प्रश्नकर्ता: सबसे पहले तो आचार्य जी, आपके चरणों में मेरा नमन है। और मेरा सवाल है कि ज़िन्दगी में इंसान खुश कैसे रहे? ये सब जानने के बावजूद कि हर साल 8000 करोड़ पशुओं को मारा जाता है — इंसान की स्वार्थ की माँगें पूरी करने के लिए। और पशु दूध, अंडा, मांस, मछली, शहद — इन सबको बनाने के लिए, मतलब पशुओं से ये सब सामान लेने के लिए कितनी करोड़ों लीटर पानी की बर्बादी की जाती है। जंगल काटे जाते हैं जिससे इनका धंधा चल सके।
और दूसरा — ना साफ़ पानी है। मीथेन गैस निकलती है पशु खेती से, जिससे ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ती है। गर्मी बढ़ती जा रही है। आँकड़ों के मुताबिक 2014 से लेकर 2023 — ये दस साल इतिहास के सबसे गर्म साल रहे हैं। और अभी इन सब चीज़ों को तीन गुना बढ़ाने के लिए एनिमल हस्बेंडरी इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फंड में भारत सरकार ने ₹30 हज़ार करोड़ रुपए डाल दिए हैं, जिसमें पशुओं का धंधा तीन गुना और बढ़ाया जाएगा। तो ये सब जानने के बावजूद इंसान स्वस्थ कैसे रह सकता है, खुश कैसे रह सकता है? जब उसके पास खाने के लिए, मतलब पानी नहीं होगा। जैसे बेंगलुरु में पानी की समस्या देखने को मिल ही गई है। लोगों के पास पीने का पानी भी नहीं है। लोग तीन-तीन दिन में एक बार नहा रहे हैं। लोग नहाने के बाद जो पानी निकलता है, उसको भी बचा रहे हैं — कि उसको भी इस्तेमाल कर लेंगे।
मतलब, बेंगलुरु में कुछ जगहों पे इतनी-इतनी समस्या आ गई है जो धीरे-धीरे हर शहर में यही देखने को मिलेगा भविष्य में। तो इंसान स्वस्थ कैसे रह सकता है? उसको लगता है कि मैं पशु दूध, अंडा, मांस खा के, शहद खा के, मैं स्वस्थ जी लूंगा। पर जब हवा नहीं होगी साफ़ — मीथेन गैस से हवा इतनी प्रदूषित हो चुकी है, हवा साफ़ नहीं है, पानी नहीं है, जंगल नहीं है — तो इंसान स्वस्थ कैसे रह लेगा?
मतलब हम उसको कैसे समझाएँ कि हमें इन सब चीज़ों की ज़रूरत है? हमें जंगल चाहिए। जंगल नहीं होंगे तो बारिश नहीं होगी, पानी नहीं होगा। तो हमें ये सब चीज़ें चाहिए। हमें पशु दूध, मांस, अंडा — ये सब नहीं चाहिए। तो ये कैसे इंसान को समझाया जाए कि ये सब चीज़ें हम छोड़ें और स्वस्थ रहें, खुश रहें, विगन बने — ये कैसे समझाया जाए?
आचार्य प्रशांत: मैं दिन भर और क्या कर रहा हूँ? ये ऐसी-सी बात है कि मेरी बस है। मेरी बस में 200 लोग बैठे हैं। उनमें से एक आकर मुझसे कह रहा है — "पर ये तो बताइए, इस बस को चलाया कैसे जाए?" और मैं 120 की स्पीड पर चला रहा हूँ। और मुझसे पूछ रहे हैं — "कैसे चलाया जाए?" चला तो रहा हूँ। कैसे समझाया जाए? समझा तो रहा हूँ। पर जो आपने पहली बात बोली, वो बहुत मार्मिक थी — खुश कैसे रहें जब पता है कि ये सब कुछ हो रहा है, तो इसके बीच में खुश कैसे रहें? खुशी को भी एक तरह से कर्तव्य या धर्म मानो।
पागलों का इलाज करना है तो पागलपन को अपने ऊपर हावी होने से रोकना होगा।
हम कोविड के समय में देख रहे थे — डॉक्टर कैसे ऊपर से लेकर नीचे तक कवच में घुसे रहते थे। उसमें उनको असुविधा ही बहुत होती थी। गर्मी लगती होगी, सब कुछ होता होगा। दुनिया की मूल समस्या तो दुख ही है ना। और दुख तो है — लेकिन उस दुख को अपने ऊपर इतना हावी होने दिया, तो दुख से लड़ नहीं पाओगे। कोई उसका समाधान नहीं कर पाओगे। तो एक कर्तव्य की तरह अपने आप को आनंद का एक क्षेत्र तो देना पड़ेगा। एक वो लोग हैं जिन्हें पता ही नहीं कि दुनिया — सब पशु, पक्षी, जीव, प्राणी — किस दुर्दशा में हैं। वो तो यूँ ही मौज बना लेते हैं। उन्हें फ़र्क़ ही नहीं पड़ता। वो तो जो लोग पीड़ा में हैं, उन्हें और पीड़ा देकर भी मौज मना लेते हैं। उन्हें फ़र्क़ ही नहीं पड़ता।
फिर वो स्थिति शुरू होती है जहाँ आप जानने लग जाते हो — कि हम इतनी देर में बात कर रहे हैं, इतनी देर में ही लाखों जानवर मार दिए गए। असल में "मार दिए गए" भी छोटी बात है। जिस तरीक़े से वो पकड़े जाते हैं, रखे जाते हैं, और जिस दुर्दशा से उनका कत्ल होता है — वो ऐसी चीज़ है कि आप देख लेते हो उसका वीडियो भी, तो भी मन ख़राब हो जाता है। जितनी देर में हम बात कर रहे हैं, इतनी देर में लाखों चले गए। अब ये बात ऐसी है कि इसके बारे में जितना सोचोगे, उतना ज़्यादा मन भारी होता जाएगा। और एक बिंदु पर तो ऐसा लगता है जैसे जब इतने मारे जा रहे हों, तो अपना जीना ही गुनाह है। लगता है जैसे जी के कोई अपराध कर रहे हों।
पर फिर सवाल ये आता है कि अगर जी ही रहे हो — इसलिए कि उनकी कुछ भलाई कर सको — तो तुम्हारा जीना ज़रूरी भी है ना? और नहीं जी पाओगे अगर मन पर दुख और ग्लानि हावी हो जाएँगे। तो कर लो जितना उपचार करना है दुनिया का, लेकिन अपने स्वास्थ्य पर चोट मत आने दो। दिन भर के तमाम तरह के पचड़ों में खपने के बाद मैं कोशिश किया करता हूँ कि आधा-एक घंटा ये सब कुछ भूल जाऊँ। भूल भले नहीं सकता। जहाँ भी जाओ, दिखाई वही देगा। कहाँ जाओगे? अब यहाँ से कहीं तुम किसी दूसरे ग्रह पे तो चले नहीं जाओगे। सड़क पर जाओगे — वही दिखाई देगा। इमारतों में देखोगे — वही दिखाई देगा। लोग देखोगे — वही दिखाई देगा। पर कोशिश करता हूँ कि सड़क खाली रहे सामने। क्योंकि दिन भर लोगों से ही संबंधित, दुनिया से ही संबंधित मुद्दों में उलझा रहता हूँ। तो कोशिश करता हूँ कि आधा-एक घंटा ऐसा माहौल मिल जाए जहाँ सामने सड़क खाली है। कोई दिखाई नहीं दे रहा।
एक तरह से मन का रेचन — कि जो चीज़ें चढ़ गई थीं, उनको हटा दिया। मुझे मालूम है — ये भी शायद एक तरह की असंवेदनशीलता है, क्योंकि जितनी देर मैंने उन मुद्दों को अपने मन से हटाया, उतनी देर में भी करोड़ों जानवर काट दिए गए। बिल्कुल ऐसी बात है कि मैं खाली सड़क पर गाड़ी चला रहा हूँ ताकि मैं शांत हो सकूँ। और ठीक तब जब मैं स्वयं को शांत करने का प्रयास कर रहा था — उस समय भी न जाने कितने अत्याचार हो रहे थे। बिल्कुल। तो कुछ हद तक ये भी असंवेदनशीलता का ही ध्योतक हो गया — कि साहब, वहाँ इतने मर रहे, इतने कट रहे, इतना विनाश हो रहा है, और आप क्या कर रहे हो? आप निकले हो — “मैं जा रहा हूँ, ज़रा-सा आता हूँ बाहर गाड़ी चला के।”
एक तरह से ये भी। लेकिन इतना चाहिए बाबा, क्योंकि इंसान हो — किसी दूसरे लोक के नहीं हो। अगर इतना भी अपने आप को नहीं दोगे, तो किसी के काम के नहीं रह जाओगे। इसलिए मैं कह रहा हूँ — कि इसको आप खुशी नहीं, कर्तव्य की तरह देखो। अपने आपको इतनी न्यूनतम खुशी तो देनी पड़ेगी कि काम करने लायक बचो। नहीं तो काम करने लायक नहीं बचोगे। आज सुबह वो सब टीवी वाला कार्यक्रम था। उसके बाद कुछ और हुआ था। जो इन्होंने वीडियो प्रकाशित करा, उसमें कुछ समस्या थी — ये नहीं ठीक था, थंबनेल ये-वो। मैं बहुत देर से सोया। आमतौर पर देर से सोना चल जाता है कि मैं दोपहर में उठ सकता हूँ।
पर आज फिर कुछ और काम था। तो आरती और ये लोग सब दोपहर से ही आकर के बैठ गए। तो आपका जब यहाँ पर भजन चल रहा था, तब 4:25 पर मैं लेटा और मैंने प्रणय को लिखा — "प्रणय, वेक मी अप एट 4:35।" 4:25 पर, आप जब यहाँ भजन कर रहे थे ना, वो मेरा सोने का समय था। तो 4:25 पर लेटा ये करके कि वेक मी अप एट 4:35। उतना अपने आप को देना पड़ेगा। उसकी वजह से मैं 10 मिनट यहाँ लेट भी पहुँचा हूँ। एक तरह से गुनाह किया — कि 5:00 बजे आना था, मैं सवा पाँच आया। हाँ, गुनाह तो हुआ है। पर अगर उतना भी नहीं करूँगा, तो फिर आपसे जो बात कर रहा हूँ मैं, वो बोल भी नहीं पाऊँगा। है वो भी एक तरह का मान रहा हूँ बिल्कुल — अपने आपको आराम के, आनंद के अगर तुम दो पल भी दे रहे हो आज के संसार में, तो किया तो ये अधर्म ही कि कोई यहाँ बगल में जल रहा था।
अभी वो डाला था ना किसी ने कम्युनिटी पर — कि वो एक जलती हुई... उसमें कुत्ते को डाल दिया ज़िंदा। बकरा था? — कि वो वहाँ जल रहा है, और आप यहाँ सो रहे हो। तो है तो ये भी गुनाह ही। वो जल रहा है, आप सो रहे हो। जितनी देर में आप नहा-खा रहे हो, कपड़े पहन रहे हो, या ये बातचीत कर रहे हो — उतनी देर में ही लाखों कट गए। तो हुआ तो गुनाह ही। पर क्या करें? इंसान मिट्टी है क्, सीमाएँ। उतना भी अपने आप को नहीं दोगे — व्यवहारिक बात बता रहा हूँ — तो समाप्त हो जाओगे।
कोशिश तो ये करो — कि जो कुछ भी हो रहा है, उसके बीच ही उससे अनछुए रहो। लेकिन आदर्श हम में से कोई भी नहीं है। अपने बारे में जानता हूँ — मैं तो नहीं हूँ। मैं जब दुख-दर्द के बीच में जाता हूँ, तो मैं तो उससे स्पर्शित, प्रभावित हो जाता हूँ। करी होगी बड़े लोगों ने बात — कि आप कितना भी दुख झेल लो, देख लो, आप उसके बीच में बिल्कुल शांत और मौन रहना। अनछुए, अस्पर्शित। मैं तो हो जाता हूँ। मैं देखता हूँ — ये सब हो रहा है, तो मुझ पर तो असर पड़ जाता है। कम पड़ना चाहिए, सब पर ही कम पड़ना चाहिए — पर पड़ता है, भले कम पड़े। तो इसीलिए दिन में थोड़ा समय अपने आप को दे दिया करो — अनवाइंड करने के लिए।
और कोशिश किया करो कि उस समय पर सब बातों को भूल जाओ। भूलेंगी नहीं। ये बातें ऐसी हैं ही नहीं कि भूल पाओ। कोशिश किया करो कि — "अभी इस समय और कुछ नहीं करना है।" कुछ भी कर लो, कुछ खेल लो। ऐसे ही किसी से मज़ाक कर लिया, कुछ कर लिया। इस तरह (बच्चे की तरफ़ इंगित करते हुए) का कोई मिल जाए, उसको दौड़ा दो थोड़ी देर के लिए — ठीक रहता है। छोटे बच्चों के साथ ये एक सुविधा रहती है। ये अलग दुनिया है। तो उस दुनिया में घुस जाओ थोड़ी देर के लिए, तो अपनी दुनिया के झंझट भूल जाते हैं। वो चाहिए होता है।
और जैसे-जैसे और ज़्यादा अनछुए होने की क्षमता आती जाएगी, वैसे-वैसे फिर पाओगे कि वो जो अपने आप को एकांत देने की ज़रूरत है, वो भी कम होती जा रही है। उस दिन मैं बोल रहा था न कि सिसिफस की दशा को लेना कैसे है? क्या कहा था कामू ने? कामू ने कहा था — "मौज में लेना है।" और ये उन्होंने आत्महत्या के प्रश्न पर बहुत विचार करने के बाद कहा था। वो बोले कि तर्क तो यही कहता है कि अगर ज़िन्दगी का मतलब ही यही है कि रोज़ ऊपर तक पत्थर ले जाओ और शाम को पाओ कि पत्थर फिर नीचे आ गया। मेहनत करी, वहाँ तक चढ़ाया और प्रकृति माँ ने उसको सुबह तक फिर नीचे भेज दिया — तो फिर हम जिए किस लिए? मेरा तो सारा काम ख़राब ही जाना है। तो एक जगह पर आकर वो जैसे बोलने ही वाले थे कि — जीने की ज़रूरत ही नहीं है। लेकिन फिर वो मोड़ लेते हैं और बोलते हैं — "नहीं, नहीं! जीना है, भागना नहीं है। जीना तो है। कैसे जीना है?
अपनी हालत को ही चुटकुला बनाकर जीना है, सब दुख-दर्द पर हँसते हुए जीना है। ऐसी हँसी जो दर्द से ही निकल रही है।
अहम् को चुटकुला बनाना है। अहम् माने दुख, दुख को ही चुटकुला बना लिया।" क्योंकि अगर हँस नहीं सकते इन सब बातों पर, तो पागल हो जाओगे। दुनिया की हालत इतनी ज़्यादा बुरी है कि कोई भी जागरूक इंसान विक्षिप्त हो जाएगा। ये दुनिया तो अभी बस उनके लिए है — जो नशे में रह सकते हों। वही नहीं होंगे पागल — जो नशे में रह सकते हों, या नींद में रह सकते हों, या बेईमानी में रह सकते हों। वही कहेंगे कि ये तो बड़ी मौज की जगह है।
जिस इंसान में थोड़ी भी जागृति है, वो जैसे-जैसे इस दुनिया को देखेगा, वैसे-वैसे बिल्कुल पगलाता जाएगा। कहेगा — "ये दुनिया है? ये जीने की जगह है? यहाँ क्यों जिए?" पर जीना है। दुनिया में आग लगी हुई है, तो आग बुझाने के लिए जीना है। और जीने के लिए दुख से दूरी थोड़ी ज़रूरी है। दुख को ही अगर हटाना हो दुनिया भर के, तो उससे थोड़ी दूरी बना लो। बना लो थोड़ी दूरी।
हर चीज़ को आप तुरंत ठीक नहीं कर सकते। रेस्टोरेंट में जाकर बैठो, वहाँ मेन्यू आता है। उसमें लाल निशान वाले इतने सारे होते हैं। क्या बुरा नहीं लगता? बुरा नहीं लगता कि यहीं बैठे हो, और इसमें लाल निशान वाला मेन्यू है सारा? थोड़ी दूरी बना लेता हूँ, कहता हूँ — "कहाँ जाऊँ उठ के? कितना भागूँ?" और भागता ही रहूँगा तो आग कब बुझाऊँगा? सड़क पर गाड़ी लेकर निकलता हूँ, ये सोच के भी कि... तो वहाँ पर वो झटका मीट और हलाल मीट ... और अब तो कम होता है वैसे, अभी भी है। छोटे शहरों की ओर चले जाओ, तो वहाँ तो पूरे के पूरे बकरे लटक रहे हैं।
डब्बे में घर... आपके मांस सप्लाई करने वाली कंपनियों के विज्ञापन हर जगह आ रहे हैं। वे लोग बड़े-बड़े इवेंट्स को स्पॉन्सर कर रहे हैं, ये सब दिखाई देता है। अभी एक जगह बोलने गया, वहाँ पर एक वो तंबाकू के प्रोडक्ट्स वाली कंपनी ने उनको स्पॉन्सर कर रखा था, दिखता है। पर आप कहते हो कि देखो, झेल लो ताकि कल लड़ सको। झेल लो ताकि कल लड़ सको। दुनिया भर का दुख अगर पूरा ही अनुभव करने लग जाओगे, तो पागल हो जाओगे। थोड़ा-सा उससे दूरी बनानी होती है।
मैं बिल्कुल समझ पा रहा हूँ आप क्या बोल रहे हो — हर शाख पर उल्लू बैठा है भाई। क्या करें? पूरा बाग ही काट डालें? क्या करें? कहाँ जाएँ? हर दुकान में फ़रेब बिक रहा है। हर चेहरे पर डर लिखा हुआ है। कहाँ जाकर रहें? कुछ भी कर लो। आपको पता है कि आप कहीं पैसा ख़र्च करने गए, आपको पता है पैसा जिन हाथों में जा रहा होगा, वो हाथ अच्छे नहीं हैं। तो क्या करें? ये मेज़ कहीं से आई है। ये (कप) कहीं से आया है। ये (कपड़े) कहीं से आया है। जहाँ से आया, हमने उनको पैसा दिया। जिनको पैसा दिया, वो कोई हमारा मिशन आगे बढ़ा रहे होंगे? अगर उतनी दूर का सोचने लगे, तो फिर हम कुछ भी नहीं कर पाएँगे ना।
जिनका आप सोशल मीडिया इस्तेमाल करते हो, वो दुनिया का सबसे लज़ीज़ बीफ़ तैयार करने की फिराक़ में हैं। इंस्टाग्राम, फेसबुक — जिनके हैं, वो कह रहे हैं कि हमारा नया प्रोजेक्ट है कि हम गायों को एक ज़बरदस्त तरीक़े की घास खिलाएँगे। तो उससे उनका जो मांस निकलेगा, वो दुनिया का सबसे लज़ीज़ मांस होगा। अब ये मुझे पता है। और मुझे ये भी पता है कि संस्था आप लोगों तक पहुँचने के लिए फेसबुक का भी इस्तेमाल करती है, इंस्टाग्राम का भी करती है। आदर्श स्थिति तो ये होती कि मैं कहता, बंद करो। पर नहीं कर सकता, उसका अफ़सोस रहता है। उसी अफ़सोस के साथ आगे बढ़ना है।
आपको एक बताता हूँ मैं बात — पहले जब मैं खेला करता था, आज से साल-दो साल पहले भी, तो मैं स्कोर गिनता था। अभी मैंने हाल में ही शुरू करा है कि मैं स्कोर नहीं गिनता, मैं सेशन गिनता हूँ। मैं कहता हूँ — हर सेट के साथ या हर पॉइंट के साथ उन सत्रों की संख्या बढ़ रही है जो मैं अब जीते-जी ले पाऊँगा। मैंने एक घंटा खेल लिया, शायद मैंने अपनी ज़िन्दगी एक सत्र के लिए और बचा ली। नहीं तो खेलना भी गुनाह है ना। दुनिया में आग लगी हुई है, चिल्ला-चिल्ला के मर रहे हैं सब जानवर। वहाँ आप खेल रहे हो — इससे बड़ा क्या अपराध हो सकता है? बताओ।
आप कोर्ट पर भी खेल रहे हो, तो वहाँ लाइट जल रही है। वो अच्छी वाली लाइट्स होती हैं। और जहाँ से लाइट आ रही है, हो सकता है वहाँ कोयला जल रहा हो। जहाँ कोयला जल रहा है, वहाँ से वही गैस आ रही हैं, जिनका आपने नाम लिया। मैंने कहा — "फिर... मैं स्कोर नहीं गिन रहा हूँ, ये स्कोर नहीं है, ये सेशन है। मैं एक और ले पाऊँगा। एक घंटा खेल लिया, तो ज़िन्दगी बच जाएगी। एक सेशन और ले पाऊँगा।" हो सकता है मैं अपने आप को फुसला रहा हूँ। पर इतनी ख़राब हालत हो गई है ना दुनिया की — ये नर्क ही है कि यहाँ जिधर देखो, वहाँ बस दुख ही दुख है।
कल खेलने गए, वहाँ पर आपको फोटो वग़ैरह दिखा देंगे — वहीं कोर्ट के पास एक कबूतर का बच्चा बैठा हुआ है। और वो अपना सिर लगभग 360 डिग्री घुमा रहा है। उसकी आँखें बंद हो गई हैं। बहुत छोटा भी नहीं था, वो उड़ भी नहीं पा रहा है। उसकी आँखें ऐसे बंद चिपक गई हैं और सिर अपना ऐसे पूरा घुमाए दे रहा है। तो उसको उठाकर बोधस्थल भेजा, डॉक्टर को उसका दिखाया। डॉक्टर ने कहा — "ये एक इनका निकला हुआ है, बैक्टीरिया या जाने वायरस वो ब्रेन में घुस जाता है। ये पता नहीं बचेगा कि नहीं बचेगा। मालूम नहीं बचा कि गया — किसको पता है?"
उसको ले जाकर के रख दिया था। डॉक्टर ने कुछ विटामिन्स वग़ैरह दिए थे कि दे दो, वरना अब बचने की संभावना कम ही है। किसी को नहीं पता? शुभंकर को, रोहित को पता हो क्या हुआ? चलो, बचा हुआ है। तो अब क्या करूँ? वो वहाँ पर... मेरी स्थिति समझो। वो मुझे दिख गया, वो वहाँ पड़ा हुआ है। मैंने उसको भिजवा दिया। मैं खेल रहा हूँ। अब है तो ये गुनाह ही। मैं कह सकता हूँ कि मैं शायद और थोड़ी जान लगाऊँ तो क्या पता, ये बच जाए — कबूतर। बच गया — अच्छी बात है। मर भी सकता था।
एक ये याद रख लीजिएगा — अपना सब कुछ दे दो दुनिया को, बस उतना बचा के रखो कि देने की काबिलियत बची रहे। अगर दुनिया को अपने ऊपर इतना हावी होने दिया कि तुम भी दुनिया ही जैसे हो गए, तो तुम्हारी देने की काबिलियत ही खत्म हो जाएगी। तो उतना-सा अपने आप को बचा के रखो। बाक़ी और कुछ नहीं।