प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जीवन में सही निर्णय कैसे लें?
आचार्य प्रशांत: सही निर्णय लेने की ज़रूरत तब पड़ती है न जब सामने कोई समस्या हो। निर्णय शब्द ही प्रासंगिक मात्र तब है जब कोई ऐसी स्थिति दिखायी दे जिसमें निर्णय शब्द उपयोगी हो जाए। आप अभी सवाल पूछ रहे हैं, मेरे लिए निर्णय शब्द अप्रासंगिक है, मुझे नहीं सोचना पड़ रहा मुझे क्या करना है। निर्णय शब्द की ही उपयोगिता कब है? जब ज़िन्दगी एक चुनौती की तरह लगे, जब ज़िन्दगी एक समस्या की तरह लगे। अगर आपका सवाल एक समस्या लगता मुझे तो मुझे निर्णय करना पड़ता कि मैं क्या जवाब दूँ। समझ रहे हैं?
निर्णय लेने की ज़रूरत क्यों आ जाती है? ज़िन्दगी समस्याओं से क्यों भरी हुई है? कुछ भी एक दुश्वारी की तरह क्यों लगता है? कुछ सामने आया, जैसे वह सामने आया वैसे आपका उत्तर भी सामने आ गया। जैसे ज़िन्दगी में कोई स्थिति सामने आयी, वैसे ही उस स्थिति को आपका प्रतिवाद सामने आ गया, द हैपेनिंग एंड द रेस्पोंस कम टूगेदर (घटना और प्रतिक्रिया साथ आते हैं)।
निर्णय सही-ग़लत नहीं होते। निर्णय जब भी होंगे, तो समझ लीजिए ग़लती पहले ही हो गयी। ग़लती क्या हो गयी? कि निर्णय लेने की नौबत आ गयी। निर्णय लेने की नौबत ही नहीं आनी चाहिए। मामला ऐसे (चुटकी बजाते हुए) चलना चाहिए। विचारना क्या, फ़ैसला क्या करना? पता है। फ़ैसला तो तब करें जब हमें विकल्प दिखायी देते हों कि इस विकल्प को चुनें, इस विकल्प को चुनें कि क्या चुनें। हमें विकल्प दिखायी ही नहीं देते। हमें पता है, सीधा है रास्ता, अब चुनना क्या है।
सत्य एक होता है, तो वैकल्पिक रास्ते आपके पास कहाँ से आ जाते हैं? मैं पूछ रहा हूँ, जब सत्य एक है तो आपके पास कई रास्ते कहाँ से आ जाते हैं कि आप फिर फँसकर कहते हैं कि मुझे चुनाव करना है इन रास्तों में से किस राह चलूँ। अगर कई रास्ते आ जाते हैं और सत्य एक ही है तो निश्चित रूप से आपके सामने ये जितने रास्ते हैं वो सब क्या हैं? क्या हैं?
प्र: सत्य हैं।
आचार्य: झूठ हैं न?
प्र: झूठ हैं।
आचार्य: अब आप पूछ रहे हो उनमें से सही का निर्णय कैसे करें। पहले मुझे यह बताओ ये आये कहाँ से। और अगर आप ऐसे हो कि आपके सामने ये सारे रास्ते, ये सारे विकल्प खुल जाते हैं तो क्या आप इस स्थिति में हो कि सही निर्णय कर सकोगे? जिसके सामने विकल्प खुल रहे हैं, अब वह कोई भी निर्णय करे, वह ग़लत ही होगा।
सही विकल्प सिर्फ़ वह चुन सकता है जिसके सामने कोई विकल्प ही नहीं है। फँस गये अब! सही विकल्प सिर्फ़ वह चुन सकता है जो निर्विकल्प हो जाए, जो मजबूर हो जाए, जो सच के सामने घुटने टेक दे। वह कहे कि और कुछ अब करें कैसे, जो तेरी मर्ज़ी है वही होगा। हम अपनी चलाएँगे नहीं, और कुछ अब करें कैसे? जो रास्ता तेरी ओर जाता है, जो रास्ता तुझसे अनुप्रेरित है उसी राह चलेंगे, बाक़ी रास्ते चल कैसे दें? वह बाक़ी रास्तों की ओर देखेगा ही नहीं। उसके लिए बाक़ी रास्ते अदृश्य हो जाएँगे, महत्वहीन हो जाएँगे। तुम्हें ये इधर-उधर के दस रास्ते दिखायी क्यों देते हैं, यह बताओ। तुम्हारे ख़यालों में कई-कई विकल्प क्यों आते रहते हैं, यह कर लूँ, घर चला जाऊँ, यह चुन लूँ, क्यों आते रहते हैं? निश्चित रूप से ये सारे विकल्प क्या हैं? कहिए, क्या हैं?
प्र: झूठ हैं।
आचार्य: अपने मुँह से बोलिए। इस बोलने की बड़ी क़ीमत है।
प्र: झूठ हैं।
आचार्य: झूठ हैं। अब एक बार तुमने अपने लिए इतना झूठ पैदा कर लिया, फिर कहते हो अब इस झूठ में सच कैसे तलाशें। झूठ में सच कैसे तलाशोगे? वह तो झूठ है। निर्विकल्प होना और समस्या-हीन होना दोनों एक बात हैं। ऐसा नहीं है कि साफ़ मन को समस्याएँ आतीं नहीं, पर उसके लिए समस्या, समस्या नहीं रहती क्योंकि समस्या, समस्या मात्र तब बनती है जब आप न जानते हो कि इस स्थिति में आपको क्या करना है।
ग़ौर से समझिएगा इस बात को। स्थिति कितनी भी जटिल या विषम हो, अगर आप साफ़-साफ़ जानते हो कि आपका धर्म क्या है, तो अब स्थिति में चुनौतीपूर्ण क्या रह गया? और स्थिति कितनी भी छोटी हो पर आप फँस गये, आपको नहीं समझ में आ रहा आपको क्या करना है, तो वही स्थिति बहुत बड़ी उलझन बन गयी।
छोटी सी बात हो सकती है, आपको कही जाने के लिए मोज़े पहनने हैं और आपके पास छ: जोड़ी मोज़े हैं और आपको नहीं समझ आ रहा क्या पहनें। आधा घंटा बीत चुका है, कृष्णा जी नीचे इन्तज़ार कर रहे हैं और मोज़ों का चुनाव नहीं हो पा रहा है। विकल्प-ही-विकल्प खुले हुए हैं। अब तुम कहो कि इनमें से सही मोज़ा कौनसा है। पहले तुम यह बताओ मोज़ा इतनी बड़ी बात बन कैसे गया। मैं यह नहीं बताऊँगा इनमें से सही मोज़ा कौनसा है। तुम मुझे पहले बताओ मोज़ा तुम्हारे लिए इतनी बड़ी बात कैसे बन गया। अब एक बार मोज़ा तुम्हारे लिए बड़ी बात बन गया, अब कोई सही निर्णय नहीं हो सकता क्योंकि तुम पहले ही ग़लत हो चुके हो। तुम कोई भी मोज़ा पहन लो, तुमने ग़लती कर दी। और ग़लती मोज़े के तल पर नहीं करी है, ग़लती तुमने होने के तल पर कर दी है। तुमने एक ऐसी चीज़ को क़ीमत दे दी है जिसकी क़ीमत है ही नहीं। अब कोई मोज़ा पहनो, क्या फ़र्क पड़ता है। कोई चुनाव करो, क्या फ़र्क पड़ता है, ग़लती हो गयी। आ रही है बात समझ में?
समस्याएँ क्यों हैं? क्यों ऐसा हो जाता है कि जीवन गला पकड़ लेता है, जीवन अवाक कर देता है? क्यों ऐसा हो जाता है कि हमें समझ में ही नहीं आता कि क्या करें? क़दम ठिठक जाते हैं, साँस फूल जाती है हक्के-बक्के रह जाते हैं। जवाब दीजिए न।
अस्तित्व में जो कुछ है, वह जानता है कि उसका क्या धर्म है। उसके सामने कभी विवशता की, किंकर्तव्यविमूढ़ता, असमंजसता की स्थिति नहीं आती। कभी किसी फूल को असमंजस में देखा है खिलूँ कि न खिलूँ? जवाब दो!
प्र: नहीं।
आचार्य: तो तुम क्यों हमेशा फँसे रहते हो ऊहापोह में, 'खिलूँ कि न खिलूँ'? तुम्हें क्यों नहीं साफ़-साफ़ पता है कि तुम्हारा जीवन है और उसमें तुम्हें इस पल किधर को जाना है? तुम्हें क्यों नहीं पता? तुम्हें इसलिए नहीं पता क्योंकि तुम झूठ से घिरे हुए हो, क्योंकि तुम्हारे मन पर लालच छाया हुआ है, तुम्हारे मन पर दस तरह के प्रभाव छाये हुए हैं। तुम्हें एक नहीं, सौ रास्ते दिखायी दे रहे हैं। तुम उस शराबी की तरह हो जिसके सामने एक उँगली करो तो उसे कितनी दिखती है?
प्र: दस।
आचार्य: दस। और जो उँगलियाँ हैं ही नहीं, तुम उनको पकड़कर उनके सहारे चलना चाहते हो। तुम कह रहे हो, तू अपनी उँगली दे, तेरे सहारे चलूँगा। कौनसी उँगली? जो है ही नहीं।
किसी बहुत छोटे बच्चे को भी कभी तुम कन्फ्यूज्ड नहीं पाओगे, दुविधा में। विचारकों को कन्फ्यूज्ड पाओगे। एक ज़रा सा बच्चा है, इसे ज्ञान नहीं है लेकिन फिर भी उसे पता है। पता होने के लिए ज्ञान ज़रूरी नहीं होता। बहुत अन्तर है। बिना ज्ञान के जो तुम्हें पता होता है वह बहुत क़ीमती है। और तुम्हारा ज्ञान तुम्हें उलझनों के अलावा क्या दे गया है? ज्ञान के कारण तुम विकल्पों से भर गये हो, ज्ञान के कारण तुम सूचना से भर गये हो, असमंजस से भर गये हो।
मैं फिर पूछ रहा हूँ, तुम्हें क्यों नहीं पता। तुम क्यों ठगे-ठगे, फँसे-फँसे नज़र आते हो? तुम्हारे सामने कोई भी स्थिति आती है, तुम्हें क्यों सलाह चाहिए? तुम्हें क्यों विशेषज्ञों की राय चाहिए? तुम क्यों नहीं तुरन्त कह पाते कि अरे यह तो ऐसा है, हम जानते हैं? 'कैसे जानते हैं?' 'वह नहीं हम जानते, और न हम जानने की कोशिश करेंगे। वह दुस्साहस हो जाएगा। हम बस जानते हैं।' कोई बहुत हठ करें कि कैसे पता, तो कह दो मालिक ने बताया। (एक श्रोता को इंगित करते हुए) यही कह दो देवा जी ने लिखा है। ईमानदारी से बताइएगा, सुबह किसने-किसने कपड़े चुने थे?
प्र: कल ही चुन लिये थे।
आचार्य: बिना चुने तो आप यह कॉम्बिनेशन (मेल) नहीं बनायी होंगी। कपड़े कल ही चुन लिये थे न? यह देखो। अब यहाँ आना ही समस्या है, कल से ही जोड़ा बनाकर रख दिया। अब ये समस्या है। फिर कहती हैं, 'हम तो जस्ट लाइक दैट (बस ऐसे ही) पहुँच जाते हैं, अनायास। अनायास ही यह स्वेटर और यह साड़ी बिलकुल जोड़े में हैं, अनायास। बस यूँही हमने हाथ रखा और जोड़ा हाथ में आया। हमने थोड़े ही कोई मेल बैठाया, अपनेआप हुआ जी।'
प्र: सर, ये जो समस्याएँ आती हैं। अगर आए तो जैसा आप बोल रहे हैं जस्ट लाइक दैट। सर, ये सोसाइटी (समाज) से इन्फ्लुएंस (प्रभावित) होकर ही तो आ रहे हैं सारे? इसी वजह से तो हो रही हैं चीज़ें सारी?
आचार्य: यह बात तब कहो न जब उस इन्फ्लुएंस से टक्कर लेने को तैयार हो। इन्फ्लुएंस्ड होकर बार-बार कहना कि यह तो इन्फ्लुएंस है, क्या फ़ायदा? जीवन को देखो। आख़िरी कसौटी जीवन है, बार-बार कहता हूँ। शब्द नहीं, भाषण नहीं, दावे नहीं। जो करने जा रहे हो, जो करे बैठे हो, वो सबकुछ बाहरी प्रभावों का नतीजा है। अपने जीवन को देखो, अपने इरादों को देखो, किधर को जा रहे हो? और फिर कहते हो, 'ये तो सब जी इन्फ्लुएंसेस हैं।' अच्छी बात है!
यह ऐसी ही बात है कि ये सब तो कीचड़ है, और उसी को खाये भी जा रहे हो, 'ला-ला अभी थोड़ा और।' एक तरफ़ कहते हो क्या देखूँ, बदबू उठ रही है और उसी को खाये भी जा रहे हो। पहले उसे खाना बन्द करो। खाये भी जा रहे हो, आगे के लिए भी पक्का कर रखा है यही खाऊँगा, बल्कि और खाऊँगा, 'अभी थाली में खाता था, आगे परात में खाऊँगा। प्रगति होगी न! बड़ी जगह पहुँचूँगा, बड़ी परात के इरादे हैं। कटोरी हटाओ, भगोना लाओ, कड़ाह। अब एक-एक निवाला बहुत हुआ, अब हम गोता मारेंगे।' (श्रोतागण हँसते हैं)
क्या इरादे हैं? गोता मारने की तैयारी पूरी है। जैसे वह होता है न स्विमिंग पूल के ऊपर कूदने का, डाइविंग बोर्ड। वहाँ पर खड़े हुए हो, ऐसे-ऐसे (ऊपर-नीचे) कर रहे हो, बस अब कुछ पलों की बात है, सीधा गोता मारने वाले हो। और कहते हो, 'ये तो इन्फ्लुएंसेस हैं।'