मोक्ष प्राप्ति का सरल मार्ग क्या? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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मोक्ष प्राप्ति का सरल मार्ग क्या? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। योगीजन द्वारा बताया गया मुक्ति मार्ग साधारण लोगों के लिए बहुत दुष्कर और दुस्साध्य होता है। लेकिन ये भी सत्य है कि इसी कठिन मार्ग से गुज़रने पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दृष्टि प्रदान की थी; हालाँकि यह बहुत सँकरा मार्ग है। क्या साधारण जन के लिए मोक्ष या मुक्ति का कोई सुलभ मार्ग हो सकता है, जो योगियों द्वारा बताये गए कठिन मार्ग से अलग हो?

आचार्य प्रशांत: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दृष्टि यूँही नहीं प्रदान कर दी थी, अर्जुन ने कई तरीकों से अपनी पात्रता का परिचय दिया था। ऐसा नहीं है कि योगियों का मार्ग संकीर्ण या सँकरा होता है, और कोई दूसरा मार्ग होता है जो सुलभ या सरल हो। हर मार्ग पर तुमको अपनी मुमुक्षा का, अपनी आतुरता का परिचय देना ही पड़ता है, उसके अलावा कोई रास्ता नहीं है।

सुन रहे हो न, श्रीकृष्ण क्या कह रहे थे अर्जुन से? अर्जुन होना आसान बात नहीं है। अर्जुन होने का अर्थ होता है ये उपदेश ग्रहण करना कि मोह पर बाण चला दो; प्रकृति के, रक्त के, अतीत के जो नाते हैं, उनकी बहुत परवाह मत करो। अर्जुन तो पीछे हटने को तैयार हो रहा था, कह रहा था कि घरेलू बातचीत है, छोड़िए, इसमें रक्तपात ठीक नहीं है। और श्रीकृष्ण उससे कह रहे हैं कि जो तुम सोच रहे हो वो बात छोटी है, असली बात ज़्यादा बड़ी है; असली बात मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम युद्ध करो। अर्जुन होना आसान है? और पचासों तरह की शंकाएँ हैं अर्जुन के मन में! एक शंका ये तक उठी उसे बीच में कि श्रीकृष्ण कहीं उसे भ्रमित तो नहीं कर रहे।

हम तो दुनिया देखकर चलते हैं। तुम्हें क्या लगता है, श्रीकृष्ण सामने खड़े हैं, बोल रहे हैं, अर्जुन को क्या ये शंका नहीं उठी होगी कि और तो कोई इनकी बात नहीं सुन रहा, न ही किसी और को पकड़कर ये उपदेश दे रहे हैं? बाकी सब लोग तो अपने-अपने मन पर चल रहे हैं, कोई किसी श्रीकृष्ण से, किसी सारथी से, किसी गुरु से दिशा माँगने नहीं जा रहा, मैं ही क्यों सुन रहा हूँ इनकी?

बहुत आसान होता, अर्जुन कह सकता था, ‘ये तो हम भाइयों के बीच का आपसी मामला है, आप तो रिश्तेदार हैं भी तो बहुत दूर के, हम सुलझा लेंगे। और आप अगर कोई सलाह देना चाहते हों तो समझौते की दें; हममें प्रेम बढ़े, भाईचारा बढ़े, इसकी सलाह दें; लड़ाई-झगड़े की बात न करें कृपया।’ पर अर्जुन ने एक साफ़ निर्णय किया हुआ है कि मोह पर और शरीर के अतीत के सम्बन्धों पर बोध भारी रहेगा।

श्रीकृष्ण जब बात कर रहे हैं अर्जुन से तो उसके लिए श्रीकृष्ण ही सर्वोपरि हैं, वो ये नहीं कह रहा कि जाऊँ ज़रा अपने बड़े भैया से तो पूछ आऊँ, वो भी धर्मराज कहलाते हैं। लोभ और शंका उठ सकते थे न अर्जुन के मन में कि हे श्रीकृष्ण! अगर आप धर्म की बात कर रहे हो तो थोड़ा-बहुत धर्म तो मेरे ज्येष्ठ भ्राता भी जानते हैं, मैं आपकी बातों का ज़रा सत्यापन, वेरिफ़िकेशन तो करा लूँ उनसे, क्योंकि आप बहुत-बहुत खतरनाक कह रहे हो। आप कह रहे हो कि पितामह को मार दो, आप कह रहे हो कि अपने गुरु को मार दो, आप कह रहे हो कि अपने भ्राताओं को मार दो, तो मैं ज़रा थोड़ी-बहुत रायशुमारी कर लूँ; इधर मेरे और भी लोग खड़े हैं, उनकी सहमति भी ले लूँ। अर्जुन किसी की नहीं सुन रहा। आसान नहीं है अर्जुन हो जाना।

जिस किसी में अर्जुन जैसी प्रगाढ़ निष्ठा होगी सत्य के प्रति, उसे श्रीकृष्ण मिल ही जाएँगे दिव्य नेत्र प्रदान करने के लिए। श्रीकृष्ण का कोई एक रूप तो होता नहीं न? जैसे तुम्हारा रूप अर्जुन जैसा नहीं है, इसी तरीके से तुम्हें जो श्रीकृष्ण मिलेंगे, उनका भी रूप वैसा नहीं होगा जैसा उस अर्जुन ने देखा था। तुम यदि बिलकुल अर्जुन जैसे ही होते, तो तुम्हारे सामने जो श्रीकृष्ण खड़े होते, वो भी ऐतिहासिक श्रीकृष्ण जैसे ही होते। पर जब तुम्हारा रूप दूसरा है, तो श्रीकृष्ण का भी रूप दूसरा होगा।

तुममें अर्जुन जैसी लौ लगे तो सही, तुम्हारे भीतर वो प्रश्न उठे तो सही जो अर्जुन में उठते थे। यही रास्ता होता है, बाकी सारी बातें सांयोगिक होती हैं। कौन योग का पथ ले लेता है, कौन भक्ति का ले लेता है, कौन ज्ञान का ले लेता है; पथ इत्यादि ये सब सांयोगिक बातें हैं, वो सब घटनाएँ घट जाती हैं जैसे घटनी होती हैं। मूल बात दूसरी है, केन्द्रीय बात है मुक्ति की, बोध की तुम्हारी अभीप्सा। वो अगर है तो फिर कुछ-न-कुछ हो जाएगा। कैसे होगा, ये कोई निश्चित नहीं होता, पहले से बताया नहीं जा सकता; किसी-न-किसी तरीके से कुछ हो ही जाता है। जिसे चाहिए वो खोज ही लेता है, या कह सकते हो कि जिसे चाहिए उसे मिल ही जाता है। चाह मूल है।

और चाहने का क्या मतलब होता है? चाहने का मतलब ये नहीं होता कि मेरे पास जो कुछ है, उसमें मैं एक चीज़ और जोड़ लूँ जो मैंने चाही है। हम आमतौर पर जब चाहते हैं, तो हमारी चाहत ऐसी ही होती है। कि कुछ है मेरे पास, और उसमें कुछ और जोड़ लूँ। मैं भी बना रहूँ, जो कुछ मेरे पास है वो भी बना रहे, और मेरे खजाने में कुछ जुड़ ही जाए।

वास्तविक चाहत, आध्यात्मिक चाहत कहती है कि जो मुझे चाहिए, उसके लिए मेरे पास पहले से ही जो कुछ है, मैं वो सब लुटाने को तैयार हूँ। और वो इतना कहकर भी रुक नहीं जाती। पहली बात तो ये कि जो मुझे चाहिए, वो मुझे इतना प्यारा है कि उसके लिए मेरे पास जो कुछ है, मैं वो सबकुछ छोड़ देने को तैयार हूँ; बस बदले में वो बहुमूल्य चीज़ मिलनी चाहिए। और इतने पर भी अगर वो चीज़ न मिल रही हो तो मैं उस चीज़ को पाने के लिए अपनेआप को भी छोड़ देने को तैयार हूँ।

समझना बात को। जो कुछ तुम्हें चाहिए अगर तुम्हें नहीं मिल रहा, तो इसीलिए नहीं मिल रहा होगा न क्योंकि तुममें कोई खोंट होगी? तुम्हें जो चाहिए अगर तुम्हें नहीं मिल रहा, इसका मतलब तुम कुपात्र हो, तुममें ही कोई खोंट है, इसीलिए मिल नहीं रहा। तो वास्तविक चाहत का मतलब होता है कि जो मुझे चाहिए, वो इतना प्यारा है मुझे कि अगर उसको पाने की राह में मैं ही बाधा हूँ तो मैं ही ख़ुद को छोड़ दूँगा। जो मुझे चाहिए, वो मुझे क्यों नहीं मिल रहा? क्योंकि मैं कुपात्र हूँ। मैं कुपात्र हूँ तो फिर किसको जाना होगा, किसको खत्म होना होगा? मुझे खत्म होना होगा। जो चाहिए वो तो चाहिए ही, मैं अगर उसके लायक नहीं हूँ तो मुझे खत्म होना होगा।

व्यक्ति फिर ये नहीं कहता कि मैं वही तो चाहूँगा न जितना पाने की या माँगने की मेरी योग्यता, पात्रता होगी। व्यक्ति कहता है, ‘जो चाहिए, वो तो अब निश्चित है, वो आवश्यक है, उस पर कोई सन्धि-समझौता नहीं हो सकता। हाँ, अगर मेरा पात्र छोटा है, मेरा दामन छोटा है, मैं ही ऐसा नहीं हूँ जिसे मिल सके, तो मैं मिटने को तैयार हूँ। अगर अपनी राह में मैं स्वयं ही बाधा हूँ तो मैं इस बाधा को हटाने को तैयार हूँ, पर पाना तो है।’

देखो, हमारे भीतर दोनों तत्व मौजूद हैं। हमारे भीतर जो कुछ भी स्थूल है, वो समायोजित होना जानता है, वो एडजस्टमेन्ट में प्रवीण होता है। और हमारे भीतर जो कुछ सूक्ष्म है और जितना ज़्यादा सूक्ष्म है, वो उतना ज़्यादा विद्रोही होता है, वो समायोजन नहीं कर सकता। क्योंकि अधूरा अधूरे को समायोजित कर सकता है, जो पूरा है वो बेचारा समायोजित कैसे करेगा?

(गिलास की ओर इशारा करते हुए) इसमें आधा पानी भरा हो तो इसमें आप आधा तेल मिला सकते हैं। अधूरे ने अधूरे को समायोजित कर लिया, दोनों ने समझौता कर लिया — ‘मैं तो आधा था ही, आधे में तू आजा।’ पर जो पूरा है, वो एक बूँद भी किसी प्रकार का अतिक्रमण बर्दाश्त नहीं करता। ये पात्र पूरा भरा हुआ हो तो ये एक बूँद भी कुछ ऐसा स्वीकार नहीं करेगा जो अतिरिक्त हो; अतिरिक्त माने अनावश्यक। ये विद्रोह कर देगा, और इसका विद्रोह अभिव्यक्त होगा पात्र के छलक जाने में।

‘हमने स्वीकार नहीं किया’ — ये विद्रोह है, अस्वीकार है। ‘तुम कुछ लेकर आये, हमने उसे स्वीकार नहीं किया। जो तुम लेकर आये, उसे छलकना पड़ेगा। और जो तुम लेकर आये हो, उसको ही छलकना पड़ेगा, क्योंकि जो कुछ तुम लेकर आये हो, वो हमारे लिए विजातीय है; जो तुम लेकर आये हो, उसकी हमसे कोई सन्धि नहीं हो सकती। हम पानी हैं; जो तुम लेकर आये हो वो तेल है। पानी पर तेल डालोगे, तेल ही बाहर छलकेगा। आयाम अलग है। हम पूर्ण हैं; जो तुम लेकर आये हो, वो अपूर्ण है, अपूर्ण की एक बूँद है, इन दो आयामों का कोई मिलन नहीं हो सकता।’

समझ में आ रही है बात?

तो ये दो तल सबमें मौजूद होते हैं। एक, स्थूल तल, जिसकी कोई गैरत, कोई आबरू, कोई इज़्ज़त, कोई लज्जा नहीं होती। वो बस एक चीज़ जानता है, कि किसी भी तरह से समायोजित हो जाओ, एडजस्ट कर लो ताकि ज़िन्दगी चलती रहे। पशुता उसकी प्रकृति है। जैसे कि पशु को आप डाँट भी दो, दो-चार बार लात भी मार दो, उसके बाद भी आप उसे रोटी डालोगे तो वो खा लेगा। वो पशु हममें भी मौजूद है।

जिसके पास जीने के लिए कोई ऊँचा केन्द्र नहीं होता, उसके पास जीने का एक ही केन्द्र होता है — जिये जाओ; किसी तरीके से शरीर को आगे बढ़ाते चलो। और उसके लिए जो भी समझौते करने पड़ें, जहाँ-जहाँ भी घुटने टेकने पड़ें, जो भी अपमान बर्दाश्त करने पड़ें, जिन भी झूठों में जीना पड़े, जितने भी बन्धन स्वीकार करने पड़ें, सब कर लो। कि जैसे दो रोटी के लिए कुत्ता!

ये स्थूल तल है जीने का, ये हममें मौजूद होता है। और मैंने कहा, ‘इसी के साथ-साथ कुछ है बहुत सूक्ष्म, वो भी हममें मौजूद होता है, और वो समझौतापरस्त नहीं होता।’ वो होता है? विद्रोही।

अब ये तुम पर है कि तुम इन दोनों तलों में से किस तल पर जीना चाहते हो। प्रकृति की सुनोगे तो वो तो तुमसे यही कहेगी कि शरीर के तल पर जियो, बस किसी तरीके से ज़िन्दा रहे आओ। और हृदय की सुनोगे, अपने सूक्ष्मतम केन्द्र की सुनोगे तो वो कहेगा, ‘जान आज जाती हो तो जाए, मुक्ति आवश्यक है। अगर मुक्ति शारीरिक प्राण उत्सर्जन की कीमत पर ही मिलता है तो मैं प्राणों का भी उत्सर्जन करने को तैयार हूँ, प्राणों की कीमत मुक्ति से बड़ी नहीं है।’ आप इस सूक्ष्मतम बोध में भी जी सकते हैं कि प्राण भी मुक्ति से बड़ा नहीं, और आप इस धारणा में भी जी सकते हैं कि जान है तो जहान है। चुनाव आपका है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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