प्रश्नकर्ता: जैसे आज का इंसान जो है, वो भोग की तरफ़ बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। तो क्या जो ये भोगने की वृत्ति है, ये प्रकृति से निकल रही है? और अगर ये प्रकृति से निकल रही है तो प्रकृति अपना विनाश चाहती है? क्योंकि इंसान भोग-भोगकर विनाश ही कर रहा है। तो अगर प्रकृति अपना विनाश चाहती है तो फिर ये क्या है ये?
आचार्य प्रशांत: तुमसे किसने कह दिया कि इंसान का विनाश होगा तो प्रकृति का विनाश हो जाएगा? प्रकृति इतनी छोटी चीज़ थोड़े ही है कि इंसान के साथ वो भी मिट जाएगी! इंसान तो कितनी बार आया, कितनी बार गया। प्रकृति से तुमने अर्थ, पहली बात, सिर्फ़ एक स्पीशी से क्यों लगा लिया? दूसरी बात, सिर्फ़ एक ग्रह, एक प्लैनेट (ग्रह) से क्यों लगा लिया?
प्रकृति माने ये जो पूरा ब्रह्मांड है, ये सब प्राकृतिक है, इंसान तो इसमें कुछ भी नहीं है। हम बार-बार बोलते हैं, ‘देखो, इंसान पागल है, प्रकृति को नष्ट कर रहा है।‘ ये बात बल्कि पागलपन को सिद्ध करती है कि इंसान सोच रहा है कि वो प्रकृति को नष्ट कर सकता है। तुम इतना सारा अभी न्यूक्लियर एम्युनिशन (परमाणु गोला-बारूद) रखे हुए हो, तुम सारा एम्युनिशन कर दो एक-साथ इस्तेमाल। ठीक है? तुम ये पूरा प्लैनेट ही ध्वस्त कर दो, प्रकृति को क्या फ़र्क पड़ना है!
समय समझते हो कितना लम्बा होता है? जब हम बिग-बैंग (महाविस्फोट) की भी बात करते हैं, अगर उस थ्योरी में भी विश्वास करो, तो जानते हो न, कि कितनी उम्र हो गयी है इस यूनिवर्स (ब्रम्हांड) की? उस पूरी उम्र में पृथ्वी जैसे कितने ये छोटे-छोटे धूल के कण आयें और चले गयें। वो खेल सारा का था जो चल रहा था। ठीक है? तो प्रकृति के विनाश की चिन्ता मत करो, अपने विनाश की चिन्ता कर लो।
ये बोलना भी अपने-आप को झाँसे में रखने की बात है, कि अरे, अरे! वी आर डिस्ट्रोइंग अवर प्लैनेट एंड वी आर किलिंग अदर स्पीशीज़ (हम अपने ग्रह को नष्ट कर रहे हैं और अन्य प्रजातियों को भी मार रहे हैं)। ये सब ख़ुद को धोख़े में रखने की चीज़ें हैं। जीवन इस ग्रह पर दोबारा वापस आ जाएगा। कितनी ही बार ऐसा हुआ है कि मास एक्सटिंक्शन ऑफ़ स्पीशीज़ (बड़े पैमाने पर प्रजातियाँ विलुप्त) हुआ है प्लैनेट पर, फिर वापस आ जाते हैं। प्रकृति अपनेआप को पुनर्जीवित कर लेगी, रिजुवैनेट कर लेगी, ये इंसान है जो वापस नहीं आएगा। चाहे तुम क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) की बात कर रहे हो, ठीक है? चाहे किसी न्यूक्लियर डिज़ास्टर (परमाणु आपदा) की बात कर रहे हो, ये सब ख़तरे इंसान के लिए हैं।
हम बोल देते हैं, ‘देखो, देखो, पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, द अर्थ इज़ सिक (पृथ्वी बीमार है)।‘ कभी कह देते हैं, द अर्थ इज़ इन फीवर (पृथ्वी ताप में है)।“ अपनी फ़िक्र कर लो! ठीक है? ये दो-चार डिग्री ऊपर-नीचे होना पृथ्वी बहुत बार देख चुकी है। पृथ्वी बची रहेगी; पृथ्वी नहीं भी बची रहेगी तो क्या फ़र्क पड़ता है? तुम्हारे सौर-मंडल में भी पृथ्वी कौन-सा बहुत बड़ा ग्रह है! एक ज्यूपिटर में सौ पृथ्वियाँ समा जाएँ, और एक सूरज में हज़ारों पृथ्वियाँ समा जाएँ, तो कौनसी पृथ्वी बहुत बड़ी चीज़ है! अपनी फ़िक्र कर लो! पर अपनी फ़िक्र हम नहीं करते, जानते हो उसमें धारणा क्या बैठी हुई है? ‘हम तो सही हैं, हमें थोड़े ही ज़रूरत है अपनी फ़िक्र करने की!’ अगर अपनी फ़िक्र करनी है, तो उसके लिए सबसे पहले स्वीकार करना पड़ेगा न, कि हमारे ऊपर ख़तरा है, और हमें ठीक होने की ज़रूरत है क्योंकि हम ग़लत हैं? तो हम अपनी फ़िक्र नहीं करना चाहते।
हम जिस चाल चल रहे हैं, उस चाल चलकर अगर हमने मान लो कोई क्लाइमेट ट्रीटी (जलवायु संधि) कर ली, कोई न्यूक्लियर ट्रीटी (परमाणु संधि) कर ली, और जितने तरीक़े के आदमी की बुद्धि के उपाय हो सकते हैं हमने कर लिये, और इन ख़तरों को किसी तरह से रोक भी दिया; तो हो सकता है हम टेम्परेचर राइज़ (तापमान बढ़ने) से न मरें, ग्लेशियर मेल्टिंग (ग्लेशियर पिघलने) से न मरें।
लेकिन हम ख़त्म होंगे अन्दर-ही-अन्दर, मेंटल डिसीज़ (मानसिक रोग) से, विक्षिप्तता से। उसको कैसे रोक लोगे कोई इंटरनेशनल ट्रीटी (अंतर्राष्ट्रीय संधि) करके? बताओ! कैसे रोक लोगे? इंसानियत जिस तरीक़े से जा रही है, और जो हमने अभी पूरे तरीक़े से अहंकार पर आधारित जीने का ढाँचा बना रखा है, वो या तो हमें बाहर से मार देगा। ठीक है न? और अगर बाहर से नहीं मारता संयोगवश, तो भीतर से तो हमारा विनाश सुनिश्चित ही है, बल्कि हो ही रहा है।
आज इस दुनिया में जो अनुपात है, प्रपोर्शन है मनोरोगियों का, उतना कभी भी नहीं था। आज जो औसत तनाव के, स्ट्रेस के, एंग्ज़ाइटी के स्तर हैं, इतने द्वितीय विश्व-युद्ध के समय भी नहीं थे, सैनिकों में भी नहीं पाये जाते थे जितने आज आम आदमी में होते हैं। आँकड़े देखो, रिसर्च पेपर्स (शोध पत्र) को देखो। आज जितने मामले डिप्रेशन (अवसाद) के और सिज़ोफ्रेनिया (मानसिक विकार) के, कम्पल्सिव डिसोर्डर्स (बाध्यकारी विकार) के होते हैं, उतने कब होते थे? और मैं संख्याओं की नहीं बात कर रहा हूँ, मैं अनुपात की बात कर रहा हूँ, मैं प्रपोर्शन की बात कर रहा हूँ। हम बहुत तेज़ी से एक ऐसी दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें हर आदमी पागल होगा; बाहर से स्वस्थ होगा और भीतर-ही-भीतर साइको (पागल) । अब क्या करोगे, बताओ!
इंसान अकेला जानवर है जिसको छूट है अपने अनुसार कुछ बनने की, यहीं पर गड़बड़ हो गयी! बन्दर को कोई छूट नहीं है, तुम कभी नहीं सुनोगे ‘बन्दर बन गया जेंटलमैन’, पर राजू जेंटलमैन बन जाता है। है न? शेर, शेर पैदा होता है, शेर ही मरेगा। शेर को कोई विकल्प नहीं है कि वो कुछ और होने की सोचे, महाशेर हो जाए। नहीं होता न?
आदमी अकेला है जिसे छूट है कि वो कुछ और हो सकता है। ये बहुत सुन्दर छूट है, इसी छूट के कारण पुराने जानने वाले बोल गयें कि “मानुष जनम दुर्लभ होता है, और ये बड़े सौभाग्य की बात होती है कि कोई मनुष्य योनी में जनम ले।“ क्योंकि हमें वो सुविधा, वो छूट, वो विकल्प है, कि हम पैदा तो जानवर जैसे होते हैं लेकिन हम बहुत बेहतर बन सकते हैं, आत्मोत्थान हो सकता है, एक ज़बरदस्त तरक़्क़ी का विकल्प हमें मिला हुआ है। लेकिन कोई भी छूट हो, कैसी भी छूट हो, वो दोनों तरफ़ काम करती है। अगर आपको विकल्प होता है ऊपर उठने का, तो साथ-ही-साथ हमेशा उसके विकल्प मिल जाएगा नीचे गिरने का भी। तो विकल्प तो हमें दोनों मिले हुए थे, कि जानवर पैदा हुए हो, चाहो तो जानवर से ऊपर उठ जाओ, और चाहो तो नीचे गिर जाओ।
अब ये हमारा चुनाव रहा है कि सौ में से निन्यानवे लोग यही चुनते हैं कि वो जानवर से भी बदतर हो जाएँगे। ये जो छूट है, इसने हमारा नाश कर डाला। यही छूट लेकिन हमें नाश से बचा भी सकती है। अगर आप को ये छूट थी कि आप अपनी दुर्दशा कर लो, तो निश्चित ही रूप से ये छूट भी तो हमें मिली हुई है न, कि ये जो दुर्दशा कर रखी है उसको सँभाल लो, ठीक कर लो? तो हमें ये जो दूसरा विकल्प है, जो सही विकल्प है, उसका इस्तेमाल करना होगा, लगातार अपने ऊपर नज़र रखनी होगी और देखना होगा कि हम जो कर रहे हैं वो नीचे गिरने वाले काम हैं या ऊपर उठने वाले काम हैं।
नीचे गिरने वाले काम कौन-से होते हैं? जिसमें भीतर भय बढ़े, जिसमें हिंसा बढ़े, जिसमें तुम्हारी लोनलीनेस, अकेलापन, तनहाई बढ़े, जिसमें तुम्हारे भीतर के लालच को और नशे को प्रश्रय मिले — ये सब नीचे गिरने वाले काम हैं। ऊपर उठने वाले काम कौनसे होते हैं? जिसमें सबसे पहले तुम निर्भय हो जाओ। भारत का तो सारा अध्यात्म ही एक लक्ष्य के साथ रहा है, क्या? निर्भयता।
कहते हैं कि आदमी की सौ बीमारियाँ हैं, पर उन सौ बीमारियों में जो सबसे गहरी बीमारी है वो डर है। तो जिसने डर को जीत लिया, समझ लो उसका अध्यात्म सार्थक हो गया। तो ऊपर उठने वाले काम ये हैं — निडर हो जाओ, तुम्हारे भीतर अहिंसा आ जाए, थोड़ा दूसरों का ख़याल रखना शुरू कर दो बिना ये माने कि दूसरे तुमसे अलग हैं, करुणा आ जाए — ये चेतना को ऊपर उठाने वाले काम हैं। किसी-न-किसी दिशा तो जाना पड़ेगा, क्योंकि आदमी के पास ये विकल्प नहीं है कि वो चुनाव न करे, वी आर ऐन ऐनिमल दैट चूज़ेज़ (हम ऐसे जानवर हैं जो चुनते हैं)। अगर ऊपर वाला चुनाव नहीं कर रहे हो तो सज़ा ये मिलेगी कि नीचे वाला चुनाव करना ही पड़ेगा। तो एक ही रास्ता है— ऊपर उठने का चुनाव लगातार करते रहो, करते रहो।
बहुत सारे यहाँ पर कैम्पस के स्टूडेंट्स होंगे, बहुत सारे लोग अतिथि हैं, बाहर से आये हैं। सबके पास विकल्प मौजूद हैं, और सब ज़िन्दगी के चौराहों पर खड़े पाते हैं अपनेआप को अक्सर। सब निर्णय लेते हैं; कुछ पकड़ते हैं, कुछ छोड़ते हैं। वही क्षण होते हैं जब ज़िन्दगी आबाद होती है या बर्बाद होती है। ग़ौर से देखा करो — जो पकड़ रहे हो किसलिए पकड़ रहे हो, जो छोड़ रहे हो क्यों छोड़ रहे हो; लालच कितना है, अज्ञान कितना है, भीतर की हीनभावना और कमज़ोरी का विचार कितना है। जो भी निर्णय तुम इसलिए करोगे क्योंकि डरे हुए हो या नशे में हो या अपनेआप को इनफ़ीरियर, हीन समझते हो, वो निर्णय तुमको नीचे ही ले जाएँगे। और जितना नीचे जाते जाओगे, ऊपर उठना उतना मुश्किल होता जाएगा; क्यों अपनी मुश्किल बढ़ानी?
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