चाहिए।’ स्त्रियाँ होती हैं, कहती हैं, ‘बच्चा आ गया तो फिगर (आकृति) खराब हो जाएगा, तो बच्चा नहीं चाहिए।’ ऐसे लोग बच्चा नहीं भी पैदा करेंगे, तो खुद इतना कंजम्प्शन करेंगे कि दुनिया खराब करके रख देंगे। तो बात बच्चे की भी नहीं है, बात, फिर कह रहा हूँ, तुम्हारी अपनी भोगवादी वृत्ति की है। समाज में अगर कोई बदलाव लाना चाहते हो तो ये बदलाव लाकर के दिखाओ — आदमी अपने आप को देह न माने।

जब आदमी ज़रा कम देहभाव में जिएगा, तो फिर वो भोगने के लिए भी कम लालायित रहेगा। भोगने के लिए जितना कम लालायित रहेगा, उतना उसका चित्त अपने आप शांत रहेगा। ये जो भोगने को लेकर के तुम्हारी ज़िद है न, यही तुमको नर्क की ओर ले जा रही है, क्योंकि तुम्हें भोगना है। आत्मा तो भोगती नहीं, देह की खातिर नर्क की ओर जा रहे हो, जाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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