नौकरी से इस्तीफ़ा देने से पहले || आचार्य प्रशांत (2022)

Acharya Prashant

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नौकरी से इस्तीफ़ा देने से पहले || आचार्य प्रशांत (2022)

प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी, मेरा नाम प्रतीक है। मैं बीटेक ट्वेंटी ट्वेंटी वन पास आउट हूँ। आख़िरी जो प्लेसमेंट हुआ, मैंने वो ले लिया। फाइनेंशियल स्टेबिलिटी, फाइनेंशियल नीड (आर्थिक स्थिरता, आर्थिक आवश्यकता) लिए मैं जॉब करता हूँ। अब जैसे कि मैं हर रोज रिज़ाइन (इस्तीफ़ा) करने का सोचता हूँ। सर, रोहित सर से भी बात की तो वो बोले कि नहीं, अभी छोड़ो मत।

तो इनमें मुझे थोड़ा कॉन्फ्लिक्ट (विरोध) लग रहा है। आप शायद इसमें कुछ बता सकते हैं। इसमें मेरे ख़र्चे ख़ुद चले, इसके लिए भी तो इसके लिए ख़ुद की जिम्मेदारी मैं उठाता हूँ लेकिन उसमें मेरा ही विकेट गिर जाता है।

आचार्य प्रशांत: देखो, ऐसी चीज़ों के उत्तर कभी भी आर या पार के नहीं होते। ठीक है? बिलकुल ऐसा नहीं कहा जा सकता कि तत्काल नौकरी छोड़ ही दो, घर बैठ जाओ। आत्मज्ञान का मतलब होता है कि अपनी हालत बखूबी पता है और अपनी हालत में अपनी कमज़ोरियाँ ही ज़्यादा शामिल हैं। आत्मज्ञान का मतलब होता है कि तुम भली-भाँति जानते हो कि कितने पानी में हो। अब बोल तो दिया जाए कि छोड़-छाड़ दो नौकरी। किसी और चीज़ की तलाश कर लेना। लेकिन क्या ये सलाह तुम्हारे लिए उचित होगी? क्या तुम इस स्थिति में हो कि इस सलाह का मूल्य चुका सको क्योंकि ऐसा बहुत अनुभव में आया है कि तात्कालिक आवेग में आकर के लोग नौकरी वगैरह, छोड़ देते हैं। और फिर उनको समझ में नहीं आता कि अब करें क्या।

तो एक तरफ़ तो ये बात बिलकुल ठीक होती है कि दिख रहा है कि जहाँ काम कर रहे हैं, वहाँ फँसे हुए हैं। दूसरी ओर ये भी याद रखना होता है न कि हममें ही कोई कमज़ोरी है जिसकी वजह से फँसे हुए हैं। जिस कमज़ोरी ने हमें इस काम में फँसा दिया अतीत में, क्या अभी वो कमज़ोरी बिलकुल मिट गयी है? जल्दी बता दो। आपने मास्क लगा रखा है, और मास्क की वजह से आप ठीक से साँस नहीं ले पा रहे हैं। ठीक है? फँसे हुए हैं मास्क में। किसको अच्छा लगता है मास्क पहनना? किसी को नहीं और साल भर से आप मास्क लगा रहे हैं। ठीक है? कोई वजह थी न कि मास्क लगाना शुरू करा था?

मास्क में आपके फँसने की शुरुआत किसी वजह से हुई थी न? क्या थी वो वजह? वो वजह ये थी कि एक वायरस है जिसके सामने आप कमज़ोर हैं। एक वायरस है जिसके सामने आप कमज़ोर हैं, वहाँ से शुरुआत हुई थी कि बेटा अब तो मास्क में फँसना पड़ेगा। यहाँ से शुरुआत हुई थी न? आज आप मास्क को त्यागना चाहते हैं, बिलकुल त्याग सकते हैं। बस इतना बता दीजिए आपकी कमज़ोरी मिट गयी है क्या? अगर कमज़ोरी मिट गयी है तो बेशक आप मास्क को अभी त्याग दीजिए। पर कमज़ोरी यदि यथावत है, जितने कमज़ोर साल भर पहले थे उतने ही अभी भी है और आप कहें कि एक साल से फँसे हुए हैं, ‘और नहीं फँसना हमें, मास्क हटा रहे हैं’; तो ये बात तो चलेगी नहीं।

जीवन में बदलाव तब लाओ जब आन्तरिक तौर पर बदलाव की शुरुआत हो चुकी हो। बाहरी बदलाव के निर्णय तब लो जब आन्तरिक तौर पर उन निर्णयों को सम्भालने की, झेलने की, बर्दाश्त करने की ताक़त पैदा कर चुके हो। नहीं तो ऐसे निर्णय माया की चाल हो जाते हैं। बताता हूँ कैसे। अभी कोई नौकरी कर रहे हो, उसके साथ संस्था का कुछ काम कर देते हो। और बहुत सम्भावना है कि जिस दिन तुम नौकरी छोड़कर घर पर बैठ गये, उस दिन तुम्हारे मन में शत-प्रतिशत सिर्फ़ एक सवाल चल रहा होगा। क्या? अगली नौकरी कहाँ से मिलेगी? और उसके बाद संस्था के लिए जितना करते हो, उतना भी नहीं करोगे।

यही तो माया चाहती थी। मैं नहीं कह रहा कि ऐसा होगा निश्चित रूप से, मैं सिर्फ़ एक सम्भावना बता रहा हूँ ताकि सतर्क रहो। तो मैं कह रहा हूँ आन्तरिक तौर पर जब तैयारी लगे कि थोड़ी आगे बढ़ गयी है, तब बाहर बदलाव के निर्णय लेने चाहिए।

तुम घर के भीतर हो। जाड़े के दिन हैं। बहुत ठंड है। मान लो कनाडा में हो। बहुत ठंड है। शून्य से पन्द्रह डिग्री नीचे। लेकिन बड़ा मन कर रहा है कि दरवाज़े खिड़कियाँ सब खोलते हैं। अन्दर घुटन होती है। खोल सकते हो। पहले उस बाहरी बदलाव की तैयारी भीतर कर लो। कैसे करोगे भीतरी तैयारी? कपड़े-वपड़े डाल लो अच्छे से। अन्दर तैयारी कर ली है क्या? अन्दर तैयारी कर लो फिर बाहर बदलाव ले आ लो।

मुझे मालूम है भीतरी तैयारी कभी शत-प्रतिशत नहीं हो सकती, पर कुछ तो तैयारी कर लो। मैं जानता हूँ कि भीतरी तैयारी भी कई बार बाहरी संघर्ष झेलने से ही आगे बढ़ती है। लेकिन शुरुआत तो भीतर से ही करनी पड़ती है न। नहीं तो गड़बड़ हो जाएगी। तुम्हारा घर हीटेड (गर्म) था। कनाडा में होते हैं। वहाँ भीतर पूरा सेंट्रली हीटेड है तो तुम घर में टीशर्ट पहनकर घूम रहे थे मज़े में। कोई दिक्कत ही नहीं और बाहर क्या तापमान? हमने कहा शून्य से पन्द्रह नीचे। और भीतर क्या पहन के घूम रहे? टीशर्ट, और यकायक सारे दरवाज़े, खिड़कियाँ खोल दी। अब क्या होगा? जहाँ हो वहीं जम जाओगे। अच्छी बात है, बढ़िया बात है कि हमें अब बाहर की हवा लेनी है। ताज़ा माहौल में साँस लेना चाहते हो, बहुत अच्छी बात है। तैयारी कर लो। फिर करना।

बिना तैयारी के आगे बढ़ना आत्मघाती होता है। कई बार तो आदमी जान-बूझकर के बिना तैयारी के आगे बढ़ता है, स्वयं को ही ये प्रमाणित करने के लिए कि आगे बढ़ा नहीं जा सकता; देखो, आगे बढ़ो तो ऐसा होता है। बात आ रही है समझ में? जैसे कि आप गाड़ी में है और आपका ड्राइवर है कोई। एक-से-एक पहुँचे हुए ड्राइवर होते हैं। और वो साठ की गति से आगे ही नहीं बढ़ रहा, हाइवे पर भी। सड़क खाली है लगभग। वो साठ से आगे ही नहीं बढ़ रहा और आप उसको बोलते हो— ‘भाई, तेज़ चलाओ’; और वो सुनता नहीं। फिर आप दूसरी बार डाँटकर बोलते हो — ‘ज़रा तेज़ चलाओ।’ तो गाड़ी बढ़ा देता है।

सीधे सौ पर पहुँचा देता है और सामने स्पीड ब्रेकर और स्पीड ब्रेकर पर भी सौ से निकाल देता है। वो ये क्यों कर रहा है? वो ये प्रमाणित करने के लिए कर रहा है कि गति बढ़ाई जा ही नहीं सकती। अब आप ख़ुद ही उसे बोलोगे, ‘भाई, धीरे चला।’ कई बार आप जान-बूझकर के ऐसे निर्णय लेते हो जिनका असफल होना तय है। ताकि आप स्वयं को प्रमाणित कर दो कि ऐसे निर्णय तो लिए नहीं जा सकते। और उसके बाद आपको कोई ग्लानि भी नहीं बचेगी। आप कहेंगे, ‘देखो, हमने कोशिश करी थी न। हमने तो पूरी कोशिश करी थी। हमने तो यहाँ तक कोशिश करी थी कि हम नौकरी छोड़कर बैठ गये थे। तो हमें मत बताओ तुम। हम दोषी नहीं हैं। ऐसा नहीं कि हमने प्रयास नहीं किया। प्रयास पूरा था पर हम कर नहीं पाये। देखिए, आपने कहा था तो हमने गति बढ़ा दी थी। ऐसी गति बढ़ायी की स्पीड ब्रेकर पर उड़ा दी बिलकुल। ये मत कहिएगा कि हम तेज़ चला नहीं सकते। चलायी तो थी। इस तरीक़े से तेज़ चलायी कि तेज़ चलाने की स्थिति ही न बचे।’

जिन्हें जीवन में आगे बढ़ना हो वो बड़े सतर्क रहते हैं। जहाँ मुद्दा संवेदनशील हो, गम्भीर हो, वहाँ यूँही, खेल खेल में निर्णय नहीं लिये जाते। सत्य की राह तो बहुत लम्बी होती है न। बहुत लम्बी पारी खेलनी होती है। और जिन्हें सत्य से इतना प्यार होता है कि वो उतनी लम्बी पारी खेलने को तैयार होते हैं वो यूँही अक-बक बल्ला नहीं घुमाते।

मैच चल रहा है। टेस्ट मैच है। और आपको पता है कि मैच बचाने के लिए पूरे दिन बल्लेबाज़ी करनी पड़ेगी। पाँचवाँ दिन है। पाँचवाँ दिन है और चार-सौ रन से पीछे हो। जीतने का कोई सवाल नहीं। हाँ, ड्रॉ करा सकते हो। और ड्रॉ कराने के लिए क्या करना है? क्या करना है? टिके रहना है। माया के ख़िलाफ़ संघर्ष ऐसा ही है। जीतने का कोई सवाल नहीं है। अगर मैच ड्रॉ करा लिया तो उसको जीत मानो। और मैच ड्रॉ कराने के लिए ज़रूरी है कि टिके रहने से प्रेम हो।

जिन्हें टिके रहने से प्रेम होता है वो इधर उधर बल्ला नहीं भाँजते जल्दी से कुछ कर दो। किसी को भली-भाँति पता है कि दिनभर टिके रहना है और वो आकर के कभी बल्ला इधर घुमा रहा है, कभी उधर घुमा रहा है, कभी रिवर्स स्वीप कर रहा है, कभी विकेट कीपर के ऊपर से छक्का मारने की कोशिश कर रहा है। और ये हरकत कर रहा है तब जब पता है कि अभी दिनभर टिके रहना है। तो सीधा-सीधा निष्कर्ष क्या? इसको कोई प्रेम ही नहीं है टिके रहने से। ये तो ख़ुद ऐसी स्थितियाँ निर्मित कर रहा है कि जल्दी-से-जल्दी पिंड छूटे। अब मैं पेवेलियन पहुँचू और जब पवेलियन पहुँच जाएगा; लोग कहेंगे, ‘ये तू क्या कर रहा है?’ बोल रहा है, ‘अरे तुम छोटे लोग, तुम ड्रॉ की सोचते हो। मैं तो चार-सौ रन बनाकर जीत की सोच रहा था। और चार-सौ रन तो तभी बनेंगे न दिन में जब ज़रा बल्ला भाँजेंगे, तो मैं तो बल्ला भाँज रहा था कि जीत ही मिल जाए।’ ये आदमी मक्कार है। ये कुछ नहीं है। पेवेलियन में आकर सोना चाहता था वापस कि इतनी कड़क धूप है।

मान लो चिन्नास्वामी स्टेडियम में हो रहा है। बड़ी धूप है। अरे, कौन दिनभर खड़े खड़े टुकृ-टुक-टुक-टुक-टुक टुक ब्लॉक करेगा। इससे अच्छा ज़रा जौहर दिखाया जाए। ले बेटा, एक छक्का। और जब बल्ला घुमाओगे एक दो बार तो लग ही जाता है। और जनता भी खुश कि चलो कुछ पटाखेबाज़ी देखने को मिल रही है। तालियाँ भी बज गयी। एक बार घुमाया, दो बार घुमाया। लगा, लगा; फिर उसके बाद गिल्ली उड़ी। और तर्क क्या? हमें तो चार-सौ चाहिए था। चार-सौ नहीं मिलने का। तुम माया को इतने हल्के में मत लो कि तुम दिनभर बल्ला घुमाते रहोगे और वो पिटती रहेगी। तुमको जीतने के लिए चार-सौ चाहिए, उसको जीतने के लिए एक चाहिए। एक गेंद जो तुम्हारी गिल्ली उड़ा दे। तुम्हें जीतने के लिए चार-सौ चाहिए, उसको एक चाहिए। बताओ कौन जीतेगा?

तो बहुत सतर्क हो के खेला जाता है अगर सच्चाई से प्यार हो तो। नहीं तो एक-से-एक बैठे हैं, पेवेलियन में। और सब वही थे कि हम आ रहे हैं न। अभी खेल ख़त्म करते हैं तेरा। ‘लेकिन आचार्य जी कभी-न-कभी तो एक दिन आएगा न जब कोई-न-कोई आख़िरी दिन भी चार-सौ रन बनाकर के जीत हासिल करेगा।’ मैं क्या बोलूँ? एक कहावत है, “ये मुँह और मसूर की दाल।” अरे, तुम्हें छक्के-चौके मारने भी है तो आख़िरी सेशन (सत्र) में मार लेना। चाय के बाद। तुम पहले चाय तक तो टिककर दिखा दो। फिर देखेंगे कि पीट सकते हैं कि नहीं। नहीं, सुबह-सुबह उतरे हैं और सुबह-सुबह क्या मतलब होता है? यही मतलब होता है कि अभी ज़िन्दगी की शुरुआत ही कर रहे हैं। नये-नये खिलाड़ी हैं। ले दनादन।

‘ये आचार्य जी, हल्के खिलाड़ी है। इतनी उम्र हो गयी। इनको मुक्ति मिली नहीं है अभी। हम बाइस की उम्र में मुक्त हो के दिखाएँगे।’ तीन साल तो मुझे भी लग गये थे, अपनी कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ने में। तुम तीन महीने के अन्दर क्रान्ति कर दोगे? कर सकते हो? मैं नहीं कह रहा कि मैं ही उत्कृष्ट हूँ सबसे। पर थोड़ा सोच समझ लिया करो।

मैं तंग आ चुका हूँ ऐसों को देखने से। आएँगे। नये-नये आएँगे। बोलेंगे, ‘हमने अपना जीवन हाज़िर कर दिया है। अब और कुछ नहीं है। अब सत्य की सेवा है।’ और बस दो महीने के भीतर नदारद। ढूँढो; पूछो, ‘कहाँ गया?’ ग़ायब! बड़ी-बड़ी बातें करने आएँगे, ’आई हैव अ बर्निंग डिज़ायर टू सैक्रिफाइस इन द राइट कॉज़’ (मेरे पास एक सुलगती हुई इच्छा है सही उद्देश्य के लिए अपनेआप को बलिदान करने की)। उसके बाद एक इस्तीफ़ा, दूसरा इस्तीफ़ा, तीसरा इस्तीफ़ा, जाने दो। जाने दो। नहीं झेला जाता।

पहले अपनेआप को नाप तो लिया करो। और इतनी ग़ैरत रखो कि एक बार शुरू कर दो तो फिर पीछे वापस न जाना पड़े। ठीक वैसे जैसे एयरलाइन्स करती हैं कि एक बार उड़ गये, अब वापस न जाना पड़े। लेकिन उड़ने से पहले दो-तीन घंटे की प्रक्रिया होती है। वो बेहतर है न कि दो-तीन घंटे की पूरी प्रक्रिया से गुज़र लो और दो-तीन घंटे की प्रक्रिया से तुम ही नहीं गुज़रते। वो प्लेन भी गुज़रता है। लखनऊ से बाराबंकी तुम्हें जाना हो, राज्य परिवहन की बस में बैठकर के तो तीन घंटे बस की तैयारी नहीं की जाती। वो बस में तुम जाओगे, वहाँ ड्रॉइवर आएगा — पान चबाता; और अपना कहेगा, ‘बैठो।’ दो हॉर्न मारेगा — पीं पौं, पीं पौं, पीं पौं। कंडक्टर वहाँ दरवाज़े पर खड़ा होकर बोलेगा, ‘बाराबंकी, बाराबंकी, बाराबंकी।’ चढ़ जाओगे। कोई तैयारी नहीं चाहिए।

प्लेन में बड़ी तैयारी की जाती है और लम्बी उड़ान हो — अन्तर्राष्ट्रीय, तब तो और तैयारी की जाती है। खूब तैयारी की जाती है। तुम्हें रोककर रखा जाता है। ये नहीं कर सकते तुम वहाँ कि टैक्सी से उतरे और टैक्सी से जाकर प्लेन में बैठ गये। बड़ी तैयारी की जाती है इसलिए कि एक बार उड़ गये फिर उतरना न पड़े। ये थोड़े ही करोगे — उड़े हैं और कहोगे कि अरे, ‘लगता है कुछ चार्जर नीचे भूल आए। ज़रा भैया, नीचे लेना।’ और फिर नीचे ये चार्जर उठाकर दुबारा। एयर होस्टेस बोल रही है, ‘अरे, वो लगता है मैं अपना रिबन छोड़ आयी हूँ।’ थोड़ी देर में को-पायलट बोलता है, ‘अरे, तेल तो भरवाया ही नहीं, आगे देखना, कहीं मिल रहा है क्या?’

पूरी तैयारी के साथ उड़ान भरी जाती है। हज़ारों मील सागर के ऊपर से उड़ना है। उतरोगे कहाँ पर? बताओ! ट्रांस एटलांटिक फ्लाइट है, पेरिस से चले, न्यूयॉर्क जा रहे हो। कहाँ उतरोगे? जिन्हें मंज़िल से प्यार होता है, वो शुरुआत में ही पूरी सतर्कता रखते है। वो अन्धाधुन्ध कार्रवाई नहीं करते। आ रही है बात समझ में?

न मैं ये कह रहा हूँ कि जहाँ फँस गये हो वहाँ फँसे रहो और न मैं ये कह रहा हूँ कि अगर लग गया है कि फँसे हो तो आज भाग जाओ। क्योंकि तुम भाग पाओगे नहीं क्योंकि तुम अभी भी वही व्यक्ति हो जो फँसा था कभी। अगर तुम अभी भी वही व्यक्ति हो भीतर से जिसने कभी फँसना स्वीकार किया था तो अगर तुम यहाँ से भाग भी गये तो तुम किसी और जगह जाकर फँस जाओगे; या नहीं?

तो भागो लेकिन पहले पूरी आन्तरिक तैयारी करके। और ये भी मत कहना कि अभी तैयारी शत-प्रतिशत पूरी नहीं हुई है इसलिए नहीं भाग रहे हैं। मैं जानता हूँ तैयारी कभी शत-प्रतिशत पूरी नहीं होती। पर इतनी तो कर लो। इतनी तो कर लो कि मन में एक सांत्वना रहे कि अपनी ओर से तो कर ली है बाक़ी तो जानते हैं, कुछ-न-कुछ बचा रह गया होगा।

प्र २: प्रणाम आचार्य जी, मेरा सवाल दूसरा था लेकिन अभी आपने इनका जवाब दिया तो उसी से एक सवाल निकला है कि आप जो तैयारी बोल रहे हैं वो मानसिक तैयारी है या आर्थिक तैयारी है या वो?

आचार्य: दोनों तैयारी हो सकती है। आर्थिक तैयारी भी प्रभाव तो तुम्हारे मन पर ही डालती है न? तैयार तो मन को ही करना है पर मन को तैयार करने के लिए अर्थ को भी तैयार करना पड़ता है, तन को भी तैयार करना पड़ता है। कई तरह की तैयारियाँ करनी पड़ती हैं क्योंकि मन अपनेआप में तो कुछ होता नहीं। वो तो हर चीज़ से प्रभावित होता है।

प्र २: पर हो सकता है, आचार्य कि जो पहला चुनाव हुआ हो वो आर्थिक तौर पर हुआ हो और अब वो आर्थिक तौर पर तो चुनाव हो चुका है लेकिन उसमें चोट लग रही है। और अब उसको वो राह बदलनी है। वो राह बदलनी है और हक़ीक़त ये है कि आर्थिक मदद की भी ज़रूरत है तो आर्थिक तौर पर भी तैयार होना ज़रूरी है तो ही वो राह बदली जा सकती है। तो अब ज़्यादा प्रभाव आर्थिक स्थिति का है और मानसिक स्थिति ये चाहती है कि ये रास्ता छोड़ना है तो उस स्थिति में मतलब?

आचार्य: सीधे-सीधे बोलो क्या बोल रहे हो? छोड़ना चाहते हो पर ये लग रहा है कि अभी पैसा कम है?

प्र: हाँ, ये भी हो सकता है।

आचार्य: ऐसे बोलो न!

प्र: पहला चुनाव — आर्थिक स्थिति।

आचार्य: पहले कहीं फँसे थे क्योंकि पैसा चाहिए था और अभी भी वहाँ फँसे इसलिए हो क्योंकि पैसा चाहिए। मन चाहता है छोड़ दे लेकिन पैसे की ज़रूरत है तो बहुत सीधी सी बात है। अगर पैसे की बात है तो सबसे पहले तो ज़रूरतें कम करो और दूसरी बात आय का कोई ऐसा स्रोत खड़ा करो जो वैकल्पिक हो, जिससे कम-से-कम इतना आता रहे कि इसको छोड़ भी दोगे तो गुज़ारा हो जाएगा जब तक कि कोई अन्य साधन नहीं मिल जाता। अगर तुम बहुत बहुत स्पष्ट सी बात है। अगर तुम अपनी आन्तरिक स्थिति वहीं रखोगे जो आज से साल भर पहले थी तो बाहर भी तुम्हें वही सब निर्णय करने पड़ेंगे न जो साल भर पहले करे थे? जल्दी बोलो।

पहले भी तुम कहते थे — ‘देखो साहब, मुझे इतना पैसा चाहिए’; और उस पैसे की चाह के कारण तुम एक नौकरी में फँसे। अगर आज भी तुम यही कह रहे हो कि मुझे उतना ही पैसा चाहिए तो फिर से तुम उसी तरह किसी नौकरी में फँसोगे। फँसोगे? कुछ तो बदलना पड़ेगा न भीतर, यदि बाहर कोई बदलाव लाना है। या तो ये देखो कि मुझे उतना पैसा चाहिए ही नहीं है या ये कह दो कि चाहिए है लेकिन मैंने कोई अन्य साधन खड़ा कर लिया है। मैं कह रहा हूँ — ये दोनों ही चीज़ें आज़माओ। कुछ तो अपनी ज़रूरतें कम करो। बहुत ठोस तरीक़े से देखना होता है कि कहाँ-कहाँ मेरा पैसा जा रहा है।

जहाँ भी उसमें दिख रहा हो कि व्यर्थ जा रहा है। भ्रम में जा रहा है। यूँही जा रहा है। काट दो। भूलना नहीं है कि तुम्हारी पहली ज़िम्मेदारी अपनी मुक्ति के प्रति है। बहुत सारी ज़िम्मेदारियाँ होती हैं जो तुम पैसा देकर निभाते हो। वो पैसे वाली ज़िम्मेदारियाँ सब पीछे आती हैं। वो बाद की बात है। पहले कौन सी चीज़ हैं? पूछने दीजिए, पूछने दीजिए। अच्छा, पहले कौन सी जिम्मेदारी है? पहले अपने प्रति जिम्मेदारी है न?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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