प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पिता के पास रहूँ या उनसे दूर रहने लग जाऊँ, समझ में नहीं आता। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: नहीं बाहर चली जाओ, उन्हें भी साथ ले जाओ; उन बेचारों को भी तो मन करता होगा बाहर जाने का।
प्र: मेरे कहने का आशय है कि मैं कहीं अलग शिफ्ट हो जाऊँ।
आचार्य: तो बात कहीं और जाने की नहीं है, बात पिता से दूरी बनाने की है। कहीं और जाना होता तो उनको साथ लेकर भी जा सकती थी। अब रिश्ते पर आओ, रिश्ता कैसा है? प्रेम है?
प्र: पता नहीं।
आचार्य: अरे! पता करो।
प्र: ये बात नहीं है कि उनसे दूरी बनानी ही है, बल्कि बात ये है कि कभी-कभी यह विचार आता है कि उनके साथ रहूँ या उनसे अलग रहूँ।
आचार्य: मैं समझ रहा हूँ ख़याल को, मैं कह रहा हूँ, बात अगर सिर्फ किसी जगह से दूर जाने की होती तो पिता को साथ लेकर भी जा सकती थी कि, "चलिए किसी और शहर में, कहीं-किसी गाँव में, उधर रहते हैं।" तुम जगह से नहीं दूर जाना चाह रही हो, देखो कि किससे दूर जाना चाह रही हो और फिर पूछो कि, "रिश्ता कैसा है?" ये तुम्हारा मूल प्रश्न होना चाहिए: ‘रिश्ते में प्रेम कितना है, क्या गुणवत्ता है?’
प्र: ऐसा भी नहीं है कि मैं उनसे अलग होकर ज़िम्मेदारी से भागना चाहती हूँ, पर मुझे ये अज़ीब लगता है कि ज़िम्मेदारी पूरी करने के लिए साथ में रहना ज़रूरी क्यों है।
आचार्य: नहीं, बिलकुल आवश्यक नहीं है साथ में रहना। प्रेम में शारीरिक रूप से साथ-साथ रह भी सकते हो और नहीं भी रह सकते हो। इसीलिए यह मूल प्रश्न है ही नहीं कि पिता के साथ एक ही घर में रहना है या नहीं रहना है। मूल प्रश्न यह है कि प्रेम है या नहीं। प्रेम हो उसके बाद तुम जा कर कनाडा में रहने लग जाओ; हो सकता है वही ठीक हो। और प्रेम हो तो ये भी हो सकता है कि तुम कहो कि नहीं, एक ही घर में रहेंगे, वो भी ठीक होगा। प्रेम तो स्वयं ही सब तय कर देता है न? और प्रेम अगर नहीं है तो कुछ भी तय करोगे तो वो उल्टा-पुल्टा ही पड़ेगा। इधर-उधर की बातें मत करो, जो असली बात है वो पकड़ो।
बिना प्रेम के, कई बार और ज़्यादा ज़रूरत महसूस होती है साथ रहने की। प्रेम तुमको ये विश्वास और ताक़त देता है कि दूरी बनाई भी जा सकती है और कोई नुक़सान नहीं हो जाएगा। जिस रिश्ते में प्रेम न हो वहाँ देखना कि दोनों जन कैसे घबराते हैं दूरी बनते ही। तुरंत भीतर एक असुरक्षा चिल्लाने लगती है कि “दूसरा नज़रों के सामने नहीं है, दूर चला गया, जाने लौट के आए, न आए। दूर चला गया, न जाने वहाँ क्या कर रहा होगा? दूर चला गया कहीं हमें भूल तो नहीं जाएगा?”
तो बेटा, प्रेम दोनों काम कर सकता है; आवश्यकता होने पर यह भी कह सकता है कि साथ रहें और आवश्यकता होने पर प्रेम ही तुमको यह ताक़त दे सकता है कि आराम से, बड़े मज़े से दूर चली जाओ। मूल मुद्दा रिश्ते के स्वास्थ्य का है, उसकी बात करो। रिश्ता अगर बढ़िया है, तो तुम्हारे पिता या मित्र या साथी, जो भी हैं, वो खुद ही तुम्हारे हित की बात करेंगे न? बेटे का हित अगर इसी में हो कि वो शारीरिक रूप से दूर चला जाए तो क्या बाप मना करेगा? मैं मान रहा हूँ कि बाप असली बाप है, प्यार रखता है।
और बेटे का हित अगर इसमें हो कि उसको घर पर वापस खींच कर लाना है, तो क्या बाप अपने कर्त्तव्य से पीछे हटेगा? जो सही है वही करेगा। साथ रहना ज़रूरी नहीं होता, न दूर रहना ज़रूरी होता है। क्या ज़रूरी होता है? प्रेम ज़रूरी होता है।
प्र: तो आपके अनुसार यदि प्रेम नहीं है, तो साथ नहीं रहना चाहिए।
आचार्य: प्रेम नहीं है तो प्रेम होना चाहिए। और अगर प्रेम होगा तो साथ भी रह सकती हो और दूर भी रह सकती हो। प्रेम होगा तो पिता तुम्हें स्वयं ही प्रेरित करेंगे उस जगह पर रहने को जहाँ तुम्हारा कल्याण है। और प्रेम अगर नहीं है तो साथ रह कर भी क्या हो जाएगा? सिर फोड़ोगे एक-दूसरे का और क्या करोगे? और फिर एक दिन बड़े रुआब से बताओगे “अरे जहाँ दो बर्तन होते हैं वहाँ?
प्र: आवाजें भी आती हैं।
आचार्य: ज़रा छन-छन, खटपट, चटपट तो होती ही है। वाह बेटा!
प्र: घड़े के नीचे गीला होता ही है।
आचार्य: घड़े के नीचे गीला होता है, और क्या होता है? दीये के नीचे अंधेरा होता है। ये हम बढ़िया तरीके निकालते हैं बासी खाने को गले उतारने के। गृहस्थी ये सब तो सिखा ही देती है: बड़े स्वादिष्ट झूठ बोलना, कि नहीं बस अभी-अभी एक-दूसरे का सिर फोड़ा है, लेकिन मोहब्बत बहुत है। “जान! ये लो जान बैंडेज लगाओ, बिलकुल जल्दी से ठीक हो जाओ, कल फिर सर फोड़ेंगे तुम्हारा।”
और फिर कहते हो, “देखो, ये सब न हो खटर-पटर तो शमशान जैसा सन्नाटा होगा, फिर रिश्ते का मज़ा ही क्या है?” यही तू-तू मैं-मैं, यही गाली-गलौज, यही उपद्रव; जब तक एक दूसरे की ज़िंदगी जहन्नुम नहीं करी, तब तक रस ही नहीं छलकता। “इन्हीं की तो यादें बनेंगी; फिर जब हम मर जाएँगे न तो तुम्हें यही सब याद आएगा, कि अब कोई है ही नहीं जो सुबह उठ कर गाली दे।” बिना प्रेम के साथ-साथ रहो तो ऐसा।
प्रेम चिपका-चिपकी का नाम नहीं है, एक दूसरे के हितार्थ संकल्पबद्ध होने का नाम है। “मेरा काम है तेरा हित देखना, तेरा काम है मेरा हित देखना। मैं अपना हित नहीं देखता, तू अपना हित मत देख। तेरा हित मैं देखूँगा, मेरा हित, मैं यक़ीन करता हूँ कि तू देखेगा।” ये प्रेम है।
प्र: ऐसा प्रेम किसी रिश्ते में मिलता भी तो नहीं है।
आचार्य: तुम्हारी अलमारी में क्या है, उसका ज़िम्मेदार कौन है?
प्र: खुद ही हैं।
आचार्य: तुम हो। अब तुम मुझे बताओ—“मेरी अलमारी में, आचार्य जी, टोपी तो है ही नहीं!” तो मैं क्या कहूँगा? “रखी काहे नहीं?” अगर नहीं है तो किसने नहीं रखी? तुमने ही नहीं रखी, या टोपी अलमारी से पैदा होगी? तुम्हारे रिश्तों में प्रेम लाने का ज़िम्मेदार कौन है? तुम। ये ज़िम्मेदारी किसकी है कि रिश्तों का आधार ही प्रेम हो? पर रिश्ते या तो अँधेरे में बना लेते हो, या बेहोशी में, या स्वार्थवश, फिर कहते हो अलमारी में टोपा तो है ही नहीं। रखा किसने नहीं? कैसे बन रहें हैं रिश्ते?
प्र: ऐसी बात नहीं है कि हम प्रेम बाँटने की कोशिश ही नहीं करते, पर दूसरे लोग दुनिया और समाज के बंधनों में इतने गहराई से बंधे हैं कि उनके लिए पुराने गतिमान ढर्रे ही महत्वपूर्ण हैं।
आचार्य: (व्यंग्य करते हुए) हाँ, पता है दुनिया ही नालायक है!
(श्रोतागण हँसते हैं)
“जाँ निसार कर रहें हैं हम, कसम से! पर लेने वाले वो भी लेने को तैयार नहीं; दुनिया ही बेकदरी है।”
हाँ बेटा।
प्र: दुनिया तो जैसी भी हो पर यदि हम चाहे तो प्रेम बाँट सकते हैं।
आचार्य: इसी बात पर अटक जाओ। नहीं तो अपनी नज़रों में हम देवदूत से कम नहीं होते। हम देवदूत हैं, बाकी सब भूत हैं।
प्र: आचार्य जी, आप हित की बात कर रहें हैं, पर उसके लिए हित का पता भी तो होना चाहिए कि हित क्या है।
आचार्य: जो तुम्हारा हित है, वही तुम्हारे प्रियवर का हित है। जीसस इसीलिए बोल गए थे न, “पड़ोसी के साथ वो मत करो, जो तुम अपने लिए नहीं चाहते; क्योंकि तुम सबका हित वास्तव में एक है।”
प्र: आम जीवन में ऐसा होता है कि घर वाले बोलते हैं कि हम तुम्हारे भले के लिए ही बोल रहें हैं कि शादी कर लो; शायद उनको अपना हित शादी में दिखा होगा।
आचार्य: कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना।
प्र: वास्तविकता में उन्हें खुद पता ही नहीं कि उनका हित कहाँ है।
आचार्य: लड़की होशियार है।
हम इन शब्दों का बड़ा दुरुपयोग कर देते हैं न? हम अपनी वृत्तियों को, वृत्तिगत इच्छाओं को दूसरे के हित का नाम देकर उसके ऊपर चढ़ा देते हैं। अब ये बोलें दूसरे से कि देखो, हमारा जी ललचा रहा है किसी चीज़ के लिए, तो स्वार्थ ज़ाहिर हो जाएगा। तो ऐसे बोलेंगे “देखो वो चीज़ ले आओ, उसमें तुम्हारा बड़ा भला है।”
“भाई तुझे न मैं एक बहुत ख़ास पिक्चर दिखाना चाहता हूँ, बिलकुल बाग-बाग हो जाएगा तू पिक्चर देख कर। चल जल्दी से दो टिकट खरीद दे। कसम से तेरे लिए ही मैंने लगवाई है, थिएटर वाला तो मना ही कर रहा था।” सीधे नहीं बोलेंगे कि हमें पिक्चर देखनी है और टिकट तुम खरीदोगे। बता रहे हो कि भाई तुझे पिक्चर दिखाएँगे।
अम्मा घर में बेरोज़गार है, उसको बतियाने के लिए कोई चाहिए, अब सीधे नहीं बोलेंगी कि ‘*इन हाउस एंटरटेनमेंट*’ (घर में ही मनोरंजन) चाहिए। वो कहेगी कि, "बेटा तेरी ज़िन्दगी बड़ी खोखली, सूनी, और वीरान, और शमशान है; मुझे तेरे ऊपर बहुत दया आती है, तेरी जवानी बही जाती है, तो मेरे जाने के बाद तेरे लिए आलू-गोभी कौन बनाएगा?"
“भाई तेरे लिए ही लगवाई है वो पिक्चर, बस जल्दी से दो टिकट खरीद ले।”
प्र: यह भी तो एक तरह का उपभोक्तावाद ही हुआ न आचार्य जी?
आचार्य: बढ़िया। बाज़ार में जो चीज़ें बिकती हैं, उनको खरीदने का और उन्हें भोगने का तुम्हारा जो आग्रह है उसको तो उपभोक्तावाद बोल देते हो, कि ‘*कंज़्यूमेरिस्म*’ है, पर शादी के बाज़ार में स्त्री के जिस्म को भोगने की जो ललक है उसको क्यों नहीं कहते ‘*कंज़्यूमेरिस्म*’? या पुरुष के जिस्म को? जो भी है। बाजार वहाँ भी बिलकुल है पूरा, और भोग भी वहाँ बिलकुल है, पर उसको तुम मानोगे ही नहीं कि ये भोगवाद है। उसको कहोगे “ये तो रब ने बना दी जोड़ी।”
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