देवी कौन हैं? || आचार्य प्रशांत, नवरात्रि विशेष, दूसरा दिन (2021)

Acharya Prashant

15 min
170 reads
देवी कौन हैं? || आचार्य प्रशांत, नवरात्रि विशेष, दूसरा दिन (2021)

(यह अध्याय दुर्गा सप्तशती कोर्स का एक भाग है। पूरा कोर्स solutions.acharyaprashant.org पर उपलब्ध है)

आचार्य प्रशांत: राजा पूछते हैं, 'जिन्हें आप महामाया कहते हैं वो देवी कौन हैं?'

मुनि ने जो अब सामने आख्यान रख दिया है उसमें बताया जा रहा है कि राजा और वैश्य दोनों के दुःख के मूल में और दोनों के संभावित मुक्ति के मूल में एक ही हैं - भगवती महामाया। तो फिर स्पष्ट ही है की राजा की उत्सुकता होगी कि ये महामाया है कौन। इन्होंने मुझे फँसाया और यही मुझे मुक्ति देंगी। 'तो ऋषिवर मुझे बताइए महामाया कौन है?'

तो अब आगे का जो पूरा ग्रंथ है वो महामाया का वृतांत देगा। अब राजा ने पूछा कि आप मुझे महामाया के बारे में बताइए। तो ऋषि अब इस अध्याय में और जो शेष बारह अध्याय हैं, उनमें महामाया का पूरा वृतांत देंगे। और जैसा की स्पष्ट ही है ग्रंथ के समापन तक आते-आते राजा को और वैश्य को अपने अपने मनवांछित पदार्थों का और स्थितियों का लाभ होगा हम देखेंगे।

"जिन्हें आप महामाया कहते हैं वे देवी कौन हैं? ब्राह्मण, उनका आविर्भाव कैसे हुआ? उनके चरित्र कौन-कौन हैं? ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षि, उन देवी का जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो और जिस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ हो, वह सब मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ।" मुझे बताइए देवी कौन हैं। प्रादुर्भाव क्या है उनका, कहाँ से आई हैं, क्या करती हैं। और ये भी कहिए की उन्हें प्रसन्न करना कैसा संभव हो।

तो ऋषि कहते हैं, "राजन, वास्तव में तो वो देवी नित्य स्वरूपा ही हैं। जो नित्य है वो उसका स्वरूप हैं।" नित्य कौन? ब्रह्म, सत्य। ब्रह्म के स्वरूप को ही माया कहते हैं।

"संपूर्ण जगत उन्हीं का रुप है तथा उन्होंने सारे विश्व को व्याप्त कर रखा है। उनका प्राकट्य अनेक प्रकार से होता है। यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए प्रकट होती हैं, उस समय वो कहलाती हैं कि उत्पन्न हुई लोक में।" है वो नित्य और अजन्मी क्योंकि वास्तव में वो कौन है? ब्रह्म है, और ब्रह्म नित्य है, ब्रह्म अजात है, अजन्मा है। लेकिन हमें जब वो प्रकट होती हुई दिखती हैं तो हम कह देते हैं कि इस प्रकार उनका प्रादुर्भाव हुआ, अन्यथा वो नित्य हैं। तो फिर अब इसके बाद मधु कैटब संहार की कथा है प्रथम चरित्र में। उसकी हम चर्चा करेंगे उससे पहले कोई प्रश्न?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी तक जो विवरण रहा उसमें देवी को ऐसा लग रहा है जैसे कोई पर्सनालिटी हों, कोई व्यक्तित्व हों और आपसे बाहर का कुछ हो तो इसको और मन के तल पर कैसे समझा जा सकता हैं?

आचार्य: देखो, आत्मा सत्य है। आत्मा का ही दूसरा नाम ब्रह्म है। आत्मा को अच्छादित किए हुए बड़े कोष हैं। उपनिषदों में पंचकोश की बात आती है न। आचार्य शंकर ने भी समझाया है, आप पढ़ चुकी हैं।

एक दृष्टि है जो इनको देखती हैं धुएँ की तरह, आवरण की तरह जिसने आत्मा को ढक रखा है, और दूसरी दृष्टि है जो इनको देखती है आत्मा की ही अभिव्यक्ति के रूप में कि जैसे आत्मा ही अलग-अलग कोषों के रूप में अभिव्यक्त हुई हो। तो आत्मा का जो पहला सगुण प्राकट्य है वो देवी हैं। उन्हीं को महाप्रकृति कहते हैं - देवी, देवी मातृ।

ये जो देवी हैं ये आत्मा के इतने निकट और इतनी अभिन्न हैं कि अभी ये त्रिगुणात्मक भी नहीं हैं। जैसे आत्मा निर्गुणी होती है न, वैसे ही जो महादेवी हैं, महाप्रकृति हैं, जो मूल प्रकृति हैं वो अभी त्रिगुणात्मक भी नहीं हैं। फिर वो आगे चल कर के तीन गुणों में जैसे विभाजित हो जाती हों, जैसे अपने तीन रूप दिखती हों। तीन फिर वो देवियों के नाम से जानी जाती हैं। तो सतोगुणी सरस्वती हो जाती हैं, रजोगुणी लक्ष्मणी हो जाती हैं और तमोगुणी काली हो जाती हैं।

तो आपके चित्त में जो मूल अहम् वृत्ति है वो महामाया है। फिर उस मूल अहम् वृत्ति से आपकी अन्य न जाने कितनी वृत्तियां निकलती हैं जिनको आप अलग-अलग देवियों का नाम दे सकते हैं। मूल अहम् वृत्ति क्या हो गई? महादेवी या महामाया। और फिर जो आपको अन्य सब वृत्तियां हैं उसको आप अन्य देवियों का नाम दे सकते हैं। और फिर उसने भी बाद में आती है भावनाएं, और उनके बाद आते हैं विचार, और फिर उनके बाद आते हैं कर्म। तो ये सब आत्मा के ऊपर के जैसे कोश हो गए, या आत्मा की एक के बाद एक तल की अभिव्यक्तियाँ हो गईं।

तो यहाँ देवी की बात हो रही है, वो देवी जो आत्मा के बिल्कुल सनान्निकट हैं, आत्मा से बिल्कुल अभिन्न है। जैसे शिव से शक्ति जो, दो होते हुए भी एक हैं। तो उन देवी की बात हो रही है। वो देवी जो संसार बनकर हमें दृष्टिगत होती हैं,अनुभव में आती हैं। वो देवी जो स्वयं संसार भी हैं, और संसार का दृष्टा और अनुभोक्ता भी। मूल वृत्ति। मूल वृत्ति को यहाँ पर महामाया कहा जा रहा है। तो देवी कोई व्यक्ति नहीं नहीं हैं।

लेकिन देखो, मैं पिछले कुछ समय से आपको जिस तरीके से समझा रहा था वो विशुद्ध वेदांत का तरीका है, और विशुद्ध वेदांत इतना शुद्ध है कि वो बहुत कभी प्रचलित नहीं हो पाया।

आज की चर्चा के आरंभ में हमने संप्रदायों के बारे में बात की, अद्वैत संप्रदाय यदि किसी को कहा जा सकता हैं, तो वो बहुत ही छोटा है। हालाँकि आप ये कह सकते ही की जो शैव हैं वो भी अद्वैतवादी होते हैं। लेकिन फिर भी अगर आप विशुद्ध अद्वैत की बात करोगे तो ऐसे लोग बहुत कम है। कारण बहुत स्पष्ट है न। आप महादेवी बोलोगे तो बात ज्यादा बोधगम्य हो जाती है। समझने में आसानी हो जाती है। और आप मूल वृत्ति बोलोगे वेदांत की भाषा में, तो समझना जरा जटिल हो जाता है क्योंकि बात जरा सीधी हो जाती है।

मन के साथ ऐसा ही है। बात इतनी सीधी कर दोगे तो समझ में ही नहीं आएगी। मन को मन भावन आख्यान चाहिए। मन बेचारे की विवशता ये है कि उसे बोध भी उसी के तल पर चाहिए। उसे उसकी विवशता भी बोल सकते ही और उसका हठ भी। जैसे देखना चाहो। तो इसलिए मूल वृत्ति को फिर प्रतिबिंबित किया गया है महामाया के रूप में।

प्र२: आचार्य जी, आपने एक जगह बोला है कि हम प्रकृति से पूरी तरह से हारे हुए हैं। 'हारोगे तुम बार-बार' आपका एक वीडियो भी है उस पर। साथ में आपने ये भी कहा है कि हालाँकि हम पूरी तरह से हारे हुए हैं, पर फिर भी हम लोग फाइट (संघर्ष) कर सकते हैं और उतना हमको करना चाहिए। तो वो संघर्ष करने का क्या मतलब है?

आचार्य: ये मत पूछिए कि फाइट करने का क्या मतलब है, संघर्ष का क्या मतलब है। मेरे साथ हैं तो हमेशा पूछिए कौन है को संघर्ष करेगा। कौन है जो संघर्ष करेगा? जो संघर्ष करेगा वो भी तो प्रकृति ही है न। जिससे सारी बात हो रही है, वो भी तो प्रकृति ही है न? अहंकार कौन है? प्रकृति का ही तो अंग है? प्रकृति से भिन्न है क्या अहंकार? भिन्न तो नहीं है न।

तो प्रकृति का एक रूप वहाँ है। एक कार्य वो है जो अहंकार को बद्ध रखता है, जिसको मैंने कहा कि तुम हारोगे बार बार। वो प्रकृति का ही काम है तुम्हें हराएगा। लेकिन प्रकृति का ही अंग होने के नाते, प्रकृति का ही पुत्र होने के नाते, प्रकृति की ही और से तुम्हारी मुक्ति के लिए सुविधा और उपाय भी होंगे।

जब मैं तुम्हे प्रेरणा देता हूँ कि कोई हार आखिरी न हो, तो वास्तव में मैं बात किससे कर रहा हूँ? प्रकृति पुत्र से ही तो बात कर रहा हूँ। उसी से ही तो कह रहा हूँ कि कोई हार आखिरी नहीं होनी चाहिए। अरे भाई, ब्रह्म की तो कोई हार जीत होती नहीं। आत्मा का न कोई संघर्ष होता है, न कोई हार होती है, न कोई जीत होती है।

तो ये सारी बात ही जो कर रहा हैं ये सारी प्रकृति के भीतर की ही है। जो प्रकृति के भीतर ही हैं उसको जो भी सहायता इत्यादि मिलनी है वो कहाँ से मिलनी हैं? प्रकृति से ही मिलती है। तो कहने का आशय यह था कि प्रकृति को अपनी हार की तरह नहीं, अपनी जीत की तरह उपयुक्त करो। ये आपके ऊपर है कि प्रकृति में आपकी हार हो जाती है या आपकी जीत हो जाती है। संभावना ज्यादा यही की हार होगी। क्यों होगी? क्योंकि आप अज्ञान में घिरे हुए हो।

अब ज्ञान ही सारा प्रकृति के भीतर है अज्ञान भी सारा प्रकृति के भीतर है। उनमें से आप चुनते क्या हो? अधिकांशतः अज्ञान, इसलिए प्रकृति आपके लिए कष्टदायिनी हो जाती है। देवी आपके लिए दुखदायिनी हो जाती है। आपको सही चुनाव करने हैं इसी प्रकृति में, इसी संसार में।

जब संघर्ष करने की बात आती है तो संघर्ष आपको वास्तव में प्रकृति के विरुद्ध नहीं करना है, अज्ञान के विरुद्ध करना है।

देखिए, क्या है प्रकृति? दो छोर हैं। प्रकृति के एक छोर पर है आत्मा। एक रेखा की तरह लो, उसके एक छोर पर है आत्मा, दूसरे पर है अहंकार। आत्मा क्या है? प्रकृति ही है। अहंकार क्या है? प्रकृति ही है। जो कुछ वो सब क्या है? प्रकृति ही है। उसी प्रकृति की शुद्धतम अवस्था को, उसी प्रकृति के सत्य को कहते हैं आत्मा, और उसी प्रकृति की बद्ध अवस्था को कहते हैं अहंकार।

तो एक ही है, आत्मा और अहंकार भी उस दृष्टि से एक ही हैं। बस उन दोनों के बीच में प्रकृति आ गई है, प्रकृति का पूरा फैलाव आ गया है। आत्मा, अहंकार और बीच में प्रकृति। अब तुम्हारे ऊपर है कि तुम प्रकृति को उस विरोधी की तरह देखते हो जिसने तुम्हें आत्मा से दूर कर दिया। देख सकते हो, बिल्कुल। ये आत्मा, ये मैं और बीच में कौन है? प्रकृति, इसी ने मुझे आत्मा से दूर कर रखा है। या तुम प्रकृति को उस पुल की तरह देख सकते हो जो तुमको आत्मा से मिलाएगी। ये मैं, ये आत्मा और ये बीच में पुल है जिसका नाम है प्रकृति। तुम पर है, जैसे देखना हो देख लो।

अभी तक तो देखो ऐसा रहा है कि हम बात कर रहे थे न कि वेदांत मार्गियों की संख्या कभी बहुत ज्यादा नहीं रही, पर अगर तुम शाक्तों की संख्या देखोगे तो सबसे ज्यादा है। वैष्णवों की संख्या देखोगे तो बहुत ज्यादा है। शैव भी शिव भक्ति ही करते हैं, उनकी संख्या भी बहुत है। इन सब ने प्रकृति को पुल की तरह देखा है, और वो बात आम तौर पर ज्यादा लाभप्रद रही है।

लड़ नहीं सकते, उसको समझ कर उसका सही उपयोग कर लो। लड़ोगे तो हारोगे। या ऐसे कह लो लड़ने का एक ही तरीका है, उसको समझ लो और लड़ो मत। यही सही तरीका है लड़ने का। अविरोध, नॉन रेजिस्टेंस - विरोध का बड़ा गहरा तरीका है ये। बुद्ध की एक शिक्षा है कि तुम्हें जो भी कष्ट होते हैं वो परिवर्तन से नहीं होते, परिवर्तन को जो तुम विरोध दे रहे हो उससे तुम्हें कष्ट मिलता है। वरना परिवर्तन मात्र तुम्हें कष्ट क्यों दे देगा?

अविरोध माने वो नहीं होता जो लोगों को बहुत बार लग जाता है कि वृत्ति के बहाव में बहने लग गए। ना,ना ना। वृत्ति का विरोध नहीं किया इसको अविरोध भी कहते। वृत्ति का तो अर्थ ही है वो जो विरोध में ही जीती है। अगर तुमने वृत्ति का विरोध नहीं किया तो तुम विरोध में जी रहे हो क्योंकि वृत्ति का नाम ही विरोध है। वरना द्वैत कहाँ से आएगा?

व्यक्ति हो, संसार हो और विरोध, संघर्ष न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता न। बच्चा पैदा होते ही रोता है। व्यक्ति और संसार में तो लगातार संघर्ष बना ही रहता है। तो वृत्ति के बहाव में स्वयं को बहने देना, जिसे गोइंग विथ द फ्लो कहते हैं, वो नहीं है नॉन रेजिस्टेंस या अविरोध।

वृत्ति को समझ लेना और वृत्ति की विरोधात्मकता में न फँसना अविरोध कहलाता है। तुम जब वृत्ति की विरोधात्मकता में नहीं फँसते वास्तव में तब तुमने वृत्ति का विरोध किया। तो अविरोध विरोध करने का श्रेष्ठतम तरीका है।

तो सो रहे हैं विष्णु, और बड़ी लंबी नींद सो रहे हैं। उनके कानों के मैल से दो असुर पैदा हो गए - मधु और कैटभ। उन्होंने बड़ा उत्पात मचाया और ये ब्रह्मा को मारने को तत्पर हो गए। लगे हैं पीछे ब्रह्मा तो ब्रह्मा वहाँ से भागे कि ये क्या विपत्ति आई। वो विष्णु के पास आए तो देखा वो सो रहे हैं। तो ब्रह्मा समझ गए विष्णु नहीं उठेंगे। कोई विशेष बात ही है जो उन्हें सुलाए हुए है। विष्णु अपनी योगनिद्रा में हैं।

तो तब उन्होंने महामाया का स्तवन किया, स्तुति की और बोले कि, 'आप से ऊंचा कौन हो सकता है? आप जो स्वयं भगवान को भी सुला सकती हैं आप की मैं स्तुति भी कैसे करूं? मैं ऐसा क्या बोलूंगा जो पर्याप्त होगा आपकी प्रशंसा हेतु? कुछ नहीं कह सकता मैं। आपसे ऊँचा कोई नहीं। आपमें वो शक्ति है कि आप स्वयं भगवान को भी निद्रा में डाल सकती हैं'।

ये सारी बातें, हम कह चुके हैं, कि सांकेतिक है, समझना। स्तुति करी महामाया की तो फिर महामाया विष्णु जी की आँखों से और भौहों से प्रकट होकर के बाहर आईं और विष्णु भगवान जग बैठे। जब वो उठ बैठे तो ब्रह्मा जी ने उनको सारा हाल कह सुनाया। जब हाल कह सुनाया तो बोले ठीक है। और फिर कहानी कहती है कि मधु, कैटभ से उनका पाँच हजार साल तक युद्ध हुआ पर तब भी वो दोनो हारे नहीं।

जब हारे नहीं तो महामाया का खेल। उन्होंने मधु कैटभ की मति ऐसी कर दी कि उनको लगा की विष्णु तो बड़े वीर योद्धा हैं। हम दोनों जैसे पराक्रमी असुरों से इतने दिनो से, इतने वर्षों से अकेले ही युद्ध कर रहे हैं। तो वो दोनो प्रसन्न हो गए और विष्णु से बोले माँगो क्या वरदान माँगते हो।

वो लड़ते-लड़ते जैसे देख रहे हों और विष्णु के प्रशंसक हो गए। बोले कि, 'ये तो बड़ा बढ़िया योद्धा है, हम जैसे पराक्रमी असुरों से लड़ रहा है'। ले-दे के उसमें अपनी ही बढ़ाई है। 'ये तो बड़ा पराक्रमी है। हम जैसों से दो से लड़ रहा है'। तो एक-दूसरे की ओर देखा ही होगा आँख-आँख में और बोले होंगे इसको तो वरदान देते हैं बोले क्या वरदान चाहिए। माया का खेल। तो अब विष्णु तो माया से मुक्त हैं। तो बोलते हैं, 'मुझे एक ही वरदान चाहिए। तुम दोनो मेरे ही हाथों मरो'।

अब फँस गए दोनो बेचारे तो फिर से उन्होंने बुद्धि लगाई। पर बुद्धि कितनी चलती है उसके बारे में मेधा मुनि बता ही चुके है कि जानवरों से ज्यादा बुद्धि चलती नहीं किसी की। तो बोलते हैं, 'ठीक है, हमें मार लेना पर ऐसी जगह पर मरना जहाँ पर जल ज़रा भी न हो'। उन्होंने देखा जिधर भी देखो वहाँ जल कुछ न कुछ राशि में होता ही होता है। वो समय ऐसा था। कहते हैं प्रलय काल था जब पूरी पृथ्वी ही जलाप्लावित हो गई थी, चरों तरफ बस पानी था।

तो उन्होंने कहा ऐसी जगह मरना जहाँ जल बिल्कुल न हो और सोचा हमने तो बढ़िया चल चल दी। अब हमें नहीं मार पाएंगे ये। तो विष्णु के कहा ठीक है। दोनों को पकड़ा, अपनी जांघ उठाई और दोनों के सर अपनी जांघ पर रखे और काट दिए क्योंकि जमीन पर तो हर जगह पानी ही पानी था। तो इस तरीके से पहला जो अध्याय है, और वही पहला चरित्र भी है शप्तशती का, वो समाप्ति पाता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories