प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मेरा प्रश्न ये है कि मन को काबू में कैसे रखा जा सकता है? जो व्यावहारिक लोग हैं या जो समाज में रहते हैं, उनमें रहते हुए कोई ऐसी सरल विधि हो जिसका उपयोग करके मन को काबू में कर सकें और फिर अन्ततः जो भगवान ने राह दिखायी है, उसके ऊपर चल सकें।
आचार्य प्रशांत: ‘मन को काबू में कैसे रखें?’ किसके काबू में? कौन है जो मन को काबू में रखना चाहता है? ये धुरन्धर कौन है? कहिए, ये ‘मैं’ कौन है जो मन को काबू में रखेगा? (श्रोतागण हँसते हैं)
अब समझो ग़ौर से! जिसे तुम काबू में रखना चाहते हो वो तुम्हारी छाया है। तुम जैसे हो वो वैसी है, तुम उसे काबू में कैसे कर लोगे? लेकिन मज़ेदार चीज़ है। न सिर्फ़ हम ये सवाल करते हैं कि मन को काबू में कैसे रखें, बाज़ार में इस सवाल के सैकड़ों जवाब भी बिक रहे हैं और खूब ख़रीददार हैं — ऐसे काबू में करें, वैसे काबू में करें। ये वैसा ही सवाल है कि जैसे कोई पूछे कि आइने में अपनी प्रतिछवि को कैसे बदल दें। अपनी शक्ल को बदलो तो आइने में जो दिख रहा है वो भी बदल जाएगा।
मन ‘मैं’ का मौसम है। मन ‘मैं’ के इर्द-गिर्द की गतिविधि है। ‘मैं’ जैसा होगा, उसके इर्द-गिर्द की गतिविधि भी वैसी ही होगी, उसका नाम मन है। मन निर्धारित ही इस बात से होता है कि तुमने अपनेआप को क्या समझ रखा है, क्या बना रखा है, ‘मैं’ ने किससे आसक्ति जोड़ रखी है।
तुम अगर अपनेआप को ग़लत समझते हो तो मन ठीक कैसे हो जाएगा? तुम अगर जाकर खड़े ही कीचड़ में हो गये हो, तो आसपास खुशबू का माहौल कैसे रहेगा? कोई कीचड़ के बीच खड़ा होकर के पूछे कि ये सब बदबू कैसे बदली जाए, कैसे हटायी जाए, बदबू काबू में कैसे की जाए?’ तो मैं कहूँगा, ‘बदबू को छोड़ो, तुम जहाँ खड़े हो वहाँ से हटो।’ तुम जहाँ खड़े हो बदबू वहाँ की अनिवार्यता है। लेकिन ज़िद तुम्हारी पक्की है। तुम कहते हो, ‘हम वहीं खड़े रहेंगे जहाँ हम हैं, बदबू नहीं आनी चाहिए।‘ ये नहीं हो सकता!
तुमने अपनेआप को जो बना लिया है उस कर्म का फल है मन का उपद्रव। तुम बदल जाओ, मन बदल जाएगा। मन माने क्या? मन से तुम्हारा आशय होता है चेतना। मन से तुम्हारा आशय होता है भीतर से जो भावनाएँ उठती हैं, विचार उठते हैं, प्रतिक्रियाएँ उठती हैं, इन्हीं सब को तुम मन कहते हो। तुम ये देख ही नहीं रहे कि ये सारे विचार किसको उठते हैं। ये सारी भावनाएँ, ये प्रतिक्रियाएँ किसको उठती हैं? तुम्हें उठती हैं। इनके केन्द्र में तुम हो।
समझो! तुमने अगर अपनी परिभाषा ही यही रखी है कि मैं वो हूँ जो कमज़ोर है, जिसको सहारे की, सुरक्षा की ज़रूरत है, तो मन का माहौल हमेशा किसका रहेगा? मन का माहौल भय का रहेगा, डरा-डरा रहेगा। अब तुम कहो कि मुझे डर को काबू करना है — जैसे तुमने पूछा न मन को काबू में कैसे करें — अब मन में डर घूम रहा है और तुम कह रहे हो कि मुझे डर को काबू करना है। डर को तो मुझे काबू करना है, लेकिन मेरी पहचान यही है कि मैं वो हूँ जो कमज़ोर है। अब अगर तुम कमज़ोर ही हो, तो डर को काबू में कैसे कर लोगे भाई!
तुम अपनेआप को कुछ बनाकर के जीवन में घूमते हो, रमण करते हो। जो तुमने अपनेआप को बना रखा है उसको समझो, ग़ौर से देखो कि क्या बना रखा है! और जो कुछ भी तुमने अपनेआप को बना रखा है, वो तुम्हारे लिए परेशानी का ही कारण बनेगा।
अध्यात्म है तुम्हें समझाने के लिए कि या तो अपनेआप को पूरा कर दो या अपनेआप को ख़त्म ही कर दो। इन्हीं दोनों स्थितियों में तुम्हें पहचानों से मुक्ति मिलेगी, इन्हीं दोनों स्थितियों में तुम्हें झूठे उपद्रवों से मुक्ति मिलेगी। क्यों अपनेआप को आधा-अधूरा समझते हो? और जो भी कुछ तुम समझते हो अपनेआप को, वो आधा-अधूरा ही है, आंशिक ही है, इधर से उधर से मिला है, पकड़ लिया है।
काम तो आसान होना चाहिए कि अपनेआप को अब पूरा मानना है। पहले अधूरा मानते थे, अब अपनेआप को पूरा माना करेंगे। आसान नहीं है। आसान इसलिए नहीं है क्योंकि अधूरा मानने में ‘मैं’ बचा रहता है। अपनेआप को पूरा मानने में ‘मैं’ मिटता है। अधूरा मानने में बड़ा स्वार्थ जुड़ा हुआ है। स्वार्थ तो जुड़ा हुआ है, पर अधूरा मानने के साथ तकलीफ़ भी बहुत जुड़ी हुई है। जब तकलीफ़ उठती है तो फिर ऐसे सवाल करते हो कि मन को काबू में कैसे लाएँ। अधूरे ‘मैं’ को कहते हैं अहम्, पूरे ‘मैं’ को कहते हैं आत्मा।
समझ रहे हो बात को?
जब तक कहते रहोगे कि मैं कौन हूँ? मैं ये हूँ, मैं ये हूँ, मैं ये हूँ, मैं ये हूँ, मैं ये हूँ’ (अलग-अलग वस्तुओं की ओर इशारा करते हुए) तो मन तुम्हारी इसी परिभाषा के अनुसार निर्धारित होता रहेगा। फिर शिकायत मत करना। “बोये पेड़ बबूल, आम कहाँ से खाये”
इस बोध के साथ जियो कि भीतर-भीतर हम बिलकुल पूरे हैं, हमें कोई ज़रूरत नहीं, ज़रूरतें जितनी हैं सब बाहरी हैं। ज़रूरतें पूरी हो जाएँ तो भी कोई बाहरी चीज़ पूरी हुई, ज़रूरतें पूरी नहीं भी हुईं तो भी कोई बाहरी चीज़ अधूरी रही, भीतर-भीतर हम लगातार पूरे हैं। जब पूर्णता में जियोगे तो मन एक सीमा से ज़्यादा ख़राब नहीं होगा। मन ख़राब भी होगा तो बाहर-बाहर ख़राब होगा। क्योंकि फिर अच्छाई, बुराई, खूबी, ख़राबी सब बाहर-बाहर रहती हैं। तो फिर मन ख़राब भी होगा तो बाहर-बाहर होगा।
कोई तुम्हें देखकर कहेगा कि आज तुम्हारा मन, मूड कुछ अच्छा नहीं लग रहा। तुम कहोगे, ‘हाँ, ख़राब है थोड़ा, बाहर-बाहर ख़राब है, अन्दर से तो मस्त है।‘ जैसे कोई फल हो रसीला, जिसके छिलके पर धूल पड़ गयी हो, उस धूल का उसके रस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा, भीतर-भीतर वो फल मस्त है। हाँ, आंधी चली थी, धूल पड़ गयी है। आज आंधी चली थी, धूल पड़ गयी है। आज थोड़ा सा छिलका गन्दा है, हम तो लेकिन रसीले ही हैं, हम पर कोई असर नहीं पड़ रहा, ऐसे जियो। फिर नहीं कहोगे कि मन को काबू में करना है।
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