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कृष्ण प्राप्ति के तीन मार्ग || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

Acharya Prashant

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कृष्ण प्राप्ति के तीन मार्ग || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

आचार्य प्रशांत: वन्दिता हैं दुबई से, बारहवें अध्याय का नौवाँ-दसवाँ श्लोक उद्धृत कर रही हैं:

अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम्। अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।

यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापित करने में समर्थ नहीं है, तो अर्जुन! अभ्यासयोग के द्वारा मुझको प्राप्त होने की इच्छा कर। ~ भगवद्गीता, अध्याय १२ ,श्लोक ९

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव। मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्विमवाप्स्यसि।।

अगर तू इस अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा। ~ भगवद्गीता, अध्याय १२, श्लोक १०

तो पूछ रही हैं, 'चरण स्पर्श! आचार्य जी। श्री कृष्ण कहते हैं कि अगर तू मन को मुझमें अचल स्थापित करने में समर्थ नहीं तो मुझे अभ्यास से पाने की इच्छा कर और अगर अभ्यास भी नहीं कर सकता तो केवल मेरे लिए कर्म करने के परायण हो जा।

तो मन को अचल स्थापित करने का क्या तात्पर्य है? और इस स्थापना का तरीक़ा क्या है? क्योंकि जब हम गुरु कबीर साहब के संग होते हैं तो वो कहते हैं कि जो कुछ भी मन पर छाया हुआ है वो सब माया का ही रूप है। हम क्या समझें कि कृष्ण क्या कह रहे हैं? शत् शत् नमन।'

तीन बातें कह रहे हैं कृष्ण — पहली, मन को अचलता से मुझमें स्थापित ही कर दे। दूसरी बात कह रहे हैं — ये नहीं कर सकता तो भाई, अभ्यास योग कर ले। अभ्यास योग का मतलब होता है — जप, तप, कीर्तन, साधनाएँ, विधियाँ। कह रहे हैं इतना भी नहीं किया जाता तो फिर ज़िन्दगी में ये सब जो तू काम करता है, उनको ज़रा निष्काम भाव से करना सीख। अपने सब कामों के फल छोड़ता चल।

इसमें जो पहली बात बोली है उसकी कोई विधि नहीं है, बाकी दो विधियाँ ही हैं। जो पहली बात बोली है वो स्वयं लक्ष्य है। पहली बात बोली है — मन को दृढ़ता से अचल स्थापित कर दे कृष्णत्व में। सहज कर दे, बिना किसी विधि के कर दे, तत्काल कर दे, पलक झपकते; जैसे स्विच दबाने पर रोशनी हो जाती है; जैसे पलक उठाने पर प्रकाश दिखाई देता है; जैसे जगते ही सपना टूट जाता है, ऐसे। उसमें कोई विधि नहीं है।

नींद तोड़नी है, विधि क्या है? कुछ ग़लत है, कुछ मिथ्या है जो पकड़ा हुआ है, उसे छोड़ना है, उसमें विधि क्या है? और वो ऊँची से ऊँची बात है क्योंकि तत्काल है, अभी हो जाएगा। तो इसीलिए सबसे पहले उसका नाम लिया श्रीकृष्ण ने। बोले, “ऐसे ही कर दे न! बिना किसी तरीक़े के, बिना किसी ज़ोर-ज़बरदस्ती के, बिना किसी उपाय के, शोरशराबे के, ताम-झाम के, सीधे मुझमें स्थापित हो जा क्योंकि ये बात बड़ी सहज है। कर दे अर्जुन ऐसा!”

अब ये बात सहज तो है पर सिर्फ़ उनके लिए सहज है जो इतनी सहजता के लिए तैयार हैं। जिन्होंने अपना मन इतना साफ़ रखा हुआ है, जिनमें इतनी निर्मलता है और जिनमें सच्चाई के लिए, कृष्ण के लिए इतना प्रेम है कि वो पलक झपकते कृष्ण में ही स्थापित हो जाएँ। ये वो लोग हैं जो कृष्ण में स्थापित हैं ही लगभग; जो निन्यानवे दशमलव नौ नौ डिग्री पर रहते हैं; जिनको भाप बनने में कोई समय नहीं लगना है; जो इतने तैयार हैं, जिनके भीतर इतनी ऊर्जा, इतनी ऊष्मा है, उनके लिए ये पहली बात! कि विधि क्या लगानी है, तुम तो उड़ ही जाओ न भाप बनकर। निन्यानवे दशमलव नौ नौ पर तो तुम बैठे ही हो, एक कदम और बढ़ाओ, तुम्हारा काम हो गया।

लेकिन ये विधि सहज और सरल होते हुए भी ज़्यादातर लोगों के लिए व्यवहारिक नहीं है; क्यों? क्योंकि ज़्यादातर लोग उतनी तैयारी करके बैठे ही नहीं होते कि पलक झपकते उनका काम हो जाए। तो फिर कृष्ण आगे बढ़कर दो और बातें बताते हैं।

वो कहते हैं, “भाई, अभ्यास कर लो। तुम्हारी तैयारी पूरी नहीं है। तुम सहज ही, बिना किसी श्रम के, बिना किसी विधि के अगर मुझमें स्थापित नहीं हो पा रहे हो तो अभ्यास कर लो। पढ़ा करो, सुमिरन किया करो, जपा करो, विधियों का पालन किया करो, सेवा किया करो, यम-नियम का पालन करो, त्यागपूर्ण जीवन जियो, संयम और अनुशासन बरतो।” ये सब अभ्यास योग में आता है। अभ्यास योग में आपको अपने कर्म बदलने होते हैं। कुछ पकड़ना होता है, कुछ छोड़ना होता है, कुछ अनुशासन रखना होता है।

फिर कहते हैं, “अर्जुन! देख, अगर तेरी हालत इतनी ख़राब है कि तू ये करने लायक भी नहीं है, तू जैसी ज़िन्दगी जी रहा है उसको तू बिलकुल बदल नहीं पा रहा, तो एक काम कर भाई, जो कुछ भी कर रहा है उसके फल की इच्छा रखनी बंद कर दे।”

अब ये जो तीसरी बात है इसको समझिएगा, ये क्या विधि है। हम जो कुछ कर रहे होते हैं, बड़ी बेहोशी में कर रहे होते हैं, बहुत बेहोशी में! लेकिन उम्मीद हमारी यही होती है कि हमें इससे सुख मिलेगा। असल में जीव कुछ कर ही नहीं सकता अगर उसको सुख की आकांक्षा नहीं है। अहम् एक तड़प है, एक जलन है, एक काला दुख है। उसे जो कुछ भी करना है सुख पाने के लिए ही करना है। उसके पास कोई चारा नहीं है।

तो भले आप बेहोशी में काम कर रहे हो पर करोगे यही सोच करके कि इससे मुझे सुख मिलेगा। और सुख की जो इच्छा है, यही आपकी बेहोशी को कायम रखती है। क्योंकि साहब, आप जब सुख की इच्छा कर रहे हैं बेहोशी से तो देखिए न आपने आधारभूत मान्यता क्या रखी है? आपकी मान्यता ये है कि बेहोशी में सुख है। काम चल रहे हैं बेहोशी में और उससे उम्मीद किसकी है? सुख की। तो इस पूरे तंत्र के नीचे एज़म्प्शन् क्या है? मान्यता क्या है? बेहोशी में सुख है। ठीक। सुख की जो लालसा है वही बेहोशी को बनाए रखती है क्योंकि हमने सुख का सम्बन्ध ही किससे जोड़ दिया है? बेहोशी से।

देखते नहीं हो कि लोगों को जब खुश होना होता है तो वो पीते हैं। तुमने कहीं देखा है कि घर में कोई ख़ुशी का मौका आया हो और सब ध्यान लगाकर बैठ गए हों? जैसे ही खुशियाँ बरसती हैं घर में वैसे ही तत्काल क्या होता है? सब बेहोश करने वाले काम चालू हो जाते हैं—ज़ोर-ज़ोर से नगाड़ा बजाओ, धूम-धाम करो, पियो—सब बेहोशी के काम करो। कहीं ऐसा देखा है कि ख़ुशी के मौके पर ध्यान को गहराने वाले काम हो रहे हों? कहीं ऐसा होता है?

हमने सुख का सम्बन्ध ही किससे जोड़ा है? बेहोशी से। तो सुख मतलब सुख के फल की जो कामना है, वही बनाए रख रही है किसको? बेहोशी को‌। श्रीकृष्ण कह रहे हैं, “चलो, तुम जो कर रहे हो वही करो बस फल की कामना मत करो, सुख की कामना मत करो। इतना कर लो।”

अब देखने में ऐसा लग रह है जैसे कृष्ण कह रहे हों कि “तुम्हारा जो भी काम-धाम चल रहा है, तुम्हारे जीवन का जो भी ढाँचा चल रहा है उसको चलने दो बस सुख की कामना मत करो।” लेकिन वो बड़ी विस्फोटक बात कह रहे हैं क्योंकि अगर सुख की कामना नहीं करी तो ये बेहोशी भी चलेगी नहीं। ये बेहोशी चल ही रही है सुख का आसरा पाकर के। वो सुख वास्तव में कभी मिलता नहीं है लेकिन उसका आसरा, उसकी आशा तो रहती है। वो जो आशा है, वही बेहोशी को बनाए रह जाती है।

कृष्ण कह रहे हैं, “मैं इससे सीधे-सीधे बोलूँगा कि तू बेहोशी छोड़ दे तो ये छोड़ेगा नहीं।” तो मैं एक काम करता हूँ, इसको कहता हूँ, “तू बेहोशी बनाए रख, बस बेहोशी को भोगने की, बेहोशी का रस भोगने की, बेहोशी का फल-सुख भोगने की उम्मीद मत रख।”

समझ रहे हो?

ये एक बेहोश आदमी को जगाने की छुपी हुई तरक़ीब है और इसीलिए इसको सब तरक़ीबों के बाद अंत में बताया है। ये तरक़ीब बस उनके लिए है जिनके ऊपर कोई और तरक़ीब काम नहीं करती।‌

सबसे ऊँची तरक़ीब तो ये है कि तुम जगने को तैयार ही थे, बस किसी ने ज़रा-सी आवाज़ दी, थोड़ी आहट करी और उठकर के बैठ गए‌। ये‌ तो सबसे ऊँची बात हुई।

उससे नीचे का जो तरीका है वो ये है कि तुम्हारे भीतर खुद ही उठने की प्रेरणा है, बेहोश हो लेकिन होश में आना चाहते हो इसलिए तुम अभ्यास करने को तैयार हो, तपश्चर्या को तैयार हो, तुम खुद ही मेहनत करोगे। और जो तीसरी बात है, जो तीसरी तरक़ीब है वो उन लोगों के लिए है जो बेहोश हैं और जिन्हें अपनी बेहोशी को तोड़ना भी नहीं है। श्री कृष्ण कहते हैं, “तुम बेहोश रहे आओ। तुम बस एक छोटा-सा काम कर दो — निष्काम बेहोशी रखो; या अपनी बेहोशी का जो फल है वो तुम मेरे सुपुर्द कर दो। इससे बेहोशी ही टूट जानी है।”

बात समझ रहे हैं?

याद रखिएगा, 'कर्म के फल से आपने जो रिश्ता रखा है वो रिश्ता अगर आप बदल दें तो कर्म करने वाला बदल जाता है' — ये गीता की विश्व भर के दर्शन शास्त्र को बड़ी मौलिक देन है। इसको समझिएगा।

आदमी को बदलने का ये जो नुस्खा श्री कृष्ण दे रहे हैं, बड़ा विलक्षण है। उन्होंने एक सम्बन्ध खोज निकाला है। वो सम्बन्ध ये है कि तुम यूँ ही कुछ नहीं करते, तुम जो करते हो उसे भोगने के लिए करते हो न। तुम जो करते हो उसके परिणाम की इच्छा से करते हो न? तुम जो करते हो किसी के लिए करते हो न? तुम जो करते हो किसी के लिए करते हो न?

कभी समाज के लिए करते हो, कभी अपने परिवार के लिए करते हो, कभी बीवी, कभी बच्चे के लिए, कभी माँ-बाप के लिए और कभी कहते हो कि मैं अपने लिए कर रहा हूँ। तो सारे जो कर्म हैं वो तुम इन लोगों के लिए करते हो न, इन विषयों के लिए करते हो। सारे गड़बड़ काम तुम इन लोगों के लिए करते हो न। कृष्ण यहीं पर बड़ी धारधार बात कहते हैं, वो कहते हैं चूँकि इन लोगों के लिए करते हो इसलिए काम गड़बड़ है।

कहते हैं — तुम गड़बड़ काम इन लोगों के लिए नहीं कर रहे हो; चूँकि तुम इन लोगों के लिए काम करते हो इसीलिए काम गड़बड़ है। काम तुम बदल नहीं पा रहे क्योंकि तुम्हें आदत लग गई है। तो इतना कर लो कि उस काम का फल इन लोगों को मत अर्पित किया करो, इनको मत चढ़ाया करो। वो फल मुझे चढ़ा दिया करो। वो फल अगर मुझे चढ़ाने लग गए तो तुम्हारा काम ही बदल जाएगा। काम बदल गया तो तुम बदल गए। कर्मफल के भोक्ता में अगर परिवर्तन आ गया तो कर्म बदल जाएगा। कर्म बदल गया तो कर्ता को भी बदलना पड़ेगा। सब जुड़े हुए हैं, बल्कि तीनों एक हैं।

आप जिस उद्देश्य के लिए काम करते हैं अगर वो उद्देश्य ही बदल जाए तो क्या आपका काम नहीं बदल जाएगा? बोलिए। श्री कृष्ण कह रहे हैं, “जो करना है कर, उद्देश्य मुझे बना ले।” ख़ूब कमाते हो, देखो कहाँ चढ़ा आते हो? चूँकि ग़लत जगह चढ़ा आते हो इसीलिए ग़लत तरीक़े से कमाते हो। तुम एक काम करो, जहाँ चढ़ाते हो वहाँ चढ़ाना बंद कर दो। तुम कह दो, ये मेरी सारी कमाई कृष्ण की हो गई, तुम्हारा जीवन बदल जाएगा बिलकुल।

बात समझ में आ रही है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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