प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हमने आपके द्वारा सिर्फ़ नेति-नेति ही की प्रक्रिया सुनी है शिखर तक जाने के लिए। लेकिन बाक़ी गुरु और आचार्य मेडिटेशन पर ज़्यादा ध्यान देते हैं कि मेडिटेशन करो, धीमे-धीमे दिमाग बदलेगा, मन बदलेगा, मन ख़त्म होगा और अपनेआप तुम सत्य तक पहुँच जाओगे। तो मेडिटेशन का क्या रोल है सत्य तक जाने में?
आचार्य प्रशांत: मेडिटेशन माने क्या?
प्र: मेडिटेशन माने अब किसी भी चीज़ पर ध्यान न लगाना, शायद। नथिंगनेस (अनस्तित्व) पर जाना; अपने माइंड को शांत करना शायद; इतना ही हम जानते हैं इसके बाद।
आचार्य: मेडिटेशन माने क्या? कहीं ऐसा तो नहीं कि वो ज़्यादा कुछ है ही नहीं। एक शब्दभर है पर बड़ा पूजनीय शब्द बन गया है। मेडिटेशन माने क्या? कुछ सोचना, कुछ करना। तो इन दो के अलावा तो और कोई क्रिया हो नहीं सकती। या तो तुम कुछ सोचते हो या तुम कुछ करते हो। मेडिटेशन क्या है? ध्यान माने क्या? ध्यान माने क्या?
प्र: स्वयं को भूलना, अहंकार को भूलना, कुछ याद न होना।
आचार्य: ये सब तो मानसिक क्रियाएँ हैं न। कुछ याद करना, कुछ भुलाने की कोशिश करना — ये सब तो मानसिक क्रियाएँ हैं। तो मेडिटेशन माने मन की कुछ कारगुज़ारी।
प्र: तो दिमाग जो लगातार सोचता रहता है किसी चीज़ के बारे में, उस सोच को धीमे-धीमे ख़त्म करना दिमाग को?
आचार्य: कौन ख़त्म करेगा?
प्र: हम ख़ुद।
आचार्य: हम कौन हैं ये?
प्र: जो भी हम सोचते हैं; हमारा दिमाग।
आचार्य: हम, हम क्या कर रहे हो? ये हम कौन है — जो मेडिटेशन करेगा? जो मेडिटेशन सिखाते हैं उनसे पूछ लेना कि मेडिटेशन करता कौन है। ‘आप मेडिटेशन इत्यादि सिखाते हो, ये मेडिटेशन करता कौन है?’
प्र: अपने थॉट्स (विचार) को देखना कहते हैं, आचार्य जी।
आचार्य: कौन देखेगा?
प्र: जो विचार आ रहे हैं।
आचार्य: कौन देखेगा?
प्र२: आचार्य जी, हमें बताया गया था कि मेडिटेशन में हम परमपिता परमेश्वर से जुड़ जाते हैं। हम अपनी बुद्धि परमपिता परमात्मा के समीप ले जाते हैं क्योंकि वो आनंद के दाता हैं। वो ज्ञानी हैं तो उनसे सारी शक्तियाँ प्राप्त करते हैं। हम उनसे कनेक्ट करते (जुड़ते) हैं। अपनेआप को, अपनी बुद्धि को उनसे मिलाते हैं क्योंकि हमारी उत्पत्ति उन्हीं से हुई है।
आचार्य: नंदन, चंपक, चंदामामा — इनसे आगे नहीं है ये कहानियाँ। कक्षा तीन के बच्चों के लिए चंपक, कक्षा चार के लिए नंदन, कक्षा छ: के लिए चंदामामा। आगे बढ़ो बेटा, क्या कहानियाँ बता रहे हो — हम परमपिता परमात्मा के पास जाते हैं; वो दया के सागर हैं, वो बड़े ज्ञानी हैं; उनसे हम शक्तियाँ लेते हैं। ये क्या आनाड़ियों जैसी बातें कर रहे हो!
प्र२: उन्होंने बताया।
आचार्य: जिन्होंने बताया वो जैसे भी थे, तुम कैसे हो कि तुमने सुन लिया ये सब? अध्यात्म वयस्कों और प्रौढ़ों के लिए है, बच्चों की परी कथाओं का नाम नहीं है अध्यात्म।
जीवनमुक्ति के उच्चतम ध्येय को समर्पित करने का नाम है ध्यान; पूरा जीवन ही। पूरा जीवन ही मुक्ति के उपक्रम में आहुति बन जाए, ये ध्यान है। ध्येय इतना बड़ा हो कि वो तुम्हारा पूरा जीवन ही माँग ले, ये ध्यान है।
ध्येय ध्याता की पूरी बलि, पूर्ण आहुति माँग ले, ये ध्यान है।
ध्यान जीवन के किसी कोने में घटने वाली घटना नहीं हो सकती। ध्यान को जीवन का आधार होना होगा; ध्यान को जीवन का केंद्र होना होगा। ध्यान पहले आएगा और पहले आकर ध्यान निर्धारित करेगा कि जीवन में क्या-क्या चलेगा, क्या नहीं चलेगा। तो इसीलिए ध्यान को प्रतिपल होना होगा, निरंतर होना होगा।
इसीलिए वो कोई क्रिया नहीं हो सकती। क्योंकि हर क्रिया समय माँगती है, हर क्रिया विशिष्ट होती है। हर क्रिया कहती है कि बीस मिनट की मैं हूँ क्रिया, मुझे करो बीस मिनट। ध्यान कोई क्रिया नहीं हो सकती। तुम्हारे सारे कर्मों का परम ध्येय की तरफ़ उन्मुख हो जाना ध्यान है। इसीलिए ध्यान अपनेआप में कोई विशेष कर्म या क्रिया नहीं हो सकता।
प्र: हम ये कैसे कर सकते हैं? समझ में नहीं आया।
आचार्य: हमको करने के लिए कोई चीज़ चाहिए न, जैसे छोटे बच्चे को खिलौना। ध्यान हमें करना है। ध्यान करा नहीं जाता, ध्यान जिया जाता है। एक होता है करनेवाला ध्यान, वो झुनझुना है। और एक होता है जीने वाला ध्यान; वो तलवार है। झुनझुना बच्चों के लिए, तलवार वयस्कों के लिए।
बच्चे हो अभी तो जाओ करने वाला ध्यान कर लो। कि जी गये थे मेडिटेशन सेंटर पर थर्टी मिनट मेडिटेशन (तीस मिनट ध्यान) करके आये हैं; वो बच्चों के लिए है। जो बच्चे हों, उनको मैं कहूँगा वहीं जाएँ। जीने वाला ध्यान तो पूरे जीवन की क़ुर्बानी माँगता है। वो तो तलवार है।
प्र: बिना ध्यान भगवान की प्राप्ति कैसे होगी?
आचार्य: चंपक का अगला अंक पढ़कर! चार दिन का शिविर बीत गया, अभी भी भगवान की प्राप्ति की बात कर रही हैं।
अच्छा! कैसे प्राप्त करेंगी — दायें हाथ से बायें हाथ से? प्राप्त तो ऐसे ही किया जाता है। कहाँ रखेंगी — घर में मटके में रखेंगी, तिजोरी में रखेंगी, फ्रिज में रखेंगी, ट्रंक में रखेंगी? प्राप्त हो जाए जो चीज़, उसको कहीं रखना पड़ता है। या अपने दिमाग में रखेंगी? याददाश्त में रखेंगी? या किसी सीडी वगैरह में स्टोर कर लेंगी भगवान को!
जो चीज़ प्राप्त हुई, उसे कहीं रखनी भी पड़ती है न। कहाँ रखोगे भगवान को मिल गया तो? कहाँ रखोगे? एक ओर तो कहते हो, ‘अनंत हैं’, दूसरी ओर कहते हैं, ‘प्राप्त करना है।’ प्राप्त हो भी गयी अनंतता, तो उसे रखोगे कहाँ — लोटे में? और ये वही सब बालकपन की बातें!
प्र: कोई उदाहरण देकर समझाएँ।
आचार्य: कोई उदाहरण नहीं होता। जो अपनी ज़िन्दगी चल रही है, उसी में तुम्हें देखना होगा कि मेरे लिए ऊँचे से ऊँचा लक्ष्य क्या हो सकता है। मेरे संदर्भ में, मेरे सम्बन्ध में, वो लक्ष्य क्या होगा। और फिर उसकी प्राप्ति के लिए पूरे जीवन को झोंक दो, यही ध्यान है।
उदाहरण का तो मतलब होता है एक की राह दिखा दी, बाक़ी सब उसी राह पर चल पड़े। यहाँ तो सबको अपनी राह ख़ुद बनानी है क्योंकि सबका जीवन अलग-अलग है। अपना बंधन पहचानो, देखो कि वो तुम्हें कितना दोष दे रहा है, कितना दुख है उसकी वजह से और उसके बाद साफ़ कहो, ‘इसको स्वीकार नहीं करना है, इसको मिटाना है।‘ यही लक्ष्य बनेगा तुम्हारा — मिटाना; और उस लक्ष्य को ही समर्पित हो जाओ।
प्र: आचार्य जी, आपने बताया था कि चेतना के बहुत तल होते हैं। बहुत सारे तल होते हैं तो हमें कहीं पर रुकना नहीं चाहिए। अगर थोड़ा भी मिल गया है, तो उसके बाद रुकना नहीं चाहिए कि उसी में बस ठहर गये। इसमें कैसे निरंतर गति बनाए रखें?
आचार्य: जिसको लक्ष्य बनाया है अगर वो एक योग्य लक्ष्य है तो उसके पास जब बढ़ोगे तो वही अपने से आगे की ओर इशारा कर देगा कि अब और कहाँ जाना है। छठी में आते हो तो छठी ख़ुद बता देती है कि अब सातवीं की ओर जाना है। होता है न! हाँ, पाँचवीं में बैठे-बैठे तुम सातवीं का विचार नहीं कर सकते।
सीढ़ियाँ चढ़ रहे हो, रोशनी कम है, यहीं से नहीं बता पाओगे कि दसवीं सीढ़ी के बाद क्या है? पर दसवीं सीढ़ी पर पहुँच जाओगे तो ग्यारहवीं सीढ़ी ख़ुद दिखा देगी। लक्ष्य होना चाहिए — चढ़ना है, उर्ध्वगमन करना है, ऊँचाई पानी है। लेकिन नज़र होनी चाहिए ठीक उस सीढ़ी पर जिसपर पाँव है।
लक्ष्य होनी चाहिए, ऊँचाई! ऐसी ऊँचाई जिस तक कभी नज़र भी नहीं जाती, जिसकी अभी कल्पना भी नहीं कर पाते। लेकिन चढ़ना है सीढ़ी दर सीढ़ी और एक सीढ़ी बताएगी अगली सीढ़ी का हाल, अगली बताएगी उससे अगली का हाल। दोनों बातें एक साथ।
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