नैतिकता दो प्रकार की || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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नैतिकता दो प्रकार की || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

वक्ता: मनमीत का सवाल है कि नैतिकता पर बहुत बातें सुनते हैं, नैतिक मूल्यों पर ज्ञान पता नहीं कब से मिलता चला आ रहा है, लेकिन जब परीक्षा की घड़ी आती है, जब उसको कार्यान्वित करने का समय आता है ठीक उसी समय मौका चूक जाता है।

ऐसा कितनों के साथ होता है कि सही-गलत, अच्छे-बुरे का पता होते हुए भी ऐन मौके पर सब भूल जाते हैं और लगता है कि गलती कर बैठे? और फिर बाद में कहते हैं कि पता तो था पर उस वक़्त सब भूल गया।

(करीब-करीब सभी श्रोता अपने हाथ खड़े करते हैं)

तो सभी के साथ होता है। तो सवाल सिर्फ मनमीत का है या हम सबका है?

श्रोता: हम सबका ।

वक्ता: तो हम सब ऐसे ही सुनेंगे जैसे हमने ही पूछा हो। ऐसे नहीं सुनेंगे कि किसी और का सवाल है तो उसे ही जवाब दिया जा रहा है। जवाब सबको दिया जा रहा है। ठीक है?

नैतिकता का क्या अर्थ होता है? नैतिकता का अर्थ होता है, सही – गलत, उचित -अनुचित, अच्छे -गलत का भेद। समझ रहे हो बात को ?

ये समझ में आना कि क्या ठीक है और क्या ठीक नहीं है- ये नैतिकता है। अब समझो ध्यान से। नैतिकता क्या है, ये सबको समझ में आ गयी बात?

(सभी श्रोतागण हाथ खड़े करते हैं)

उचित-अनुचित, सही -गलत में अंतर दो तरीके से किया जा सकता है। कितने तरीके से किया जा सकता है?

सभी श्रोतागण: दो तरीके से।

वक्ता: दो तरीके से। पहला तरीका ये है कि मुझे कोई बाहरी व्यक्ति आकर बता दे कि तुम ऐसा-ऐसा करो तो ठीक और ऐसा-ऐसा करो तो गलत। हममें से ज्यादातर लोगों ने नैतिकता ऐसे ही सीखी है। कैसे सीखी है? कि ऐसा-ऐसा करो, कर्म के तौर पर, आचरण के तौर पर, तो बहुत अच्छा। और ऐसा-ऐसा करो तो गलत है। एक तरीके का आदेश है। जैसे डॉक्टर लिख कर दे कि ये सब खाना है और ये सब खाना वर्जित है। इस तरीके से चलना है, इस तरीके से रहना है, और बाकी चीज़ें मत करना। ये पहला तरीका है नैतिकता को सीखने का, उचित – अनुचित में अंतर करने का, कि बचपन से ही हमें किसी ने बता दिया। क्या बता दिया? सदा सच बोलो। क्या बता दिया?

सभी श्रोतागण: सदा सच बोलो।

वक्ता: दूसरों को नुकसान मत पहुँचाओ। बड़ों का.…

सभी श्रोतागण: आदर करो।

वक्ता: बड़े नैतिक लोग हो सब। आधी बात बोलता हूँ, तुम पूरी कर देते हो। तो सभी ने सीखी हुई है। सीखी, मैंने भी सीखी। ठीक है? ये नैतिकता के पाठ हम सभी ने बचपन से खूब सीखे हैं। अब मैं तुमसे सवाल कर रहा हूँ कि अपने आस-पास की दुनिया को ध्यान से देखो। अपनी आँखों से भी देखो, और जो अखबार में पढ़ते हो, उसे भी ध्यान में लाओ, जो टी.वी. में देखते हो उसकी ओर भी देखो। हमने बचपन से ही यह सुना, और हर किसी ने सुना, हर घर में यह बात बतायी गयी कि सदा सच बोलो, नैतिकता। बड़ों का आदर करो, हिंसा मत करो, ईमानदार रहो। यही है न नैतिकता? और हमें बचपन से यह बात बतायी गयी। पर दुनिया में क्या चल रहा है? किस तरीके के लोग हैं वो जो झूठ बोल रहे हैं। ठीक? वो जो धोखा दे रहे हैं, वो जो हिंसा कर रहे हैं, बलात्कार कर रहे हैं। हर बच्चे को बचपन से ही बताया जा रहा है कि सच बोलो पर दुनिया भरी हुई है……..

सभी श्रोतागण: झूठों से।

वक्ता: तो बड़ी अजीब बात है। क्या कोई बच्चा ऐसा होता है जिसकी माँ ने कहा हो कि सुन झूठ बोलना, बहुत फायदा होता है। ऐसा होता है कभी?

सभी श्रोतागण: नहीं।

वक्ता: यहाँ पर कभी किसी के साथ ऐसा हुआ तो नहीं है?

सभी श्रोता: नहीं।

वक्ता: किसी के साथ नहीं हुआ ना? किसी के साथ होता भी नहीं है। माँ-बाप हर बच्चे को बता रहे हैं सदा सच बोलो। और हर बच्चा बड़े होकर बोल क्या रहा है?

सभी श्रोतागण: झूठ।

वक्ता: हर बच्चे को सिखाया जा रहा है किसी को मारो नहीं, सताओ नहीं, हिंसा गलत है। और खबरें मिलती हैं नैतिकता की या अनैतिकता की?

सभी श्रोतागण: अनैतिकता।

वक्ता: उससे दो बातें पता चलती हैं। पहली: दुनिया में अनैतिक घटनाएँ बहुत ज्यादा हो रही हैं। दूसरी: तुम्हें अनैतिक घटनाओं में पड़ने में बड़ी रूचि है। नहीं तो अखबार वाला पहले पेज पर छापता नहीं अगर उसको पता होता कि तुमहें हत्या, बलात्कार और घूस के मामले पढ़ने में रूचि नहीं है। तो वो छपेगा नहीं पहले पेज पर। तो दुनिया भी अनैतिक है, जो अनैतिकता कर रही है और पढ़ने वाला भी अनैतिक है जो उस अनैतिकता में रस ले रहा है। तो यह हुआ कि सभी अनैतिक हैं। ये हमारी पहली किस्म की नैतिकता का परिणाम है।

अब दूसरी पर आते हैं, एक दूसरी भी होती है। जो दूसरी नैतिकता होती है, वो समझ लो कि ऐसे होती है जैसे फूल। उस फूल कि जड़ कहीं और होती है। एक पेड़ पर एक फूल लटका होता है, तो वो नकली तो नहीं होता। वो उस पेड़ की पूरी व्यवस्था का परिणाम होता है। पेड़ में फूल लगता है क्योंकि पेड़ के पास पत्तियाँ हैं, पेड़ को धूप मिल रही है, पेड़ को पानी मिल रहा है, पेड़ के पास तना है, और पेड़ के पास जड़े हैं। जब इतना कुछ होता है तब उस पेड़ में एक फूल लगता है।

ये पूरी व्यवस्था का दूसरी किस्म की नैतिकता एक फूल है। वो पूरी व्यवस्था क्या है? वो व्यवस्था वो है जिसकी जड़ है तुम्हारी अपनी समझ। ये जो दूसरी नैतिकता है ये है फूल, और तुम्हारी चेतना है उसका मूल। ये तुम्हें किसी ने सिखायी नहीं। ये कृत्रिम फूल नहीं है जो किसी ने बहार से लाकर बाँध दिया है उस पौधे में। ये खिला है तुम्हारे अपने मनन में। कैसे खिला है? मैंने समझा है कि चोरी क्या है, इस कारण मैं चोरी नहीं करूँगा।

चोरी न करने के दो कारण हो सकते हैं। पहला- किसी ने मुझसे कह दिया कि चोरी मत करो, तो मैं चोरी नहीं कर रहा। और दूसरा- मैंने साफ़-साफ़ खुद जाना है कि चोरी के क्या अर्थ हैं इसलिए मैं चोरी नहीं कर रहा। ये जो दूसरा तरीका है, इसी में दम है। यही असली है। यही सच्चाई है। दुर्भाग्यवश हममें से ज्यादातर लोग इस दूसरे तरीके से अनभिज्ञ हैं। हम पहली ही नैतिकता जानते हैं। ये जो दूसरा है इसे ध्यान से समझन, इसकी बड़ी कीमत है। दूसरा कहता है, ‘हाँ मैं हिंसा नहीं करूँगा’। देखो, तुम अगर किसी को नहीं मारते तो उसकी बहुत बड़ी वजह ये है कि तुम्हें डर है पुलिस पकड़ कर ले जायेगी। चोरी नहीं करते तो वजह ये है कि अगर पकड़े गए तो बदनामी हो जायेगी। है ना?

एक दूसरे किस्म का आदमी भी होता है जो कि किसी को नहीं मारता। वो इसलिए नहीं मारता कि उसे डर है। मैं तुम्हें ना मारूं तो उसकी दो वजह हो सकती हैं। पहली, मैं डरता हूँ कि मैं तुम्हें मारूंगा तो तुम मुझे पलट कर मारोगे या मुझे पुलिस पकड़ कर ले जायेगी। एक दूसरी वजह भी हो सकती है। वो दूसरी वजह क्या है?

श्रोता १: हमें लगे कि इसमें कुछ गलत है।

वक्ता: और? उस से भी आगे जाओ।

श्रोता: मारना ही नहीं चाहते।

वक्ता: मारना ही नहीं चाहते। मन में हिंसा है ही नहीं। और उससे भी आगे अगर जाऊँ। मन में यदि प्रेम हो तो क्या मारोगे?

सभी श्रोतागण: नहीं।

वक्ता: नहीं मारोगे न? ये दूसरी किस्म की नैतिकता है जो तुम्हारी समझ से निकलती है। इसमें चेतना होती है, प्रेम होता है। इसमें तुम चोरी नहीं करोगे। पर चोरी से इसलिए नहीं भागोगे कि अरे मेरी अपनी अंतरात्मा क्या कहेगी? कोई डर नहीं होगा। अंतरात्मा का डर भी नहीं होगा। इसमें एक सीधा- साधा भाव होगा कि चुराना क्या है? मुझमें इतनी ताकत है कि मैं अपने लिए खुद अर्जित कर लूँ। चुराऊँ क्यों? या फिर चुराना क्या? चुराऊँगा तो इसको कष्ट होगा। प्रेम है मुझे इससे, मैं इसका बुरा नहीं चाहता। इसको कष्ट होगा। ये दूसरे किस्म की नैतिकता है।

पहले किस्म कि नैतिकता बिल्कुल टूट जायेगी जिस दिन तुम्हें क़ानून की आँखें नहीं देख रही होंगी। जिस दिन तुम जान जाओगे कि पुलिसवाला मुझे पकड़ नहीं सकता, उस दिन खूब चोरी करोगे। पहले किस्म की नैतिकता सिर्फ उस दिन तक काम आएगी जिस दिन तक कोई तुमको डराने के लिए मौजूद है। दूसरी नैतिकता किसी की आँखों की मोहताज नहीं है। कोई देख रहा हो या न देख रहा हो, वो डटी रहेगी। वो कहेगी, ‘कोई देख रहा हो य न देख रहा हो, पर मुझे ये काम करना है ही नहीं। अरे मैं करना ही नहीं चाहता। कोई नहीं देख रहा तो इसका मतलब मैं गोली मार दूँ, हिंसा कर दूँ, बलात्कार करूँ? ना, मुझे करना ही नहीं है। कोई देखे या न देखे। कोई दंड मिले या न मिले। दंड की भी बात नहीं है। तुम मुझे लाख रुपए दे दो, तब भी मैं ये काम नहीं करूँगा। मुझे करना ही नहीं है। ये दूसरे किस्म की नैतिकता है। ये तुम्हारी समझ का फूल है। क्या है? तुम्हारी समझ का फूल है। ये चीज़ बाहर से नहीं आई है कि किसी ने बता दिया मुझे। मम्मी ने बता दिया था, नैतिक मूल्यों कि किताब ने बता दिया था, धर्म- ग्रंथों ने बता दिया था। ये किसी ने तुम्हें बता नहीं दिया है। ये तुम्हारे अपने विवेक से निकली है, अपनी समझदारी से, अपनी समझ से निकली है। और ये मज़ेदार चीज़ है। इसमें बड़ी जान है। ये किसी के हिलाए नहीं हिलेगी, और इसमें बड़ा मज़ा भी है। क्योंकि याद रखना, जब तुम किसी और की दी हुई नैतिकता पर चलते हो तो मन में एक बात तो रहती ही है कि मैं गुलाम हूँ। किसी और के बताये हुए रास्ते पर चलना पड़ रहा है। यह जो दूसरे किस्म की नैतिकता है, इससे एक कर्म निकलता है और बड़ी मौज रहती है। तुम्हें पता होता है कि मैंने अपनी फ्रीडम में, अपनी मुक्ति में, अपनी समझ से ये काम किया है। तुम खुश रहते हो, बहुत-बहुत खुश रहते हो।

यहाँ पर मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोग नोट्स बना रहे हैं। नोट्स बनाने के दो कारण हो सकते हैं,

पहला, मैं एक ऊंचे आसन पर बैठा हुआ हूँ और क्योंकि मैंने कह दिया इसलिए बना रहे हो। उन नोट्स में कोई जान नहीं होगी क्योंकि वह तुम बस डर वश बना रहे हो। और दूसरे लोग भी हैं जो नोट्स इसलिए बना रहे हैं क्योंकि उन्हें सुनने में ही बड़ा अच्छा लग रहा है, और वह कह रहे हैं कि बीच- बीच में मैं एक- आध बात लिख लेना चाहता हूँ। वो हो सकता है बहुत ज्यादा ना लिखें। सही बात तो यह है कि जो प्रेमपूर्ण तरीके से सुन रहा होगा, वह बहुत कुछ लिखना भी नहीं चाहेगा। वो कहेगा कि मेरा सुनना काफी है, सुनने में ही बड़ा आनंद आ रहा है। पर जब भी वह बीच में कुछ लिखेगा, उस लिखने की बात दूसरी होगी। क्या तुममे से कुछ लोग ऐसे हो जिनको सुनने में मज़ा आ रहा है?

(सभी श्रोतागण हाथ उठाते हैं)

मुझे यह भी पता है कि कुछ लोग इसलिए सुन रहे होंगे क्योंकि यहाँ आना आवश्यक था। जो अपनी समझ से, अपनी मौज से सुन रहे हैं, वह इन दो घंटों के बाद यहाँ से बहुत कुछ लेकर जायेंगे। और जो इसलिए सुन रहे हैं क्योंकि सुनने की बाध्यता है, वह जैसे आये थे, वैसे ही चले जाएंगे। यह नियम है दुनिया का।

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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