नास्तिक कौन? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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नास्तिक कौन? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

श्रोता: नास्तिक कौन है?

वक्ता: पारंपरिक रूप से नास्तिक का मतलब होता है, वह जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता | जो कहता है कि ईश्वर नहीं है | यह तो ‘नास्तिक‘ का पारंपरिक अर्थ है | पर भारत ने इस बात को ज़रा अलग तरीके से देखा है | हिन्दी भाषा में Atheist के लिए जो शब्द इस्तेमाल हुआ है वह है, ‘नास्तिक‘ | नास्तिक माने, जो कहे कि ‘है ही नहीं‘ | क्या नहीं है, यह नहीं कहा गया | ‘न + अस्ति‘ | ‘अस्ति‘ माने होना | जो कहे कि ‘है नहीं‘ |

तो Atheist होने में कोई बुराई नहीं, अगर तुम ईश्वर की जो पारंपरिक परिभाषा है उसको मानने से इनकार कर दो | क्योंकि परंपरागत रूप से हिन्दू का ईश्वर एक है और मुस्लिम का ईश्वर दूसरा है | और उसके बारे में हज़ार कहानियां चल रही हैं और हम यह समझ लेते हैं कि यही सब भगवत्ता (Godliness) है | उसको मानने से जो इनकार कर दे वह तो बढ़िया ही है | क्योंकि उनको जो माने वो वही है; जो पहले तल पर बैठा है; अन्धविश्वासी |

लेकिन नास्तिक कोई नहीं हो सकता क्योंकि नास्तिक होने का अर्थ है यह कहना कि ‘कुछ है ही नहीं‘ | अगर कुछ है नहीं तो यह कहने वाला भी कौन है ? कम से कम मैं तो हूँ ही | ये भी कहने के लिए कि ‘कुछ नहीं है‘, किसी का होना आवश्यक है ? कोई हो जो ये कहे के कुछ नहीं है | यानि कि कुछ भी नहीं है तो मैं तो हूँ ही |

मैं तो हूँ ही |

बस इतना ही काफी है | बस ये जानना कि मैं तो हूँ ही ‘ |

अगर एक बच्चा है जो इनकार कर देता है कि ये जो तुम भगवान् नाम की कहानी तुम मुझे सुना रहे हो मैं नहीं मानता इसे , तो मैं तो कहूँगा कि बड़ा बुद्धिमान बच्चा है | क्योंकि भगवान् के नाम पर ये जो कहानियां सुनाई जाती हैं ये हैं ही बेवकूफी भरी | और एक नहीं | जितने धर्म हैं, हर धर्म को लेकर के हजार कहानियां हैं | और आपसे यह अपेक्षा की जाती है कि आप इन कहानियों पर बिलकुल सर झुका कर के विश्वास कर लोगे | ये जो भगवान् है, ये भगवान् कुछ है नहीं, हमारे ही मन की उपज है | तो इसको लेकर के जो कहानियां भी बनी हैं वह हमारी ही उपज हैं | ये जो भगवान् है जिसको हम बचपन से सुनते आ रहे हैं जिसके मंदिर और मस्ज़िद बनते हैं, ये मंदिर किसने बनाया ? वह मूर्ती ऐसी हो यह किसने सोचा ?

श्रोता: हमने |

स्पीकर: तो ये भगवान् तो हमारे ही मन की उपज है | उस भगवान् को लेकर के ये इतने ग्रन्थ हैं ये किसने लिखे? हम ही ने लिखे | तो ये भगवान् तो हमारे ही मन से निकल रहा है | हमारा एक ख्वाब है | ये एक विचार है हमारा | इसको लेकर के बहुत संजीदा होने की कोई बात नहीं है |

लेकिन कुछ और है जो बहुत महत्वपूर्ण है और जिसको बहुत महत्व दिया ही जाना चाहिए | वह है तुम्हारा होना |

और तुम्हारे होने का अर्थ है *‘चैतन्य ‘* होना | वो निश्चित रूप से है | और वह श्रद्धा का पात्र भी है |

भगवान् के सामने मत झुकाओ सर, अपने सामने झुकाओ | तुम्हारी चेतना से ऊपर कुछ नहीं | जिन ग्रंथों की तुम पूजा करते हो वह अंततः यही कहते हैं कि ‘तुम ही ब्रह्म हो‘ | आखिरी सच्चाई तुम ही हो | हमने कहा था ना कि रौशनी वस्तुतः दिए में नहीं है, तुम में है | तुम्हारी आँख में है | तो भगवान् पर अविश्वास करती हो तो करो | बहुत अच्छी बात है | लेकिन,

….. अपने को जानना मत छोड़ देना *| ‘मैं हूँ ‘,* यह होश हमेशा बना रहे |

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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