कुर्बानी माने क्या? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

Acharya Prashant

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कुर्बानी माने क्या? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

श्रोता: सर, त्याग हम ख़ुशी से करते हैं या दुःख से?

वक्ता: मज़े में किया होता तो सवाल नहीं पूछते। शक है। जहाँ शक है, वहाँ त्याग किया नहीं जाता, वहाँ त्याग करवाया जाता है। जैसे किसी की सर पर पिस्तौल रख कर बोलो, कृप्या दान दें!

अब उस बेचारे को तो बताया ये जा रहा है कि देखिये, आप दान दे रहे हैं, पर उसे पता है कि…(सर की ओर हाथ ले जाते हुए।) क्या क्या दान दे आईं और कौन है जो तुम्हारा दान इकट्ठा कर रहा है? यह नहीं देखते? जिस दान पात्र में, तुम अपने आप को लुटाए चले जा रहे हो, कोई आता है, और जो कुछ तुमने डाला है, वो लेकर जाता है। तुम तो कुर्बान करने को आतुर हो, पर तुम्हारी क़ुर्बानी इकट्ठा कौन कर रहा है, ये भी देख लेना।

क़ुर्बानी, आहुति या त्याग, यह स्वतः स्फूर्त बोध और और प्रेम की बातें होती हैं, ये सामाजिक नहीं होती हैं। जब प्यार होता है, तब एक रोटी में आधी-आधी रोटी, बाँट ली जाती है, उसको त्याग नहीं बोला जाता। वो प्रेम है और उसी प्रेम का सहज फल है- ‘त्याग।’ उसको त्याग कहना ही नहीं चाहिए, त्याग कहना, ज़रा अपमान सा होगा, वो तो प्रेम है।

इसी तरीके से, अपनी आहुति दे दी जाती है, जब पता होता है, कि ‘जो भी कुछ समर्पित कर रही हूँ उसकी कीमत नहीं है, उसको छोड़ा जा सकता है’। तब कहा जा सकता है कि यह जो ‘मैं’ है, जिसकी आहुति दी जा रही है, यह तो अहंकार मात्र था, गन्दा था, तो इसको छोड़ दिया, जलने दिया, जा। जैसे यज्ञ में कर देते हैं न, ये आहुति कहलाती है, क़ुर्बानी।

क़ुर्बानी का अर्थ ही यही होता है कि अपने अहंकार की क़ुर्बानी दी, कुछ ऐसा छोड़ा जो कीमती लगता था, पर था नहीं; चूँकी कीमती था नहीं, इसीलिए मैंने?

श्रोता: छोड़ दिया।

वक्ता: छोड़ दिया।

क़ुर्बानी का अर्थ ये नहीं होता कि कोई बहुत कीमती चीज़ छोड़ी। क़ुर्बानी का अर्थ होता है, ऐसी चीज़ छोड़ी जो कीमती लगती तो थी, पर थी नहीं।

मुझे उससे मोह था, बस आसक्ति थी, तो छोड़ दिया। क़ुर्बानी का अर्थ होता है कि दिया, दिया। दिया माने यह नहीं कि जो तुमने दिया है, वो किसी और के काम आ जाएगा। यज्ञ में जो डाला जाता है, वो राख होना होता है, वो किसी के काम नहीं आना होता। क्यूँकी वो चीज़ ही ऐसी है, बोल कर- ‘मैंने अपना सर्वस्व दान किया, क्यूँकी मेरा जो सर्वस्व था, वो मात्र अहंकार था।’’

श्रोता: सर, फिर इस तरह से तो, ये शब्द इस्तेमाल ही नहीं होना चाहिये, क़ुर्बानी तो होना ही नहीं चाहिये (कहना ही नहीं चाहिये।)

वक्ता: हाँ, हाँ। तो इसीलिए मैंने कहा कि या तो प्रेम- प्रेम में बंट जाता है, वो एक स्थिति होती है, या बोध- बोध में तुम कहते हो कि ‘’जो भी कुछ त्यागने योग्य ही है उसको मैं त्याग ही दे रहा हूँ, इसीलिए नहीं त्याग ही दे रहा हूँ कि मैं बहुत बड़ा आदमी हूँ, इसीलिए त्याग ही दे रहा हूँ कि जो गन्दा कचरा है, उसको मैं रख कर के करूँगा भी क्या, तो मैंने त्यागा।’

श्रोता: सर, ये क़ुर्बानी थोड़े ही है?

वक्ता: यही क़ुर्बानी है बेटा और तुम किसकी क़ुर्बानी दोगे?

श्रोता: जिससे मैं मोहब्बत करता हूँ, उसकी क़ुर्बानी ।

वक्ता: हाँ, और वो जो मोहब्बत है, उसी को तो मैंने कहा न कि मोह था आसक्ति थी, तो तुम अपनी मोहब्बत की ही क़ुर्बानी देते हो।

श्रोता: लेकिन सर, मोहब्बत की क़ुर्बानी का मतलब क्या है? (आवाज स्पष्ट नहीं)

वक्ता: मोहब्बत की क़ुरबानी का अर्थ यह होता है, इसका ठीक-ठीक मतलब समझना कि एक ही है जिससे मोहब्बत की जा सकती है। कौन है वो?

श्रोता: माँ-बाप?

वक्ता: परमात्मा, माँ नहीं परमात्मा। एक ही है जिससे मोहब्बत की जा सकती है, ‘’मैंने तेरे अलावा किसी और से मोहब्बत की, वो गलती थी, इसीलिए उस मोहब्बत की क़ुर्बानी दे रहा हूँ’’ क्यूँकी मात्र एक है जिससे प्रेम किया जा सकता है। माँ नहीं, परमात्मा। मतलब समझे इस बात का? जो कहा जाता है न, जो चीज़ तुम्हें प्यारी है, उसकी क़ुर्बानी दो, उसका अर्थ समझो।

तुम्हें कोई चीज़ प्यारी हो कैसे गई ख़ुदा के अलावा? इसलिए क़ुर्बानी दो। क़ुर्बानी की जो पूरी बात है, वो यह है। तुम्हें और कुछ प्यारा हो कैसे गया? तो तुम्हें जो भी कुछ प्यारा हो गया, उसे छोड़ो। क्यूँकी वो नकली है, नकली को छोड़ोगे, तभी असली मिलेगा और प्यार बहुतों से नहीं किया जाता, वास्तव में प्रेम सिर्फ एक से हो सकता है, बाकियों से सिर्फ मोह और आसक्ति होती है। संसार में तुम्हें जिससे भी होगी, वो मोह, आकर्षण, ममता, आसक्ति होगी। प्रेम तो वास्तव में सिर्फ ‘उसी’ से हो सकता है। तो इसीलिए ये जो कुछ ये संसारी तुमने पकड़ रखा है, इकट्ठा कर रखा है, इसकी क़ुर्बानी दे दो। ये क़ुरबानी होती है।

श्रोता: सर, इसको छोड़ भी तो नहीं सकते। जो चीज़ें हमने पकड़ रखी हैं इसको छोड़ भी तो नहीं सकते।

वक्ता: नहीं छोड़ सकते इसीलिए तो फिर ये कायदा बनाया गया है न, कि छुड़वाओ, ख़ुद तो छोड़ेगा नहीं, तो इसीलिए अलग-अलग पंथों ने दिन भी निर्धारित किये कि इस दिन क़ुर्बानी दे, चल। एक राजा था हर्षवर्धन, वो साल के एक दिन अपनी एक-एक निजी वस्तु की क़ुर्बानी दे देता था, दान कर देता था। “ले जाओ, जाओ, जाओ जाओ”, यहाँ तक कि अपने कपड़े तक, फिर उसकी बहन आती थी उसको कपड़े दान करती थी तो पहनता था। अब हाँलाकि इसमें उसे जिस चीज़ का सबसे पहले दान करना चाहिए था, वो थी उसकी रियासत। राजा बना ही रहता था। ये आधी-अधूरी ही बात थी। पर ये अर्थ है इसका, जो भी कुछ तुमने इकट्ठा कर रखा है, वही तुम्हारा कचरा है, उसको जाने दो। उसी से समझो फिर दान क्या होता है।

दान का मतलब ये नहीं होता की तुमने कोई बहुत कीमती चीज़ दे दी। दान का मतलब होता है कि, तुमने इकट्ठा किया, यही तुम्हारी गलती थी। परिग्रह तुम्हारी गलती थी।

अब उस गलती का सुधार करो, जो भी इकट्ठा किया, उसको जाने दो, बहा दो। अब तुम्हारे देने में, वो किसी के हाथ लग जाए, किसी के काम आ जाए, ठीक है। नहीं किसी के हाथ आती, तो नदी में बहा दो। सुना है न, ‘नदी में विसर्जित कर दिया, वो यही है।’

श्रोता: सर, अपने मन से कोई काम करते हैं, उसमें फिर असफल हो गए। फिर सब सलाह देने लगते हैं कि ‘तुम मेरी बात नहीं माने, ये काम किया और असफल हो गया’। फिर सर कैसे यकीन होगा नहीं अपने ऊपर, फिर सर कैसे किया जाए?

वक्ता: बेटा, दुनिया में सब अलग-अलग पैदा हुए हैं, सबके अलग-अलग रास्ते हैं और तुम्हारा रास्ता क्या होना है, ये सिर्फ तुम अपने बोध द्वारा ही निर्धारित कर सकते हो। कोई और आ कर तुम्हें नहीं बता पाएगा, क्योंकि कोई और, ‘तुम’ नहीं है। तुम्हारी दिल की धड़कन का उसको क्या पता? या वो तुम्हारी जिंदगी जी रहा है? बोलो जल्दी? तो कोई नहीं तुम्हें बता सकता। देखो, बहुत छोटा बच्चा हो, उसको कुछ बातें बतानी पड़ती हैं, सिर्फ उसकी जीवन रक्षा के लिये। नहीं, तो वो सड़क पर भाग जाएगा, वहाँ कुचला जाएगा। तुममें से कोई छोटा बच्चा नहीं है। तुम्हारी वो अवस्था गई कि तुम इधर से सुनो और इधर से सुनो, कि अब ये पढ़ाई कर ले, अब ये नौकरी कर ले, अब यहाँ शादी कर ले, अब वहाँ बस जा, इससे मिला कर, उससे मत मिला कर, यह खा, वो न खा, तुम्हारी वो अवस्था अब नहीं रही।

तो तुम गिरो चाहे पड़ो, चलना तुम्हें अपने पाँव पर ही होगा। हो सकता है अपने द्वारा किए गए निर्णय में तुम्हारी जान भी चली जाए, पर फिर भी तुम्हें चलना अपने ही निर्णय पर होगा। कम से कम हँसते-हँसते मरोगे। या रोते-रोते जीना कुबूल है? वो ज़्यादा अच्छा लगता है?

श्रोता: हँसते-हँसते…

वक्ता: हँसते-हँसते मर ही लो। हद से हद क्या होगा? ठोकर खा लेंगे। हाँलाकि ठोकर खाने की भी संभावना तब ही ज़्यादा है जब दूसरों के मुताबिक चलो। उसकी भी संभावना ज़्यादा तभी है। कोई तुम्हें जब सलाह देने आए, तो उससे पूछना, अच्छा बताओ मुझे प्यास लगी है कि नहीं लगी है? बस इतना सा सवाल पूछ लेना। जो भी बड़े ज्ञानी पुरुष तुम्हें सलाह देने आए, कि ‘बेटा अब तुमको ये करना चाहिये’, उनसे एक छोटी सी बात पूछना, ‘‘आप मुझे मेरी जिंदगी बताने आए हो कि मैं जिंदगी ऐसे गुजारूँ, बस इतनी सी बात बता दो मुझे अभी प्यास लगी है कि नहीं? जब आप ये नहीं जानते कि मुझे प्यास लगी है कि नहीं, तो आप और क्या जानोगे मेरे बारे में? मैं ही जानूँगा न कि मुझे पानी पीना है कि नहीं पीना है? मेरा आपको क्या पता?’’

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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