प्रश्नकर्ता: सर, लोग इतना शो ऑफ (दिखावा) क्यों करते हैं?
आचार्य प्रशान्त: दूसरों को दिखाते हैं न। अपने में पूरे नहीं हैं, इसीलिए दूसरों की आँखों से पूरापन चाहते हैं। ख़ुद को इज़्ज़त नहीं दे पाते, इसीलिए दूसरों से इज़्ज़त चाहते हैं। ख़ुद से कभी राज़ी नहीं हुए, सहमत नहीं हुए, इसीलिए दूसरों से वेलिडेशन (मान्यकरण) चाहते हैं।
तुमने पूछा, ‘लोग इतना दिखावा क्यों करते हैं?’ मैं पूछ रहा हूँ, किसको दिखाते हैं? ख़ुद को तो नहीं दिखाते न, दूसरों को दिखा रहे हैं न।
दूसरों की बहुत ज़रूरत ज़िन्दगी में तभी पड़ जाती है जब अपने मन का आँगन बिलकुल सूना हो। सूना ही न हो, बल्कि मैला हो, कचरे से भरा हुआ हो। अपने भीतर कोई शान्ति नहीं, अपने भीतर कोई पूर्णता नहीं, तो फिर आदमी दूसरों के ऊपर छाने की कोशिश करता है। ये हिंसा है एक तरह की।
दूसरों को अपना पैसा दिखा कर, अपना रुतबा दिखा कर, कुछ और दिखा कर प्रभावित करने की, इम्प्रेस (प्रभावित) करने की कोशिश करना एक तरह की हिंसा है। तुम दूसरे पर रुआब डाल रहे हो, तुम दूसरे को डोमिनेट (हावी होना) कर रहे हो। बड़े सज्जन तरीक़े से, ये दिखाते हुए भी कि हम सभ्य हैं, तुम हिंसा करे जा रहे हो, ये है *शो ऑफ*।
तो शो ऑफ में पहला आदमी वो आता है जो कर रहा है। वो कर इसलिए रहा है क्योंकि वो ख़ुद से ही राज़ी नहीं है। वो ख़ुद को ही मान्यता नहीं दे पा रहा है। ख़ुद को ही स्वीकार नहीं कर पा रहा है; एक्सेपटेंस (स्वीकार्यता) स्वयं को वो दे नहीं पा रहा है।
उसके लिए सीधा और ईमानदारी का रास्ता ये होता कि उसके भीतर जो कुछ ऐसा है जो स्वीकार करे जाने लायक़ नहीं है उसको वो ठीक करता, लेकिन वो एक बेईमानी का रास्ता चुनता है। वो कहता है कि मैं अपनेआप को अगर स्वीकृति नहीं दे पाता, तो वो स्वीकृति मैं धोखे से दूसरे की आँखों में तलाशूँगा। मैं अपनी नज़र में तो बड़ा आदमी हूँ नहीं, तो मैं दूसरों की नज़र में बड़ा आदमी बनूँगा।
अब तुम्हें तो पहले ही पता है कि तुम बड़े आदमी नहीं हो, तो दूसरा लाख बोल दे तुम्हारे दिखावे से प्रभावित होकर के कि तुम बड़े आदमी हो, फिर भी तुम दिल-ही-दिल में ख़ुद ही जानते हो कि तुम बहुत छोटे हो। तुम्हारा दिखावा तुम्हारे काम आएगा नहीं लेकिन मूर्खता की और क्या पहचान होती है! वो ऐसे ही काम करे जाती है बार-बार जो उसके काम आते नहीं हैं।
तो जो लोग दिखावा कर रहे हों, समझ लेना कि वो बड़े आतंरिक कष्ट में जी रहे हैं, भीतर से खाली और गंदे हैं। भीतर जो होना चाहिए था उनके, वो है नहीं। अपनी नज़रों में गिरे हुए लोग हैं, तो दूसरों की नज़रों में उठना चाहते हैं। कुछ अंधे से लोग हैं जो दूसरों की नज़रों से ख़ुद को देखना चाहते हैं।
लेकिन बात ये है कि अगर तुम अंधे हो तो तुम दूसरों की नज़रों से ख़ुद को देखोगे कैसे? ख़ुद देखने का तो एक ही तरीक़ा है — अपनी ही नज़रें पैदा करो। अपने पास वो दृष्टि हो जो स्वयं को साफ़-साफ़ देख पाये, उसी को तो फिर सच्चा जीवन कहते हैं, उसी को तो अध्यात्म कहते हैं। उसी को सत्यनिष्ठा, उसी को ईमानदारी कहते हैं। वो हमारे पास होता नहीं कुछ भी, तो हमारी ज़िन्दगी फिर बीतती है दूसरों के सामने भिखारी बनकर।
ये बड़ी अजीब बात है! देखने में लगेगा कि ये जो शो ऑफ वाला आदमी है वो अपना पैसा दिखा कर या अपनी मर्सीडीज़ दिखा कर या कुछ और अपना दिखा कर, अपनी ताक़त दिखा कर, दूसरों पर चढ़ बैठने की कोशिश कर रहा है। लेकिन वो वास्तव में भिखारी है, उसकी आँखों में याचना है।
वो कह रहा है, ’प्लीज़, प्लीज़, प्लीज़, प्लीज़, समबडी शो सम रेस्पेक्ट टू मी। (कृपा करके कोई तो मेरे प्रति कुछ सम्मान दिखाओ।) कृपा करके कोई तो कह दो कि मैं बड़ा आदमी हूँ। कृपा करके कोई तो मेरी ओर तारीफ़ की एक नज़र डाल दो।’
उसको जब देखो तो ऐसे मत देखो कि कोई आया है तुम पर वर्चस्व जमाने, तुम्हारे ऊपर चढ़ बैठने; उसको ऐसे देखो कि तुम्हारे सामने एक भिखारी खड़ा है जो भीख में तुमसे सम्मान माँग रहा है। एक भिखारी वो होता है जो सड़क पर आता है, कहता है, दो रुपया, दस रुपया दे दो। वो आता है तुम्हारे कार के शीशे को ऐसे ठक-ठक करके पैसे माँगता है।
एक सड़क का भिखारी है जो तुम्हारी कार खटखटाता है और एक दूसरा और बड़ा भिखारी है जो तुम्हें अपनी कार दिखाता है, जो तुमको कार दिखा करके भीख माँग रहा है। ये ज़्यादा बड़ा भिखारी है। इसकी ग़रीबी की कोई इंतहा नहीं!
वजह समझो। जो सड़क का भिखारी है, उसके बस हाथ खाली हैं, ये जो मर्सीडीज़ के अंदर बैठा हुआ भिखारी है, इसका दिल खाली है। बहुत बड़ा भिखारी है, इसलिए इसे इतना दिखावा करना पड़ता है।
जो तुम्हारी कार का शीशा खटखटाता है वो भी दिखाता है न तुम्हें? क्या दिखाता है? वो तुम्हें अपना पसरा हुआ हाथ दिखाता है, ऐसे (अपनी हथेली आगे पसारते हुए बताते हैं)। या भिखारन है तो तुम्हें अपना फैला हुआ आँचल दिखाती है, है न? वो भी कुछ दिखाकर ही भीख माँगते हैं। वैसे ही ये जो बड़ा वाला भिखारी है ये तुम्हें अपनी शोहरत, अपना पैसा, अपना रुतबा, कई बार अपना ज्ञान, ये सब दिखाकर के भीख माँगते हैं। दोनों ही दिखाकर के ही भीख माँग रहे हैं। दोनों का ही आँचल सूना है।
जो बड़ा भिखारी है उसके लिए तो बिलकुल ही कोई उम्मीद नहीं। छोटे वाले को तो फिर भी हो सकता है कि एक दिन इतने सारे पैसे मिल जाएँ भीख में कि उसकी ग़रीबी दूर हो जाए। लेकिन बड़े वाले भिखारी, उस बेचारे की विडम्बना ये कि उसे कितना भी सम्मान मिल जाए दूसरों से, उसके भीतर का भिखारीपन, उसकी आतंरिक ग़रीबी कभी दूर नहीं होने की।
बात समझ रहे हो?
सड़क के भिखारी को किसी दिन, किसी दिन, ऐसा हो सकता है कि कोई आकर के सीधे कहे कि ले, मैंने एक करोड़ तेरे नाम किया। मैं बहुत बड़ा आदमी हूँ, मेरे पास दस हज़ार करोड़ हैं, मैंने एक करोड़ तुझे दे दिया। आज बस दिल था मेरा, दे दिया। इसकी ग़रीबी दूर हो जाएगी।
लेकिन ये जो दिल से ग़रीब है, जो दूसरों को इम्प्रेस (प्रभावित) करने की कोशिश करता रहता है, इसको तुम कितना भी सम्मान दे दो, इसकी ग़रीबी जस-की-तस रहेगी ,बल्कि बढ़ती जाएगी। क्योंकि इसे तुम जितना भी सम्मान दोगे वो सम्मान इसको यही बताएगा कि ये सम्मान काफ़ी नहीं पड़ा, अभी और बहुत बड़ी रिक्तता है भीतर।
बात समझ रहे हो?
तो ये तो हुई उस आदमी की बात जो दूसरों पर चढ़ बैठने की कोशिश कर रहा है, जो दूसरों पर अपनी छाप छोड़ना चाहता है, इम्प्रेशन (प्रभाव)। अब उनकी ओर आओ जिन्हें इम्प्रेस (प्रभावित) करने की कोशिश की जाती है। ये लोग कौन हैं जिनके सामने दिखावा किया जाता है?
दो लोग होते हैं न दिखावे वाले पूरे खेल में — एक जो दिखावा कर रहा और एक जिसको दिखाया जा रहा है। ये आदमी कौन है जिसको दिखाया जा रहा है, इसको समझें ज़रा।
ये वो है जो दिखावे से प्रभावित हो जाने के लिए तैयार है। तभी तो इसे दिखाया जा रहा है। तुम अगर ऐसे होते कि किसी की एक करोड़ की गाड़ी देखकर प्रभावित न होते, तो तुम्हें वो अपनी गाड़ी दिखाता ही क्यों? उसे अच्छी तरह से पता है कि बेटा, हो तो तुम भी उसी के जैसे। तुम दोनों एक ही खेल में हो। एक गेंदबाज़ी कर रहा है, एक बल्लेबाज़ी कर रहा है। और गेंदबाज़ का भी दिन आएगा, बल्ला उसके हाथ में तब जाएगा। वो भी तैयार बैठा है कि एक दिन मैं भी ऐसा हो जाऊँगा कि मैं दूसरों पर अपना हुकुम चलाऊँगा। तब मेरा सिक्का जमेगा।
तो अगर ऐसे हो जाओ कि कोई आये और तुम्हारे सामने अपना रुतबा, अपनी साख, अपनी सत्ता, अपना पैसा, ये सब प्रदर्शित करे और तुम पर कोई फ़र्क ही न पड़े तो फिर वो व्यक्ति तुम्हारे सामने दोबारा प्रदर्शन करने आएगा ही नहीं।
वो बार-बार तुम्हारे सामने आकर के इसीलिए अपनी चीज़ों का, अपने रुतबे वग़ैरा का प्रदर्शन करता है क्योंकि पिछली बार जब उसने तुम्हें अपना नया फ़ोन दिखाया था तो तुम्हारी आँखों में एक विचित्र भाव उभर आया था, वो भाव उसने पढ़ लिया। इधर तुमने जेब से अपना नया फ़ोन निकाला दो लाख रुपये का और उधर देखने वाले की आँखें बिलकुल ऐसे (आँखें बड़ी करके दिखाते हैं) फैल गयीं, पुतलियाँ जाकर के सीधे फ़ोन से ही चिपक गयीं।
जिसने फ़ोन ख़रीदा था, उसने कहा, ‘मेरा दो लाख रुपया खर्च करना वसूल हो गया। ये पैसे मैंने खर्च ही इसीलिए करे थे कि जो मेरा ये फ़ोन देखे वो बिलकुल उसी समय मेरे सामने दंडवत हो जाए, लोट जाए, मेरा लोहा मान ले।’
तुम्हारी आँखों में वो दयनीयता न आयी होती, तुम्हारी आँखों में याचक का भाव न उभरा होता, तुम्हारे चेहरे पर उस फ़ोन की छाप न पड़ गयी होती, तो वो व्यक्ति फिर तुम्हारे सामने दोबारा नहीं आता अपने फ़ोन का या अपनी गाड़ी का या अपने बंगले का या अपने किसी और चीज़ का प्रदर्शन करने के लिए। तुम इनसे जितना ज़्यादा प्रभावित होते रहोगे, ये तुम्हें उतना ज़्यादा प्रभावित करने की कोशिश करते रहेंगे, बात सीधी है।
हम क्यों हैं ऐसे कि विद्वत्ता हमें प्रभावित नहीं करती, चकाचौंध हमें प्रभावित करती है? पूछो तो अपनेआप से। अब चकाचौंध से प्रभावित होने वाले तुम ख़ुद बन गये हो। तुमने अपना निर्माण इस तरह से कर लिया है कि ग्लैमर (चकाचौंध) तुम्हें बहुत इम्प्रेस करता है, प्रभावित करता है। ऐसे तुम बन गये हो।
अब तुम्हारे सामने कोई ग्लैमर आता है, अपना चमकाता है ग्लैमर और फिर तुम्हें प्रभावित करता है तो शिकायत कैसी? तुम ख़ुद अपनी मर्ज़ी से चुनाव करके ऐसे बने हो न कि कोई भी तुम्हारे सामने चमकदार चीज़ आती है — चाहे इंसान, चाहे सोना — तुम तुरंत लालायित हो जाते हो, लार टपकने लगती है। तो फिर लोग तैयार हैं तुम्हारी लार टपकवाने को। क्योंकि जिसकी लार टपक गयी किसी चीज़ को देखकर, वो उस चीज़ का ग़ुलाम हो गया। और बहुत तैयार हैं तुम्हें ग़ुलाम बनाने को, ग़ुलाम बनवाने में तो फ़ायदा-ही-फ़ायदा।
तुम्हारी ज़िन्दगी में सच्चाई की क़ीमत नहीं, तुम्हारी ज़िन्दगी में सरलता की क़ीमत नहीं, तुम्हारी ज़िन्दगी में न्याय की क़ीमत नहीं, तुम्हारी ज़िन्दगी में प्रेम की क़ीमत नहीं। प्रेम की जगह तुम जिस्म को मूल्य देते हो। सच्चाई की जगह तुम सत्ता को मूल्य देते हो। सरलता की जगह तुम जटिलता को मूल्य देते हो। सत्य की जगह तुम ऊपरी चकाचौंध को मूल्य देते हो। ये सब तुमने ही किया है न अपने साथ! तो अब क्यों कह रहे हो कि लोग आते हैं और प्रभावित कर जाते हैं?
जब भी मैं देखता हूँ कि कोई चकाचौंध का बड़ा आयोजन करके दूसरों पर छा रहा है, तो एक बात मन में आती है कि दे आर गेटिंग व्हाट दे डिज़र्व (उन्हें वही मिल रहा है जिसके वे हक़दार हैं)।
एक आदमी है जो मंच पर चढ़ा हुआ है और मंच पर उसने भीड़ को इम्प्रेस करने का सारा इंतज़ाम कर रखा है। वो मंच बनाया ही इस तरह गया है कि उस मंच को देखो, उस मंच पर जो आदमी है उसको देखो, उस आदमी के कपड़ों को देखो और पूरी व्यवस्था इस तरह से की गयी है कि जो देखे वो बिलकुल हतप्रभ रह जाए, भौंचक्का, कि अरे बाप रे बाप! कितना बड़ा आदमी है, कितना प्रभावशाली, कितना पैसेवाला!
और फिर सामने बहुत बड़ी भीड़ खड़ी है जो ये सब देख रही है, ऐसे (हाथ जोड़े हुए) एकदम करबद्ध हो गयी है। ‘अरे रे रे! कितने बड़े साहब हैं, कितना बड़ा देखो मंच है इनके पास और ये और वो; और क्या पैसा दिखा रहे हैं!’ इस भीड़ के ऊपर मुझे दया आती है लेकिन दया से ज़्यादा मुझे ये दिखाई देता है कि इनके साथ ये होना ही था। दे डिज़र्व्ड इट (वो इसी लायक़ हैं)।
वो जो इंसान है, जो मंच पर चढ़कर तुमको बेवकूफ़ बना रहा है, वो तुम्हें बेवकूफ़ बना ही इसीलिए रहा है क्योंकि तुम बेवकूफ़ बनने को तैयार खड़े हो। और वास्तव में अगर तुम्हें वो न बेवकूफ़ बनाये तो कोई और आएगा तुम्हें बेवकूफ़ बनाने के लिए। तुमने ख़ुद बुद्धिमानी का रास्ता छोड़ रखा है। तुमने ख़ुद ये निश्चित कर रखा है कि कोई तो तुमको बुद्धू बनाये-ही-बनाये। एक नहीं बनाएगा तो दूसरा बनाएगा। दूर के लोग नहीं बनाएँगे तो पास के लोग बनाएँगे। और अगर कोई नहीं मिला तुमको मूर्ख बनाने को, तो तुम स्वयं को मूर्ख बनाओगे।
ये आज़मा कर देखना, जो लोग तुम्हें बहुत इम्प्रेस वग़ैरा करना चाहते हों, तुम उनसे इम्प्रेस होना छोड़ दो, तुम पाओगे वो तुमसे ख़ुद ही दूर हो गये। क्योंकि उनका और तुम्हारा रिश्ता ही शिकारी और शिकार का था। तुम शिकार होना छोड़ दो, शिकारी तुम्हारे क़रीब आना छोड़ देगा।
प्र: आचार्य जी, मैं उन लोगों के बारे में चर्चा करना चाहूँगा, जो न तो चकाचौंध दिखाकर किसी को इम्प्रेस करने की कोशिश कर रहे हैं और न ही जिनको स्ट्रेटेजिकली (रणनीतिक) दिखाया गया है कुछ इम्प्रेस करने के लिए, कुछ चकाचौंध। बल्कि वो सहज ही किसी चीज़ को लेकर ईर्ष्या में हैं।
जैसे मैं मर्सीडीज़ को लेकर इम्प्रेस हो जाऊँ तो वो तो ठीक है मर्सीडीज़ दिखायी गयी। मगर कुछ लोग होते हैं जो आपकी आल्टो को देखकर ही उनको ये लग रहा है कि ये तो मुझे इम्प्रेस करने के लिए है या मुझे नीचा दिखाने के लिए एक चीज़ लाया है। भले ही उसको दिखाया न गया हो, मगर ईर्ष्या के मारे वो अपने लिए भी आल्टो लेकर आया है या बड़ी गाड़ी लेकर आया है, तो ये किस तरीक़े का है? इनको तो कुछ भी नहीं किया गया है। ये सहज ही, अपनेआप में ही परेशान हैं।
आचार्य: नहीं, ये उसी कोटि के लोग हैं जिनकी अभी हमने चर्चा करी — भीतर से खाली लोग। देखो, जो आदमी दूसरों को पैसा या गाड़ी दिखाकर के इम्प्रेस करने की कोशिश कर रहा है, वो ही वह आदमी है जो दूसरों का पैसा या गाड़ी देखकर के ख़ुद भी इम्प्रेस हो जाता है, फिर ईर्ष्या में चला जाता है, तुलना करता है सौ तरीक़े से, ये सब। ये आदमी तो दोनों एक ही हैं न। इन दोनों आदमियों में साझी बात क्या है? इन दोनों में साझी बात ये है कि ये पैसे और गाड़ी को बहुत ज़्यादा मूल्य देते हैं क्योंकि इनकी ज़िन्दगी में और कुछ है ही नहीं मूल्य देने लायक़।
ये किसी दूसरे इंसान से मिलें, ये उससे कोई ढंग की बात कर सकते हैं? ये क्या बात करेंगे कि तुमने दोस्तोवस्की को पढ़ा है क्या? ये क्या बात करेंगे कि बताओ सारे उपनिषदों में से किस उपनिषद् ने तुम्हें सबसे ज़्यादा प्रभावित किया? ये ये बात करेंगे? इनके पास कुछ है ही नहीं बात करने को।
तो इनके पास बात करने के लिए बस यही होता है — चाहे वो दूसरे से बात करनी हो या अपने भीतर-ही-भीतर बात करनी हो — यही होता है कि किसके पास कितना पैसा है, कितनी गाड़ी है।
अब ऐसे में ये होगा कि कई बार, जैसा तुम कह रहे हो कि कोई नहीं भी चाहता कि सामने वाले पर हम अपनी छाप छोड़ें या सामने वाले पर छा जाएँ, इम्प्रेस कर दें उसे, शो ऑफ करें, लेकिन फिर भी ये उसको देखकर के जलन में आ जाएँगे। हो सकता है एक आदमी बड़े साधारण, सहज तरीक़े से ही इनके सामने से निकल गया अपनी गाड़ी लेकर के, उसे पता भी नहीं चलेगा पीछे से उसकी गाड़ी देखकर के कौन-कौन बिलकुल जल गया। ये जल इसलिए गये क्योंकि इन्हें ज़िन्दगी में बस चीज़ें यही पता हैं। और कुछ होता ज़िन्दगी में तो उसकी कद्र करते न। ज़िन्दगी में और कुछ है ही नहीं।
जब ऊँची चीज़ें नहीं होती हैं ज़िन्दगी में, तो ये घटिया चीज़ें ही आपकी ज़िन्दगी बन जाती हैं। मैं नहीं कह रहा हूँ कि पैसे का कोई मूल्य नहीं है, मैं नहीं कह रहा हूँ कि कोई गाड़ी न चाहे, गाड़ी घटिया होती है। मैं कह रहा हूँ गाड़ी किसी मंज़िल तक पहुँचने के लिए होती है, आपको पता भी है सही मंज़िल क्या है? मैं कह रहा हूँ पैसा कोई चीज़ ख़रीदने के लिए होता है, आप जानते भी हैं कि कौनसी चीज़ मूल्यवान है?
जब आपके पास ये बोध नहीं होता तो आप पैसे से सही चीज़ ख़रीदने की जगह पैसे को ही मूल्य देना शुरू कर देते हैं। एक तो चीज़ ये होती है कि भई वो चीज़ खरीदो, उस चीज़ को मूल्य दो, जो पैसे से आ सकती है। पैसा तब एक साधन है, एक निमित्त है। और एक चीज़ होती है कि हम कुछ नहीं जानते कि दुनिया में कौनसी चीज़ पाने लायक़ है, तो पाने का जो ज़रिया था, हमारे लिए बस वही पाने लायक़ रह गया।
पाने का ज़रिया था पैसा, वो ज़रिया ही पाने लायक़ रह गया है। उस ज़रिये से क्या पाना है, ये हमें पता नहीं। गाड़ी से कहाँ जाना है ये हमें पता नहीं। हमारी गाड़ी रोज़ निकलती है, जाती सब ग़लत जगहों पर है, पर गाड़ी चमकदार है, गाड़ी एक करोड़ की है।
होगी एक करोड़ की गाड़ी, देखो तो सही कि उस गाड़ी की तुम्हारी ज़िन्दगी में जगह क्या है! उस गाड़ी का तुम्हारे जीवन में उपयोग क्या है! उपयोग तो सब ग़लत है।
तो अध्यात्म इसीलिए ज़रूरी होता है कि सबसे पहले आप ये समझ पाओ कि किस चीज़ को क़ीमत देनी है, किस चीज़ को नहीं देनी है। हम सोचते हैं अध्यात्म का मतलब इधर-उधर की पचास चीज़ों से है — जंतर-मंतर, जादू-टोना। ये बिलकुल बेवकूफ़ी की बातें हैं।
अध्यात्म का मतलब सबसे पहले इस बात से है कि सीखो कि ज़िन्दगी में क्या मूल्यवान है और क्या मूल्यहीन है। और जो चीज़ मूल्यहीन है उस चीज़ के पीछे पड़कर जीवन ख़राब मत कर देना, यही अध्यात्म है।