प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, मैं आपसे दो साल से जुड़ा हूँ। आपसे जुड़ने के बाद मुझमें काफ़ी बदलाव हुए हैं। इसका मैं सदा ऋणी रहूँगा। आचार्य जी, मैं काफ़ी दुर्बल सा महसूस करता हूँ। मुझे हर एक के सामने झुककर बात करनी पड़ती है। मैं लोगों से आँख मिलाकर भी बात नहीं कर सकता हूँ। सारे दोस्त अच्छी जगह पर पीडीजी लग चुके हैं, और मैं पढ़ने बैठता हूँ तो विचार आते रहते हैं। कुछ मार्ग दिखाइए। मैं नौकरी के साथ पढ़ रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: (संस्था के स्वयंसेवक से पूछते हुए) कम्यूनिटी पार्टिसिपेशन रेट (कम्युनिटी पर भागीदारी दर) कितना बोला था इनका?
स्वयंसेवक: ट्वेंटी पर्सेंट (बीस प्रतिशत)।
आचार्य प्रशांत: मुझ ही से सच चाहिए और मुझ ही से झूठ बोलते हो। कह रहे हो कि सबके सामने झुक जाते हो, दोस्तों से प्रभावित हो जाते हो। मेरे सामने तो नहीं झुके आज तक। अगर सबके सामने तुम झुकते ही होते तो मुझे भी उन सब का एक छोटा सा हिस्सा मानकर झुक गये होते। अपना व्यक्तित्व तो ऐसे दिखा रहे हो जैसे कुछ दमित किस्म का है। सीधे कहूँ तो जैसे दब्बू हो। पर दब्बू नहीं हो, बहुत अकड़ू हो। और अगर सचमुच दबना जाना होता तुमने सच के सामने, तो झूठ के सामने फ़ौलाद की तरह खड़े हो जाते तनकर, ज़रा सा भी नहीं झुकते। अभी दुनिया के सामने झुके हुए हो। क्या शब्द थे तुम्हारे कि? ‘डर जाता हूँ।’
प्र: हाँ, डर सा लगता है, आचार्य जी। आँख मिलाकर बात नहीं कर पाता हूँ।
आचार्य प्रशांत: आँख मिलाकर बात नहीं कर पाते, क्योंकि जिससे आँख मिलानी चाहिए थी उससे तो कभी मिलायी नहीं। दोस्त क्या कर रहे हैं उसको देखकर के तुम अपनी किस्मत तय कर रहे हो, क्योंकि जिसके साथ तुम्हारी किस्मत तय होनी चाहिए थी वहाँ से तो भागते हो अस्सी परसेंट। बेटा, ये नियम है, इसका मैं, तुम, तुम्हारे दोस्त कोई अपवाद नहीं हो सकते। नियमों को कोई तोड़ सकता है? मैं इसको (कलम को) उठाऊँ, नीचे छोड़ूँ तो क्या होगा?
श्रोता: नीचे गिरेगी।
आचार्य प्रशांत: आप उठाओ, नीचे छोड़ो तो क्या होगा?
श्रोता: नीचे गिरेगी।
आचार्य प्रशांत: आप वहाँ स्क्रीन में ऐसे उठाओ कलम को, छोड़ो तो क्या होगा?
श्रोता: नीचे गिरेगी ।
आचार्य प्रशांत: हममें से कौन तोड़ सकता है इन नियमों को? इनको चाहे जीवन का नियम बोलो। अगर चेतना की तरफ़ से बात करनी है, तो हम बोल देते है जीवन के नियम। और अगर ज़्यादा सटीक बात करनी है, तो बोलो प्रकृति के नियम। जिसको आप जीवन का नियम भी बोलते हो न, वो वास्तव में बस प्रकृति का नियम है। इसको पश्चात्य दर्शन ऐसे देखता है कि द़ लॉज़ ऑफ़ मैटर आर द लॉज़ ऑफ़ माइंड (पदार्थ के नियम मन के नियम हैं)। जिसको आप बोलते हो न लॉज़ ऑफ़ मैटर (पदार्थ के नियम) वो लॉज़ ऑफ़ माइंड (मन के नियम) है। खैर वो अलग बात है।
तो उसी को हम कह रहे हैं कि नियम हैं। नियम है ये, इनको नहीं तोड़ पाओगे। कोई बोले मुझे दुनिया के सामने झुकना पड़ता है बात-बात पर, तो मुझे बहुत उसमें विचार करने की ज़रूरत नहीं है, ये तो एक फ़ॉर्मूले (सूत्र) की तरह है।
आपने जैसे ही कहा आपको दुनिया के सामने झुकना, दबना पड़ता है; मैं तुरन्त कहूँगा, ‘इसका मतलब है सच के सामने अकड़कर खड़े हो। वहाँ नमन नहीं हो पा रहा।’ जो सच के सामने नमित नहीं हो सकता, वो दुनिया के सामने दलित रहेगा। या तो यहाँ नमित हो जाओ या वहाँ दमित हो जाओ। दुनिया से झुकने का मतलब ये है कि दुनिया बड़ी चीज़ लग गयी। भाई, बड़ा महत्व दे दिया, है न? दुनिया बड़ी कैसे लगेगी, अगर आपको पता हो कि सचमुच बड़ा कौन है। जो सचमुच बड़ा है, अगर आप उसके साथ हो लगातार तो दुनिया तो ऐसी चीज़ हो जाती है न, दो कौड़ी की।
वहाँ फिर धड़कने थोड़े ही तेज़ हो जाएँगी कि किस की नौकरी लग गयी, किसने क्या कह दिया, कोई मेरी निन्दा न कर दे, अरे उसका कैरियर (आजीविका) आगे निकल गया। फिर थोड़े ही ये होगा कि अरे! ये क्या हो गया! ये जो सारी भीरुता होती है, और बलहीनता, और सिकुड़ा और सकुचा जीवन, ये सिर्फ़ और सिर्फ़ नियम बता रहा हूँ, अपना कोई मत नहीं अभी व्यक्त कर रहा, नियम बता रहा हूँ। ये सारा डर, ये कायरता सिर्फ़ एक जगह से आते हैं, हठ है! हठ है! ‘सच नहीं मानूँगा और झूठ के तलवे चाटूँगा। सच नहीं मानूँगा, और झूठ बोलेगा, ‘जूते चाट’ तो जूते भी चाटूँगा।’
अजीब सी बात है, और ये चीज़ मुझे बड़ा विस्मित करती रही है। लोग दुनिया में बिलकुल रीढ़हीन होते हैं। इसको मेरू बोलते हैं (अपनी पीठ की ओर संकेत करते हुए), मेरूदंड। जो आपको ऊँचा रखे, मेरू पर्वत जैसा, मेरुदंड, ये (पीठ की ओर संकेत करते हुए)। ये नहीं होता हमारे पास, स्पाइनलेस (अति दुर्बल)। और आम आदमी को दुनिया के सामने ऐसे घुग्घू (हाथ जोड़कर झुके हुए होने का संकेत करते हुए) बनकर चलने में कोई समस्या नहीं आती। चाटुकारिता हमसे करवा लो, तलवे चटवा लो, और भारतीय चरित्र तो साइकोफ़ेंसी (चापलूसी) में हमेशा से आगे रहा है। लेकिन यही आदमी जो दुनिया भर में दब्बू बना फिरता है, झुका-झुका मरता है, इससे आप दो बातें सच की कहो, फिर इसका आप रौद्र रूप देखो। ये बिलकुल अकड़ जाएगा।
आप अपने ही घरों में देख लीजिएगा, अपने घर में नहीं तो पड़ोसी में होगा या कहीं आपने सुना होगा कुछ, आपको पता होगा दोस्त यार में कहीं। दुनिया भर के दब्बू, कायर, डरपोक, मेरूदंडहीन लोग जब सत्य की, गीता की, अध्यात्म की बात आती है तो देखा है कैसे चौड़े हो जाते हैं, ‘नहीं, ये नहीं चलेगा मेरे घर में।’ तू दुकान में ग्राहकों की खाता है, क्या? रोटी भी नहीं, चप्पल, दफ़्तर में बॉस की खाता है, पर जब सत्य सामने आता है तो तू बिलकुल क्या जलवा दिखाता है।
‘नहीं, ये सब नहीं चलेगा मेरे घर में।’ बाकी जितने उपद्रव हैं सब चलते हैं तेरे घर में, सच नहीं चलेगा तेरे घर में। और उस समय पर तुम उसकी ठसक देखो, ‘ये नहीं होने दूँगा मैं, ये नहीं चलेगा।’ तूने इतना ही संकल्प, ऐसी ही दृढ़ता अगर झूठ के खिलाफ़ दिखाई होती तो तेरी ज़िन्दगी क्या से क्या हो गयी होती।
द्वैत है भाई जीवन। किसी को बहुत झुका पाओ तो जान लेना कि ये कहीं बहुत अकड़ा भी हुआ है। पक्का समझ लो। अगर किसी को देखो कि वो जगह-जगह पर झुका हुआ है, तो ये भी जान लेना कि कहीं पर ये बहुत अकड़ा हुआ है। अब झुकना, अकड़ना तो साथ चलेगा, क्योंकि जीवन माने द्वैत। प्रश्न बस ये है कि झुक कहाँ पर रहे हो, और अकड़ कहाँ पर रहे हो। झुकना भी होगा, अकड़ना भी होगा। चुन लो कहाँ झुकना है, कहाँ अकड़ना है।
दोस्त पाँच बातें बोले तो उसमें से चार की उपेक्षा नहीं कर पाते, यही समस्या लेकर आये हो। मैंने पाँच बार बोला तो चार बार मेरी उपेक्षा करी। इसी को बीस प्रतिशत पार्टिसिपेशन रेट बोलते हैं। ठीक? दोस्त की पाँच बात में से चार बात तुमने ऐसे ही उपेक्षित छोड़ दी होती तो अभी मुँह इतना छोटा सा नहीं हो गया होता। सही जगह झुक जाओ, फिर कहीं और नहीं झुकना पड़ेगा। आ रही है बात समझ में?
ये सारी समस्याएँ सिर्फ़ इसलिए होती हैं क्योंकि दुनिया हमें बड़ी भारी चीज़ लगती है। और है वो बुलबुला। कहते हैं, ‘अरे, जान ले लेगी दुनिया।’ उसकी अपनी जान नहीं है, तुम्हारी क्या जान ले लेगी? जान लेने-देने की उसमें सामर्थ होती तो सबसे पहले वो खुद जानदार न हो गयी होती? वही जैसे चुटकुला चलता है न, ‘तुझे पता है मैं कौन हूँ?’ ये दुनिया है। क्या बोलती है? ‘तुझे पता है मैं कौन हूँ?’ बोलो बेटा। वो तो आपको भी नहीं पता आप कौन हो, और मुझे अगर पता भी चल गया आप कौन हो, तो उससे इतना ही होगा कि मैं आपकी इज्ज़त और कम कर दूँगा। आपके लिए तो अच्छा यही है कि मैं भ्रम में रहूँ कि आप कौन हैं।
जैसे-जैसे आपका राज़ खुलता जाएगा, मैं जानता जाऊँगा कि आप कौन हैं सचमुच, वैसे-वैसे तो आपका महत्व मेरी दृष्टि में और कम होता जाएगा। और ये मुझसे मत पूछिए कि आप कौन हैं। बेहतर ये है कि आप खुद पता कर लें कि आप कौन हैं। उसके बाद इधर-उधर दूसरों को धमकाने और डराने-दबाने की ज़रूरत नहीं रहेगी। खौफ़, व्यर्थ का खौफ़ पुता हुआ है चेहरे पर, क्योंकि एक भाव है कि कोई बहुत ज़रूरी चीज़ है जो छूटी जा रही है। उस भाव में सच्चाई कितनी है, ये कभी जाँचा नहीं।
कोई क्यों डरेगा सोचो तो सही। कोई क्यों डरेगा अगर उसको पता हो कि जो मिल सकता है वो भी एक सीमा के आगे महत्व का नहीं है, जो छूट सकता है वो भी नहीं है। कोई क्यों डरेगा? और आप तो पढ़े-लिखे आदमी हो, जवान हो, शरीर है अच्छा, अभी उम्र बाकी है, बीमार भी नहीं लग रहे हो। क्या ज़रूरत होनी चाहिए ऐसे काँपते-डगमगाते दिखने की? थर-थर-थर-थर-थर-थर! क्यों? क्योंकि चार कोई मिल गये हैं ऐसे ही लफ़ंगे, और कोई आकर बता रहा है कि फ़लानी दिशा चले जाओ, ये कैरियर कर लो, वो कर लो, कोई और कुछ बता रहा होगा, किसी ने कुछ कह दिया। कोई ब्याह करके बैठा होगा, उसको देखकर के काँप रहे हो। कमज़ोर पत्ते हो जाओगे तो साधारण हवा भी कँपा देगी। है न?
लोगों को बहुत अजीब लगता है, कहते हैं, ‘पर हमारी समस्या तो कैरियर रिलेटेड (आजिविका सम्बन्धी) है न, तो ये भजन में उसका समाधान कैसे मिलेगा?’ यू सी आइ एम सो वाइज़ (देखो मैं कितना चतुर हूँ)। ये ऐसी सी बात है कि गाड़ी के पहिये नहीं चल रहे हैं, तो फ़्यूल टैंक्स (ईन्धन टंकी) में क्या भरे दे रहे हो फिर? जो भरना है पहिये में भरो। गाड़ी में ईंधन नहीं है, गाड़ी खड़ी हुई है, तो मालिक ज़ोर कहाँ लगा रहे थे? पहियों को ठेल रहे थे। बोल रहे थे, ‘देखो, गाड़ी चलती है ये कैसे पता चलता है?,
श्रोता: पहियों के वजह से।
आचार्य प्रशांत: तो गाड़ी नहीं चल रही, माने समस्या किसके साथ है?
श्रोतागण: पहिये के साथ।
आचार्य प्रशांत: तो मालिक लगे हुए हैं, और पहिये ठेल रहे हैं। तभी कोई आया पीछे से बोला, ‘उधर है भजन, *रिफ़्यूलिंग पॉइंट*’ (ईंधन भरने का स्थान), और वहाँ से लगाया फ़्यूल टैंक में पाइप, तो झुन्नूलाल बहस पर उतर आये। बोले, ‘समस्या तो है पहियों में, और तुम ये कुप्पी लेकर आ गये हो, पता नहीं गाड़ी के पेट में क्या भर रहे हो। पेट थोड़े ही खराब है गाड़ी का मेरी। और ये जो तुम इसमें डाल रहे हो, वो तो इतना असमर्थ है कि वो खुद नहीं चल सकता। पाइप में लोटकर आ रहा है तो मेरे पहियों को क्या चलाएगा। भजन से थोड़े ही उनकी समस्याएँ सुधरेंगी, पहियों को धक्का दो तब सुधरेंगी।‘ लगता है न?
ये पता ही नहीं है, मैं कौन हूँ, कर्म किसको कहते हैं, जीवन यापन किसको कहते हैं, बुद्ध ने सम्यक् आजीविका की बात करी, वो क्या चीज़ होती है, कुछ पता नहीं है। ‘मैं कौन हूँ, रूपये-पैसे से जीवन का रिश्ता क्या होता है’, कुछ पता नहीं है। कर्म जब लगातार करना ही है, तो किस दिशा में होना चाहिए, कभी सोचा नहीं। ये सबकुछ नहीं पता है, और जा रहे हैं कैरियर काउंसलर (पेशा परामर्शदाता) के पास। तुम्हें कैरियर काउंसलर की ज़रूरत है या गीता की? बोलो।
श्रोता: गीता की।
आचार्य प्रशांत: कितना हममें विरोध है सच्चाई के लिए कि हम एकदम जो — बीस-बीस, पचीस-पच्चीस साल वाले घूम रहे हैं, कुछ जानते न समझते, ये भी सलाहकार बन जाते हैं। वो वहाँ पर अपना वो, ‘हाँ, मैं तुम्हें बताऊँगा तुम्हें क्या कैरियर, कब, तुम्हारा होना चाहिए।’ क्यों, किस बात पर? क्योंकि उसका कोई एग्ज़ाम क्लियर (परीक्षा पास) हो गया है, तो वो कह रहा है मैं भी तुम्हारी कैरियर काउंसिल (आजिविका परामर्श) कर दूँगा, और जिसका नहीं हुआ वो उनको ऐसे देखता है (एकटक देखते हुए) — ‘जी, हाँ जी, हाँ जी।’
वही जैसे आप किसी हॉस्टल में चले जाओ तो वहाँ फ़र्स्ट ईयर (प्रथम वर्ष) का जो होगा बच्चा, निब्बा, वो सेकेंड ईयर (द्वितीय वर्ष) वाले को ऐसे देखता है कि जी। ये हैं ज्ञान गुण सागर! होता है कि नहीं होता है? और सर करके बात करी जाती है। इसको सर बोल रहे हो? इसके तो सर अभी तक उगा ही नहीं है। ये सिर्फ़ धड़ है अभी। क्यों इतने मायूस हो, क्या है? बोला था न जाकर देखना अवधूत गीता में —
न हि मोक्षपदं न हि बन्धपदं, न हि पुण्यपदं न हि पापपदम्। न हि पूर्णपदं न हि रिक्तपदं, किमु रोदिषि मानसि सर्वसमम्।
~ अवधूत गीता -19
‘काहे को रो रहे हो? क्या हो जाएगा?’ ये सवाल हम पूछते नहीं। एक, एक वेग डिप्रेशन (छितराया हुआ अवसाद) और डिप्रेशन जब भी होगा वेग ही होगा, क्योंकि क्लियर हो जाए तो डिप्रेशन काहे को रहे। हेज़ी फीलिंग ऑफ़ अनइज़, मोर दैन अनइज़, अ हेज़ी हेविनेस (बेचैनी का एक अस्पष्ट अनुभव, बेचैनी से ज़्यादा एक अस्पष्ट भारीपन)। कोई पूछे कि किस वजह से है, नहीं बता पाओगे। सारी समस्या यही है, वो हैविनेस (भारीपन) है ही इसीलिए क्योंकि तुम बता नहीं पा रहे हो किस वजह से है। गो इन्टू इट (इसमें जाओ)। उसकी जाँच पड़ताल करो, पता चलेगा कुछ नहीं है, कोहरा है बस। जैसे कि आप कोहरे को अपने सामने देखो, और आपको लगे कि ये कोहरा थोड़े ही है, ये इमारत है। कोहरा इमारत जैसा लग सकता है न?
बड़ी भारी एक इमारत खड़ी हुई है सामने, और अगर कोहरा इमारत जैसा लगेगा तो कोहरे का वज़न कितना हो जाएगा, ‘बाप-रे-बाप!’ उसमें कोई वज़न नहीं है, उसका वज़न बस इस बात में है कि वो कोहरा है। जैसे ही स्पष्टता आएगी, वज़न हट जाएगा। वो जो, बर्डन (बोझ) की प्रतीति होती है, वो जो बोझ सिर पर रहता है, वो हट जाएगा, क्योंकि बोझ वास्तव में है नहीं। कोहरा है जो बोझ जैसा प्रतीत हो रहा है।
हम बस जड़ अनुभोक्ता बने रहते हैं, उस भीतरी हेज़ (कोहरा) के। कुछ है वो परेशान कर रहा है, हम परेशान हुए हैं। अरे, परेशान हो तो उठो न इंसान की तरह, सवाल-जवाब करो थोड़ा, किस बात पर परेशान हो। ‘अच्छा, क्या हो जाएगा?’, कलम-कागज़ उठाओ, लिखो। ‘अच्छा, अभी मैं इस बात से परेशान हूँ, ये नहीं हुआ तो ऐसा होता है। मुझे ये परेशानी इसने सिखायी है। मेरा ऐसा चलता है।’ मुँह लटकाने से क्या होता है?
तुम जवानी में भी दब-दबकर चलोगे तो तनोंगे कब, जब बुढ़ापे में कूबड़ निकल आएगा? आम आदमी के लिए न पूरा जगत गुंडा है, उसके लिए हर दूसरा व्यक्ति गुंडा है। वो सभी से ऐसे (हाथ जोड़कर झुकने का अभिनय करते हुए)। भारत में इज्ज़तदार मध्यम वर्गीय होने का मतलब ही यही होता है। लाचारी पोतो। ‘मैं लाचार हूँ।’
अच्छे से विश्लेषण करो, किस बात को लेकर परेशान हो, क्या बिगड़ जाएगा तुम्हारा। क्या बिगड़ जाएगा, पूछो।
प्र: पता नहीं, आचार्य जी। ज़िन्दगी ऐसी बैठ सी गयी है, क्या करना चाहिए, कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
आचार्य प्रशांत: अरे यार, तुम हो कहाँ पर तुम्हें ये ही नहीं पता, तो आगे क्या करोगे, कैसे समझ में आ जाएगा? और बड़े रौब से बोल दिया, ‘पता नहीं क्या करना चाहिए।’ अब तुम्हें ये नहीं पता क्या करना चाहिए, तुम्हें ये नहीं पता क्या हो रहा है, तुम्हें ये भी नहीं पता समस्या क्या है, तो तुम्हें ये कैसे पता है कि परेशान होना है? अगर तुम्हें ये नहीं पता कि समस्या क्या है, तो तुम्हें ये कैसे पता है कि परेशान होना है? या तो मुझे समस्या पता हो, और उससे मेरा निर्णय हो कि समस्या घोर गहन है। मुझे परेशान होना चाहिए। समस्या पता ही नहीं, तो परेशानी कैसे पता हो गयी?
प्र: आचार्य जी, मैं दो-तीन साल से एग्ज़ाम के लिए तैयारी कर रहा हूँ, लेकिन मुझसे वो एग्ज़ाम पास नहीं हो पा रहा है।
आचार्य प्रशांत: एग्ज़ाम का तो मतलब ही यही होता है न कि ज़्यादातर लोगों से वो पास नहीं होगा। तुमने क्या सोचकर फ़ॉर्म भरा था?
प्र: असल में कोविड में मुझे डिप्रेशन सा हुआ था…
आचार्य प्रशांत: क्या हुआ था?
प्र: डिप्रेशन से जूझ चुका हूँ मैं, कोविड में, तो उसके बाद से आपको अभी दो साल से सुना, तो मैं… थोड़ी…. ये…. अब वो थोड़ा...
आचार्य प्रशांत: ये किस भाषा में बात कर रहे हो — अब, वो, थोड़ा…। भाषा भी पैनी होनी चाहिए, धारदार। वेग , छितरायी हुई भाषा में बात करना, छितराये हुए मन का लक्षण होता है। आप जब शब्दकोश खोलते हो, तो उसमें किसी शब्द का ऐसा अर्थ लिखा होता है ’ऑलमोस्ट, लाइक, ऑलमोस्ट यू नो, ऐसा, थोड़ा सा, इसका मतलब ये है’ या शब्दों के स्पष्ट, सटीक, प्रिसाइज़ (सटीक) अर्थ होते हैं? जब शब्दों के सटीक अर्थ होते हैं तो भाषा ऐसी क्यों रहती है, ’यू नो, इट वाज़ लाइक, ही सेड टु मी लाइक, लाइक…।’ ये लाइक क्या होता है? कुछ ऐसा हुआ जो शब्दकोश के बाहर का है या तुम जान-बूझकर के भीतर एक कोहरा बचाना चाहते हो? तुम जान-बूझकर के क्लियरटी (स्पष्टता) अवॉइड (बचना) कर रहे हो, और वो बात भाषा में भी दिख रही है।
एग्ज़ाम तो आपसे बाहर की बात है न, और ये साधारण सूत्र है अध्यात्म का कि प्रकृति पर तो किसी का नियन्त्रण नहीं चलता। आप अधिक-से-अधिक अगर स्वामी हो सकते हो तो किसके? स्वयं के। अब एग्ज़ाम दे रहे हो वो प्रतिस्पर्धात्मक है, भाई। उसमें ऐसा भी नहीं है कि इतने प्रतिशत तुम ले आ लो तो तुम्हारा चयन हो ही जाएगा। वहाँ तो इस पर भी निर्भर करता है कि दूसरों के कितने प्रतिशत आ गये। तो जो कोई किसी परीक्षा का फ़ॉर्म भरे, उसको इस बात के लिए भी तैयार रहना होगा कि चयन नहीं भी हो। तुम क्या सोचकर आये थे?
ये दो बातें याद रखा करो ‘शोले (फ़िल्म)’ वाली, जब भी किसी परीक्षा का फ़ॉर्म भरो और बहुत लगने लगे कि मेरा तो होना ही है, तो एग्ज़ाम सेंटर से लौटते हुए पूछो, ‘कितने आदमी थे रे?’ तो होश वापस आ जाएगा। और जब रिज़ल्ट आये और सलेक्शन (चयन) नहीं हुआ हो, तो पूछा करो, ‘क्या सोचकर आये थे?’ वहाँ दस लाख लोग भर रहे हैं, और तुम अपनी आशा का झंडा लेकर नाच रहे हो कि मेरा तो हो गया, मेरा तो हो गया। क्यों हो गया भाई? काम नहीं हुआ है तो अब जो सही है वो करो, अब जो करा जा सकता है वो करो न? मुँह लटकाने की क्या बात है।
प्र: आचार्य जी, वैसा ही मुँह बन चुका है मेरा।
आचार्य प्रशांत: क्या? हाँ तो, मुँह तो बन ही जाएगा ऐसा। तुम बेटा आज भी नहीं लिखोगे रिफ़्लेक्शन, तुम्हारा पता है। ज़िन्दगी बहुत छोटी होती है। ठीक है न? और करने को एक महत्वपूर्ण काम होता है। वो महत्वपूर्ण काम ये होता है कि मुँह पर ये जो मायूसी छायी हुई है, इसको पोंछ दिया जाए (मुँह पोंछने का संकेत करते हुए)। हम इसी के लिए पैदा होते हैं। “दुख निरोध।“
दुख लेकर पैदा होते हो, और जीवन मिला होता है इसी दुख को हटाने के लिए। मर जाओगे ऐसे ही मुँह लेकर फिर? सोचो ऐसे मुँह पड़ा हुआ है (मरने का अभिनय करते हुए), कोई आग भी ठीक से लगाने नहीं आ रहा है, कह रहा है, ‘देखो, ये है, मरकर भी मनहूस ही रहा।’ पंडित उतनी दूर खड़े होकर के मन्त्र मार रहा है (मरने का संकेत करते हुए), ‘मर गया।’
मर तो जाओगे ही उससे पहले आनन्दित हो लो थोड़ा। और आनन्द नहीं आ सकता जब तक क्लियरटी नहीं आएगी।
प्र: प्रकृति ऐसा होने नहीं देती है, आचार्य जी।
आचार्य प्रशांत: क्या बोल रहे हो?
प्र: प्रकृति ऐसा होने ही नहीं देती है।
आचार्य प्रशांत: ओ! मेला झुन्नू (तुतलाकर बोलते हुए)। ‘प्रकृति वैसा होने नहीं देती, मैं तो नन्हा हूँ, बेचारा हूँ।’ प्रकृति न किसी की सगी है, न किसी को ठगी है। ये दायित्व तुम्हारा है कि तुम प्रकृति को समझो, जीवन के नियमों को जानो। प्रकृति ने कोई साज़िश नहीं रची हुई है तुमको परेशान करने की। तुम चल रहे हो सड़क पर, वहाँ खम्बे हैं, वहाँ गड्ढा भी हो सकता है, वहाँ पेड़ हो सकता है, वहाँ वाहन हो सकते हैं, वहाँ दूसरे लोग हो सकते हैं, तुम उनसे जाकर भिड़ जाओ, उनकी क्या गलती है?
तुम जा रहे हो एक जंगल में, या एक खूबसूरत बाग है, उसमें पेड़ हैं, बहुत सुन्दर है, और तुम जा-जाकर वो दरख्तों पर अपना माथा फोड़ रहे हो, और बोलो, ‘प्रकृति ने मार दिया।’ प्रकृति ने मार दिया? प्रकृति में पेड़ इसलिए थे कि तुम्हारा माथा फूट जाए? इसलिए थे? तुम जाकर उनसे भिड़ो इसमें प्रकृति की या जीवन की क्या गलती है? जीवन न अच्छा है, न बुरा है वो तो सब तुम्हारी स्पष्टता, बोध, क्लियरटी पर है कि जीवन का तुम्हें क्या सिला मिलता है। और बहुत दिनों तक तुम ऐसा मुँह रखोगे ― सही बोल रहा हूँ ― मुँह वैसा ही हो जाएगा तुम्हारा।
प्र: कोशिश करूँगा, आचार्य जी।
आचार्य प्रशांत: हाँ?
प्र: कोशिश करूँगा खुद पर काम करने के लिए।
आचार्य प्रशांत: कैसे करोगे काम?
प्र: हाँ, वही जो कुछ भी दुविधा दे रहा है वो लिखकर, इस पर काम करके।
आचार्य प्रशांत: तुम एक उम्र के हो, ठीक है? तुम आगे कुछ काम करना चाहते हो, अपनेआप से पूछो, ‘अच्छा, काम क्यों करना है?’ एक बार को जितने तुम्हारे मन पर दबाव हैं, सारे हटा दो। पूछो, ‘मुझे कोई भी काम क्यों करना है?’ कुछ जवाब आएगा, उसमें से जो जवाब बिलकुल ठीक लगे, ठोस पूछो, ‘अच्छा, तो इस वजह से काम करना है, तो कौनसा काम करना चाहिए? उसके लिए क्या रास्ते हैं?’ तो काम करने के बहुत सारे जो गलत व्यर्थ कारण होते हैं, वो हट जाएँगे।
ये जो हम एक ही एग्ज़ाम के पीछे कितने-कितने सालों तक लगे रहते हैं, या दोस्त किसी दिशा में सफल हो गये, हम उनके पीछे लगे रहते है, वो सब हटेगा फिर। तुम्हें पता चलेगा तुम्हें अपनी ज़िन्दगी जीनी है। तुम्हें समाज की या दोस्तों की ज़िन्दगी तो नहीं जीनी है। तो तुम्हारी जो अपनी ज़िन्दगी है उसमें तुम्हारे लिए क्या ठीक है एक बार जान जाओगे तो फिर इतनी मज़बूरी नहीं रहेगी। और एक बात और समझना अच्छे से, बहुत अच्छी बात होती है, जब सब लोग एक ही दिशा में एक ही सड़क पर भागे जा रहे होते हैं, भागने दो उनको। इसका मतलब जानते हो क्या होता है? दूसरी सड़कों पर ट्रैफ़िक कम मिलता है।
इसका मतलब जानते हो क्या होता है? वो जो दूसरा रास्ता है अगर वो लम्बा भी हो तो उस पर सुविधा भी ज़्यादा रहती है, और समय भी कम लगता है। भले ही वो रास्ता लम्बा था, भले ही वो सड़क उबड़-खाबड़ थी, लेकिन उस पर लोग इतने कम थे, इतने कम लोग थे कि रास्ता आनन्द में गुज़रा। और कुल मिलाकर के सड़क के लम्बे होने के बावजूद और सड़क के उबड़-खाबड़ होने के बावजूद भी समय भी कम लगा। क्योंकि सब-के-सब एक ही सड़क पर भाग रहे थे। क्यों? क्योंकि सब डरपोक हैं। सब एक-दूसरे को पकड़े हुए एक ही सड़क पर भाग रहे हैं। मतलब समझ रहे हो क्या बोल रहा हूँ?
प्र: हाँ, आचार्य जी।
आचार्य प्रशांत: दुनिया अगर एक ही दिशा में भाग रही है, तो इसको अपने लिए एक सूत्र सा बना लो कि पहली वरियता उन रास्तों को देंगे जिन पर दुनिया नहीं चल रही है। नियम नहीं है, सूत्र है। ‘वरीयता’ कहा है, ‘निर्णय’ नहीं कहा है। जो काम सब लोग कर रहे हैं सबसे पहले तो ये कहो, ‘ये नहीं ही करना है।’ आठ लेन का एक्सप्रेस-वे भी ब्लॉक हो जाता है पीक ट्रैफ़िक (चरम यातायात) में। मतलब समझ रहे हो न?
जिस रास्ते सब जा रहे हों सबसे पहले तो उस रास्ते से बचो। और एक्सप्रेस-वे इतने लेन का बना दिया गया है इससे बस ये पता चलता है कि सब उस पर जा रहे हैं। जिधर को जा रहे हैं वो वहाँ जाना ठीक है इससे पुष्टि नहीं हो जाती। सब मूर्ख हो जाएँ किसी एक विशेष जगह की ओर जाने लगे, क्योंकि सबको विश्वास हो जाए कि उस जगह पर जाने से स्वर्ग मिल जाता है। तो भारी हो जाएगा ट्रैफ़िक।
जब ट्रैफ़िक बहुत हो जाएगा तो वहाँ एक्सप्रेस-वे बना दिया जाएगा। कितनी भी लेन हो सकती है छः लेन, आठ लेन, बारह लेन, सोलह लेन, कितनी भी हो सकती हैं। वो सड़क की चौड़ाई देखकर के क्या ये सिद्ध हो जाता है कि जहाँ को सड़क जा रही है वो जगह ठीक ही है। इससे बस ये सिद्ध होता है कि बहुत लोग उस तरफ़ जा रहे हैं, ये नहीं सिद्ध होता कि बहुत लोग सही तरफ़ जा रहे हैं।
पहला तो यही खयाल किया करो, ‘जहाँ सब जा रहे हैं वहाँ नहीं जाना।’ मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि इसको नियम बना लो कि धारा के विपरीत निश्चित रूप से जाना है। पर परखा सबसे पहले यही करो, ‘अच्छा, जिधर भीड़ है, वहाँ से बचना है।’ वहाँ नहीं जाना, क्योंकि कई बार जिधर को भीड़ जा रही होती है न उधर श्रेष्ठता बस ये होती है कि वहाँ को भीड़ जा रही होती है, इसलिए वहाँ को और भीड़ जा रही होती है।
दो दुकानें हों अगल-बगल एक सी, और कई बार खाने-पीने की ऐसी एक सी होती हैं। आप जाओगे, ऋषिकेश के तरफ़ जाइए तो वहाँ पर ढाबे मिलेंगे, और कतार में एक के बाद एक, मान लीजिए पाँच ढाबे हैं। और मैं बहुत बार वहाँ आता-जाता रहता हूँ, तो वहीं में पाँच अगल-बगलों… कभी आप देखोगे एक पूरा भरा हुआ, बाकी खाली है; कभी देखोगे एक भरा हुआ, बाकी खाली है, ये कैसे हुआ? क्योंकि जो भरने लगता है वो फिर भर ही जाता है, वो भर क्यों जाता है? अगला आदमी आता है, कहता है, ‘इसमें लोग ज़्यादा हैं, तो यही, चलो’, और बाकी चार कह रहे हैं ― (खाली होने का अभिनय करते हुए)। पूरा खाली है। वहाँ कोई नहीं जा रहा। उनकी गलती क्या है बस? कि वो खाली है। लेकिन जो उन चार में जाकर बैठेगा उसकी मौज रहेगी, उसको आदर सत्कार भी ज़्यादा मिलेगा, वो अपने अनुसार खाना बनवा सकता है, क्योंकि और कोई है ही नहीं, और उसको ज़ल्दी से भोजन सर्व (परोस) भी कर दिया जाएगा, ‘लीजिए’, क्योंकि और कोई है ही नहीं।
हम चूँकि डरे हुए लोग हैं, तो इसलिए हम ये नहीं देखते कि हमें कहाँ जाना है, हम ये देखते हैं भीड़ कहाँ जा रही है। सुरक्षा हमें भीड़ में लगती है। हमें लगता है, ‘दूसरे कर रहे हैं तो सही होगा न?’ क्योंकि हमें ये नहीं पता, हमें स्वयं नहीं पता, हमें अपने देखे नहीं पता कि सही क्या है। तो हम सोचते हैं, दूसरा कर रहा है तो सही ही होगा। हमने सारी बुद्धिमत्ता, सारा ज्ञान किसी दूसरे में स्थापित कर दिया है, क्योंकि हमारे भीतर कोई ज्ञान नहीं है ये हम जान गये हैं। बेहतर क्या ये नहीं है कि अपने भीतर ज्ञान पैदा करो?
आप सोच रहे हो दूसरा ज्ञानी है, और दूसरा सोच रहा है आप ज्ञानी हो। ज्ञानी कोई नहीं है।
अन्धा अन्धे ठेलिया, दोनों कूप पड़न्त।
हमने तो संख्याओं को पैमाना बना लिया श्रेष्ठता का। एक सज्जन थे, उन्होंने कोई आश्रम वगैरह बनवाया। वो आश्रम बनवाया लेकिन उन्होंने कुछ गैर-कानूनी काम कर दिये, पेड़ काट दिये, पता नहीं क्या करा, और भी काम किये होंगे। तो उनको जाकर के पूछा जा रहा है कि ये आपने सब करा है, ये ठीक नहीं है, और उनको दस्तावेज़ दिखाये गए, ‘ये-ये आपने गलत काम करा है।’ तो पहले उन्होंने इधर-उधर की बातें करी। जब फँस गये तो बोले, ‘मेरे यहाँ पर हर रोज़ पाँच हज़ार लोग आते हैं। क्या वो गलत हैं?’ ये हमारा तर्क होता है।
‘अगर संख्या मेरे पक्ष में है, तो मैं ठीक ही कर रहा होऊँगा।’ या ‘मेरे यहाँ पर तो बहुत बड़े-बड़े लोग आते हैं, सब धनपति, उद्योगपति मेरे यहाँ आते हैं, सब राजनेता मेरे यहाँ आते हैं।’ तुम कह रहे हो, ‘मैं गलत हूँ, तो क्या वो सब राजनेता भी गलत हैं?’ ये तर्क है कोई? ये तर्क है? पर ये तर्क हम सबका तर्क है। इसलिए तर्क चल जाता है कि अगर दस हज़ार लोग ऐसा कर रहे हैं, तो...
जब चीन की आबादी पहले-पहले एक बिलियन (अरब) हुई थी तो एक मुहावरा निकल पड़ा था, “वन बिलियन चाइनीज़ कैन नॉट बी रॉन्ग” (एक अरब चाइनीज़ गलत नहीं हो सकते)। आज से कई दशकों पहले की बात है, जब चीन एक बिलियन पहुँचा था। तो ये मुहावरा ही बन गया था, “वन बिलियन चाइनीज़ कैन नॉट बी रॉन्ग।” ये लोकसत्य है हमारा — ‘चूँकि वन बिलियन (एक अरब) हैं, तो गलत थोड़े ही हो सकते हैं।’
और एक बात अच्छे से समझिएगा, वन बिलियन हैं, तो गलत ही होंगे। क्योंकि सत्य तो अकेला होता है। अगर वन बिलियन लोग एक साथ ठीक हो सकते, तो पृथ्वी आज वैसी नहीं होती, जैसी हो गयी है। जहाँ भीड़ देखो वहाँ समझ लो अज्ञान ही होगा। अगर गीता आप पर ज़रा भी उतरी है, ज्ञानियों की बात आपको थोड़ी भी समझ में आयी है, पहली चीज़ ये होगी कि आपको भीड़ से थोड़ी असहिष्णुता हो जाएगी। आप जिधर देखोगे कि सब जा रहे हैं, आप थोड़ा ठिठकोगे। मैं नहीं कह रहा है अनिवार्य रूप से जिधर सब जा रहे हैं वो जगह या वो दिशा गलत ही होती है, पर ज़्यादा सम्भावना यही होती है कि इतने लोग एक तरफ़ को जा रहे हैं तो वो जगह ठीक तो नहीं हो सकती। जिधर को देखो कि बहुत लोग हैं, वहाँ पर तुरन्त ये बात कौन्धनी चाहिए कि इतने लोग हैं तो कुछ गलत ही हो रहा होगा। आ रही बात समझ में?
और गलत नहीं तो कम-से-कम औसत होगा, मीडियोकर (औसत दर्जे का) होगा। ठीक है? सही गलत के द्वैत से हटकर देखो तो कहोगे, ‘अरे, इतने लोग कोई काम कर रहे हैं तो निश्चित रूप से वो काम बहुत औसत दर्जे का होगा, मिडियोकर होगा। श्रेष्ठता और साहस एक-दूसरे के पूरक होते हैं। जिन्हें श्रेष्ठता चाहिए हो, वो अकेलेपन का साहस दिखाएँ। साहस के बिना श्रेष्ठता की माँग दुस्साहस है।
विलहेम राइख का ’कॉमन मैन’ (आम आदमी) याद है न, ’लिटल मैन’ (छोटा आदमी)? वहाँ सारी बात ही क्या कही उन्होंने? कि कॉमन मैन जो कुछ करता है वो बहुत मीडियोकर होता है, और कॉमन मैन-ही-कॉमन मैन है चारों तरफ़, निन्यानवे प्रतिशत तो वही है। तो माने जहाँ भीड़ होगी, वहाँ क्या होगा? मिडियोक्रिटी (मध्यमता)। श्रेष्ठतारहित कुछ हो रहा होगा। इसको कोई अन्धा नियम मत बना लेना अपने लिए, पर ये बात विचार में ज़रूर रखना।
अपनी एक ज़िन्दगी है, अपनी एक ज़िन्दगी जीनी है, भीड़ के अन्दर घुसकर थोड़े ही जी लेंगे। किसी और के शरीर में प्रवेश करके जिओगे क्या? अपने साथ, अपने भीतर जीना है न? तो देखो तुम्हारे लिए क्या ठीक है, भले ही वो कोई और न कर रहा हो। क्या फ़र्क पड़ता है? और अच्छी बात है कोई नहीं कर रहा। ‘हम ही अकेले, हम ही धुरन्धर। अकेले दौड़ेंगे तो जीतेंगे।’ ये जीतने का फ़ॉर्मूला बता दिया पूरा। ऐसी रेस दौड़ो जिसमें दूसरा कोई है ही नहीं।
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