गुरु को हमेशा अपने साथ कैसे रखें? जीवित गुरु का क्या महत्व है?

Acharya Prashant

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गुरु को हमेशा अपने साथ कैसे रखें? जीवित गुरु का क्या महत्व है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। जब गुरु के साथ होता हूँ तो सामान्यतः कोई सवाल नहीं होते हैं और विचार सुनने की स्थिति रहती है। लेकिन जैसे ही अलग होता हूँ तो दिमाग में कई सवाल आते-जाते रहते हैं। तो गुरु की उपस्तिथि या अनुपस्तिथि में एक ऐसी स्थिति कैसे बन सकती है कि हमेशा ही गुरु का आभास हो या गुरु हमेशा ही हमारे साथ रहें?

आचार्य प्रशांत: जितने भी तरीकों से आप उस साथ को निरंतर रख सकते हैं और गहरा रख सकते हैं, उन तरीकों का प्रयोग करें। बात बहुत सीधी है - कुछ करके, किसी विधी से अगर लाभ होता हो तो उसका और, और ज़्यादा उपयोग करना होगा न? नहीं तो फिर दोगलापन हो जाएगा, कि एक तरफ तो कह रहे हो कोई चीज़ है जिसके उपयोग से लाभ होता है, और जिस चीज़ के उपयोग से कह रहे हो लाभ होता है उसका उपयोग भी नहीं कर रहे।

अगर इतनी स्पष्टता मिल ही गई है कि क्या करके शांति मिलती है, कहाँ रह कर शान्ति मिलती है, किस अवस्था में शांत रहते हो, तो फिर जिस अवस्था में शान्ति मिलती है, जहाँ रह कर शान्ति मिलती है, तो फिर उसको निरंतरता दो, उसको गहराई दो। तुम्हारे प्रश्न में ही उत्तर छुपा हुआ है।

तुम जाकर किसी चिकित्सक से कहो कि, “मुझे आपकी औषधि से आराम मिलता है, और जितना लेता हूँ उतना आराम मिलता है; बताइए अब क्या करूँ?” तो चिकित्सक बेचारा क्या कहेगा? कहेगा कि, “जब औषधि भी उपलब्ध है और औषधि का प्रभाव भी प्रमाणित है, औषधि तुम्हें उपलब्ध है और यह बात भी प्रमाणित है कि औषधि लेने से लाभ भी होता है, तो अब मैं तुम्हें क्या बताऊँ, बताने को बचा क्या?”

समस्या तो तब हो जब या औषधि ना पता हो या संशय हो कि यह औषधि लाभदायक है भी कि नहीं। अभी तो मामला साफ़ है। आगे बढ़ो। अब रुकने का क्या सवाल है? लेकिन, 'माया महा ठगनी हम जानी।'

जब मंज़िल भी दिख रही हो, रास्ता भी पता हो और रास्ता साफ़ भी हो, तो भी वो मन में विचित्र संशय पैदा कर देती है। उन संशयों का कोई उत्तर नहीं हो सकता। उन संशयों को जवाब बस यही दिया जाता है कि संशय रहते हुए भी वो करते रहो जो जान गए हो कि सही है। श्रद्धा और विवेक को भ्रम से ज़्यादा महत्त्व दो।

किसी भी गुरु के पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं पाओगे, कि, "गुरुदेव मैं बिलकुल साफ़-साफ़ जान गया हूँ कि क्या सही है पर उसे करूँ कैसे?" या और भी आगे कि विचित्र बात, कि, "गुरुदेव मैं बिलकुल साफ़-साफ़ जान गया हूँ कि क्या सही है। मैं यह भी जानता हूँ कि उसे करना कैसे है पर फिर भी करता नहीं। समाधान बताइए।" अब तुम्हें समाधान नहीं चाहिए, अब तो तुम्हें इरादा चाहिए, प्रेरणा चाहिए, सत्यनिष्ठा चाहिए। तम्हें मंज़िल दिखाई जा सकती है, रास्ता दिखाया जा सकता, पाँव तो तुम्हें ही बढ़ाने पड़ेंगे न? सब कुछ हो जाने के बाद अगर तुम कहोगे कि, "पाँव कैसे बढ़ाएँ?" तो कोई क्या उत्तर देगा तुमको?

प्र: आचार्य जी, जीवन में क्या जीवित गुरु के बिना मुक्ति संभव नहीं है?

आचार्य: बिलकुल संभव है। मुक्ति तो स्वभाव ही है; उसके लिए जीवित गुरु, अजीवित गुरु, कोई गुरु आवश्यक नहीं है। मुक्ति आवश्यक है, मुक्ति स्वभाव है, मुक्ति के लिए कुछ नहीं अस्वश्यक है। अगर तुम सिर्फ उसमें जीयो जो आवश्यक है, तो जो आवश्यक है उसके बाद और क्या आवश्यकता बचेगी? मुक्ति आवश्यक है, उस आवश्यक मुक्ति में ही अगर जी रहे हो तुम, तो अब और क्या आवश्यक बचा? तो जो लोग मुक्ति में जी रहे हैं उन्हें गुरु की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन अपनी हालत को देखो - तुम तो तमाम अनावश्यक चीज़ों में ही जी रहे हो न? जो तमाम अनावश्यक चीज़ों में जी रहे होते हैं उन्हें एक अनावश्यक गुरु भी आवश्यक हो जाता है।

अगर तुम्हारे जीवन में कोई भी गैर ज़रूरी चीज़ मौजूद ना होती, तो तुम्हें गुरु की भी कोई ज़रूरत ना होती। पर चूँकि तुमने जीवन में पचासों ऐसी चीज़ें भर रखी हैं जो गैर ज़रूरी हैं, अनावश्यक हैं, इसीलिए तुम्हें अब ज़रूरत है गुरु की भी।

प्र: आपने कहा कि तुम्हारा जीवन अनावश्यक चीज़ों से भरा है इसीलिए अनावश्यक गुरु की भी ज़रूरत हो जाती है।

आचार्य: मूलतः गुरु आवश्यक नहीं है, मुक्ति मात्र आवश्यक है। पर चूँकि तुमने अपने आप को पचासों संसारी चीज़ों से भर रखा है, इसीलिए तुम्हें फिर एक संसारी गुरु भी चाहिए। सांसारिक चीज़ जो भी तुमने अपने अंदर भर रखी हैं वह अनावश्यक ही हैं। इसी तरीके से वास्तव में संसारी गुरु भी अनावश्यक है अगर तुम्हें साफ़ पता हो कि मुक्ति कितनी आवश्यक है। और तुम मुक्ति में ही जीयो, मुक्ति से तुम हिलो डुलो ही नहीं तो तुम्हें गुरु की कोई आवश्यकता नहीं, गुरु अनावश्यक है।

गुरु अनावश्यक है किसके लिए? जो मुक्ति में ही साँस लेता है, मुक्ति में ही चलता है, मुक्ति में ही सोता है, मुक्ति में ही उठता है, मुक्ति में ही जगता है, उसके लिए गुरु बिलकुल अनावश्यक है। पर क्या तुम वैसे हो? तुम तो वैसे नहीं हो न? तुम आवश्यक मात्र में नहीं जी रहे, तुम तो हर उस गैर ज़रूरी चीज़ में जी रहे हो जो व्यर्थ है फिर भी तुम्हारे मन में, संसार में, जीवन में मौजूद है। काँटे से काँटा निकलता है न? इसलिए फिर गुरु चाहिए। जब तुम्हारे जीवन से सब अनावश्यक चीज़ें हट जाती हैं, तो तुम्हारे जीवन से गुरु भी अपने आप हट जाता है। कुछ और नहीं बचता, तुम मात्र बचते हो - एक सत्य, दो तो होते नहीं।

ब्रह्मलीनता में जब दो नहीं होते, तो एक गुरु और एक चेला कहाँ से आएँगे? गुरु और चेला अगर दोनों हैं तो माने अभी द्वैत बाकी है। तुम्हारे जीवन से जब विकार हट जाते हैं तो गुरु भी हट जाता है। जब तक माया है तब तक गुरु है; माया हटी नहीं कि गुरु भी हटा।

प्र: तो आत्मा और परमात्मा भी एक ही हैं, गुरु जी?

आचार्य: और क्या? आत्मा में कोई कमी होती है क्या कि उसमें तुम परम आत्मा जोड़ना चाहते हो? कि जैसे मैनेजर और सीनियर मैनेजर, तो एक आत्मा है और एक उससे ऊपर वाला है, परमात्मा। आत्मा में कोई खोट है, कमी है? एक तरफ तो बोलते हो आत्मा अनंत है, अविनाशी है, निर्दोष है, निर्विकार है, और फिर तुम आत्मा के आगे परम आत्मा को खड़ा करते हो। अनंत के आगे परम जोड़ देने से क्या हो जाएगा? अनंत महा अनंत हो जाएगा?

प्र: कुछ नहीं होगा, वो ही रहेगा।

प्र२: तो हम एक दूसरे से जुड़े हुए हो गए इसका मतलब?

आचार्य: जुड़े हुए हो गए कि एक हो गए?

प्र२: एक हो गए।

आचार्य: एक हो गए अगर तुम आत्मस्थ होकर जीयो। आत्मा के तल पर तो सब एक हैं ही। पर तुम आत्मा के तल पर जीते नहीं इसलिए विभिन्नताएँ और तमाम तरह के दोष और परिछिन्नताएँ दिखाई देती हैं।

प्र: यह एक बार थोड़ा फिर से समझा दीजिए - जीवन में अनावश्यक चीज़ें भरी हैं, इसलिए अनावश्यक गुरु, कह रहे हैं, आवश्यक हो गया है।

आचार्य: घर में झाड़ू क्यों चाहिए?

प्र: सफाई के लिए।

आचार्य: क्योंकि दस गन्दी चीज़ें हैं इसलिए एक ग्यारहवाँ झाड़ू चाहिए। कोई घर ऐसा हो जो गन्दा हो ही ना सकता हो, जो निर्मलता में ही स्थित हो गया हो कि अब यह कभी गन्दा हो ही नहीं सकता, वहाँ पर कोई गन्दी चीज़ नहीं होगी और ना ही वहाँ पर झाड़ू होगी। तो गुरु समझ लो झाड़ू है। दस गन्दी चीज़ें हैं इसलिए उस ग्याहरवीं चीज़ की भी ज़रूरत पड़ जाती है। उस ग्याहरवीं चीज़ का नाम गुरु है - झाड़ू। वो दस चीज़ें ना हों तो ग्याहरवें की कोई ज़रूरत नहीं। इसका मतलब यह भी समझना कि उस ग्याहरवीं चीज़ को वो ही हटाए जिसने सर्वप्रथम उन दस चीज़ों को हटा दिया हो। यह अनर्थ मत कर लेना कि वो दस गन्दगियाँ तो मौजूद हैं, और तुमने कहा कि झाड़ू की कोई ज़रूरत नहीं।

जीवन में हर तरीके के विकार तो मौजूद हैं, माया पूरी मौजूद है, और कह दिया कि, "नहीं, गुरु की ज़रूरत ही क्या है? हमारा तो स्वभाव ही मुक्ति है, गुरु की ज़रूरत क्या है?"

ऐसा करने वाले भी बहुत मिल जाएँगे, वो कहेंगे, "अरे नहीं नहीं, गुरु की कोई ज़रूरत नहीं होती।" गुरु की बिलकुल कोई ज़रूरत नहीं होती, पर ज़रूरत तो बेवकूफियों की भी नहीं होती। ज़रूरत तो काम, और क्रोध, और मद, और मोह, और माया की भी नहीं होती। तुम्हारे जीवन में काम, क्रोध, मद, मोह, माया, मात्सर्य, लोभ ये सब मौजूद हैं, इनको तुमने कभी नहीं कहा कि ये गैर ज़रूरी हैं। तुमने कभी नहीं कहा कि, "कामवासना की क्या ज़रूरत है?" तुमने कभी नहीं कहा कि, "मोह की और ईर्ष्या कि क्या ज़रूरत है?" उनको तो तुम पकड़े बैठे हो, गुरु के मामले में तुम कह देते हो, "गुरु की क्या ज़रूरत है?" तो फिर ठीक है। तुम्हारा हाल वही है कि गन्दगी भरी हुई है, गन्दगी को कभी नहीं कह रहे कि, "गन्दगी की क्या ज़रूरत है?" हाँ, झाड़ू आ गई तो कह रहे हो, "झाड़ू की क्या ज़रूरत है?" तो तुम्हारा अंजाम क्या होगा? गन्दगी में लिप्त रहोगे। झाड़ू बाहर फ़ेंक देना जब गन्दगी चली ही नहीं जाए, गन्दगी ऐसी चली जाए कि उसके लौटने की भी सम्भावना ना रहे। ये भी मत कर देना कि घर एक बार साफ़ किया और गन्दगी के साथ-साथ झाड़ू भी फ़ेंक आए। क्योंकि अभी तो तुम्हारी हालत ये है कि गन्दगी लौटेगी। झाड़ू की आवश्यकता से तुम तब मुक्त हुए जब ये पक्का हो जाए कि अब गन्दगी कभी भी लौटकर नहीं आएगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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