प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। सर, कभी-कभी सत्संग में जाने में रुकावट आती है, कभी-कभी नहीं। जाने लोग कैसे होंगे, इस तरह के बहुत सारे विचार आते हैं। तो उसे कैसे दूर किया जाए जिससे नियमित रूप से सत्संग में जा सकूँ?
आचार्य प्रशांत: सत्संग में आप गोष्ठी करने थोड़े ही जाते हैं, लोग कैसे भी हों क्या फ़र्क पड़ता है? सत्संग में आप सत् की संगत करने जाते हैं न, या लोगों की? सत्संग में आप किसके सम्मुख होते हैं — लोगों के? आपमें से अभी कितने लोग लोगों के सम्मुख हैं? सम्मुख, आपके मुख के सामने अभी क्या है सबके? ये है न सत्य का आसन! या आप ये देख रहे हैं कि अड़ोसी-पड़ोसी क्या कर रहे हैं?
और अड़ोसी-पडोसी बहुत अच्छे भी हों — इस अर्थ में कि आपसे सहानुभूति दिखा रहे हैं, सुसंस्कारित हैं, व्यवहार कुशल हैं — लेकिन गुरु गद्दी खाली हो या गद्दी पर जो शरीर बैठा हो, वो सत्य का वाहक ही न हो, तो क्या सत्संग हुआ?
ये बड़ी भूल हो जाती है। हम गुरु के पास भी जाते हैं तो ये बिलकुल भूल जाते हैं कि कहाँ आये हैं और क्यों आये हैं। हम सत्य के पास भी जाते हैं तो वहाँ संसार बसा लेते हैं।
चार दिन का हो कुल शिविर, लेकिन हम वहाँ भी एक समाज की स्थापना कर लेते हैं। हम भूल ही जाते हैं कि समाज से तो दूर आये थे यहाँ हम सत्य के पास, सब महफ़िलों को छोड़कर आये थे हम इस सभा में, और यहाँ हमने एक नयी महफ़िल सजा ली। ऐसा होता है न?
कई दफ़े तो ये भी होता है कि जो लोग आते हैं, कुछ काल उपरांत वो सत्य से कट जाते हैं, संस्था से भी संपर्क छोड़ देते हैं, पर आपस में उनका याराना ख़ूब बढ़ जाता है और वो बना चलता है लंबा। क्यों देखना इधर-उधर!
ऐसा वाक़ई हो चुका है। साल-डेढ़-साल पहले, पहाड़ों पर ही एक शिविर हुआ था, इन्होंने (स्वयंसेवक) ही आयोजित करा था। चार दिन का शिविर था, तीसरे दिन एक सज्जन और एक देवीजी गायब हो गये। स्मरण है? आये थे वो गुरुदेव के पास, पर तीन दिन में ही आपस में ऐसा रसायनशास्त्र बैठाया कि तीसरे दिन पूछा गया, ‘दोनों हैं कहाँ?’
हमारा बस चले तो मंदिर में भी चूल्हा-चौका करने लगें। ‘लाओ रे! पूड़ी तलो।’ ख़ूब होता है, संस्था में लोग आते हैं, जब आते हैं तो कहते हैं, ‘आचार्य जी, आपके पास आये हैं।’ और कुछ दिनों में आचार्य जी पीछे हो जाते हैं और इधर-उधर के दूसरे ही लोग, संस्था के ही दूसरे लोग, वो आगे हो जाते हैं। मैं देखता हूँ न।
और दूसरों से सम्बन्धित हम सिर्फ़ इस तरह से नहीं होते कि उनसे टाँका जोड़ लिया, दूसरों के बारे में अगर हम शिक़ायत करते हुए भी बहुत गंभीर हो गये, तो हमारे मन पर कौन छा गया? दूसरे ही छा गये न? संस्था में किसके लिए आये थे? आचार्यजी के लिए, और अगर शिकायतें बहुत ज़ोर-ज़ोर से औरों की कर रहे हो तो तुम्हारे मन पर कौन छा गया? वो दूसरे इतना भी महत्व रखते हैं क्या? कि तुम इनकी इतनी ज़ोर से शिकायत करो? बोलो!
तुम मेरे लिए आये हो या उन दूसरों के लिए आये हो? और वो दूसरे ही तुम्हें यदि इतने प्रिय हैं तो उन दूसरों जैसे तो दुनिया में बाहर बहुत घूम रहे हैं। मेरे पास क्यों आये?
कोई दूसरों के साथ भाग जाता है, कोई दूसरों से त्रस्त होकर भाग जाता है, पर दोनों ही स्थितियों में तुमने मन के केंद्र पर किसको बैठा दिया? दूसरों को बैठा दिया न? ये क्या कर दिया? याद रखो, कौन केंद्र पर है और किसकी उपेक्षा करनी है। जिसको उपेक्षा करना नहीं आता, साधना क्या करेगा वो जी ही नहीं सकता ठीक से।
इतना कुछ है जीवन में जो दिन-प्रतिदिन तुम तक पहुँचता है अनुभव बनकर, तुम हर चीज़ को अगर महत्व देने लग गये तो जियोगे कैसे? ये बताओ, कैसे जियोगे? इसने ये बोल दिया, उसने ये कर दिया, मेज़ पर मक्खी बैठी है, वहाँ कोई फ्लश चला रहा है, हर छोटी-छोटी चीज़ अगर हमारे लिए इतनी वज़नदार होने लगी, तो हम तो इन सब वजनों के बोझ तले ही पिस जाएँगे, मर जाएँगे। मर जाएँगे न!
तो हमें क्या करनी है — उपेक्षा। उपेक्षा सीखो, बिना उपेक्षा के नहीं जी पाओगे। एक के प्रति श्रद्धा, अन्य की पूर्ण उपेक्षा। लेना-देना क्या है! तुम हो कौन? मंज़िल की तरफ़ हम जा रहे थे, रास्ते में कुछ हमसफ़र मिल गये, वो आज हैं कल नहीं।
ट्रेन पर बैठकर जा रहे हो, लंबी दूरी की यात्रा है कश्मीर से कन्याकुमारी, हिमसागर, तीन दिन लगेंगे, अब मिल गये रास्ते में कुछ हमराही, तुम्हारे ही डब्बे में बैठे हैं, उनको ब्याह लोगे क्या? ट्रेन में ही घर बना लोगे क्या? या रास्ते में कुछ मिल गये ऐसे जिनसे बात नहीं बन रही, जो सुहा नहीं रहे, तो ट्रेन में ही लड़-भिड़ के खून-खच्चर करके ख़त्म हो जाना है?
मंज़िल को बिलकुल भूल गये? वहाँ तक पहुँचना ही नहीं है क्या? पर हम ऐसे ही हैं। ट्रेन चलती है कश्मीर से और दिल्ली आते-आते दो-चार जने उतर जाते हैं, वो अपना अलग घर बसा लेते हैं। वो कहते हैं, ‘ट्रेन जहाँ जा रही हो, जाए, हमारा ठिकाना अब अलग है।’ लंबी दूरी की ट्रेनों में ख़ासतौर पर ऐसा होता है।
और अध्यात्म तो बहुत ही लम्बी दूरी की ट्रेन है। पिलग्रिमेज एक्सप्रेस हनीमून एक्सप्रेस बन जाती है।
सिर्फ़ एक बात का ख़याल रखिए — जिनको सुनने जा रहे हैं क्या वो सुनने क़ाबिल हैं? जहाँ भी आप जाया करते हैं, सिर्फ़ ये एक प्रश्न पूछा करिए, ठीक है, ‘जिनके पास आया हूँ उनसे स्पष्टता मिल रही है क्या? उनके वचनों में कुछ ऐसा है कि शांति मिले, जीवन के प्रति साफ़ दृष्टि मिले? उनको सुनकर के ज़िंदगी में हल्कापन आया है? सफ़ाई आयी है? निर्भीकता आयी है?’
अगर ये सब मिल रहा है, तो जाते रहिए। ये सब नहीं मिल रहा है तो कोई आवश्यकता नहीं है समय ख़राब करने की। ठीक है?
कहीं आप जाएँ, वहाँ बैठने के लिए आपको बड़ा मोटा गद्दा मिलता हो, और जितनी बार आप जाते हों तो शरबत, समोसा, कचौरी भी मिलता हो, तो वो जगह जाने योग्य हो गयी बहुत?
और न जाने कितने उच्चतम दर्जे के ज्ञानी, योगी हुए हैं, जो भाव ही नहीं देते थे कि उन्हें कौन सुनने आ रहा है कौन नहीं। वो कहीं एक अपने छोटे कमरे में बैठे होते थे, कहीं गुफा में घुसे होते थे, कभी पेड़ के नीचे पाये जाते थे। और तुम उनसे बात करने जा रहे हो, हवा भी गर्म बह रही है, बैठने में भी असुविधा हो रही है, तो तुम इन सब बातों का ख़याल करोगे क्या?
तुम एयर कंडीशनर के लिए जाते हो क्या गुरु के पास? खस्ता कचोरी के लिए जाते हो? तो इन सब बातों पर बहुत ध्यान क्या देना कि मोटा गद्दा मिला बैठने को कि नहीं; सत्संग हॉल में एसी चल रहा था कि नहीं चल रहा था; और व्यवस्था कैसी थी; और स्वयंसेवक लोग विनम्रतापूर्वक बात कर रहे थे कि नहीं। अरे! मिल गया तो अच्छी बात, नहीं मिला तो कोई बात नहीं है। जिनको सुनने गये हो उनमें ही खोट है तो सब बेकार!
जब भी कभी सच की तरफ़ बढ़ें आप लोग, तो ये एक प्रश्न दिन में दस दफ़ा अपनेआप से पूछें — वहीं जा रहा हूँ जहाँ जाना था या चलते-चलते कहीं और को मुड़ गया? मंदिर जाएँ तो सदा अपनेआप से पूछते रहे — यहाँ मैं किसके लिए आया हूँ? क्योंकि वहाँ बड़ी भीड़ जमा होगी, विचलन का ख़तरा रहता है। बड़ा मंदिर है तो आस-पास बड़ी दुकानें भी होंगी, हो-हल्ला होगा, खेल-तमाशे भी चल रहे होंगे, भ्रमित हो जाने की बड़ी संभावना रहती है।
तो बार-बार पूछते रहो, ‘यहाँ मैं आया किसके लिए हूँ? ये पुजारी कब से इतना महत्वपूर्ण हो गया? ये घंटा-घड़ियाल क्या केंद्रीय महत्व के हो गये? लड्डू-बर्फी वाले ने मेरा दस रुपया नहीं लौटाया, क्या यही सोचता रहूँ? नब्बे की मिठाई ली थी, सौ का नोट दिया था, दस रुपया उसने लौटाया नहीं, अब क्या यही ख़याल करता रहूँ? मैं लड्डू के लिए आया था? मैं बर्फी के लिए आया था? मैं दस रुपये के लिए आया था? क्या मैं इसलिए आया था यहाँ?’
उसको याद रखो जिसके लिए आये थे। और उसके नाम के साथ किसी और का नाम मत ले लेना। ये भी मत कह देना, ‘भगवान जी और पुजारी जी को धन्यवाद!’ ये तुमने क्या कर डाला? तुमने दोनों को एक ही तल पर रख दिया। अब तो तुम बहकोगे। ये वाक्य ही बता रहा है कि तुम्हें पता ही नहीं कि केंद्रीय कौन है।
सत्य असंग होता है, उसके नाम के साथ ‘और’ नहीं लिखा जाता। जो गद्दी उसको दे दी, उस गद्दी पर किसी और को नहीं बैठाते। उसके बगल में, उसके बराबर की कोई और गद्दी खड़ी भी नहीं कर सकते। ये भी नहीं कह सकते कि भगवान जी और पुजारी जी और नत्थूलाल जी, मेरे लिए तो तीनों पूजनीय हैं, मुझे तो तीनों से प्रेम है।
सत्य क्या होता है — असंग, अतुल्य। अतुल्य माने जिसके बराबर का कोई नहीं; जिसकी तुमने किसी से तुलना कर दी तो सब बर्बाद कर दिया। उसके जैसा तुम्हें कोई पहले मिला नहीं होगा। और अप्रत्याशित होता है; वो जैसा तुमको मिला है वैसा तुमने अनुमान नहीं लगाया होगा। और अकिंचन होता है। तुम किन लफ़ड़ों में फँस जाते हो भाई?
हममें से ज़्यादातर ऐसे होते हैं कि भगवान हों और मंदिर हो तो हम मंदिर को चुन लेंगे। भगवान खड़े हों और इधर मंदिर हो, और चुनाव करना हो तो हम भगवान को छोड़कर मंदिर को चुन लेंगे। अरे! मंदिर में बड़ी व्यवस्था है, बड़ी जगमग है, बड़ी चहल-पहल है; बड़ा आयोजन है, बड़ा नाम है मंदिर का और दिखायी पड़ता है, स्थूल है, छुआ जा सकता है, लाभ है; बड़ी मूर्तियाँ हैं वहाँ, बड़ा यशोगान है।
ऐसा कोई बिरला ही होता है जो देखे भगवान को मंदिर छोड़कर जाते हुए तो पल में मंदिर को लात मार दे, बोले, ‘इस मंदिर में रखा क्या है!’ क्योंकि मंदिर का त्याग करने के लिए भगवान से सर्वप्रथम प्रेम होना चाहिए। एकनिष्ठ रहो, वो चाहिए (ऊपर की ओर इशारा करते हैं), बाक़ी सब गोरख धंधा है।
ये गोरख धंधा उसकी ओर जाने में मदद करे, भली बात; सिर्फ़ यही उपयोगिता हो सकती है इसकी कि ये मुझे उसकी ओर ले जाने में मदद दे दे। अन्यथा ये दो कौड़ी का नहीं, मुझे फिर के झाँकना नहीं इसकी ओर।