अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति | नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन: || ४, ४० ||
विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्लोक ४०
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी, चरण वंदन। प्रस्तुत श्लोक में संशय को लेकर बहुत कठोर बातें कही गईं हैं, परन्तु बहुधा जिज्ञासा को भी संशय से जोड़कर देख लिया जाता है। कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: जो जोड़कर देख लेते हैं, समस्या उनकी है। आपकी क्या समस्या है, यह बताइए न। श्रीकृष्ण जिज्ञासा के तो पक्षधर हैं ही। और बिलकुल ठीक कह रही हैं आप कि संशय के खिलाफ़ कठोर बातें कह रहे हैं, कह रहे हैं, “संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है, न सुख है।” पर जिज्ञासा के तो पक्षधर हैं ही। बार-बार कहते हैं, “अर्जुन, कोई बात हो तो बता, कोई जिज्ञासा हो तो कर।” सिर्फ़ आदेश थोड़े ही दे रहे हैं अर्जुन को। अर्जुन जिज्ञासा करता जा रहा है, वो एक-एक जिज्ञासा का समाधान कर रहे हैं। तो कृष्ण क्या कह रहे हैं, यह स्पष्ट है?
अब कोई अगर ऐसा है जो समझता है कि जिज्ञासा और संशय में कोई अंतर ही नहीं तो यह उसकी समस्या है। आपकी क्या समस्या है, यह बताइए न। आप जिज्ञासा करिए।
देखो, समझो जिज्ञासा और संशय का मूल अर्थ, भेद - जिज्ञासा में तुम पूरे तरीके से खुले रहते हो जानने के लिए, जिज्ञासा में तुम कहते हो, “मैं कुछ नहीं जानता, मुझे बताया जाए।” और संशय में तुम इस ज्ञान के साथ काम करते हो कि कहीं कुछ गड़बड़ है।
तो जिज्ञासा पूरी निर्मलता है, बिलकुल मासूमियत है, 'मैं कुछ नहीं जानता'। और संशय में मासूमियत नहीं है, संशय में कुटिलता है। संशय कहता है, “मुझे पता तो है ही, अब तुम बताओ। मैं तुम्हारे बारे में कुछ बातें मानता तो हूँ ही, अब तुम बताओ।” जिसे आप शक कहते हैं, वह क्या है? वह यही है न कि कुछ बातें तो मुझे लग रहा है कि हैं। आप खाली नहीं हो, किसी बात पर तो आपका यकीन है ही, उसी का नाम संशय है।
ऊँची-से-ऊँची बात पूछ लो, गहरी-से-गहरी बात पूछ लो, कोई भी बात पूछने लिए लिए वर्जित नहीं है। जब पूछने के लिए कुछ भी वर्जित न हो, जब हर बात पर सवाल उठाया जा सके, जब इस बात पर भी सवाल उठाया जा सके कि पूछने वाले की पात्रता है क्या पूछने की, और उत्तर देने वाले की पात्रता है क्या उत्तर देने की, तब समझ लेना कि जिज्ञासा है।
जिज्ञासा जितनी फैलती जाती है, मुमुक्षा के उतनी निकट आती जाती है। संशय छोटी चीज़ होती है, संशय में बहुत सारी मान्यताएँ चल रही होती हैं। मान्यता माने झूठा ज्ञान। संशय ज्ञान पर आधारित होता है। जिज्ञासा करो। उसके लिए ताक़त चाहिए, साहस चाहिए। जिज्ञासा की धार से किसी को भी बख़्शो मत; हर बात पर सवाल उठाओ। और जब मैं कह रहा हूँ कि हर बात पर सवाल उठाओ, तो तैयार रहो अपने ऊपर सवाल उठाने के लिए भी। ये जो धार है, ये सिर्फ़ इधर-उधर न चले, ये अपने ऊपर भी चले।
संशय में इतनी हिम्मत, इतनी ताक़त होती नहीं। संशय तुम्हें हमेशा इधर-उधर का होता है। संशय करने वाले पर कभी संशय होता है? अगर तुम्हें शक पर शक हो जाए तो तुम शक से आज़ाद हो जाओगे न?
जब जिज्ञासा की सुविधा उपलब्ध हो तो संशय की ज़रूरत क्या है? जो बात है, खुल्लम-खुल्ला पूछ ही लो, ज़ाहिर कर दो। फ़िर उसमें ये क्या कि सुन तो लिया पर भीतर शक बना हुआ है। शक बना हुआ है तो प्रकट कर दो, जिज्ञासा रख दो।