कृष्ण न समझे तो जीवन व्यर्थ गँवाया || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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कृष्ण न समझे तो जीवन व्यर्थ गँवाया || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

एवं प्रवर्तितं चक्र नानुवर्तयतीह य: । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।।१६।।

इस प्रकार जो चक्र चल रहा है अर्जुन, जो इसको देखते ही, ऐसे ही इसका अनुसरण नहीं करता उसका जीवन इंद्रिय आसक्त होकर के वृथा जाता है।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, कर्मयोग, श्लोक १६

आचार्य प्रशांत: इस प्रकार जो चक्र चल रहा है अर्जुन, इस प्रकार जिस चक्र का प्रवर्तन हो रहा है, जो इस प्रकार चक्र प्रचलित है – कौनसा चक्र चल रहा है? यही प्रकृति का धर्म चक्र, यही जो पूरा यज्ञ चल रहा है – जो इसको देखते ही, ऐसे ही इसका अनुसरण नहीं करता, अनुवर्तन नहीं करता, जो नहीं समझता कि मुझे वैसे ही जीना है जैसे कृष्ण इस पूरे ब्रह्माण्ड को चला रहे हैं – तो जो ऐसे नहीं जीता, उसका जीवन इंद्रिय आसक्त होकर के वृथा जाता है। साथ ही कह रहे हैं वो पापी है, उसका जीवन वृथा जाता है।

सरल शब्दों में, ‘जो मुझ जैसा नहीं हो पाता अर्जुन, उसका जीवन पाप में जाता है और व्यर्थ जाता है।‘ मुझ जैसा होने का मतलब? ऐसा घोर निष्कामकर्मयोगी होना जो बस करे। कहाँ से करे? अपने बोध से करे, आनंद से करे। और बोध और आनंद कहाँ से मिले उसको? वो आत्मा का स्वभाव हैं, वो कहीं से पाए नहीं जाते। वो सदा, सर्वदा, सतत उपस्थित हैं।

'मैं ऐसा हूँ, अर्जुन! इस पूरे आस्तित्व का केंद्रीय तत्व मैं हूँ, अर्जुन।' ये पूरा जगत कौन चला रहा है? मेरा आनंद चला रहा है। जो इस बात को नहीं समझ पाता, उस पापी का जीवन व्यर्थ जाता है। ये पूरा जगत कैसे चल रहा है? बस यूँही मेरी मौज से चल रहा है, अकारण चल रहा है। जो इस बात को समझ गया वो कृष्णमय हो गया, वो कृष्ण में लीन हो गया, वो कृष्ण से अनन्य हो गया। बस उसी का जीवन सार्थक है, बस वही दुख से मुक्त है। और जो ये सबकुछ देखते हुए भी, जो चारों तरफ़ मेरी निष्कामता का और यज्ञ का प्रमाण देखते हुए भी कुछ सीख नहीं पाता मुझसे, वो पापी जन्म गँवाता है। समझ में आ रही है बात?

अब ये भी समझ गए कि क्या आशय होता है जब हम कहते हैं कि कण-कण में नारायण हैं? ये जो सब चारों ओर है, ये जिसका कर्म है वो अपने कर्म से अभिन्न है। आपमें और आपके कर्म में हमेशा एक भिन्नता रहती है। आप कुछ करते हो कुछ पाने के लिए, इसलिए आपमें और कर्म में एक दूरी रहती है। मैं 'मैं हूँ', मैं अभी ये कर रहा हूँ, क्योंकि इससे मुझे आशा है कि लाभ या सुख हो जाएगा। लेकिन मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, उससे मैं एक नहीं हूँ उसका प्रमाण क्या है? अगर मुझे अभी कोई आकर बता दे कि कुछ और करो, उससे लाभ हो जाएगा तो मैं कुछ और करने लग जाऊँगा। तो माने जो मैं पहले कर रहा था, उसमें और मुझमें एक भेद था, एक दूरी थी। थी न? तभी तो फिर मैं उस पुराने कर्म को अलग रख पाया, छोड़ पाया। और जैसे ही मुझे किसी ने आशा दी कि ये राह छोड़ दो, कोई दूसरा कर्म करो, उसमें ज़्यादा लाभ है, मैं उस तरफ़ को चल दिया।

तो आमतौर पर हम में – हम जो सकाम कर्ता हैं – और हमारे कर्म में हमेशा एक दूरी होती है। और ये दूरी बड़ी गड़बड़ दूरी होती है। कृष्ण इसी दूरी को पाटने की बात कर रहे हैं। वो कह रहे हैं, 'तुम ऐसे हो जाओ निष्काम’ – और निष्काम होने का अर्थ निर्विकल्प होना है – ‘कि कोई दूसरा कर्म तुम्हारे लिए सम्भव न रह जाए।' ये न रह जाए कि अभी मैं ये कर्म कर रहा हूँ, क्योंकि इससे लाभ की अपेक्षा है और जैसे ही विकल्प आया कि किसी दूसरे कर्म से लाभ होगा तो मैंने दूसरा काम शुरू कर दिया।

'नहीं! ऐसे अगर जी रहे हो तो तुम मुझसे कुछ सीख नहीं रहे। मुझे देखो, मैं निर्विकल्प हूँ। मैं निर्विकल्प हूँ इसीलिए मैं अपने कर्म से अनन्य हूँ।' मैं अपने कर्म से अनन्य हूँ तो माने यहाँ जो कुछ हो रहा है वही तो कृष्ण हैं। कर्ता और कर्म यदि एक हैं तो प्रकृति और कृष्ण? एक हैं। क्योंकि प्रकृति क्या है? कृष्ण का कर्म। प्रकृति क्या है? कृष्ण का निष्कामकर्म। और कर्ता और कर्म यदि एक हो जाते हैं निष्कामता में तो फिर प्रकृति ही क्या हो गई? कृष्ण हो गई। यही बात हुई कण-कण में नारायण। इसी से सीखना है, ऐसे ही हो जाना है।

इसीलिए प्रकृति के तत्वों का, चाहे कबीर साहब हों और चाहे लाओत्सू हों, बहुत उदाहरण लिया गया अध्यात्म में कुछ सिखाने के लिए। कभी हवा का, कभी पत्ते का।

“पत्ता बोला वृक्ष से सुनो वृक्ष बनराय, अब के बिछड़े न मिले दूर पड़ेंगे जाए।“

“वृक्ष बोला पात से सुन पत्ते मेरी बात, इस घर की ये रीत है इक आवत इक जात।“

~ कबीर साहब

अब ये वृक्षों की, पत्तों की बात क्यों हो रही है? लाओत्सू नदी की बात करते हैं, बहते पानी की बात करते हैं। कहते हैं, 'बहता पानी होता है, वो पत्थर से जीत जाता है।' सीख सकते हो यदि तो इसी से सीख पाओगे क्योंकि कृष्ण इसी में हैं। इसलिए मैं बार-बार अवलोकन पर ज़ोर देता हूँ। संसार को देखो और अपने जीवन को देखो, इसके अतिरिक्त कहीं नहीं है ज्ञान का स्रोत। यहीं से सब जान पाओगे, इसी से सीख पाओगे। क्योंकि कर्म में ही कौन बैठा है? कर्ता।

लेकिन उसका कर्म निष्काम है। उसके निष्कामकर्म को देख पाने के लिए तुम्हारी आँख भी निष्काम होनी चाहिए। तुम्हारी आँख जितनी निष्काम होती जाएगी उतना तुम्हें दिखता जाएगा कि ये कौन निष्काम खेल चला रहा है मेरे चारों ओर। ये कौन है, कौन-कौन? क्यों कर रहा है? इसमें तेरा क्या है? उसका कुछ भी नहीं है। बस है।

और वो जो हम कह चुके हैं, दोहरा रहा हूँ, वो जो सहज आस्तित्व है, उसके अतिरिक्त जो कुछ होता है, वही जीवन का बोझ होता है। सहज आस्तित्व के अलावा हमारे पास क्या होता है? जो नहीं है, उसकी कामना। जो है, वो तो है ही है, वो तो यथार्थ है। पर हमारे पास और भी कुछ होता है। जो है, वो तो है ही है, सामने है। पर हमारे पास कुछ और भी होता है, क्या होता है? जो नहीं है उसकी कल्पना। और हम उसको माँगते हैं, ये आ जाए, ये आ जाए – वही जीवन का बोझ है।

तुम्हारा कर्म भविष्य की कल्पना से नहीं, वर्तमान के यथार्थ से उठना चाहिए।

ये अंतर समझना! ये अंतर भोगवादियों को समझ में नहीं आता। वो कहते हैं, ‘पर अगर भविष्य की कल्पना नहीं करेंगे तो नया निर्माण कैसे करेंगे? पहले कल्पना करते हैं तभी तो हम कुछ नयी चीज़ों का अविष्कार-निर्माण इत्यादि करते हैं।‘ न! कृष्ण बहुत ज़ोर से हँसेंगे। वो कहेंगे, 'कुछ नया करने के लिए कल्पना थोड़े ही चाहिए, यथार्थ चाहिए। मुझे देखो, पगले! मैं तो लगातार इतना कुछ नया करता रहता हूँ। देखो, तितली में मैंने कितने रंग भर दिए। ये पुराने लग रहे हैं क्या? पुरानी प्रजातियाँ मिटाता रहता हूँ, नयी प्रजातियों का सृजन करता रहता हूँ। नए चाँद-तारे, ग्रह-उपग्रह, नयी-नयी आकाशगंगाएँ, समूचे नए ब्रह्माण्ड रचता रहता हूँ मैं, क्या कल्पना कर-करके? न, बस यूँही।' तो कल्पना नहीं चाहिए नवनिर्माण के लिए, निष्कामता चाहिए। और निष्कामता से जो निर्माण होता है उसमें एक अलग गुणवत्ता होती है, अलग मौज होती है।

ये बात विचार की पकड़ में नहीं आ रही होगी। कहेंगे, 'पर निष्कामता से निर्माण कैसे हो जाएगा? कैसे हो जाएगा?' होता है। विज्ञान में भी न जाने कितनी ऐसी बड़ी खोजें हैं जो किसी कामना से नहीं हुईं। उसके पास कामना नहीं है, उसको बस जानना है। कामना नहीं, जानना; तो जान लिया। हाँ, जान लिया तो उसके बाद में पीछे-पीछे और आ गए व्यापारी लोग, उन्होंने जो खोज थी उसका व्यवसायीकरण कर दिया, उसका बाज़ारीकरण कर दिया, वो अलग बात है। फिर उसको कह दिया अब ये टेक्नोलॉजी बनेगी नयी, वो अलग बात है।

हमें तो बस जानना है। वो सहज जानने से ये पूरा… जैसे किसी को बस आस्तित्व से प्रेम हो तो उसने पूरा आस्तित्व खड़ा कर रखा है। क्यों? बस प्रेम है। मिल क्या रहा है? कुछ नहीं, बस प्रेम है। तो हमारे चारों ओर, हमारे भीतर, ये क्या है सब? ये किसी का प्रेम प्रसंग है, हम किसी की प्रेम कथा के बीचों-बीच बैठे हुए हैं और हमारे पास कोई प्रेम नहीं। हम इस लायक भी नहीं हैं कि हम उसकी कथा के, उसके प्रेम प्रसंग के एक लायक पात्र भी बन पाएँ।

तुम कहाँ पर हो? तुम कृष्ण के रंगमंच पर हो, यहाँ एक प्रेम कथा खेली जा रही है और तुम वहाँ मंच पर खड़े हो और तुम्हें कुछ पता नहीं है। तुमने अपना किरदार ही यही बना लिया है कि एक विराट प्रेम कथा है जिसमें प्रेम ही प्रेम है चारों ओर, और बीच में एक भोंदू खड़ा है। जिसको न तो इस पूरी क्रीडा का, इस पूरे नाटक का मर्म पता है, न नाटककार का नाम पता है, न अपना पात्र पता है, न अपने संवाद पता हैं। वो कर क्या रहा है? वो पागल की तरह बस इधर-उधर दौड़ रहा है। पूरे मंच पर बस प्रेम-ही-प्रेम है और एक आदमी जो इधर-उधर दौड़ रहा है कि ‘मेरा दो रुपया कहाँ चला गया?’ ऐसी तो हमारी हालत है। देख पा रहे हो?

पूरे मंच पर – उस मंच का नाम है ब्रह्मण्ड, ब्रह्ममंच; वो ब्रह्ममंच है विराट, चाँद-तारे सब हैं उस मंच पर – और उस पूरे मंच पर बस प्रेम है, और कुछ नहीं। किसी अन्य अवसर पर मैं कह दूँगा उस पर बस बोध है, कभी कह दूँगा आनंद है, अभी कह रहा हूँ प्रेम। उस पर बस प्रेम है और बीच में एक नमूना खड़ा है, जिसको कुछ बूझ नहीं रहा, जो इधर-उधर देख रहा है। और पूछ रहा है, ‘इस ज़मीन के दाम कब बढ़ेंगे? गाँव वाली ज़मीन है, निकालनी है। दादा छोड़ गए थे, फिर पाँच भाइयों से मुक़दमा करके जीती है, ढाई एकड़ है।‘ और चारों तरफ़ क्या चल रहा है? रास, प्रेम। और ये पता कर रहे हैं कि गाँव वाली ज़मीन कहाँ से, कैसे निकाली जाए! ये हमारी हालत है।

इसी हालत के लिए कृष्ण कह रहे हैं, ‘जो समझ ही नहीं पाता कि मैं कौन हूँ और जो मेरा अनुवर्तन ही नहीं कर पाता, वो पापी जीवन व्यर्थ गँवाता है।‘ ब्रह्ममंच पर होता है फिर भी बिलख-बिलख कर मर जाता है। कोई पल होता है जब कृष्ण ठीक आपके सामने न हों? सामने क्या, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, भीतर-बाहर हर जगह न हों? कोई पल होता है? और वो हँस रहे हैं, वो कह रहे हैं, 'इसको पता ही नहीं है ये ब्रह्ममंच पर है। इसको पता ही नहीं है ये प्रेममंच, बोधमंच, आनंदमंच पर है। इसको कुछ नहीं पता, ये पगलु है।'

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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