भारतीयों से नफ़रत क्यों बढ़ रही है विदेशों में?

Acharya Prashant

38 min
52 reads
भारतीयों से नफ़रत क्यों बढ़ रही है विदेशों में?
पालना कभी रहा होगा, तो कुछ नहीं है। इसमें मतलब ताज्जुब की क्या बात है? आपका सवाल किस दिशा से है, जिसकी आदत है अपना घर गंदा रखने की, वो कहीं भी जाएगा गंदा रहेगा। हमारी उम्मीद क्यों है कि हम कहीं और जाएँगे तो दूसरा व्यवहार करेंगे? हाँ, कई दशकों से हमें एक मॉडल माइनॉरिटी के तौर पर देखा जाता था विदेशों में, हम असिमिलेट हो जाते थे, जिस जगह जाते थे उनके नियम-क़ायदे सीख लेते थे। वहाँ पर जाकर उपद्रव नहीं करते थे, मारपीटाई नहीं करते थे, गुंडागर्दी नहीं करते थे, व्यवस्था से रहते थे, सलीके से। तो एक मॉडल माइनॉरिटी हमको कहा जाता था। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मेरा सवाल लैक ऑफ़ सिविक सेंस के ऊपर है, इंडियन्स का स्पेशली। अभी रिसेन्टली बहुत सारे वीडियोज़ मैंने फ्लोट होते हुए देखे हैं, यूट्यूब या फिर अदर सोशल मीडिया चैनल्स ऑल्सो।

आइ वुड लाइक टू ब्रेक इट इन थ्री पॉइण्ट्स। सो देयर आर सम वीडियोज़ ऑफ़ ट्रैवल ब्लॉगर्स जो फ़ॉरेन कंट्रीज़ जाते हैं। ऐण्ड देन दे आर बिहेविंग लिटिल अब्यूसिव विद द गर्ल्स आउट देयर। ऐण्ड वो लोग क्या करते हैं, उसका वीडियो भी निकाल करके उसको, दे पुट इट ऑन देयर सोशल मीडिया। तो *वन वीडियो व्हिच इज़ गोइंग वेरी वायरल, टू वीडियोज़ एक्चुअली, वन इज़ फ्रॉम टर्की ऐण्ड वन इज़ फ्रॉम थाईलैण्ड।

टर्की* वाले में वो बंदा है, जो साइड में फ़ोन लेके एक टर्किश वुमन के साइड में चल के लिटरली वो बोल रहा है कि, “भाई इसको मैं कहाँ दबोचूँ” ऐण्ड ऑल ऐसे स्टेटमेन्ट्स पास कर रहा है वो। ऐण्ड सिमिलरली फ्रॉम थाईलैण्ड। तो ये दो-तीन ऐसे वीडियोज़ हैं। ये पहला पॉइण्ट है।

दूसरा है कि वी आर नोन फॉर स्प्रेडिंग लिटर आउट एवरीवेयर। हम लोग मतलब अपना भी देश हम गंदा रखते हैं। हम अपने पड़ोस के भी एरिया को गंदा रखते हैं। और साथ में जब हम बाहरी देशों में जाते हैं तो हम वहाँ पे भी बहुत गंदगियाँ मचाते हैं। जिसकी वजह से दे आर कम्प्लेनिंग अ लॉट ऐण्ड बहुत सारे वीडियोज़ इसके ऊपर भी आते हैं, जिसमें वो लिटरली बोलते हैं कि इंडियन्स बिल्कुल भी हाइजीनिक नहीं हैं, प्लस हर जगह पर गंदगी मचा रहे हैं। देयर आर फ्यू वीडियोज़ व्हिच इज़ गोइंग वायरल, जहाँ पर वो लोग रास्ते में कचरा फेंक रहे हैं। एक बहुत ही सैड वीडियो है जिसमें वन पर्सन इज़ सिटिंग ऑन द बस स्टॉप। सो दैट्स अनदर केस।

ऐण्ड थर्ड थिंग इज़, आइ वॉण्ट टू अण्डरस्टैण्ड। आइ अण्डरस्टैण्ड लाइक, यू नो, दिस हमारे जितने भी त्यौहार हैं वो बहुत ही वाइब्रैण्ट हैं, बहुत लाउड हैं। मतलब, हम लोग सेलिब्रेट करते हैं, वो सब ठीक है, बट जिस तरीक़े से इनको सेलिब्रेट किया जाता है, ऐण्ड एट द सेम टाइम हम उसी चीज़ को बहुत प्राउडली दूसरे कंट्रीज़ में भी जाकर के उतने ही शोर-शराबा के साथ जो हम सेलिब्रेट करते हैं, मतलब दैट इज़ ऑल्सो अ प्रॉब्लम फॉर देम। ऐण्ड दे आर लाइक काइण्ड ऑफ़ डूइंग मास प्रोटेस्ट।

तो ऐसे बहुत सारे मास प्रोटेस्ट हो रहे हैं अक्रॉस द वर्ल्ड। बहुत सारे मास प्रोटेस्ट इमीग्रेशन को भी लेकर के हो रहे हैं, क्योंकि बहुत ज़्यादा नम्बरों में हम जा रहे हैं। ऐण्ड एट द सेम टाइम वी क्लेम कि हम लोग विश्व गुरु हैं।

तो मैं आपसे थोड़ा समझना चाहती हूँ कि हाउ कैन वी इम्प्रूव? हम ऐज़ अ सोसाइटी कलेक्टिवली कैसे इम्प्रूव कर सकते हैं? ये जो हम लोग शोर-शराबा कर रहे हैं और साथ-साथ में विदेशों में जाकर के गरबा करना, हर जगह पर बहुत सारे वीडियोज़ आ रहे हैं जिसमें हम लोग बुर्ज खलीफ़ा पर गरबा कर रहे हैं, फिर एयरपोर्ट्स पर लिटरली रिक्वेस्ट कर-कर के जबकि उनको मना किया जा रहा है तो भी वो बहुत ज़बरदस्ती करते हैं और फिर करते ही हैं फ़ाइनली।

तो आइ मीन, ये जो हम प्राउड हैं अबाउट दीज़ कल्चर, जिसके बारे में हमें जिसकी सही चीज़ की जगह ग़लत चीज़ पहुँच रही है। और ऐसा आपने पहले भी बोल रखा है कि भारत एक ऐसा देश है जो ज्ञान का एकदम पालना रहा है। यहाँ पर सारे ज्ञानी भी रहे हैं और एट द सेम टाइम हमारे पास ऐसे भी लोग हैं जो सिर्फ़ ऐसे काम कर रहे हैं जो लिटरली बदनाम करने वाली चीज़ें हैं।

आचार्य प्रशांत: पालना कभी रहा होगा, तो कुछ नहीं है। इसमें मतलब ताज्जुब की क्या बात है? आपका सवाल किस दिशा से है, जिसकी आदत है अपना घर गंदा रखने की, वो कहीं भी जाएगा गंदा रहेगा। हमारी उम्मीद क्यों है कि हम कहीं और जाएँगे तो दूसरा व्यवहार करेंगे? हाँ, कई दशकों से हमें एक मॉडल माइनॉरिटी के तौर पर देखा जाता था विदेशों में, हम असिमिलेट हो जाते थे, जिस जगह जाते थे उनके नियम-क़ायदे सीख लेते थे। वहाँ पर जाकर उपद्रव नहीं करते थे, मारपीटाई नहीं करते थे, गुंडागर्दी नहीं करते थे, व्यवस्था से रहते थे, सलीके से। तो एक मॉडल माइनॉरिटी हमको कहा जाता था।

पर वो सब इसलिए थोड़ी था कि हम भीतर से बदल गए थे। वो सब इसलिए था क्योंकि हम डरे हुए थे, क्योंकि हमारी गरज थी ज़्यादा, क्योंकि हम अपनी नाज़ुक हालत जानते थे। वी वर कॉन्शियस ऑफ़ आवर फ्रैजाइल सिचुएशन, कि देश में बहुत ग़रीबी है और अब यहाँ आए हैं बाहर तो एक मौका मिला है उस ग़रीबी से बचने का। अगर यहाँ हमने गड़बड़ करी तो कोई भविष्य नहीं है हमारे लिए। तो ये सब बातें पता थीं, तो डर के कारण और कह सकते हैं कि लालच के कारण हम ज़रा सलीके से रहा करते थे।

पर ज़्यादातर लोगों का केंद्र थोड़ी ही बदल गया था, भीतर से तो जो हमने उल्टी-पुल्टी आदतें, संस्कार और मान्यताएँ सब जो पकड़ रखे हैं, भीतर तो वे मौजूद ही थे। और मौजूद ही नहीं थे, भीतर तो वो हावी ही थे। बस हम उनका बाहरी तौर पर प्रदर्शन नहीं करते थे कि प्रदर्शन कर देंगे तो कहीं बोरिया-बिस्तर बाँध करके हमें वापस हिन्दुस्तान न भेज दिया जाए। तो थोड़ा हम डर के, सँभल के, तमीज़ में रहते थे।

अब इधर सोशल मीडिया का दौर है और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का दौर है। तो ख़ासकर जो नई पीढ़ी है, जेन ज़ी, वैसे तो उसको माना जाता है कि मॉडर्न नहीं पोस्ट मॉडर्न है और ये सब बातें हैं, लेकिन सबसे ज़्यादा जो रिग्रेसिव निकल रही है, पिछड़ी निकल रही है दिमाग़ी तौर पर, वो यही है, जेन जी ही है।

अगर आप देखेंगे कि सबसे ज़्यादा व्यर्थ किस्म की कट्टरता और जिंगोइज़्म कहाँ पाया जा रहा है तो इसी पीढ़ी में मिल रहा है, क्योंकि ये पले-बढ़े हैं सोशल मीडिया की खुराक पर। और सोशल मीडिया में कोई भी कंटेन्ट क्रिएटर आ जाता है, वो आपको बताना शुरू कर देता है कि ये पूरी दुनिया अरे इसमें कोई दम नहीं है, हम ही सब कुछ हैं। और अगर आज ये पश्चिमी देश अमीर दिख रहे हैं तो इसलिए हैं क्योंकि इन्होंने सब भारत का पैसा चुराया है। इन्होंने भारत का पैसा भी चुराया है, इन्होंने भारत का ज्ञान भी चुराया है। इसीलिए तो ये इतने अमीर हो गए हैं।

अब ये बात पूरी तरह ग़लत भी नहीं है, पैसा तो उन्होंने चुराया है, निश्चित रूप से चुराया है और कितना चुराया है इसकी साफ़-साफ़ गणना भी हो चुकी है। और जितना उन्होंने चुराया, अंग्रेज़ों ने, ब्रिटिश ने, जितना इन्होंने करीब समझ लीजिए 150 साल के दरमियान उन्होंने जो चोरी करी, उसकी आज जो क़ीमत होगी हम वो सब भी जानते हैं। वो सब हम जानते हैं।

पर बात सिर्फ़ ये नहीं होती कि उन्होंने पैसा चुराया है, बात ये भी होती है कि अगर आज हमें वहाँ पर ज्ञान दिख रहा है तो वो ज्ञान उन्होंने हमसे चुराया है। वो सब कुछ हमारी किताबों में पहले से लिखा था, सारी जो मॉडर्न साइन्स है, क्वाण्टम फ़िज़िक्स से लेकर सब एटॉमिक फ़िज़िक्स से लेकर कॉस्मिक फ़िज़िक्स तक, छोटी से छोटी से लेकर बड़ी से बड़ी तक जितनी बातें हैं, वो सब हमारी किताबों में पहले थीं। इसलिए पश्चिम हमसे ले गया।

दो ही चीज़ें हैं जो पश्चिम में हमको दिखाई पड़ती हैं, तीन चीज़ें हैं बल्कि। पहला पैसा, जो उनको हमसे बहुत अलग करता है। पहला पैसा, दूसरा ज्ञान-विज्ञान में, और तीसरा मानसिक खुलापन और उदारवाद, जो उनका एटिट्यूड है, जिसको हम उनकी संस्कृति कह सकते हैं।

तो पैसे पर तो ये हो जाता है कि अगर उनके पास पैसा है तो जितना भी उनके पास आज पैसा है, चाहे यूरोप, चाहे अमेरिका, जो भी उनके पास पैसा है, उन्होंने भारत से चुराया है। तो पैसे का ये हो जाता है। विज्ञान की जहाँ तक बात है, विज्ञान उन्होंने हमारी पुरानी किताबों से चुराया है, हमारे पास सब मौजूद था, तो उसका ये हो जाता है।

और जो उनकी संस्कृति है उसका ये हो जाता है कि उनकी संस्कृति तो वैसे ही घटिया है। हमारी तो वैसे ही आज भी श्रेष्ठ है, हमारी संस्कृति उनसे। क्या संस्कृति है उनकी? “घर की इज़्ज़त होती है औरत और उसको बाहर निकलवा के काम कराते हैं। म्लेच्छ कहीं के! और देखो ये क्या, बहुत ही बेकार लोग हैं ये, बहुत ही बेकार लोग हैं।”

तो इस तरीक़े से फिर क्या सिद्ध होता है? तीन चीज़ें हैं उनके पास जो हमसे भिन्न हैं। पहला पैसा, तो पैसा तो सारा जितना भी अमेरिका का है, अमेरिका का जीडीपी भर नहीं, अमेरिका राष्ट्र का जो कुल पूरा एसेट होगा वो भी सब उन्होंने भारत से चुराया है। तो अगर उनके पास पैसा है तो ये और बड़ा इल्ज़ाम है उनके ऊपर कि कितने बड़े चोर हो तुम। जितना ज़्यादा पैसा है, तुम उतने बड़े चोर निकले।

अगर विज्ञान है उनके पास, साइन्स ऐण्ड टेक्नॉलॉजी है, तो वो भी पूरा उन्होंने हमसे चुराया है। और अगर उनकी संस्कृति है, जिसको वो कहते हैं द लैंड ऑफ़ द फ़्री, तो अगर उनकी एक उदारवादी और खुली हुई संस्कृति है, तो संस्कृति तो वैसे ही घटिया है, छी! छी! उदारवाद के नाम पर देखो यहाँ पर क्या हो रहा है, ये ऐसे कोई तरीक़ा है? ख़ासकर मतलब महिलाओं को लेकर के तो बहुत ही बुरी संस्कृति है उनकी, बहुत ही बुरी है। “न तो परदे में रखते हैं, और घरों में खाना भी नहीं बनाती वो, बहुत ही ग़लत।”

तीनों बातें मिलाकर फिर सिद्ध क्या हो गया?

बहुत ही घटिया लोग हैं वहाँ। बहुत ही घटिया लोग हैं, और फिर बहुत ही घटिया लोग हैं तो पहले जैसे वाइट मैन’स बर्डन होता था, अब ब्राउन मैन’स बर्डन है। वाइट मैन’स बर्डन समझते हो? जब ये सब यहाँ से आए, अँग्रेज़ वग़ैरह, अँग्रेज़, डच, फ़्रेंच, पुर्तगाली, ये लोग आए थे, तो इन्होंने कहा कि ये सब असभ्य, अशिक्षित लोग हैं, भूरे लोग, और इन्हें कुछ आता-जाता नहीं है, और ये पता नहीं क्या करते हैं, मूर्तियों की पूजा करते रहते हैं। इन्हें कुछ पता नहीं है।

मैकॉले ने कहा था, कि “इनका जो पूरा ज्ञान है, वो हमारी लाइब्रेरी की किसी साधारण-सी शेल्फ़ में रखी दो-चार किताबों के ज्ञान से भी कम है।” बोले, “इनका जो पूरा ज्ञान है, इस पूरे देश का, उपमहाद्वीप का सारा ज्ञान एक तरफ़ रख लो और हमारी कोई साधारण-सी लाइब्रेरी की कोई साधारण-सी शेल्फ़ ले लो, उस पर दो-चार किताबें ले लो, हमारा ज्ञान इतना श्रेष्ठ है।” तो जो बात उन्होंने कही थी, और फिर उन्होंने कहा कि वाइट मैन’स बर्डन है।

वाइट मैन’स बर्डन क्या? कि एक ये जो वाइट मैन है, उसकी रिस्पॉन्सिबिलिटी है कि अब इन भूरे लोगों को सिविलाइज़ करें। इन्हें कुछ आता-जाता नहीं। इन्हें कपड़े पहनने की भी तमीज़ नहीं है। तो वैसे ही अब हमने ब्राउन मैन’स बर्डन अपने ऊपर ले लिया है कि अब हम तुम्हारे यहाँ आ रहे हैं। तुम घटिया लोग हो, तो अब हम तुम्हें कुछ तौर-तरीक़े सिखाएँगे, ख़ासकर ये जो सोशल मीडिया, यूट्यूबर और इंस्टाग्रामर होते हैं। तो जो आपने बोला कि अगर तुर्की में है तो वहाँ पर अगर कोई महिला है तो उसको गाली-वाली देंगे। पता नहीं किस बात पर दे रहे होंगे, मैं नहीं जानता। और उसको कहेंगे कि आओ, अब हम तुमको कुछ संस्कृति सिखाते हैं। समझ में आ रही है बात?

और ये सारी बात कह कौन रहे हैं? जिन्होंने इकॉनॉमिक्स नहीं पढ़ी, तो वो नहीं जानते कि ऐक्चुअली कितनी वेल्थ का ड्रेन हुआ था भारत से ब्रिटेन को। वो नहीं जानते, बस उन्हें पता है ऐसे, “हम सोने की चिड़िया थे, अँग्रेज़ आए, सोना ले गए।” ये कुल मिलाकर के इकॉनॉमिक्स का उनका पूरा ज्ञान है। अपनी इकॉनॉमिक्स बताओ, “हम सोने की चिड़िया थे, अँग्रेज़ आए, सारी चिड़िया, सोना सब।” ये उनकी इकॉनॉमिक्स है। ये पूरी उनकी थीसिस है, इस पर इनको डॉक्टरेट अवार्ड जानी चाहिए।

लेकिन ये बात मन में तो बैठ ही गई है, कि “हम विश्वगुरु ही नहीं, हम विश्व सेठ भी थे, और ये सब आए और हमारा सारा पैसा लूट गए। अब ये लूट गए तो जब उनके यहाँ जाएँगे तो उनको गाली देंगे न। उनको गाली देंगे और इनको ज्ञान-वग़ैरह तो कुछ आता ही नहीं है। इन्हें क्या पता? ज्ञान तो सारा हमें है।” और ज्ञान माने अभी आध्यात्मिक ज्ञान की बात नहीं हो रही। “ये साइन्स, टेक्नॉलॉजी, सब ये क्या जानते हैं साइन्स-टेक्नॉलॉजी? इंटरनेट हमसे पूछो, प्राचीन काल में हमारे यहाँ था।” हमारे यहाँ सब कुछ प्राचीन काल में होता है। आप कहीं भी कोई मन्दिर-वग़ैरह बनता देखें, वो बनेगा, उसके बाद उस पर लिख देंगे, प्राचीन मन्दिर। हमारे यहाँ सब प्राचीन है।

मैं बड़ी झंझट में रहता हूँ। प्राचीन माने क्या? कितना? सौ? दो सौ? छ: महीने? यहाँ तो छ: दिन पुराना भी प्राचीन है। प्राचीन काल में हमारे पास सारा ज्ञान था। ये सब आए, इन्होंने हमारी किताबों से ही तो चुराया। इन्हें क्या?

कौन बोल रहा है ये? जिसको इतिहास में केवल इतना ही पता है कि प्राचीन काल में हम विश्वगुरु थे। इकॉनॉमिक्स में क्या पता है? प्राचीन काल में हम सोने की चिड़िया थे। हिस्ट्री में क्या पता है? प्राचीन काल में हम विश्वगुरु थे। और ये बात फिर बोल रहा हूँ, ये बात जो प्रौढ़ पीढ़ी है वो नहीं बोल रही। ये बात ये जवान लड़के बोल रहे हैं। और ये बात इनके भीतर घुसेड़ी किसने है? सोशल मीडिया कंटेन्ट क्रिएटर्स, इन लोगों ने। बहुत ही व्यर्थ तरीक़े का राष्ट्रवाद।

वास्तविक राष्ट्रवाद क्या होता है, ये तो इन्होंने कभी पढ़ा ही नहीं। इन्हें राष्ट्रवाद के नाम पर ये सब बातें पता हैं कि ऐसे करना होता है। और “संस्कृति में तो फिर हमसे आगे है ही कौन! इनका कल्चर ख़राब, इनका खाना ख़राब, इनका सब ख़राब, सब बेकार है इनका।”

तो फिर वहाँ पर जाकर के एक एग्रेसिव असर्शन रहता है अपनी आइडेंटिटी का। और ये अभी शुरू हुआ है पिछले कुछ सालों से, पहले नहीं था। पहले तो मैंने जैसे कहा, हम मॉडल माइनॉरिटी माने जाते थे कि ये जहाँ जाते हैं वहाँ शांतिप्रिय तरीक़े से समाज को आगे बढ़ाते हैं। लोग पसंद करते थे। भारतीयों को इन जनरल जितने भी विदेशी समाजों में गए थे, भारतीयों को पसंद किया जाता था। और भारतीय समृद्ध भी बहुत थे।

मेरे ख़्याल से अमेरिका में अभी भी सबसे समृद्ध जो एथनिक ग्रुप है, वो भारतीयों का ही है अभी भी, या तो सबसे या नम्बर दो पर होगा। पर अब क्या है? “अजी, हाँ, इनको तो हम सैंट कर देंगे। ये जानते क्या हैं!”

दिक़्क़त बस ये है कि जब वो यहाँ आए थे तो वो ताक़त के साथ आए थे, और बहुत बड़ी ताक़त थी उनके पास। इतनी बड़ी ताक़त थी कि उतनी दूर यूरोप से, बिना बिजली के, बिना डीज़ल-पेट्रोल के और बिना स्टीम इंजन के, वो भारत तक आ ही नहीं गए थे, यहाँ जीत भी लिया था। वो यहाँ पर पहले आए व्यापारी बनकर और फिर विजेता बनकर। वो ऐसे आए थे क्योंकि उनके पास विज्ञान की ताक़त थी, पहले से थी, यहाँ आने से पहले से थी। उनके पास उनका विज्ञान था, और उनके पास एक संस्कृति थी जो कहती थी, बाहर जाओ, देखो, समझो। तभी वो इतनी दूर यात्रा करके यहाँ आए।

इसके उलट हम जब जाते हैं यूरोप या अमेरिका, तो हम कैसे जाते हैं? और ये तथ्य हम बार-बार भूल जाते हैं कि वो यहाँ कैसे आए थे और हम वहाँ कैसे जाते हैं। हम कैसे जाते हैं?

श्रोता: उनके बनाए हवाई जहाज़ में।

आचार्य प्रशांत: हम जाते हैं उनके बनाए हवाई जहाज़ में, उनकी कंपनियों में नौकरी माँगने, उनकी यूनिवर्सिटीज़ में सीट माँगने।

हम भूल ही जाते हैं कि अंग्रेज़ों का यहाँ आना आज से तीन-चार सौ साल पहले, और हमारा अब यूरोप या अमेरिका जाना भाई, बहुत अलग-अलग बात है। हम वहाँ जाते हैं क्योंकि उनकी यूनिवर्सिटीज़ बेहतर हैं हमारी यूनिवर्सिटीज़ से, बहुत-बहुत बेहतर हैं। हम वहाँ जाते हैं क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्था बहुत बेहतर है हमारी अर्थव्यवस्था से। और फिर हम वहाँ जाकर बसना चाहते हैं क्योंकि वहाँ का हवा-पानी बहुत बेहतर है, क्योंकि वहाँ का जो समाज है कहीं ज़्यादा उदार है। वहाँ कुछ बोल देने पर या कह देने पर कोई आपकी गर्दन काटने नहीं आ जाएगा।

लेकिन ये आश्चर्यों में आश्चर्य है कि ये जो नई पीढ़ी निकली है, इसका फ़ैक्ट से तो कोई ताल्लुक ही नहीं है। इसको पता क्या है? बस यूट्यूबर। कोई यूट्यूब में भी तो फिर भी बीस मिनट या आधे घंटे, एक घंटे का वीडियो डलेगा। इंस्टाग्राम, एक मिनट में ये इतिहास में पीएचडी हो जाते हैं। वो भी बैकग्राउंड म्यूज़िक के साथ। एक मिनट के भीतर इतिहास में पीएचडी हो जाते हैं ये। सब कुछ आ जाता है, ऐसे-ऐसे फ़्लैश कर रही होती है स्क्रीन्स। अब बस हो गया, सब समझ में आ गया कि इतिहास भर में क्या हुआ है। ट्रिपल डॉक्टरेट, इकोनॉमिक्स, हिस्ट्री ऐण्ड कल्चर — तीनों में बिल्कुल इनको विशेषज्ञता हासिल है। और उससे भरकर ये फिर जाकर के हर जगह अपने आप को असर्ट करेंगे।

अब तुम असर्ट करोगे तो फिर वही होगा जो हुआ है। आज ही आया है, कितना करा है H-1b पर? एक लाख डॉलर करा है न? वो कह रहे हैं, “मत आओ। हम तुम्हें आने ही नहीं देना चाहते, आना है तो इतना पैसा निकालो।” वो समय दूसरा था जब हमारे एक्सपोर्ट्स इतने क़ीमती होते थे कि हमारे एक्सपोर्ट्स के लिए यूरोप के देश मर रहे होते थे। आपस में कम्पीट कर रहे होते थे कि इंडिया से जो ट्रेड लाइन्स हैं, उन्हें कंट्रोल कौन करेगा। वो दूसरा समय था।

आज हमारे एक्सपोर्ट्स की ये हालत है कि अमेरिका कहता है, टैरिफ़ लगा देंगे, हमें तुम्हारा एक्सपोर्ट चाहिए नहीं। और जब हम तुम्हारा एक्सपोर्ट रोकेंगे तो नुकसान हमारा नहीं होगा, नुकसान तुम्हारा होगा। अमेरिका इतनी टैरिफ़ क्यों लगा पा रहा है? क्योंकि कह रहा है कि तुम्हारा एक्सपोर्ट हमारे यहाँ नहीं आएगा तो और कई रिप्लेसमेंट्स हैं। तुम जो हमें एक्सपोर्ट करते हो, वो एक्सपोर्ट चाइना से भी आ सकता है, पाकिस्तान से भी हो सकता है, बांग्लादेश से भी आ सकता है, वियतनाम से भी आ सकता है। वास्तव में हमारे एक्सपोर्ट रुके हैं तो इन सब देशों को फ़ायदा हो गया है।

बोल रहे हैं, तुम जो एक्सपोर्ट कर रहे हो, इतनी बड़ी चीज़ है ही नहीं, वो कोई भी और एक्सपोर्ट कर देगा। लेकिन हम तुम्हें जो दे रहे हैं डॉलर, वो तुम्हारे लिए बड़ी चीज़ है और तुम्हें जो एंप्लॉयमेंट जनरेट हो रहा है हमें एक्सपोर्ट करके, वो बड़ी चीज़ है। नुकसान तुम्हारा होगा।

अमेरिका ने ये सब कैलकुलेशन करा, तभी वो फिर आकर के टैरिफ़ ठोक पाया। ये फ़ैक्ट्स हमें नहीं समझ में आते कि अभी हम खड़े कहाँ पर हैं। एक बारी समझ जाओ, खड़े कहाँ पर हो, तो फिर वहाँ से आगे निकला जा सकता है। फिर वहाँ से उन्नति, तरक़्क़ी हो सकती है। पर हवाहवाई एक बुलबुला बनाकर उसमें कहना, कि “मैं ही विश्वगुरु हूँ, मैं ही श्रेष्ठ हूँ।” अपना ही अपमान करवाना है तो करो ये सब।

अब जो अमेरिकी कंपनियाँ हैं, वो अपने सब एंप्लॉयज़ को बोल रही हैं कि अमेरिका से बाहर अभी चले मत जाना, नहीं तो वापस नहीं आने देंगे ये। और अगर बाहर हो तो चौबीस घंटे में वापस आ जाओ (सोर्स: द हिन्दू)। ये तो हमारी हालत, कड़वा शब्द है पर कहना चाहिए — हैसियत है।

यहाँ तक कि जो लोग अब बहुत-बहुत सालों से वहाँ पर रह रहे हैं, पासपोर्ट भी उठा लिया वहाँ का, वो बेचारे भी काँप रहे हैं कि हमारा भी पता नहीं क्या हो जाए। क्योंकि उनका घर, परिवार, बच्चे कोई भारत आना नहीं चाहता। उन्होंने देखा है कि यहाँ क्या है, वहाँ क्या है। लेकिन उसके बाद भी हम बदलना नहीं चाहते, सुधरना नहीं चाहते। हम सचमुच विश्वगुरु नहीं बनना चाहते, हम बस दावे करना चाहते हैं बड़े-बड़े। बहुत-बहुत मेहनत लगती है एक यूरोप या अमेरिका बनने में, बहुत मेहनत लगती है।

सिर्फ़ ये कहने से नहीं होगा, कि “अरे ये तो लुटेरे थे, पहले जाकर इन्होंने रेड इंडियन्स का लैंड लूट लिया, उसके बाद जाकर इन्होंने कॉलोनिज़ का पैसा लूट लिया, तो ये ऐसे हो गए हैं।” हाँ, जो आप बोल रहे हो, बात ठीक है। वो कहानी का एक हिस्सा है। पर कहानी का ज़्यादा बड़ा हिस्सा ये है कि उन्होंने बहुत-बहुत मेहनत करी है, रिसर्च करी है इंस्टीट्यूशन्स खड़े करे हैं। और इंस्टीट्यूशन सिर्फ़ हार्ड इंस्टीट्यूशन्स नहीं, सॉफ़्ट इंस्टीट्यूशन्स भी, उदाहरण के लिए, डेमोक्रेसी।

हमारे यहाँ थी क्या? जब अंग्रेज़ भारत आए तो यहाँ डेमोक्रेसी थी? और डेमोक्रेसी होती तो क्या हम अंग्रेज़ों को यहाँ पर क़दम जमाने देते? आज हम कहते हैं, लोकतंत्र, लोकतंत्र, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र। हम लोकतांत्रिक थे क्या? तो लोकतंत्र भी हमने उन्हीं से इम्पोर्ट किया है।

हमें अपनी कमज़ोरियाँ देखनी ही नहीं हैं, हमें ये कहना है, “हम जैसे भी हैं, हम ही हैं।” ठीक है, तुम ये कह सकते हो, देश के अंदर नारा लगा सकते हो। देश के अंदर तो वो पीटे जाएँगे मेरे जैसे लोग, जो आकर के बताएँगे कि तुम ये जो कर रहे हो, ये काम खोखला है। लेकिन यही काम जो तुम देश के भीतर कर रहे हो, नारेबाज़ी और छा जाना, यही काम करते-करते तुम इस भुलावे में आ जाते हो कि ये काम बढ़िया है। तो तुम यही काम फिर जाकर विदेशों में करना शुरू कर देते हो, फिर बहुत पीटे जाते हो। फिर उसके वीडियो बनते हैं और आते हैं, कि “अरे देखो, भारतीयों के साथ बड़ा अन्याय हो रहा है। बाहर गए हैं तो पीटे जा रहे हैं।”

तुम्हें किसने कहा था कि ग़लतफ़हमी में रहो कि अमेरिका भी भारत है, और भारत में आकर के तुम बदतमीज़ियाँ कर लेते हो, गंदगियाँ कर लेते हो, कुछ भी कर लेते हो। तुम्हें कोई रोक नहीं सकता, बल्कि जो रोकने आए, पुलिस उसको उठा ले जाएगी। क्योंकि तुम्हारी धार्मिक भावनाएँ आहत हो जाएँगी तुम्हें रोका जाएगा तो, हम तो सेंटिमेंट के लोग हैं भाई। कोई कुछ भी बदतमीज़ियाँ कर रहा हो, आप उसको रोकने जाओ तो तुरंत हो जाएगा, आपने इसकी धार्मिक भावनाएँ आहत करी हैं। तुरंत आप पकड़े जाओगे।

पर यही काम वो बाहर भी कर लेते हैं। रात में दो बजे बहुत ज़ोर-ज़ोर से लगा दिया डिवोशनल म्यूज़िक। पुलिस पकड़ के ले गई। अब बाहर नहीं आने को हो रहे, बेल नहीं मिल रही। कह रहे हैं, “हिंदुस्तान में तो ये करते थे, तो किसी की हिम्मत नहीं थी पुलिस को बुला ले। कोई पुलिस को बुला ले तो अगले दिन वो घर में ना मिले, क्योंकि पुलिस को बुलाया उसने तो पुलिस उसी को उठा ले गई, कि तू क्या कर रहा है, *एंटी-सोशल एलिमेंट। लोग क्या आपने अब धर्म का सेलिब्रेशन भी नहीं कर सकते रात में तीन बजे। इतना ही तो किया है कि रोड ब्लॉक कर दी हैं सारी। इतना ही तो करा है कि ढोल-नगाड़े बज रहे हैं। इतना ही तो करा है कि धर्म के नाम पर बिल्कुल अश्लील किस्म के गाने और नाच चल रहा है। यही तो करा है, इसमें क्या बुराई है। और तू शिकायत कर रहा है? चल तू अंदर चल।”

तो वही आदत लग गई है, सोचा पूरी दुनिया ही ऐसी है, तो बाहर जाकर भी यही सब करना शुरू कर दिया। अब बाहर ये सब शुरू कर दिया, तो अब ख़बरें आ रही हैं कि इंडियन्स के अगेंस्ट वेस्टर्न सोसाइटीज़ में हेट बढ़ रही है। और अगर इंडियन्स के अगेंस्ट वेस्टर्न सोसाइटीज़ में हेट बढ़ रही है तो हम इसके लिए भी वेस्टर्न सोसाइटीज़ को हेट कर रहे हैं, कि “ये सब रेसिस्ट हैं और इंडियन्स की जो सक्सेस है न, उससे जल रहे हैं। जलते हैं, हमसे जलते हैं। तभी तो हम जब वहाँ जा रहे हैं तो ये हमें हेट कर रहे हैं।”

थोड़ा तो ज़मीन पर आ जाओ, थोड़ा तो। दो महीने के लिए इंस्टाग्राम अनइंस्टॉल कर दो और अपनी पीएचडी सरेंडर कर दो। थोड़ा-सा इस बात के लिए स्थान बनाओ, कि शायद तुम हिस्ट्री में पीएचडी नहीं हो। कि शायद ये जो पॉडकास्ट्स में सब हिस्टोरियन बन के आते हैं, इन्हें हिस्ट्री का क, ख, ग नहीं पता है।

ये जो हिस्टोरियन बन के आ रहे हैं, किस यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर हैं? किस यूनिवर्सिटी के? बताओ तो। किसी यूनिवर्सिटी के नहीं, हाँ वही व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी बस। पर ये आते हैं और वहाँ पॉडकास्ट में बैठ जाएँगे और बिल्कुल इनको 4K, 8K में रिकॉर्ड किया जाएगा और सामने वो बैठा होगा, वो ऐसे-ऐसे (बड़ी-बड़ी आँखे करते हुए) करके इनकी बातें सुनेगा और आपको लगेगा कि ये, और उसका पॉडकास्ट का टाइटल दिया जाएगा, “द रियल इंडियन हिस्ट्री दैट वाज़ हिडन फ़्रॉम यू।” और आप कहोगे, ये है असली हिस्ट्री।

और वो तो एक घंटे का फिर भी पॉडकास्ट होगा। उसकी एक मिनट की क्लिप में आप पीएचडी हो जाते हो। एक मिनट की क्लिप में ये पूरा देश, इतिहास में, इकोनॉमिक्स में, आप बताओ हर चीज़ में, साइंस में पीएचडी करे बैठा है। जो बी.ए. फ़ेल हैं, वो आकर बता रहे हैं कि हमारे यहाँ पर क्वांटम मैकेनिक्स में पुराणों में बहुत रिसर्च है। लल्लूलाल झुमटा कॉलेज से इनसे बी.ए. नहीं पास हुई। ये एक मिनट की इंस्टाग्राम की रील देखकर क्वांटम फ़िज़िक्स में पीएचडी हुए बैठे हैं और पूरे आत्मविश्वास के साथ वहाँ पर ट्रेन के जनरल डब्बे में आठ-दस को घेर करके ज्ञान दे रहे हैं। वो सब ऐसे सुन रहे हैं, वैसे ही “नहीं, सही बात है। सही बात है।”

देखिए जो क्वांटा है न, देखिए क्वा और टा, तो इसका संबंध कुण्डलिनी शक्ति से है। शिक्षा व्यवस्था हमारी ऐसी कि ये सब जो अभी नई पौध निकल रही है, इनमें से कोई नकल करके पास हुआ है, कोई ग्रेस मार्क्स से पास हुआ है। सीबीएसई इन सब ने अपने सिलेबस ऐसे कर दिए हैं कि परसेंटेज वग़ैरह होता नहीं, आसानी से पास हो जाते हैं। तो एकेडमिक रिगर कुछ रहा नहीं है। एकेडमिक रिगर कुछ रहा नहीं है, तो अपना इधर-उधर से कहीं से कुछ पढ़ लिया, कुछ सुन लिया, उसी को ये साइंस मानते हैं, उसी को इकोनॉमिक्स मानते हैं, और उसी को जाकर के फिर ये फ़ॉरेन सॉइल पर असर्ट करना शुरू कर देते हैं। और फिर पीटे जाते हैं।

मैं नहीं कह रहा, वहाँ लोग दूध के धुले हुए हैं। वहाँ बिल्कुल रेसिज़्म है। पर उनकी वो जाने, हम तो ये जानना चाहते हैं कि चाहे भारत हो, चाहे अमेरिका हो, हम उपद्रव कर क्यों रहे हैं और किस बिनाह पर। और हमारा जो उपद्रव है, ये बिल्कुल खोखला है।

हम कोई भगत सिंह, राजगुरु वाली क्रांति थोड़ी कर रहे हैं। भगत सिंह बहुत पढ़े-लिखे आदमी थे, तब जाकर के वो क्रांति कर पाए। हम तो शोर मचाने वाली क्रांति कर रहे हैं।

हम ये, “होऐ..।” चार लफंगे प्लेन पर बैठ कर के कहीं पहुँच जाएँगे और वहाँ जाकर ऐसे बर्ताव करेंगे जैसे उन्होंने वो जगह ख़रीद ली है। ये तो छोड़ो कि विदेशों में, भारत के अंदर ही, जाकर देखो गोवा में हमारे उत्तर भारत से, ख़ासकर जो लोग आते हैं उनका व्यवहार। सब नहीं करते, कुछ अच्छे अपवाद भी होंगे, पर ज़्यादातर लोग जिस तरह का व्यवहार करते हैं जाकर, और जो गोवा की स्थानीय आबादी है उनसे पूछो कि उनका उत्तर भारतीयों को लेकर क्या मत है? नहीं पसंद करते। बोलते हैं, “ये ऐसे ही जाते-चलते जाएँगे और यहीं पे कहीं सड़क किनारे खड़े हो के वहीं पर मैगी बनाना शुरू कर देंगे, फिर वहीं बैठ जाएँगे, गंदगी फैलाएँगे, रैपर छोड़ेंगे, बियर की बोतलें छोड़ेंगे, बीच पर जाएँगे। बीच पर जाएँगे इसीलिए कि लड़कियाँ छेड़नी हैं।”

अब गोवा अपना है तो वहाँ के लोग बहुत ज़्यादा प्रतिकार नहीं करते, पर बाहर यही हरकत करोगे और फिर पीटे जाओ, तो ताज्जुब क्या है? ये एक सैड बन गया है, “सब हमसे नीचे के हैं।” क्या? “सब हमसे नीचे के हैं।” और ये बात जब अपने आप को सौ बार बोलोगे न, “सब हमसे नीचे के हैं” तो ख़ुद भी इस बात में यक़ीन करना शुरू कर देते हो। और जब ख़ुद इस बात में यक़ीन आ जाता है तो फिर अपना व्यवहार भी वैसे ही हो जाता है, कि जैसे “सब नीचे के हैं, सब हमसे नीचे के हैं।” तो अपना व्यवहार भी फिर वैसे ही हो जाता है।

“पूरी दुनिया हमारे इशारे पर चलती है।” अभी ओलंपिक्स हुए, कुछ नहीं आया। चीन के 40 स्वर्ण थे, कुछ नहीं आया हमारा। तो मैंने डाला उस पर, मैं कहा को छोड़ूँ, इतनी लंबी-चौड़ी बात? तो उस पर लोग बोल रहे हैं, “अजी हाँ, हटाओ ये ओलंपिक्स वग़ैरह तो, ऐसे ही है ये इनका मज़ाक है, कुछ नहीं है ओलंपिक्स में। आईपीएल है न हमारे पास, अमेरिका की मजाल आईपीएल में जीत के दिखाए।” यह इनका जवाब है। बोल रहे हैं, “ओलंपिक्स तो ये गोरे लोगों का मज़ाक होता है, इसमें तो कुछ है ही नहीं दम। असली चीज़ आईपीएल होती है। अमेरिका से बोलो, आईपीएल जीत के दिखाए।”

वो सीरियसली यह बात कह रहा है। ख़ौफ़। और पाखंड ये कि यही लड़का अमेरिका जाने के लिए अपना हाथ कटाने को तैयार हो जाएगा। और अगर न मिले वीज़ा तो वैसे जाएगा, क्या बोलते हैं उसको? डंकी और कबूतरबाज़ी, वो सब करेगा। और फिर सौ तरह का अपमान झेलेगा, जब अमेरिका से इनको डिपोर्ट करते हुए प्लेन आएगा और पूरे रास्ते प्लेन के भीतर भी हथकड़ी बाँध कर बैठे होंगे।

देखो, लाख बुराइयाँ हैं पश्चिम में, बिल्कुल हैं, और कभी मुद्दा छिड़ेगा पश्चिम की बुराइयों का तो करेंगे विस्तार में चर्चा। एक बुराई खोजेंगे तो उनकी दस निकलेंगी, बिल्कुल निकलेंगी। पर पहले ज़रूरी होता है अपने गिरेबान में झाँकना। कि नहीं?

वह भी ऐसा नहीं है कि जितने भारतीय हैं, सबसे हेट कर रहे हैं। हालाँकि हेट की ख़बरें अब हर तरफ़ से आ रही हैं, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, हर जगह से ये आ रहा है। ब्रिटेन जैसी जगह, जहाँ पर सबसे पहले भारतीयों ने जाना शुरू करा था। जब हमने भारत से बाहर निकलना शुरू करा, तो ब्रिटेन उन पहले देशों में था जहाँ पर हम जाकर के सेटल हुए। तो लगभग अब एक शताब्दी बीत चुकी है, जो पहले इंडियन इमीग्रेंट्स थे, उनकी एक शताब्दी होने को आ रही है, 1925 से 2025। ब्रिटेन तक में पहली बार जो एंटी-इमीग्रेशन रैली निकली है, उसमें भारतीयों का नाम लिया जा रहा है कि “ये लोग यहाँ किस लिए आए हैं?”

यह खूब हो रहा है। लेकिन इसके बावजूद मैं कह रहा हूँ, कि वहाँ ऐसा नहीं है कि सभी भारतीयों से नफ़रत की जा रही है। इज़्ज़त भी हिंदुस्तान को खूब मिली है बाहर। पर बाहर उन भारतीयों को इज़्ज़त मिली है जो इज़्ज़त पाने लायक हैं, बिल्कुल मिली है, जो जाकर के उनकी सोसाइटीज़ में कुछ वैल्यू ऐडिशन दे पाए हैं। उन्होंने उनको इज़्ज़त भी दी है। जो वहाँ पर जाकर गंदगी मचाएँगे और धूम मचाएँगे, उनको थोड़ी इज़्ज़त दे देंगे?

अगर वो इज़्ज़त न दे रहे होते, अगर वो अन्याय ही कर रहे होते तो हमें ये फ़ख़्र करने का मौका कैसे मिलता कि इंडियन ओरिजिन के इतने लोग पॉलिटिकली पावरफ़ुल हो गए वहाँ पर, या कि इतने कॉरपोरेशंस में टॉप पोज़ीशंस पर पहुँच गए। इसका मतलब यह है कि डिस्क्रिमिनेशन तो नहीं कर रहे ना वो। एक डेमोक्रेटिक प्रोसेस में अगर भारतीय मूल का कोई व्यक्ति कोई पोज़ीशन पा रहा है तो इसका मतलब वहाँ बहुत सारे लोगों ने उसको वोट दिया है और गोरे लोगों ने ही वोट दिया है। तो ऐसा तो नहीं है कि वो तय करके बैठे हैं कि हमें इन भूरे लोगों के अगेंस्ट डिस्क्रिमिनेट करना है। ऐसा तो नहीं होगा न?

लेकिन गंदी आदतें जगह बदलने से छूट नहीं जातीं। और घटिया मान्यताएँ पकड़ लोगे तो समय बीतने के साथ तुम्हें ख़ुद ही अपने झूठों पर यक़ीन होना शुरू हो जाएगा। और ये बड़ी ख़तरनाक हालत होती है, तुमने पहले झूठ पकड़ा, फिर उस झूठ को अपने से इतनी बार दोहराया कि वो झूठ तुम्हारे लिए सच बन गया और अब उसी सच के अनुसार तुम्हारा व्यवहार हो गया। और अब उस व्यवहार पर जब किसी की प्रतिक्रिया आती है तो तुम दंग रह जाते हो, कि “अरे, मैं गंदगी ही तो फैला रहा हूँ। ऐसा क्या हो गया?”

जो फिर भारत में रवैया रहता है कि अगर कोई लड़की कम कपड़े पहन के घूम रही है तो इसका मतलब ये ख़ुद चाहती है कि हम इसे अप्रोच करें। तो वहाँ जाते हैं तो वहाँ तो ख़ासकर अगर गर्मियाँ आएँ तो सबने ही कम कपड़े पहन रखे होते हैं। तो ये हेलो-हाय करने पहुँच जाते हैं, सेल्फ़ी ले रहे हैं। ये गोवा में भी करते हैं खूब ये, वहाँ कोई इनको अगर मिल जाए गोरी, तो उसके पास जाकर, “हे मैम, वन सेल्फ़ी।” और उसने हाँ बोला कि ना। पहली बात तो तुम हो कौन? ना नाम पता, तू कौन आ रहा है? क्यों सेल्फ़ी ले रहा है उसके साथ? इंतज़ार भी नहीं करते कि हाँ-ना बोल रही हो। वो खड़ी हुई है और ख़ासकर अगर बिकनी में दिख गई, तब तो उसके साथ सेल्फ़ी लेनी ही है। अब वो यहाँ आ गए हैं, नहीं बोल रहे हैं कुछ, पर्यटक बनकर आए हैं, पर यही काम उनके देश में करोगे।

हाँ, बिल्कुल अतीत में हम ज्ञान का पालना रहे हैं, बिल्कुल रहे हैं, पर ज्ञान पर यह देश अब चल कहाँ रहा है। हम तो अब भावना पर चलने वाले हैं न, ज्ञान और भावना इकट्ठे थोड़ी चलते हैं। हमें तो बहुत अच्छा लगता है, हम सेंटिमेंटल लोग हैं। कुछ बोलना नहीं, हम सेंटिमेंटल लोग हैं। आपका सेंटिमेंट आपको मुबारक हो, दुनिया थोड़ी उसको सम्मान देगी। और बिल्कुल, हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम दोबारा हर क्षेत्र में दुनिया में चमकें और ऐसा चमकें कि दुनिया को रोशनी दें और राह दिखाएँ, बिल्कुल बनता है फ़र्ज़ हमारा, हमें करना चाहिए ऐसा। पर वो सब करना ध्यान का काम है और श्रम का काम है, नारेबाज़ी का काम नहीं है न।

वो सब शोर मचाने से नहीं होता। वो सब एकांत साधना से होता है। एक लंबे समय तक धीरे-धीरे इंस्टीट्युशंस डेवलप करने पड़ते हैं। पब्लिक में समाज में एक नए तरीके की सोच विकसित करनी पड़ती है, तब जाके कोई राष्ट्र आगे बढ़ पाता है। साइंस आगे बढ़ती है फैक्ट्स के एक्सप्लोरेशन से, और अगर समाज ऐसा हो गया है कि वो फैक्ट्स की जगह इमेजिनेशंस और सुपरस्टिशंस को महत्त्व देता है तो बताओ उस समाज में साइंस आगे कैसे बढ़ेगी?

जहाँ वैज्ञानिकों से ज़्यादा आपको बाबाओं के नाम पता हों। जहाँ वैज्ञानिक विषयों पर भी बाबा लोग आकर के ज्ञान बाँच रहे हों, वहाँ राष्ट्र आगे कैसे बढ़ेगा?

इस समय पर आपको भारत के कितने शीर्ष वैज्ञानिकों के नाम पता हैं? या एकेडमिशियंस के नाम पता हैं? या इकोनॉमिस्ट्स के नाम पता हैं? बताइए। आपको पता है जो हमारे अच्छे से अच्छे हैं भी साइंटिस्ट, इकोनॉमिस्ट्स वग़ैरह, वो सब अमेरिका में बैठे हुए हैं। यहाँ न उनके लिए इंस्टिट्यूशन है और न रिकॉग्निशन है। और एक और नई चीज़ हमने अब सीखी है, कोई हमें आईना दिखाए तो झट से उसको बोलो एंटीनेशनल, राष्ट्रद्रोही है ये राष्ट्रद्रोही।

एक बहुत अनपढ़ किस्म की भीड़ है जो भारत के राष्ट्रीय जीवन पर छाती जा रही है, और ताक़त उसकी बस बढ़ती ही जा रही है। और मुझे डर लगता है ये सोच के कि इसका भारत राष्ट्र के लिए फिर क्या अर्थ है? आज से दस-बीस साल पहले जब मैं स्कूल-कॉलेज में था, तो मैं देखता था कि लोगों को बुरा लगता था, अगर उनको कुछ नहीं पता है तो। बेचारों में हीन भावना आ जाती थी। तब मैं कहा भी करता था कि इसमें इंफीरियर फील करने की कोई बात नहीं है, हीनता मत अनुभव करो। कुछ नहीं आता तो जानो और आगे बढ़ो। पर वो शायद इतनी बुरी बात नहीं थी क्योंकि तब लोगों को अपने अज्ञान पर कम से कम हीनता महसूस तो होती थी।

अभी मामला बिल्कुल पलट चुका है, आज जो जितना ज़्यादा अज्ञानी है वो उतनी ऐंठ में घूम रहा है। याद है मैंने कहा था ‘गँवार स्वैग।’ इसी बात का स्वैग है कि हम ‘गँवार’ हैं। और खुल के बोलेंगे, “ये सब हमें कुछ न आता, बस मार देंगे हम। और तू कुछ न कर पाएगा, पुलिस हमारी है।” बस ये है, वहाँ धौंस ही इस बात की है कि हम अज्ञानी हैं, “हमें कुछ नहीं आता, बात मत करना हमसे बहुत।”

तो कहाँ तो वो समय था कि किसी को कुछ नहीं आता था। तो बेचारा लुक छिप कर, बच कर चलता था। उसको कहना पड़ता था कि “नहीं आता, तो कोई बात नहीं; डरो नहीं। शिक्षा हासिल करो, जानकारी बढ़ाओ, तुम भी आगे बढ़ सकते हो।” वहाँ से हम यहाँ पर आ गए हैं जहाँ यह एक तरह की उपलब्धि बन गया है, क्वालिफिकेशन बन गया है, मेडल बन गया है। क्या? कि हम?

श्रोता: गँवार हैं।

आचार्य प्रशांत: “हम गँवार हैं, दूर हट जा। सड़क भी हमारी है, समाज भी हमारा है, मार देंगे।” मोबोक्रेसी। और जो सब पढ़े-लिखे लोग हैं, वे अपनी भद्रता के बोझ तले दबे हुए हैं। “हम शालीन लोग हैं, अब हम गुंडों के सामने थोड़े ही पड़ेंगे।” नहीं साहब, चीज़ें बहुत बदल गईं, सचमुच अगर भारत से प्रेम है, तो गुंडों के सामने अब पड़ना पड़ेगा। नहीं तो भारत क्या हम गुंडों को सौंप देना चाहते हैं?

पूछ रहा हूँ आपसे: इतिहास जवाब माँगेगा — अपने राष्ट्र से प्रेम है कि नहीं? तो किसके सुपुर्द कर देना चाहते हो? उसको पीछे क्यों हटा देते हो? सड़क क्यों छोड़ देते हो? हक़ क्यों छोड़ देते हो? उन्हें क्यों हक़ दे दिया है परिभाषित करने का कि राष्ट्र माने क्या? राष्ट्र उनकी बपौती है? राष्ट्र हम परिभाषित करेंगे न, कि राष्ट्र माने क्या होता है? हम हैं ऋषियों के वंशज, हम जानते हैं राष्ट्र का अर्थ। तुम्हारे हाथों थोड़ी सौंप देंगे राष्ट्र को। और जब राष्ट्र उनका हो जाता है तो आप राष्ट्रद्रोही हो जाते हो। समझो इस बात को बहुत अच्छे से।

इन मूर्खों का हो जाएगा अगर राष्ट्र, तो आप तो सिर्फ राष्ट्रद्रोही ही कहला सकते हो फिर। ठीक वैसे जैसे विभीषण को लंका-द्रोही कहा गया था। लंका अगर रावण की है तो राम का प्रेमी तो राष्ट्रद्रोही ही कहलाएगा।

यह सज्जनता हमें ले डूबी।

श्रोता: प्रणाम, आचार्य जी। एक अवलोकन है कि जो जितनी भी उटपटांग बातें करनी होती हैं, जैसे सोशल मीडिया, स्पे‌शल्ली ट्विटर या इंस्टाग्राम पर। तो जैसे स्त्रियों के प्रति कोई रूढ़िवादी मान्यता के साथ आ रहा है और कोई अभद्र टिप्पणी कर रहा है किसी भी जनरल डिस्कशन में; और अवैज्ञानिक बातें कर रहा है और स्यूडो-साइंस फैला हुआ है, सुपरस्टिशन फैले हुए हैं।

तो अगर हम उसकी प्रोफ़ाइल पर जाएँ तो एक साझी बात है कि वह अपने साथ-साथ हमारे धर्म को भी बदनाम कर रहा है, क्योंकि उसकी प्रोफ़ाइल पर लिखा रहेगा कोई तथाकथित धार्मिक श्लोक, और हमारी भगवान का प्रोफ़ाइल पिक्चर होगा एकदम, बहुत कॉमन है।

आचार्य प्रशांत: ये हमारे लिए डूब मरने वाली बात है न, कि जो सबसे मूर्खता की और सबसे गंदी, सबसे भद्दी, सबसे अश्लील बातें कर रहे होते हैं लोग, उन्होंने हमारे भगवानों को मोनोपोलाइज कर लिया। उन्हीं के प्रोफ़ाइल पर सबसे ज्यादा लिखा रहेगा ‘सनातनी’। ‘सनातनी’ लिखने का हक़ हमें है न? गीता को ज़िंदगी हम अर्पित कर रहे हैं न? पर ‘सनातनी’ उनकी प्रोफ़ाइल पर लिखा रहेगा। यह हमने क्यों होने दिया है? यह आप पूछिए। आप बताइए।

और मेरे मामले में तो यह निश्चित है: कोई अगर आकर मुझे गाली-गलौज कर रहा है, कुछ भी नहीं करना है आप उसकी प्रोफ़ाइल पर जाइए। लगभग सत् प्रतिशत तय है कि वहाँ पर आपको कोई श्लोक मिल जाएगा; कि ‘भारत देश महान है,’ संस्कृत में कुछ लिख दिया होगा, भगवा रंग लगा दिया होगा, ‘कट्टर हिंदू’ लिख दिया होगा।

श्रोता: प्रोफ़ाइल पिक्चर में श्रीराम का फोटो होगा।

आचार्य प्रशांत: प्रोफ़ाइल पिक्चर में भगवा झंडा या श्रीराम का चित्र होगा। श्रीराम का चित्र लगाने की योग्यता हमारी है, राम के भजन हम गाते हैं, अभी घंटे भर तक आप गा रहे थे। तो यह हमारे लिए धिक्कार की बात है कि कौन ले गया हमारे रामों और कृष्णों को? ऊँचे से ऊँचे जो नाम थे, वो हमने किसके सुपुर्द कर दिए?

देखिए, बुद्धिजीवी बनकर धर्म को रिजेक्ट करना बहुत आसान है। मैं रिजेक्ट नहीं करना चाहता; मैं रिक्लेम करना चाहता हूँ। कृष्णमूर्ति का रास्ता था रिजेक्ट करने का, मैं असहमत हूँ उस रास्ते से, जो हमें ऊँची से ऊँची बात हमारे विचारकों, चिंतकों, दार्शनिकों, ऋषियों ने दी है, भारत में ही नहीं, पूरे विश्व भर में। मैं उसे रिजेक्ट क्यों कर दूँ? मैं उसे रिक्लेम करूँगा न। मैं उसे उस जगह पर बैठाऊँगा, उस ऊँचे आसन पर बैठाऊँगा जहाँ बैठने की वो बातें हक़दार हैं। मैं क्यों कह दूँ कि बुद्ध की बात व्यर्थ है? मुझे बुद्ध से लेना-देना नहीं? मैं स्वयं मैं नहीं। मुझे बुद्ध को बुद्ध की जगह देनी है। मुझे श्रीकृष्ण को श्रीकृष्ण की जगह देनी है।

और हमने बुद्धों और कृष्णों को देखिए किसको सौंप दिया है। और यह बात कृतज्ञता की भी होती है न। कोई हमें एक बहुत ऊँची विरासत सौंप गया है, हम एहसान मानें कि न मानें, या यह कह दें कि तुमने हमें जो कुछ सौंपा है हम उसे रिजेक्ट करते हैं। उन्होंने हमें सौंपा है, प्रेम में सौंपा है, एहसान जताने के लिए उन्होंने नहीं सौंपा है। उन्होंने प्रेम में दिया है हमें कुछ। जो उन्होंने हमें प्रेम में दिया है, हम उसका सम्मान करेंगे न।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories