प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पुरानी बेड़ियों से, यादों से बाहर कैसे निकलें? कुछ नया कैसे करें?
आचार्य प्रशांत: पहली बात यह समझो कि बेड़ियों में कोई ताक़त नहीं होती। तुम्हारी ताक़त से हर ताक़त छोटी है। जो बँधा हो, जो ग़ुलाम हो, वो कभी यह न बोले कि बेड़ियाँ बहुत मज़बूत हैं। बेड़ी मज़बूत हो सकती है पर तुमसे ज़्यादा मज़बूत नहीं होती है। तुम जो हो, उसकी ताक़त असीमित है। लेकिन फिर भी लोग बँधे रहते हैं, ग़ुलाम रहते हैं, तो ऐसा कैसे हो पाता है? एक ओर तो मैं कह रहा हूँ कि हमारी ताक़त असीमित है, दूसरी और हमें यह तथ्य भी दिखायी देता है कि लोग बन्धन में हैं। ऐसा कैसे हो पाता है? ऐसा इसलिए हो पाता है क्योंकि हम अपनी ताक़त का इस्तेमाल नहीं करते। ताक़त का इस्तेमाल क्यों नहीं करते? ताक़त का इस्तेमाल इसलिए नहीं करते क्योंकि बेड़ियाँ दिख ही नहीं रही हैं। तोड़ तो एक झटके में दें!
तुम्हारी हालत ऐसी है जैसे किसी हाथी को किसी पतले से धागे से खूँटे से बाँध दिया गया हो। तोड़ तो अभी दे, पर उस धागे को बड़ा पवित्र धागा ठहरा दिया गया है। हाथी से कह दिया गया है, ‘तोड़ना मत! इस धागे में कुछ दैवीयता है, यह एक दिव्य धागा है।‘ तो हाथी अपनी पूरी ताक़त के होते हुए भी उसे तोड़ता नहीं है। बेड़ियों को बड़े प्यारे नाम दे दिये गए हैं। 'यह हथकड़ी नहीं है, यह कड़ा है। यह बेड़ी नहीं है, यह कंगन है। यह बोझ नहीं है मन पर, यह तो तुम्हारी संस्कृति और विचारधारा है।' सिर्फ़ इसलिए तुम ख़ुद अपनी बेड़ियों के संरक्षक बने हुए हो। वो बेड़ी टूटेगी कैसे जिसे तुमने ख़ुद सहेज रखा हो?
जिस दिन यह जान जाओगे कि यह तुम्हारे आभूषण और कंगन नहीं है, यह हथकड़ी है, उस दिन एक झटके में खोल दोगे, तोड़ दोगे। जिस दिन तुम जान जाओगे कि अक्सर जिसको प्यार का या ज़िम्मेदारी का नाम दिया जाता है, वो न प्यार है न ज़िम्मेदारी है, वो शोषण है और स्वार्थ है और भूल है, उस दिन उससे अलग हो जाओगे। तो बेड़ी को बेड़ी जानो। बन्धन को बन्धन जानो। तुम अतीत से चिपके इसीलिए रह जाते हो क्योंकि तुम उसमें कोई सुख देखते हो। उसकी हक़ीक़त को पहचानो, उसको ग़ौर से देखो और पूछो कि क्या यह वही है जो मुझे लगता है।
देखो, जो कुछ भी मन को सिद्ध हो जाए कि व्यर्थ है वो धीरे-धीरे स्मृति से ही बाहर हो जाता है। मन के पास एक बड़ा अच्छा यन्त्र है — स्मृति की सफ़ाई। तुम्हें सबकुछ लगातार याद नहीं रहता। जो कुछ पुराना होता जाता है और व्यर्थ होता जाता है तुम्हारे लिए, जो उपयोग का नहीं रहता, तुम उसे भूलते जाते हो। इसका मतलब कुछ अगर तुम्हें याद बना हुआ है तो वो वही है जिसको तुम बार-बार, बार-बार याद कर रहे हो। जिसको तुम याद करना छोड़ दो वो स्वतः तुम्हारी स्मृति के कोष से ग़ायब हो जाएगा, डिलीट हो जाएगा। तुम उसको बार-बार याद करते ही इसीलिए हो, उसके पास बार-बार जाते ही इसीलिए हो क्योंकि तुमने उसके ऊपर मूल्यवान होने का ठप्पा लगा रखा है। ‘प्रीशियस’ , ऐसा लेबल लगा रखा है। तुम देखो तो सही पहले कि वो क़ीमती है भी कि नहीं। जब दिखेगा कि नहीं है क़ीमती तो बार-बार उसके पास जाओगे नहीं, फिर अपनेआप भुल जाएगा।
फिर तुमने यह बात करी कि बँधे-बँधाये रास्ते हैं, कुछ चन्द तयशुदा विकल्प हैं नौकरी के, वही तो कर सकते हैं, उसके अतिरिक्त करें क्या। यह बात कोई मुझसे पूछने की नहीं है क्योंकि मुझसे अगर पूछ लोगे और आगे वही करोगे तो फिर वही हुआ न कि सुनी-सुनायी बात पर चलने लग गये। तो कैसे फिर पता चले कि क्या करना है? सबका अपना परिवेश होता है, ज़िन्दगी सभी जी रहे हैं। मुझे कैसे पता लगा था कि मुझे क्या करना है? मैं जो कर रहा हूँ, यह कोई आम काम तो है नहीं। ऐसा तो है नहीं कि बहुत सारे लोग यही कर रहे हैं। पर अगर नज़र खुली हो तो नज़र रास्ता स्वयं ढूँढ लेती है। मैं तुम्हें नहीं बता सकता कि तुम्हारे लिए कौनसा रास्ता उचित है, मैं बस इतना कह सकता हूँ कि आँखें खुली रखो, अपनेआप मौक़े दिखायी देंगे। और दुनिया को बहुत ज़रूरत है ऐसे लोगों की जो आँखें खुली रखें और नये मौक़े तलाशें और उनको आकार दें। बात समझ रहे हो?
दुनिया इतनी बड़ी है जिसमें हज़ार चीज़ें हो सकती हैं करने की, मैं क्या-क्या गिनाऊँ? बल्कि मैं तुमसे यह पूछूँगा कि तुम्हारे लिए कौनसा विकल्प बन्द हो गया है। तुम पूछ रहे हो, कौनसा विकल्प खुला है। मुझे यह बताओ, बन्द कौनसा हो गया है। क्या है जो तुम नहीं कर सकते? ठीक है, जहाँ कहीं पर कुछ विशेष योग्यताएँ-पात्रताएँ चाहिए हों जो तुम्हारे पास न हों, तुम वो नहीं कर सकते हो। शायद तुम बास्केटबॉल टीम में नहीं आ सकते हो। शायद तुम अब हार्ट सर्जन (हृदय शल्य-चिकित्सक) नहीं बन सकते। पर इन कुछ अपवादों को छोड़कर, जिनमें शारीरिक या शैक्षणिक योग्यताएँ चाहिए, इनको छोड़ करके ऐसा क्या है जो अब तुम्हारे लिए निषिद्ध हो गया है?
यहीं पर देख लो न। यह लॉन है, मैं कहता हूँ इसका प्रबन्धन और बेहतर हो सकता है और वो प्रबन्धन करने वाले तुम क्यों नहीं हो सकते? मैं कह रहा हूँ, यहाँ पर यह खेलने का मैदान है, जो बहुत सारे स्कूल, कॉलेजेज़, यूनिवर्सिटीज़ में होता है। क्या वहाँ पर चुनौतियाँ और अवसर नहीं हैं? क्या वहाँ कुछ नहीं है जो तुम कर सकते हो? तुम्हें चाहिए कितना? तुमने ख़ुद कुछ आँकड़े बोले कि इतना मिलता है। उतना तो तुम्हें कुछ भी करके मिल जाएगा। क्यों डरते हो कि ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा, बेरोज़गार रह जाएँगे? दुनिया अभी जैसी है, उसमें कोई भूखा नहीं मर रहा है। इतना तो तुम यक़ीन रखो कि तुम भूखे नहीं मरने वाले। तुमको जीवन-यापन के लिए जितना चाहिए उतना तुम्हें मिलेगा। हाँ, तुम्हारा लालच बहुत बड़ा हो तो उसका कोई आश्वासन नहीं है। लालच की तो कोई पूर्ति हो नहीं सकती। अन्यथा हज़ारों तरीक़े के हज़ारों विकल्प खुले हुए हैं।
कोई कुछ भी कर रहा है। कुछ भी बन्द थोड़ी है। यहाँ पर जितना कुछ देख रहे हो न, वो सबकुछ जैसा है उससे बेहतर हो सकता है। तुम सड़क पर निकलो, वहाँ जो भी तुम्हें दिख रहा है, वहाँ जो जैसा है उससे बेहतर हो सकता है। उसको उससे बेहतर करने वाले तुम क्यों नहीं हो सकते? विकल्प तो हर जगह है। यह जो कार चल रही है, इस कार की डिज़ाइन कोई परिपूर्ण और आदर्श डिज़ाइन थोड़े ही है। वो बदल सकती है, बेहतर हो सकती है। वो तुम क्यों नहीं हो सकते? यहाँ पर यह चित्र लगा हुआ है, यह जैसा है यह उससे बेहतर हो सकता था। इसको बेहतर करने वाले तुम क्यों नहीं हो सकते?
और जो भी कुछ तुम बेहतर करोगे, उसके एवज़ में तुम्हें पैसे मिलेंगे, तुम्हारा जीवन-यापन होता रहेगा। यह एक तरीक़ा है ज़िन्दगी को देखने का। तुम पूछते हो रास्ता खुला कौनसा है। मैं पूछता हूँ कारण बताओ कि तुम्हें कोई भी रास्ता बन्द क्यों लगता है। बताओ, कारण बताओ।
बहुत कुछ सुनते रहते हो, इनफॉरमेशन एज़ (सूचना युग) है, लगातार हज़ार तरह की बातें तुम तक पहुँचती ही रहती हैं। तो जो भी कुछ अभी सुना उसको ज़रा होश के साथ, चेतना के साथ गुनना, ज़रा मनन करना। बस इतना ही कह सकता हूँ।
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