प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मैं इसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती, लेकिन आपके सभी वीडियोज़ , सभी शिक्षाएँ मेरे लिए बहुत मूल्यवान रहे हैं। आज के लिए मेरा ये प्रश्न है कि आपने कहा कि जिसका अनुभव तुम कर लेते हो, फिर तुम उसको बार-बार अनुभव करना चाहते हो, उसको ‘तृष्णा’ बोलते हैं, और होता क्या है कि प्यास बुझती नहीं है, लेकिन हम बार-बार वो ही अनुभव करना चाहते हैं। तो मैं ये समझने की कोशिश कर रही हूँ कि हम उस चक्र से कैसे निकलें।
हमको एक बार पता भी चल जाता है कि उससे हमको तृप्ति नहीं मिल रही है या हमारी प्यास नहीं बुझ रही है, फिर भी हम वही चीज़ों के पीछे बार-बार भागते रहते हैं। तो मेरी समझ ये है कि हम बार-बार वही गड्ढे में गिरते हैं, आपने एक बार बोला था किसी वीडियो में। तो मैं सबसे पहले समझना चाहती हूँ कि तृष्णा क्या है, कहाँ से आती है, और हम इस चक्र से कैसे बाहर निकलें।
आचार्य प्रशांत: जो आपका एक्सपीरियन्स (अनुभव) है न, उसी में सजग रहकर, बाय बींग लेस इंगेज्ड एंड मोर वॉचफ़ुल (कम लिप्त और अधिक सतर्क रहकर)।
अनुभव तो हो ही रहा है। जब अनुभव हो रहा है न, तो उसी अनुभव का ज्ञान ही अनुभव से मुक्त कराता है। बुद्ध भी यही कह रहे हैं, कि अज्ञान ही सारे दुखों का कारण है। और किसका ज्ञान लोगे! अनुभव अगर बन्धन में डालता है ― वेदना पहले आती है न, फिर तृष्णा आती है, है न? और वेदना माने? ‘मैं अनुभव को अपने लिए अर्थ देने लग गया हूँ’ ― इसको कहते हैं ‘वेदना’। तो वेदना ही जब तृष्णा में डालती है, तो वेदना के प्रति सजग होना होता है।
जब अनुभव हो रहा हो, उसको उसी क्षण जान लो कि ये क्या हो रहा है। और वो तब होता है जब अनुभव को इतना बड़ा अर्थ न दो कि अनुभव में बह ही जाओ, या कि अनुभव को ऐसी पक्की मान्यता दे दी कि ये ज़रूरत ही न बचे कि इसकी जाँच-पड़ताल भी तो करनी है, इसको जानना भी तो है।
‘हमें तो पहले ही पता है क्या हो रहा है।’
अगर पहले ही पता है, तो फिर अनुभव के क्षण में बेहोश हो जाओगे, जो हो रहा है उसके क्षण में बेहोश हो जाओगे। जो हो रहा है उसको नाम मत दो, ये आत्मविश्वास मत रखो कि जो हो रहा है उसको जानते हो पहले से। जो कुछ भी हो रहा है उसको ऐसे देखो जैसे आपके साथ पहली बार हो रहा है, इस अर्थ में कि जैसे आप उसके प्रति अनभिज्ञ हो, आपको उसका कुछ पता नहीं है; जैसे कि आप किसी दूसरे ग्रह से उतरे हो अभी-अभी, और आपके साथ वो होने लग गया या आपने कुछ देख लिया।
एक बार हुआ, मैं कहीं पर बैठा हुआ हूँ रेस्त्रां में, और जहाँ मैं बैठा हूँ वहीं पर शीशे के बाहर ― मैं बैठा हूँ जहाँ कोने में, वहाँ शीशा है, समझ लो जैसे शीशे की दीवार है ― और उधर बाहर वहाँ पर कोई कार्यक्रम चल रहा है, दावत चल रही है, महँगी शादी।
मैं बैठा हूँ, मेरे सामने संस्था के एक जन बैठे हुए हैं, और जो कुछ भी हो रहा है वो बिलकुल एकदम हमसे सटकर हो रहा है, क्योंकि हमारे बीच में और उनके बीच में सिर्फ़ एक शीशा है। और ऐसे रास्ता है शीशे से सटा हुआ, हम बैठे हैं और ऐसे रास्ता है, तो लोग उसमें आ-जा रहे हैं। सूट पहने हुए और पगड़ियाँ डाले हुए पुरुष हैं, वो पगड़ियाँ जो कि पीछे से उनके घुटनों तक आ रही हैं, लम्बे-लम्बे घाँघरे पहनी हुई महिलाएँ हैं हर उम्र की। और सारा कार्यक्रम चल रहा है, लोग आ-जा रहे हैं और उनके चेहरों के भाव हैं, लिपे-पुते चेहरे हैं।
अगर हमें पहले से ही पता है कि ये क्या हो रहा है, तो ये सबकुछ हमको अजीब लगेगा ही नहीं, क्योंकि हम कहेंगे, ‘ये सब तो एक बहुत सुपरिचित पटकथा का हिस्सा है न, इसमें विचित्र क्या है?’ हम कहेंगे, ‘इसमें कुछ भी विचित्र नहीं है,’ और हम कॉफ़ी ऐसे पीते रहेंगे जैसे कुछ अजीब हुआ ही नहीं, जैसे जो कुछ हो रहा है वो बिलकुल सामान्य है।
लेकिन अगर एक थोड़े अज्ञानी की तरह ― ‘अज्ञानी’ मैं इस अर्थ में कह रहा हूँ कि जिसके दिमाग में ज्ञान वाला कूड़ा नहीं भरा है, जो ये नहीं मानकर बैठा कि वो जानता ही है ― एक अज्ञानी की तरह, या एक अबोध बच्चे की तरह, या किसी दूरस्थ ग्रह से आये किसी अपरिचित की तरह इस घटना को देखो, तो अनुभव का ज्ञान हो पाएगा, नहीं तो भारी विडम्बना रह जाएगी।
प्रतिपल जीवन का अनुभव का ही पल है, और अनुभव में ही ज्ञान समाहित होता है, अनुभव के अलावा ज्ञान का स्रोत कुछ है नहीं। किताब भी आप पढ़ते हो तो वो भी एक प्रकार का अनुभव है, कहीं आप संवाद में बैठते हो, किसी को सुनते भी हो, तो वो भी अनुभव है। हमारा तो जो भी ज्ञान आता है, इन्द्रियों से ही आता है, माने अनुभव से ही आता है। आप अभी भी मुझे सुन रहे हो, तो ये अनुभव है एक। तो अनुभव के अलावा ज्ञान का कोई स्रोत नहीं है, लेकिन अनुभव के प्रति आपकी मान्यता अगर ज्ञान की है — ‘ज्ञान’ की है माने ‘मैं पहले से जानती हूँ, मुझे तो पता है ये क्या हो रहा है’ — तो आपको कुछ भी पता नहीं चलेगा।
लेकिन अगर आप अनाड़ी होकर के देखें, तो आप हक्के-बक्के रह जाएँगे। आप पूछेंगे, ‘ये हो क्या रहा है, और ये क्यों हो रहा है, और ये कितना बदरंगा है, और कितना ये विकृत है सबकुछ! ये तो छोड़ दो कि इसमें किसी किस्म की समझदारी है, इसमें तो मुझे बहुत गहरी हिंसा दिखाई दे रही है।’
अभ्यस्त होना आश्वस्त न कर जाए! ये दोनों एक साथ नहीं चलने चाहिए — सिर्फ़ इसलिए कि आप अभ्यस्त हैं, आश्वस्त न हो जाएँ आप। आप अगर इतिहास को पढ़ेंगे — इस मामले में इतिहास का ज्ञान, माने जो अविद्या है, सांसारिक ज्ञान, वो काम आता है — आप पढ़ेंगे तो आप पाएँगे, लम्बे-लम्बे सालों तक, सैकड़ों सालों तक लोग न जाने कैसी-कैसी चीज़ों के अभ्यस्त रहे और उसको सामान्य मानते रहे — ‘सामान्य सी बात है, इसमें क्या दिक्कत हो गयी?’
अपनी ओर से प्रयास सजगता का रहे, और सजगता का मतलब होता है अनुभव अपनेआप को कितना भी दोहराकर ला रहा हो, उसे नयी दृष्टि से देखो। अनुभव पुराना हो, दृष्टि नयी होनी चाहिए। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि आपने कह दिया कि ब्याह तो करोड़ों होते हैं और हर साल होते हैं, होते ही रहे हैं, हज़ारों सालों से होते रहे हैं, पुरानी चीज़ है, हम अभ्यस्त हैं — ऐसे नहीं! वो विवाह होगा पुराना, आपकी आँख नयी होनी चाहिए।
हर पल ज्ञान-रहित दृष्टि से जगत को देखिए, इससे अनुभव की पोल खुलेगी। जब अनुभव की पोल खुलेगी तो तृष्णा कहाँ से आएगी फिर! तृष्णा तो कहती है, ‘यही अनुभव फिर चाहिए।’ अनुभव की पोल खुल गयी तो फिर वो ही चीज़ दोबारा क्यों चाहिए? अनुभव की पोल नहीं खुलेगी, आप कुँआरे हैं, आप ब्याह को देख रहे हैं, आप कहेंगे, ‘मुझे भी ब्याह चाहिए, मेरा भी हो जाए।’ अनुभव की पोल खुल गयी तो उसी ब्याह का दर्शन आपको आज़ादी दिला देगा। वही जो वहाँ पर तमाशा चल रहा है, उसी तमाशे के दो लोगों पर दो विपरीत प्रभाव पड़ सकते हैं। जो अज्ञान में देखेगा वो और आतुर हो जाएगा, और लोलुप हो जाएगा, कि मेरी (शादी) कब होगी।
और अच्छे-अच्छे लोग ब्याह वगैरह में जाकर के डिग जाते हैं, कँप जाते हैं, उछल जाते हैं। जिनको कोई विचार ही न आ रहा हो स्त्री-पुरुष का, वो भी जब ब्याह जैसी जगहों पर चले जाते हैं तो उनको भी लगने लगता है कि ये सब तो ठीक है, मेरा कब होगा। तो एक ये हो सकता है। और दूसरा कोई हो सकता है बुद्ध जैसा, जो इसी पूरे तमाशे को देखे और इसी तमाशे को देखकर के उसको ये समझ आ जाए कि मेरा नहीं होना चाहिए, ये जो भी हो रहा है इसमें यही प्रार्थना है मेरी कि मैं कभी सहभागी न बनूँ। तो अनुभव ही अनुभव से मुक्त करा देता है, दुख ही दुख से मुक्त करा देता है, बन्धन ही बन्धन की काट बनता है।
कोई आपसे पूछे कि जिस प्रकार से हम विवाहोत्सव वगैरह करते हैं, दिक्कत क्या है, वाय डोंट यू अटैन्ड वेडिंग्स (आप शादियों में क्यों नहीं जाते), कोई जवाब मत दीजिए। बुद्ध की शैली याद रखिए, वो बहुत बहस में पड़ते नहीं थे। बस उस व्यक्ति को लीजिए और ले जाकर के किसी विवाहोत्सव के बीच में खड़ा कर दीजिए, और कहिए, ‘बहना मत, सजग रहना, और बस सजग रहकर देखो ये क्या चल रहा है, यही मेरा जवाब है। और इस पूरे तमाशे में कहीं तुमको असलियत का एक अणु भी दिखाई दे जाए, तो मुझे बता देना।’
‘ये जो इतनी रंग-बिरंगी चादर डाल दी गयी है इस पूरी जगह पर और सब लोगों के मन के ऊपर, हीरे-मोती जड़े हुए हैं उस चादर में, सोने-चाँदी के तार हैं उस चादर में, उस पूरी चादर में सच्चाई का कहीं एक रेशा भी हो तो मुझे बता देना। पूरे तरीके से क्या वो झूठ की और स्वार्थ की और बेहोशी की चादर नहीं है? बस खड़े होकर देखो।’
जो आपको सबसे ज़्यादा लुभाता हो, ललचाता हो, बन्धन में डालता हो, परेशान करता हो, उसी के अवलोकन से आपको मुक्ति मिलेगी। बन्धन ही बन्धन की काट बनेगा, उसको देख लो ठीक से। अज्ञान कुछ नहीं होता, ज्ञान ही होता है, ज्ञान ही बन्धन बन जाता है जब ज्ञान अधूरा होता है। पूरा जान लो, मुक्त हो जाओगे। जो आकर्षित कर रहा हो उसको भी पूरा जान लो, और जिससे विकर्षण है उसको भी। अच्छा-बुरा, राग-द्वेष, पसन्द-नापसन्द — दोनों सिरों को अच्छे से जान लो, दोनों से मुक्त हो जाओगे।
इसलिए उनकी बड़ी समस्या हो जाती है जो जानते नहीं हैं पर मुक्त होना चाहते हैं, दमन कर-करके। मुक्ति का तो एक ही रास्ता है — ज्ञान। जब तुमने जाना ही नहीं, तो मुक्त कैसे हो पाओगे? मुक्ति का ढक्कन लगाए रहोगे, भीतर-भीतर वासना-तृष्णा उबलते रहेंगे। मुक्ति का ढक्कन लगाने से मुक्ति नहीं आ जाती। ‘मुक्ति’ का तो अर्थ होता है पात्र पूरी तरह खुला है, घट का आकाश आकाश हो गया, अब जो घट के भीतर है वही घट के बाहर है, पूरी तरह खुला हुआ है, भीतर-बाहर एक हो गया। ढक्कन लगाने से थोड़े ही मुक्ति मिलती है!
हम मुक्ति का यही मतलब समझते हैं ― फ़लानी चीज़ से मुक्त होना हो तो ढक्कन लगा लो, उसकी वासना को दबा दो। दबाना नहीं होता, जानना होता है। जानो! जो जितना आकर्षित करता हो, उससे उतने ज़्यादा सवाल पूछो।
और मैं उसी जगह का बता रहा हूँ, हम बैठे हुए थे और उसी, शायद उत्सव से उठकर के एक जोड़ा आकर बैठ गया था। वो जोड़ा था नहीं, वो जोड़ा बनाने की फ़िराक में थे दोनों, तो यही तो उद्देश्य...। तो ये दोनों बैठे हुए हैं, और जो वहाँ पर वो लड़की है, वो लड़की वैसे ही जैसे पाँच-सितारा होटलों में लड़कियाँ होती हैं, ऐसी महँगी शादियों में होती हैं। तो वो बैठी हुई है, वो दोनों बात कर रहे हैं, अब मैं वहीं अपना...(उँगलियों से लैपटॉप चलाने का इशारा करते हुए)।
लड़का उससे कुछ बात कर रहा है, कुछ हो रहा है, बात हो रही है, कुछ पूछ रहा है उसके बारे में, क्योंकि दोनों अपरिचित थे, बस वहाँ पर दोनों ने एक-दूसरे को नापा-तोला था। दर्जी की तरह एक-दूसरे के शरीर का नाप लिया था, और ठीक-ठाक लगा था मामला पूरा, तो आँखों-ही-आँखों में इशारा करके वहाँ आकर बैठ गये थे, कि अब आगे की कार्यवाही के लिए थोड़ा देखा जाए।
आधे-पौन घंटे में लड़की ने लड़के को पाँच बार ’शटअप’ (चुप रहो) बोला। वो वाला ‘शटअप’ नहीं, कि वो अपमान माने और उठकर चल दे। वो कुछ पूछ रहा है और वो बोल रही है, ‘*ओ शटअप!*’ वो कुछ जानने की कोशिश कर रहा है, वो जानने दे नहीं रही है। और नियम ये है कि जो आकर्षित करे उसको और ज़्यादा जानना है। और जिसको तुम जानना चाहते हो, वो तुम्हारे सवाल पर बोले, ’ ओ शटअप ,’ तो ये अदा नहीं है, ये ज़हर है। पूछो, ‘क्यों शटअप (क्यों चुप रहो)? बट वाय (लेकिन क्यों)? *अ क्वेश्चन डिज़र्व्ज़ एन आन्सर, नॉट शटअप*’ (एक प्रश्न एक उत्तर के योग्य है, चुप हो जाने के नहीं)।
और वो ’शटअप’ ऐसे कह रही है जैसे कि कितनी क्यूट (प्यारी) बात हो और कितनी प्यारी अदा हो। और वो जो वहाँ बैठे हुए थे पुरुष-मित्र, उन पर तो क्यूटनेस का ही असर हो रहा था। पाँच बार ’शटअप’ सुना, और ज़्यादा भी होगा, पाँच बार मेरे कानों तक भी पहुँचा, इतनी ज़ोर का था। उसके बाद जब मैं वहाँ से उठकर चलने वाला था, तो वो बुलाकर के वेटर (बैरा) से पूछ रहे हैं, ‘*डू यू हैव अ ट्वेंटी-फ़ोर-सेवन प्लेस एज़ वेल*’ (क्या आपके पास चौबीस घंटे वाली जगहें भी हैं)?
उन्होंने कहा, ‘नहीं, ये रेस्टोरेंट ग्यारह बजे खत्म हो जाता है। तीन और हमारे हैं, वहाँ जाकर बात करनी है तो कर लो।’
तो उसके बाद वो पुरुष महोदय पूछ रहे, ‘अच्छा! *विच वे इज़ द बुकिंग काउन्टर*’ (बुकिंग काउन्टर कहाँ है)?
‘काहे की बुकिंग ?’
‘अगर बैठने के लिए, रातभर बैठने के लिए कोई रेस्त्रां नहीं है, तो भैया रूम (कमरा) ही बता दो, हम थोड़ा रूम बुक करना चाहते हैं।’
जब आकर्षण इतना चढ़ गया हो न सिर पर, तो न आप सवाल पूछोगे, और सवाल पूछ भी लो तो सवाल को ’शटअप’ मिले, आपको बुरा भी नहीं लगेगा। बुद्ध का नियम तोड़ दिया, अब दुख-ही-दुख मिलेगा। बुद्ध का नियम है ― जो आकर्षित कर रहा हो, उसके बारे में सबकुछ जानो।
कुछ ऐसा हो जो बहुत खींच नहीं रहा, उसकी उपेक्षा हो गयी, कोई दिक्कत नहीं हो गयी, क्योंकि वो वैसे भी बहुत हमें खींच रहा नहीं था। पर अगर कोई खींचने लगे, तो खिंचाव का दमन भी करने की ज़रूरत नहीं है, बस उसके पास चले जाओ ― ‘खिंचाव है भई, पास आ गये हम आपके।‘ और पूछो पचास सवाल, एक धार में, और पचास सवालों में शटअप-शटअप होने लगे, तो कह दो, ‘समझ गये, सब समझ गये।’ अपनेआप सारा नशा उतर जाएगा।
हम उल्टा चलते हैं न, जो वस्तु हमें पसन्द आ जाती है उससे तो हम कभी भी नहीं सवाल करते। हम कहते हैं, ‘सवाल नहीं चाहिए, इतना ही काफ़ी है कि पसन्द है। क्या हमारा कोई मोल नहीं, क्या हमारी पसन्द का कोई महत्व नहीं? हम कारण क्यों बताएँ क्यों पसन्द है, बस पसन्द है!’
‘*लव मी फ़ॉर अ रीज़न, लेट द रीज़न बी लव*’ (मुझे एक कारण से प्यार करो, और उस कारण को प्यार होने दो)।
देखिए, ये प्रोग्राम एक्ज़ीक्यूट (निष्पादित) नहीं होगा, ये सर्कुलर लॉजिक (वृत्ताकार तर्क) है, ये इनफ़ाइनाइट रिकरेंस (अनन्त पुनरावृत्ति) है, सिस्टम बैठ जाएगा। ‘*लव मी फ़ॉर अ रीज़न, लेट द रीज़न बी लव*’ ― ऐसे नहीं चलता! ठीक है? लेट देअर बी अ सफ़िशिअंट रीज़न (एक पर्याप्त कारण होना चाहिए)। मैं कहूँ कि रीज़न (कारण) बताओ, और बोलो, ‘ लेट द रीज़न बी लव ,’ तो ये तो कोई रीज़न नहीं है।
जो चीज़ जीवन में जितनी महत्वपूर्ण हो गयी हो, उससे उतने ज़्यादा सवाल पूछो, और रोज़ पूछो, क्योंकि महत्व ही बन्धन है। जो चीज़ ज़िन्दगी में जितना महत्व लेकर बैठी है, वो उतना बड़ा बन्धन है, उससे उतने ज़्यादा सवाल पूछो।
(रुआँसी सी आवाज़ में बोलते हुए) ‘ हैज़ इट कम टु दिस बिटवीन अस? विल यू आस्क मी क्वेश्चन्स नाउ? आइ मीन, डोन्ट यू ट्रस्ट मी? लव इज़ अबाउट साइलेंट हग्स एंड किसेज़, एंड यू आर थ्रोइंग बार्ब्ज़ ऑफ़ क्वेश्चन? इट हर्ट्स बेबी !’ (क्या हमारे बीच ये नौबत आ गयी है? क्या तुम मुझसे अब सवाल पूछोगे? मेरा मतलब है कि तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं है? प्यार मौन आलिंगन और चुंबन के बारे में है, और तुम सवालों की बौछार कर रहे हो? इससे दर्द होता है बेबी!)
‘*इफ़ क्वेश्चन्स हर्ट यू, देअर इज़ समथिंग फ़िशी समवेअर*’ (यदि प्रश्न तुम्हें दर्द देते हैं, तो कहीं कुछ गड़बड़ है)।
‘ नो, बट व्हाट अबाउट ट्रस्ट? आइ मीन वाइ मस्ट वी कीप इनवेस्टिगेटिंग ईच अदर एज़ इफ़ वी आर पुलिस ऑर सीआईडी ऑर इन्टरपोल? बट, बट साइलेंट ट्रस्ट? अनकंडीशनल ट्रस्ट ?’ (नहीं, लेकिन विश्वास का क्या? मेरा मतलब हमें हमेशा एक-दूसरे को जाँचने की क्या ज़रूरत है पुलिस या सीआईडी या इन्टरपोल की तरह? लेकिन, लेकिन मौन विश्वास? बेशर्त विश्वास?)
दद्दू, तुम इतने महान नहीं हो कि तुम पर अनकंडीशनल ट्रस्ट किया जाए। न तुम्हारी ज़िन्दगी में कुछ अनकंडीशनल है, न हमारी ज़िन्दगी में कुछ अनकंडीशनल है, तो जो चीज़ जैसी है नहीं, उसको वैसा दिखाने का स्वांग क्यों करें? लेट्स बी रीयल (वास्तविक बनो)।
आपकी हालत जानते हैं कैसी है? ये तो छोड़िए कि जो ज़िन्दगी में हमारे महत्वपूर्ण लोग हैं ― दोस्त, यार, रिश्तेदार ― हम उनसे सवाल नहीं पूछ सकते, रेस्त्रां में किसी डिश (व्यंजन) में क्या डाला है, हम ये तक खुलकर नहीं पूछ पाते, अगर वेटर थोड़ा दबंग किस्म का हो; ये तक नहीं पूछ पाते, सवाल पूछने से डरते हैं।
अपने कॉलेज के दिनों को याद करिएगा, प्रोफ़ेसर जो कुछ पढ़ा रहा होता था, सब समझ में आ रहा होता था? आप बैठे होते थे लेक्चर थियेटर में, प्रोफ़ेसर जो कुछ पढ़ा रहे हैं, सब समझ में आ रहा है?
प्र: नहीं।
आचार्य प्रशांत: सवाल पूछा? सवाल पूछा कभी? एक-दो रहते होंगे क्लास में जो पूछ लेते होंगे, बाकी क्या कर रहे हैं? और बात ये नहीं है कि वो उदासीन हैं, इनडिफ़्रेंट हैं; डर रहे हैं, उनका मुँह नहीं खुलता सवाल पूछने को। या वो ये कह रहे हैं, ‘सवाल पूछकर क्या होगा, करनी तो सेल्फ़-स्टडी है, बाद में जाकर कर लेंगे।‘ टेकन फ़ॉर ग्रांटेड (मान लिया गया)।
हम किसी से सवाल नहीं पूछ पाते, और इसीलिए हम बार-बार मार खाते हैं। आप अपने ऊपर गौर करिएगा, एक साधारण सेल्समैन (विक्रेता) से भी आप सवाल पूछ पाते हो क्या? एक-दो पूछ लोगे, उसके बाद लगेगा, अब ज़्यादा कौन नुक्ता-चीनी करे।
ये सब हमारी भाषा के शब्द हैं न? ‘नुक्ता-चीनी क्यों कर रहे हो? बाल की खाल क्यों निकाल रहे हो? बाल की खाल निकालना सीखो। गले पड़ना सीखो। यार तुम तो पीछे ही पड़ गये, गले ही पड़ गये, पूछे ही जा रहे हो, पूछे ही जा रहे हो।’
कभी उपनिषदों को देखिए, वहाँ पर क्या होता है। गुरु जवाब दिये जा रहे हैं, शिष्य पूछता जा रहा है, पूछता जा रहा है, पूछता जा रहा है। उसके बाद कहते हैं, ‘गार्गी, एक सवाल और पूछा न, तो तेरा सिर फट जाएगा।’ सिर-विर कुछ नहीं फटा उसका, वो जीत गयी।
‘इसका मतलब ये है गुरुवर, आपके पास मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। जो समझने वाले हैं वो अच्छे से याद रखेंगे गुरुवर, मैं जीत गयी। ये जो आपकी चिढ़ है, ये यही बता रही है कि जवाब नहीं हैं, माने आप जो बात बोल रहे थे वो खोखली थी। आप कुछ भी बोल लो, ये सभा कुछ भी बोल ले, सब समझदार लोग जान गये कि मैं जीत गयी।‘
अपने बच्चों को भी यही प्रशिक्षण दें, कि पूछो, दबो मत और डरो मत, और जब तक सन्तुष्टि न हो जाए, पूछते ही रहो।
सोचिए, विज्ञान भी इसी पर चलने लगे ― ‘ बट डोंट यू ट्रस्ट मी ?’ तो माइलोमीटर की भी क्या ज़रूरत है, डैशबोर्ड की भी क्या ज़रूरत है कार में? कार में ऐसे ही एक रैंडम इंडिकेटर लगा दें, कि खड़ी भी है तो दिखा रहा है कि अस्सी की गति है। और आप उसको रीसेट के लिए बटन दबाएँ, तो उधर से आवाज़ आए, ‘ बट डोंट यू ट्रस्ट मी ?’ ज़रूरत क्या है किसी भी ऐसी चीज़ की जो तथ्य उघाड़ती हो? विज्ञान भी ऐसे ही चलने लग गया होता, तो फिर हमें क्या मिलता? कुछ भी नहीं!
और हम ऐसे कहते हैं ― ‘देखिए, बुरा मत मानिएगा, पर मैं एक छोटी सी बात आपसे पूछ सकता हूँ क्या?’ तीन-तीन यहाँ पर आपने क्वालिफ़ायर्स लगा दिये, डिस्क्लेमर ― ‘बुरा मत मानिएगा’, ‘छोटी सी बात’, ‘पूछ सकता हूँ क्या’। तीनों में से किसी की भी ज़रूरत नहीं है। सवाल है तो सीधे पूछो, बुरा माने तो…।
और बात छोटी सी नहीं है, सवाल है, कोई सवाल छोटा नहीं है। और तीसरी बात, सवाल के लिए अनुमति की कोई बात नहीं है। अगर रिश्ता है, तो रिश्ते ने ही अनुमति दे दी है कि सवाल पूछेंगे, रिश्ता नहीं होता तो फिर भी हम आपकी अनुमति माँगते। आप हमसे सम्बन्धित हैं, इसी से हमें अधिकार मिल गया है कि सम्बन्ध के विषय में आपसे सवाल करें। सम्बन्ध ने ही सम्बन्ध के विषय में सवाल करने का हक हमको दे दिया है। तो पूछना क्या है इसमें, कि मे आइ आस्क यू (मैं आपसे पूछ सकती हूँ)?
कभी कहीं जाइएगा जहाँ पर सेल्समैन होते हों, वहाँ आप देखिएगा वो किस तरीके से कोशिश करते हैं कि आप सवाल न पूछें। ऑब्ज़र्वेशन (निगरानी) और क्या होता है, यही तो होता है, देखिए। वो किस तरह से आपको एक ऐसी जगह पर लाना चाहते हैं, जहाँ पर सटल (जटिल) वो आपको ऐसे पुश (धकेलना) देते हैं जिससे कि आपको ये लगे कि अगर आप सवाल पूछ रहे हैं तो आप बेवकूफ़ हैं, या कि सवाल के लिए कोई जगह है ही नहीं। ‘देखिए मेम , पचास हज़ार लोग इस मॉडल को खरीद चुके हैं, तो अब ये बात तो नहीं होगी न!’
ये कोई जवाब है!
मैंने क्या पूछा तुमसे? मैंने पूछा कि तुम इसमें ये जो टेक्नोलॉजी (तकनीक) ला रहे हो, इस टेक्नोलॉजी की रिलायबिलिटी (विश्वसनीयता) क्या है। और तुम क्या जवाब दे रहे हो? कि देखिए, पचास हज़ार लोग खरीद चुके हैं, तो ये प्रॉब्लम (समस्या) तो नहीं होगी न!
ये कोई जवाब है!
तुम वास्तव में मुझसे ये कह रहे हो कि आप ही होशियार हो, पचास हज़ार लोग बेवकूफ़ हैं क्या ― तुम्हारा तर्क ये है। और तुम अगर ये तर्क मुझे दे रहे हो, तो तुम भी खतरनाक हो और तुम्हारा प्रोडक्ट (उत्पाद) भी बहुत खतरनाक है।
अनुभव के अलावा कोई तरीका नहीं है अनुभव के खोखलेपन को जानने का। अनुभव फ़ेक है, नकली है, जाली है ― ये बात तो अनुभव में ही है न? उसको उसी वक्त उखाड़ना पड़ेगा, खोल दो पोल, बाद में थोडे़ ही! बस इसके लिए साहस चाहिए और स्वार्थ नहीं चाहिए, क्योंकि आप जब भी ऐसा करोगे, स्वार्थ पर चोट पड़ेगी। आप जब भी सवाल पूछोगे, सम्भावना रहेगी कि कुछ टूटेगा, चरमराएगा, स्वार्थ पर चोट पड़ेगी। उसके लिए तैयार रहिए, साहस रखिए।
आप एक और चीज़ देखिएगा, कहीं पर कोई चीज़ बिक रही हो ― किसी भी तरह का वो कोई बहुत महँगा सामान हो सकता है, सस्ता भी हो सकता है थोड़ा ― और आप वहाँ ज़्यादा सवाल पूछना शुरू कर दें, और कई और लोग भी हों वहाँ पर, सम्भावित ग्राहक, परस्पेक्टिव बायर्स , सेल्स पर्सन कोशिश करेगा कि आपको अलग कर दे। उसको डर लगेगा कि कहीं आपके सवाल बाकी लोग भी न पूछने लग जाएँ।
मेरे साथ ये दुकान पर नहीं हुआ था, मेरे साथ ताजमहल में हुआ था। तो वहाँ एक गाइड , वहाँ घुसते ही उसने पकड़ लिया ― ‘मैं सबकुछ बताऊँगा।’ मैंने कहा, ‘ऐसों की ही तो मुझे तलाश है, जो मुझे सबकुछ बताएँ, आज तू मिल गया। एकदम सोचा नहीं था कि ऐसी जगह पर तू मिलेगा, तू आ अब!’
तो मैंने कहा, ‘आओ अब।’ अब उसने मुझे लिया और पाँच-सात और ले लिये, उसमें कुछ विदेशी भी थे, और वो सबको लेकर चला। और ये बता रहा है, वो बता रहा है ― ‘यहाँ ऐसा हुआ था, यहाँ ऐसा हुआ था। और ये जो फ़व्वारा है, ये इतने साल पुराना है, और ऐसा है, वैसा है।’
तो मैंने कहा, ‘फ़व्वारा इतने साल पुराना?’ मैंने कहा, ‘पानी कहाँ से आ रहा है?’
बोला, ‘यहाँ से।’
मैंने कहा, ‘कितनी हाइट (ऊँचाई) से आ रहा है?’ तो कुछ उसने अपना इधर-उधर करा। मैंने थोड़ा सा अनुमान लगाया, मैंने कहा, ‘इतनी हाइट पर तो इतना प्रेशर (दबाव) होगा।’ मैंने कहा, ‘ये इसमें से इतना ऊपर तो ये,’ तो वो इधर-उधर होने लग गया।
फिर आगे लेकर के चला, दस तरह की वो चीज़ें बता रहा है। अब वो चीज़ें बता रहा है, मैं तो खुश हूँ, कोई मिल गया जो सबकुछ जानता है, मैं पूछ रहा हूँ कि भाई जो सबकुछ जानते हो, बताओ। थोड़ी देर में उसने दिल तोड़ दिया मेरा, मुझे छोड़कर आगे चला गया, बाकियों को लेकर। मैंने एक-दो बार उसे पीछे जाकर पकड़ा भी, कि भाई मैं भी हूँ। उसका ऐसा हो गया कि भैया पैसे वापस ले लो, क्योंकि बाकी सब थे, वो अपना मज़े में सुन रहे हैं। वो उनको सुना रहा है, परीकथा, बाकी सब सुन रहे हैं ― ‘ऐसा हुआ था, फिर शाहजहाँ ने ये कर दिया, वहीं पर कैद था शाहजहाँ।’
‘अच्छा! जहाँ कैद था, तुम बता रहे हो, थोड़ा सा…तो कुछ तो...?’
समझ में आ रही है बात ये?
यही न पूछो, तो जो बताया जा रहा है, सब सुन रहे हैं, हमने भी सुन लिया। और आपको हैरत भी होगा, विस्मय भी, दुख भी, और आनन्द भी होगा, जब आप पाओगे कि जैसे ही आप सवाल पूछते हो, सबकुछ टूट जाता है, कुछ भी नहीं बचता, क्योंकि हमारा पूरा जीवन ही अज्ञान पर आधारित है। हमारा पूरा जीवन मौन पर नहीं, सन्नाटे पर चलता है। मौन का मतलब होता है कि चेतना इतनी ऊँची हो गयी कि शब्द रुक गये। और सन्नाटे का मतलब होता है कि आदमी मर गया, शमशान में पड़ा है, सन्नाटा।
अगर हम बोल पड़ें, तो सब गिर जाता है। बड़ा मज़ा आएगा, कि अरे, ये फ़लानी चीज़ थी, बीस साल से चल रही थी, एक सवाल पूछ दिया, गिर गयी। हाँ, गिर गयी, वो चल ही इसलिए रही थी क्योंकि सवाल नहीं पूछे थे।
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