प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा प्रश्न ये है कि मेरे जानने में एक पैन्तालीस वर्षीय दम्पति हैं। अभी हाल ही में उन्हें पाँचवाँ बच्चा, पुत्र, पैदा हुआ। जबकि दोनों ही पढ़े-लिखे हैं, सरकारी सेवा में हैं। और उन्होंने क्या किया कि अपनी बड़ी बेटी को घर पर बैठा दिया कि वो अपने भाई की देखभाल करेगी। तो ये पता नहीं कब तक चलता रहेगा कारण यही है कि बेटा चाहिए, वंश आगे बढ़ाने के लिए। तो आचार्य जी मेरा प्रश्न ये है कि, ये अन्धा, जो पुत्र-मोह है, ये कब जाकर रुकेगा हमारे देश में?
आचार्य प्रशांत: क्या बोलूँ इसमें, ये तो प्रश्न ज्योतिष शास्त्र का है (आचार्य जी और दर्शक हँसते हुए)। कब रुकेगा, क्या बताऊँ? लेकिन कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं न, जो, जो इतनी ज़्यादा ऑब्वियसली एबसर्ड (ज़ाहिर तौर पर बेतुकी) होती हैं कि उस पर कुछ बोला भी क्या जाये।
पैन्तालीस साल के हैं, पाँच-छः बच्चे पैदा कर रहे हैं, लड़का चाहिए। हो सकता है एक-आध लड़की मार भी दी हो क्योंकि पाँच लड़कियाँ कर ली हैं और जिस तरह की मानसिकता है तो उसमें ये दहेजवादी भी ज़रूर होंगे। जो पुत्रवादी होता है, वो दहेजवादी तो होगा न? क्योंकि पुत्र चाहिए ही किसलिए? कि घर दहेज लेकर आएगा। तो पाँच लड़कियाँ कर ली हैं, वो पाँच लड़कियाँ हैं तो उनके लिए दहेज देना पड़ेगा। कौन इतना जोड़े, तो बीच में एकाध हो सकता है उड़ा भी दी हो लड़की।
इस पर क्या, क्या मतलब, बोला क्या जा सकता है? ये चीज़ इतनी-इतनी ज़्यादा मूर्खता की है कि इसके आगे ज्ञान मौन पड़ जाता है। कहीं कोई छोटी-मोटी गलती कर रहा हो तो, उसको सुधारा जा सकता है। कोई इस स्तर की मूर्खता कर रहा हो तो, तो क्या बोलें?
क्या बोला आपने, पढ़े-लिखे हैं दोनों?
प्रश्नकर्ता: यस (हाँ) सर।
आचार्य प्रशांत: तो, ये, ये तो शिक्षा है न, कि आप कितने भी शिक्षित हो जायें, उसके बाद भी आपको ज़िन्दगी जीनी, एक धेले की नहीं आती। इसलिए तो शिक्षा-व्यवस्था हमारी नकारा है। वो अधिक-से-अधिक आपको तैयार कर देती है कि कुछ नौकरी-वौकरी मिल जाएगी। आता है न कि फलानी नौकरी चाहिए तो ग्रेजुएशन (स्नातक) का सर्टिफिकेट (प्रमाण-पत्र) लगा दो। हमारी शिक्षा व्यवस्था इसी काम आती है बस, कि नौकरी मिल जाएगी उससे। हमारी शिक्षा हमें कोई जानवर से इंसान थोड़ी बना रही है।
ये काम जानवर करते हैं कि प्रजनन चल ही रहा है। जब तक उनका यौवन रहेगा, जब तक वो इस लायक रहेंगे कि सन्तान हो सके, वो सन्तान करते भी रहते हैं। ये इंसान होने की थोड़े ही निशानी है। लेकिन जानवरों में भी ये नहीं होता कि उनको लड़का ही चाहिए। यहाँ तो दो काम हो रहे हैं — एक तो ये, कि जब तक बच्चा पैदा कर सकते हो, ‘करो’ और दूसरा, उसमें भी लड़का चाहिए। ये तो जानवरों की भी कोई विशिष्ट प्रजाति हुई, जिसको जानवर भी त्याज्य मानें। कोई ऐसा पशु जिसको सारे पशु बोलें, ‘भाग यहाँ से, जानवर कहीं का!
इसमें मैं अब क्या बोलूँ। बड़े ही हुनरमन्द लोग हैं, पैन्तालीस के हैं, अभी ये ही कार्यक्रम चल रहा है। मतलब, एक अवस्था आ जाती है जब आदमी ज़िन्दगी इतनी देख लेता है कि मूर्ख-से-मूर्ख आदमी को थोड़ा सा वैराग्य पैदा हो जाता है, कि वही काम सौ बार कर रहे हैं। अब तो उससे एक विरक्ति हो। वो अभी भी वंश वृद्धि में ही लगे हुए हैं तो; मैं जो बोल रहा हूँ ये समुचित जवाब नहीं है। क्योंकि इसका समुचित जवाब देने के लिए मुझे किसी और मानसिक अवस्था में जाना पड़ेगा। देखो अभी मैं इनके (कबीर साहब के) साथ था। ये बैठे हुए हैं, ये आसमान के हैं। तो मैं इनके साथ था, तो मैं भी वहीं आधा टँगा हुआ हूँ। अब उस स्तर का कोई मुद्दा आये, तो मैं उस पर बात भी करूँ।
अभी अचानक मुद्दा आ गया कि आप वहाँ आसमान पर बैठे हो। जैसे कि कोई एस्ट्रोनॉट (अन्तरिक्ष-यात्री) हो और अचानक उससे; वहीं बैठा हुआ ऊपर मान लो स्पेस स्टेशन (अन्तरिक्ष स्टेशन) में बैठा हुआ है, ऊपर। और उससे पूछा जाये कि नीचे फलानी जगह पर गन्दगी बहुत है, कीचड़, उसमें सुअर लोट रहे हैं; इस मुद्दे पर आपका क्या कहना है? वो वहाँ कहाँ बैठा हुआ है? स्पेस स्टेशन में बैठा हुआ है, चाँद पर चढ़कर ऊपर। और उसके सामने मुद्दा क्या रख दिया गया? नीचे, वहाँ फलानी जगह में, फलाने देश में, बीमारी फैल गई है, कीचड़ में सब लोट रहे हैं सब सुअर। तो उसको झटका लग जाएगा कि इस पर मैं बोलूँ क्या?
इस मुद्दे पर क्या बोला जा सकता है? क्या, क्या बोलूँ मतलब। कोई क्या कर रहा है? क्यों कर रहा है? कैसे कर रहा है? और दो हैं, दो होने में ये भी हो सकता है दो में से कम-से-कम एक को तो सद्बुद्धि आ जाये। दोनों मिलकर कर रहे हैं। उसमें से दो में से भी एक है जो मादा है। वो भी इसी में लगी हुई है, कि मुझे नर पैदा करना है। अगर आप बॉडी आइडेंटीफाइड (देह से आसक्त) भी हो तो कम-से-कम अपनी ही बॉडी (देह) के प्रति थोड़ा सम्मान रख लो। आप खुद जिस लिंग की हो, आप उस लिंग के प्रति भी अपमान से भरी हुई हो। आप ही कह रही हो कि मुझे लड़का चाहिए। काहे भाई, तो आप खुद ही लड़का काहे नहीं बन जाती, सबसे पहले। जाकर के लिंग परिवर्तन करा लो टेक्नोलॉजी (तकनीकी) आ गई है।
अगर लड़की इतनी ही बुरी चीज़ है, तो आप क्यों लड़की हो? वो माँ, जो लड़का पैदा करने के लिए इतनी आतुर हो रही है, सबसे पहले तो जाकर के उसको चेंज (परिवर्तन) करना चाहिए। उसका इसको, इसको पुरुष बनाओ क्योंकि इसे स्त्रियों से तो नफ़रत है। स्त्री को तो ये ऐसे समझती है, जैसे कीचड़ हो। सबसे पहले इसका चेंज करो जाकर। सेक्स (लिंग) चेंज हो गया अब इसका, हाँ अब ये, अब ठीक है। अब, ठीक है।
और ऐसे जो पिता जी हैं जिनको लड़कियों से इतनी नफ़रत है कि उनको लड़का ही चाहिए। सबसे पहले तो उनके आसपास, इर्द-गिर्द जितनी भी महिलाएँ हों, सबको उनसे दूर किया जाये। क्योंकि ये महानुभाव तो महिलाओं के प्रति नफ़रत से भरे हुए हैं। तो इनकी बहन-माँ सब इनसे दूर करी जायें। इनके दफ़्तर में भी कोई महिलाएँ हों, वो भी इनसे दूर करी जायें। कोई पूछे इनसे, ‘ज़रा बताना अपने अभिभावकों का नाम, तो इन्हें दो पुरुषों का नाम बताना चाहिए। कि मेरी ये क्या है बाप का नाम? बाप का नाम बताया और माँ का नाम पूछा तो उसमें, छोटे बाप का नाम बताओ। तो एक मेरे बड़े बाप थे, एक छोटे बाप थे। माँ तो मेरी थी ही नहीं क्योंकि स्त्री होना तो बड़ी गड़बड़ बात होती है। मैं किसी स्त्री से थोड़ी पैदा हुआ हूँ। मैं तो पुरुष से ही पैदा हुआ हूँ। दूध भी पुरुष का ही पीता था। स्त्री तो गन्दी चीज़ होती है। पैदा ही मत करो, पैदा हो जाये तो मार दो। पुरुष बढ़िया होते हैं। इन्हें ऐसी कोई पिक्चर (फ़िल्म) मत देखने देना, जिसमें हीरोइन (नायिका) हो। इनके लिए खास पिक्चर बननी चाहिए, जिसमें सब मर्द-ही-मर्द उछल रहे हैं। क्या घातक पिक्चर होगी, ‘बार्बा।‘ और बार्बी (एक फ़िल्म का नाम) में तो फिर भी थोड़ी सी लैंगिक समानता थी। उसमें वो भी था एक कैन (बार्बी फ़िल्म में एक किरदार का नाम), कुछ पुरुष भी थे उसमें। ऐसों के लिए जो पिक्चर बननी चाहिए, बार्बा। उसमें महिलाओं का किरदार भी पुरुष ही निभाएँ।
जैसे पुरानी रामलीला होती थी तो उसमें सूपर्णखा भी, जो गाँव का ऐसे ही होता था लफँगा उसको बना देते थे। कहते थे, ‘इसी की नाक कटनी चाहिए, ये तो है ही कटी नाक वाला।‘ तो उसको धरकर सूपर्णखा बना दिया। सारी चुड़ैलें, जितने बूढ़े-ऊढ़े थे उनको कहा कि चुड़ैल बनो तुम। जो काम सालभर करते हो, वो अब मंच पर भी करो। ज़िन्दगी से महिलाओं को बिलकुल निष्कासित करो, खत्म करो। एक महिला कहीं होनी नहीं चाहिए दुनिया में।
महिलाओं ने कोई साहित्य लिखा हो बिलकुल नहीं — हट, नहीं, नहीं चाहिए। कहीं होटल में घुस जाओ, वहाँ पर देखो कि किसी टेबल पर कोई महिला बैठी है, तो लात मार दो टेबल को। बोलो, ‘छी, यहाँ तुमने मलेच बैठा रखा है, ऐसों का तो हम वध कर देते हैं, पैदा होने से पहले ही।‘ महिला, चाहिए ही नहीं। अस्पताल में जाओ, वहाँ पर पाओ कि कोई लेडी (महिला) डॉक्टर (चिकित्सक) है तो, अस्पताल में बम लगा दो। बोलो, ‘ये अधर्म का अड्डा है, यहाँ महिला पायी गई अभी-अभी।‘और जाकर के तालिबान वगैरह से, सांस्कृतिक प्रशिक्षण लेकर आओ कि किस तरह से जो बची-कुची हों, उनको काले कपड़ों में पैक करना है। दिखाई नहीं देनी चाहिए। काले कपड़ो में पैक करके, कहीं घर के किसी कोने में उनको बाँधकर डाल दो। स्वतन्त्रता आन्दोलन से हटाओ, तुम क्या लक्ष्मीबाई, कोई मतलब ही नहीं है। क्या बात कर रहे हो सरोजिनी नायडू। ये कौन हैं? हमें नहीं पता। विज्ञान से हटाओ, ये मैरी क्यूरी कौन हैं? हम नहीं जानते। साहित्य से हटाओ, महादेवी वर्मा कहाँ से आ गयीं। राजनीति से इन्दिरा गाँधी को हटाओ। मार्गरेट थैचर को हटाओ। हम नहीं जानते, ये सब कौन हैं? ये क्या हैं? खेलों से हटा दो पी.टी. उषा को, पी.वी. सिन्धू को। हम नहीं जानते ये कौन हैं?
और ये जो लड़के पैदा होंगे, इन सबको समलैंगिक बनाओ। क्योंकि स्त्री जब इतनी गन्दी चीज़ है तो काहे को छूना है। एक-एक को विशेष प्रशिक्षण शिविर बनने चाहिए होमोसेक्सुएलिटी (समलैंगिकता) के। सबको सिखाओ कैसे, जो नहीं भी बनना चाहता उसको भी दीक्षित करो। बोलो हटाओ अध्यात्म वगैरह सब, तुम्हें गृहस्थी का प्रशिक्षण देंगे। सारे चाहिए, क्या? होमोसेक्सुल (समलैंगिक)। जब स्त्री इतनी गन्दी चीज़ है, तो तुम स्त्री से क्या सम्बन्ध बनाओगे। वो भी गन्दा वाला सम्बन्ध, यौन सम्बन्ध। नहीं एकदम नहीं, छि।
वही न्यूज (खबर) चैनल देखना, जिसमें एक भी महिला एंकर न हो। वो दिखी नहीं कि खट से चेंज करो चैनल। तब तो उल्टा होता है। ये जितने होते हैं, चालीस-पचास-साठ साल वाले, ये दिन-रात न्यूज़ देखते हैं। और इनकी पत्नियाँ अच्छे से जानती हैं कि न्यूज़ बड़ा जवान है। ये ताजा खबर नहीं, गर्म खबर देख रहे हैं। नहीं, कुछ नहीं। सब दाढ़ी-मूछ वाले होने चाहिए स्क्रीन पर, वही देखना। मैं कह रहा हँ, ‘स्त्रीलिंग भाषा से हटाओ। काहे के लिए रखना है। सिर्फ़ एक लिंग रखो — पुल्लिंग, हर चीज़। हवा बह रहा है, और आग जल रहा है। विवाह भी पुरुष से ही करना, तो यही तो बोलोगे, ‘मेरा पत्नी आ गया।‘ क्या करके आया है? नहीं, दाढ़ी बनवाने गया था। इसका दाढ़ी बढ़ गया था, मेरा पत्नी, सब कुछ। देवी, को कर दो देव महात्म्य नौदुर्गा को नौदेव कर दो। जहाँ कहीं भी स्त्रियों की झलक आती हो, आहट आती हो, उन सब जगहों को वर्जित कर दो। चाहे समाज हो, चाहे अध्यात्म हो।
क्यों भाई? शिव से शक्ति, राम से सीता, क्यों रहने देना इनको? चारों भाई खड़े कर दो —‘राम, लखन, भरत, शत्रुघ्न।‘ क्या समस्या है? सीता क्या करेंगी? और पाँचों पांडव कूद मचाएँ, द्रौपदी बेचारी, क्या करना है उसको? बढ़िया हैं, पाँच मर्द, उनमें भी एक भीम सरीखा। आपस में ही जो करना हो, करें।
ऐसों का यही है उपचार। इनको क्या अध्यात्म बताया जाये। ऐसों को तो ये भी न हो कि सब कुछ — चाँद से चाँदनी आया। फ़िल्मी गाने भी सुनें तो उसमें जो डुएट (युगल) होते हैं, तो उसमें एक तरफ़ पुरुष हो और दूसरी तरफ़ भी पुरुष हो। और दोनों एक-दूसरे के लिए प्रेम का इज़हार कर रहे हैं। लता मंगेशकर का कर दो वाइस मोड्यूलेशन (आवाज़ मॉड्यूलन) और उन्हें मोहम्मद रफ़ी बना दो। इधर किशोर कुमार, इधर मोहम्मद रफ़ी और दोनों एक-दूसरे को लिए गा रहे हैं —तू मेरा जानू है, तू मेरा दिलबर है। क्या करना है लता मंगेशकर का? और नहीं कुछ जवाब है। इसका कोई आध्यात्मिक जवाब नहीं हो सकता, इसका यही है और यही व्यवहारिक भी है।
ये लोग हैं न, जिनको इतनी समस्या है स्त्रियों से, स्त्रियों के लिए उपाय भी यही है कि हट ही जाओ इनके पास से। काहे को घुसना, इनकी ज़िन्दगी में। तुम्हें इतनी समस्या है, हम हट ही जाते हैं न। जब तुम्हे बेटी नहीं चाहिए, तो तुम्हें पत्नी भी क्यों चाहिए? दोनों एक हैं। ये तो क्लास स्ट्रगल (वर्ग संघर्ष) है। ये कौनसी क्लास है। क्या करना चाहते हो? हट ही जाया करो न। जहाँ कहीं भी इस तरह की मानसिकता देखो, वहाँ पर काहे को घुसना है अपनी बेइज़्ज़ती कराने को। हटो, तुम अपना देखो। तुम पैदा हुए हो प्रकृति में, हम भी पैदा हुए हैं प्रकृति में, दोनों का बराबर का हक है। तुम अपना देखो भाई! हम अपना देखेंगे। इनका तो बड़ा बढ़िया रहेगा — एक भाई, दूसरे भाई को राखी बाँध रहा है; राखी नहीं राखा। स्त्री ही नहीं, स्त्रीलिंग भी बन्द किया जाये।
समस्या ये आती है न कि ये जो सड़ी हुई सोच है, इसमें महिलाओं की भी बराबर की सहभागिता है। आप पीछे ही हट जाओ, ऐसों का बहिष्कार, बायकॉट कर दो, तो वो खत्म हो जायें। न तुम्हें चाहिए स्त्री, न तुम्हे मिलेगी स्त्री। और तुम्हारा पूरा हक है ये बोलने पर कि तुम्हें नहीं चाहिए क्योंकि सब अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं। तुम ये बिलकुल कह सकते हो कि तुम्हें स्त्री नहीं चाहिए। पर फिर स्त्री को भी बराबर का हक है ये कहने का कि मुझे पुरुष नहीं चाहिए, तो नहीं चाहिए। हमें नहीं चाहिए। न तुम्हें स्त्री चाहिए, न हमें पुरुष चाहिए। जाओ अपनी ‘बार्बा’ दुनिया में रहो। वो बार्बी की दुनिया गुलाबी थी। बार्बों की दुनिया किस रंग की होगी? काली-नीली कुछ होगी, जो भी इनका रंग हो। घूँसा पड़ने पर जैसे आँख हो जाती है न, नीली-काली, वैसे ही इनका रंग होना चाहिए। जाओ रहो अपना इकट्ठे। लेकिन करा नहीं न महिलाओं ने ये। अपमान होता रहा, वो झेलती रहीं। मैं नहीं समझ पा रहा हूँ, कोई महिला खुद ही कैसे भ्रूण हत्या में सहभागिनी हो सकती है! पुरुष बोल रहा है कि फिटिसाइड (भ्रूण हत्या) कर दो, अबॉर्शन (गर्भपात) कर दो। वो एक बात है। और वो जो महिला है वो खुद ही कह रही है कि हाँ गर्भ में बच्ची है, लड़की है, मैं इसलिए मार दूँगी। ये कैसे हो जाता है? आप काहे को इस चीज़ में साथ दे रहे हो। आपका क्या है इसमें? आप तो हटो। चलाने दो इनको अपनी दुनिया मर्दों को, चलाओ। और हम नहीं रहेंगे उसके बाद जैसे तुम्हें लड़का पैदा करना हो, कर लेना। हमें छूने मत आना। लड़का चाहिए न, तो लड़की के माध्यम से क्यों चाहिए? मुझे छूने क्यों आ रहे हो? जाओ अपनी ही देह से लड़का पैदा कर लो। तुम्हारे जैसे बहुत हैं जिन्हें लड़का चाहिए। सब आपस में मिलो और लड़का पैदा करो। महिलाओं को मत छूने आना।
इतना तो पशु भी जानता है कि जहाँ लात पड़ रही हो, वहाँ से दूर भाग जाते हैं। पता नहीं महिलाओं में कितनी सहिष्णुता है, खासकर भारतीय महिलाओं में। लात-ही-लात खाये जा रही हैं। पाँच करोड़ महिलाएँ भारत की आबादी से गायब हैं और वो संख्या बढ़ती ही जा रही है। ये सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए देश में, बहस में, मीडिया में। इसकी कोई चर्चा नहीं करता, ये पाँच करोड़ महिलाएँ कहाँ गयीं। तिहत्तर-चौहत्तर करोड़ पुरुष हैं भारत की आबादी में और महिलाएँ सत्तर करोड़ भी नहीं हैं। चार से पाँच करोड़ महिलाएँ डेफिसिट (कमीं) हैं, गायब हैं। इनकी हत्या करी गयी है। कोई बात नहीं करना चाहता।
इससे बड़ा जेनोसाइड (नरसंहार) कोई होगा, इससे बड़ा नरसंहार कोई होगा! पर नारीसंहार है न, इसीलिए इसको नरसंहार भी नहीं माना जाता। घर में कुत्ता भी हो आप मारिए उसको दो-चार बार लात, वो आपके पास नहीं आएगा अब। महिलाएँ सोने कैसे पहुँच जाती हैं पिट-पिटकर भी? और उत्तर भारत में तो विशेषकर यही चलता है। खासकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश में, हरियाणा में, राजस्थान के कुछ इलाकों में। वहाँ कहते हैं कि मर्द अगर पीट नहीं रहा है, तो इसका माने प्यार नहीं करता है। तो वहाँ रोज़ की बात है कि पुरुष पहले पीटता है और फिर देह को नोचता है, सम्भोग करता है। मैं कह रहा हूँ, ‘पशु भी नहीं बर्दाश्त करते है ये।‘
कौन सी मजबूरी है? कितने बड़े खर्चे हैं जो पति के बिना नहीं चलेंगे? कौनसी सुरक्षा है जो पति दे देता है? मरे जा रहे हैं ब्याह हो जाये। और ब्याह हो गया है तो कितना भी सड़ा हुआ ब्याह है, उसी में अटके हुए हैं। माँयें पगलाई जा रही हैं, ‘अरे! लड़की पच्चीस की हो गयी है अभी तक उसका ब्याह नहीं हुआ है।‘ अरे, तुम तो अच्छी तरह जानती हो न, तुम खुद स्त्री हो कि ब्याह माने क्या होता है। काहे के लिए वो लड़की को लात मारकर घर से बाहर निकाल रही हो। उसको पढ़ा दो, लिखा दो, सशक्त करो, नौकरी कराओ उसकी, वो पाँव पर खड़ी हो अपने। उसकी बजाय तुम लगी हुई हो कि किसी भी तरह इसको कहीं से उसका पल्लू बाँध दो, बाहर जाये, निकले, विदाई कराओ अपने घर जाये।
महिला का सबसे ज़्यादा अपमान तो खुद महिला करती है। कमज़ोर बनकर रह गयी है। नाम है — ‘शक्ति।‘ और जीवन है पूरा — ‘अशक्त।‘ और वही कमज़ोरी उसके व्यक्तित्व के एक-एक पहलू में दिखाई देती है। पुरुष पर आश्रित रहेगी, फिर जो कमज़ोर होता है न, वो कई तरीकों से कुटिल भी हो जाता है। उसकी मजबूरी हो जाती है दाँव चलाना क्योंकि आप कमज़ोर हो तो आप डरे रहते हो हर समय। आप डरे रहते हो तो आप कुछ भी करके अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहते हो। तो फिर वो तमाम तरीके से इधर-उधर खेलने लग जाती है, दाँव-पेंच। पुरुष को और बहाना मिल जाता है बोलने का कि ये देखो त्रिया-चरित्र। कैसी-कैसी चालें चलती है। और वो जो सारी चालें हैं, वो आ कहाँ से रही हैं? मानसिक कमज़ोरी से।
कुल मिलाकर के एक ये धारणा बना ली है कि पुरुष के बिना तो हम जी ही नहीं सकते। पहले पिता होना चाहिए, फिर पति होना चाहिए, फिर पुत्र होना चाहिए। वही जो हमारे मनु महाराज बोल गये थे कि कभी भी स्त्री स्वतन्त्र न रहे, कोई-न-कोई। वो बात स्त्रियों ने सबसे ज़्यादा आत्मसात कर ली कि कभी भी स्वतन्त्र तो रहना नहीं है। और कोई अगर नहीं है जिसके सहारे जिया जाये, तो हमारी हालत खराब हो जाएगी, हम कहीं के नहीं रहेंगे। थोड़ा प्रयोग करके देखो कि ये बात सच भी है क्या? किसी के सहारे रहना माने, अपमान की ज़िन्दगी। और बहुत बार तो ज़िन्दगी ही नहीं, मौत। गर्भ में मौत, तमाम अन्य तरीके से मौत।
नारी स्वयं के प्रति एक घृणा से भरी हुई है। नारी, नारी मात्र के प्रति घृणा से भरी हुई है। इसीलिए तो नारी तैयार हो जाती है, नारी का ही शोषण करने को। इसका एक प्रमाण और देख लेना। महिला और महिला की दोस्ती आमतौर पर बहुत पक्की नहीं मिलेगी। क्योंकि नारी, नारी को पसन्द ही नहीं करती, नारी को नारी से ही, एक तरह की घृणा सिखा दी गयी है। आप पाओगे चार-पाँच लड़के हैं, वो मस्त होकर अपना आपस में मौज मना रहे हैं। चार-पाँच लड़कियाँ ऐसे आपस में मस्त होकर मौज मनाती नहीं दिखेंगी। लड़कियों में आपस में ईर्ष्या बल्कि ज़्यादा आ जाती है। लड़कों में भी होती है। लड़कों में आपस में कम ईर्ष्या होती है। लड़कियाँ एक-दूसरे के साथ हो जायें, तुरन्त एक-दूसरे से ईर्ष्या शुरू कर देती हैं। उनको सिखा दिया गया है, स्वयं से ही घृणा करना। तो कहीं भी कोई लड़की दिखती है वो उसके साथ कभी भी रिश्ता; लड़की सबसे ज़्यादा सहज होती है उसे लड़का मिल जाये तो। लड़के आपस में भी सहज हो लेते हैं, पर लड़की नहीं सहज हो पाती। कोई लड़की तरक्की कर रही हो एक बार को कुछ पुरुष आ जाएँगे उसका समर्थन करने या उसकी तरक्की से खुश होने। पर कोई लड़की तरक्की कर रही हो, सबसे ज़्यादा समस्या दूसरी लड़कियों को हो जाती है।
ये जो पूरी कंडीशनिंग (अनुकूलन) है, ये जो मानसिक संस्कार हैं। ये ठीक करने पड़ेंगे। नहीं तो आधी मानव आबादी एकदम बीमार रही आएगी। और वो आधी बीमार है तो जो बाकी आधी है, वो भी बीमार रहेगी। दोनों पक्ष, पूरा फिर, मानवता ही पूरी बीमार रहेगी।
प्रश्नकर्ता: जी, धन्यवाद आचार्य जी।