प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम कोई भी ग्रंथ पढ़ते हैं जैसे अगर शिव पुराण पढ़ा तो उसमें लिखा होता है कि शिव जी सबसे बड़े हैं अगर हम हनुमान चालीसा पढ़ें तो उसमें वो लिखा होता है कि हनुमान जी सबसे बड़े हैं। अगर हम माता का कोई पढ़ें तो उसमें लिखा होता है माता ही सबसे ऊपर हैं। ये क्या चीज़ है?
आचार्य प्रशांत: ये ऐसी चीज़ है अभी मैं इनकी ओर देख रहा था तो मेरे लिए ये सबसे ऊपर थे (सामने बैठे श्रोता की ओर संकेत करते हुए) कि मैं आपकी ओर देख रहा हूँ तो मेरे लिए आप सबसे ऊपर हैं, अभी मैं उनकी (एक श्रोता की ओर संकेत करते हुए) ओर देखूँगा तो वो मेरे लिए सबसे ऊपर हो जाएँगे, इनकी ओर देखूँगा तो ये ऊपर हो जाएँगी। क्योंकि मेरे लिए सबसे ऊपर सत्य है तो इसीलिए सत्य की बात मैं जिससे भी कर रहा हूँ वो मेरे लिए बहुत सम्मान का हक़दार हो जाता है। जब मैं आपसे बात कर रहा हूँ तो अब मैं बिलकुल याद नहीं रख रहा हूँ कि मैंने इनसे, इनसे, इनसे या इनसे (श्रोताओं की ओर संकेत करते हुए) क्या बात करी है।
आप मेरे लिए सबसे ऊपर हो गए क्योंकि मैं आपकी बात कर रहा हूँ, आपसे बात कर रहा हूँ और आप कौन हो? आप मेरे लिए उसके (ऊपर की ओर संकेत करते हुए) प्रतिनिधि हो।
आप समझ रहे हो?
तो जिस समय उस परमशक्ति के जिस रूप की आराधना होती है उस समय भी रूप को सर्वोच्च कहा जाता है, ये ठीक भी है। क्योंकि बात रूप की है ही नहीं बात तो है रूप के पीछे वाले अरूप की और वो अरूप तो सर्वोच्च है ही, वो अरूप सर्वोच्च है न? वही तो अकेला है तो वो कोई भी रूप ले वो रूप भी तो सर्वोच्च ही हुआ न? अरे भाई, वो कभी अवतार बनकर आये, कभी हनुमान बनकर आये, कभी पार्वती हैं, कभी दुर्गा हैं, कभी राम हैं, कभी कृष्ण हैं, कभी क्राइस्ट हैं, कभी कबीर हैं, कभी अष्टावक्र हैं। वो जो भी रूप ले करके आए, रूप के पीछे कौन है? वो स्वयं ही हैं न?
तुम अगर ज़रा भी होशियार हो तो तुम अब आचार्य जी की बात नहीं सुनोगे? (चेहरे को कपड़े से ढ़ँकते हुए)
श्रोता: सुनेंगे सर।
आचार्य: क्यों? अब क्यों सुन रहे हो? चेहरा तो दिखाई नहीं दे रहा। क्योंकि तुम्हें पता है प्रकट भले ये (कपड़ा) हो रहा दृश्य भले इसका (कपड़े का) है, पर दृश्य के पीछे अदृश्य अव्यक्त तो वही (ऊपर की ओर संकेत करते हुए) है न? वक्ता एक ही है या कल ऐसा होगा कि मैं दूसरा कुर्ता पहनकर आऊँगा तो मेरी बात नहीं सुनोगे, जब मेरे साथ तुम इतनी अक्ल चला सकते, तो उसके साथ क्यों नहीं चलाते? भाई, वही है जो अलग-अलग परिधानों में अपने अलग-अलग पैगंबरों को भेज देता है।
कभी काल बदलता है, कभी नाम बदलता है, कभी लिंग बदलता है, कभी धर्म बदलता है,भाषा बदलती है, जगह बदलती है, बात तो एक ही रहती है न? तो जिसके भी रूप में उसकी बात उतरे उसको सर्वोच्च ही मानना। जब उसकी बात करो तो ‘वही सर्वोच्च है' और ये भूल तो कभी कर मत देना कि एक की तुलना दूसरे से करने लग गए और कह दिया, ‘तीसरा तो कोई होता भी नहीं।’
ये भी खूब चलता है कि नहीं-नहीं उसका प्रतिनिधि तो एक ही था दूसरा कोई हो नहीं सकता। ऐसा कुछ नहीं है। वो (परमात्मा) कोई कंजूस थोड़े ही है कि एक के बाद कहे दूसरा भेजने में कुछ खर्चा हो जाएगा _ टू एण्ड फ्रो फेयर (आवा-जाही शुल्क) बहुत लगता है उपर से नीचे रवाना करने में, वापस बुलान में कौन इतना खर्चा करे तो एक भेज दिया अब दुबारा नहीं भेजेंगे। तो ऐसा नहीं है।
उसका तुम्हारा प्रेम का नाता है, तुम्हें भी उससे प्यार है, उसे भी तुमसे प्यार है तो वो बार-बार तुम्हारे पास आया ही रहता है। लगातार तुम्हारे पास आया ही रहता है कभी ऐसे कभी वैसे, कभी राम बनकर, कभी श्याम बनकर, कभी विराम नहीं लगता। राम, श्याम, नो विराम। सब सर्वोच्च है।
प्र: आचार्य जी, कभी सत्य के मार्ग पर चलना शुरू ही किया है और बाधाएँ) धीरे-धीरे उत्पन्न होती ही जा रही हैं।
आचार्य: तो ठीक है, आगे तो बढ़ो थोड़ा। कभी बड़े मज़े में बखान कर रहे हो कि समस्याएँ आ रही हैं, थोड़ा पिटो। अभी तो फ़ैशन जैसा लग रहा है कि मुझे भी हो रहा है, मुझे भी हो रहा है। जैसा नए-नए पड़ने वालों को होता है कहते हैं, ‘हाँ, हमें भी चढ़ रहा है, हमें भी चढ़ रहा है।’
अरे, अभी तुम्हें चढ़ी नहीं, जब चढ़ जाती है तो कोई कहता नहीं कि चढ़ गई। फिर ज़माना कहता है, ‘चढ़ी हुई है।’ तुम अलग रहते हो।