या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥ या देवी सर्वभूतेषु शांति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥ ~ दुर्गा सप्तशती तृतीय चरित्र अध्याय ५:१३
आचार्य प्रशांत: पाँचवें अध्याय से लेकर तेरहवें अध्याय तक का ये सबसे लंबा चरित्र है। इसमें हमें भाँति-भाँति के दैत्यों के दर्शन होते हैं और देवी के भी अनेक रूपों के वास्तविक दर्शन होते हैं। सबसे विस्तृत ये तीसरा चरित्र है, तो इसको हम लेते हैं। जितने विस्तार में ले सकते हैं, संभव होगा उतना करते हैं।
तो अब इतना तो पता ही है कि अब ये जो तीसरा चरित्र है, वो देवी के महासरस्वती रूप से सम्बन्धित है, ठीक है, और सतोगुणी। तो दूसरे चरित्र का अंत कहाँ पर हुआ था? कि महिषासुर का वध हो गया और देवी ने देवताओं से कहा कि अब तुम लोग अपना संभालो, और देवताओं ने देवी से वर माँग लिया कि हमें जब भी ज़रूरत पड़ेगी तो आप हमें दोबारा रक्षा देने के लिए आ जाइएगा।
तो तीसरे का आरंभ होता है कि देवता फिर देवी को तलाश रहे हैं। तो इससे स्पष्ट है कि कुछ गड़बड़ फिर हो चुकी है। और जो प्रतीक हैं इस बार उनको हम ध्यान से समझेंगे, क्योंकि बहुत विस्तृत हैं। पाँचवें से लेकर तेरहवें अध्याय तक हैं, तो इसमें जो बिलकुल लंबी दूरी तक इशारा करने वाले, बहुत अपनेआप में सार जो समेटे हुए, सार गर्भित, रस गर्भित प्रतीक हैं, हम उन पर ज़्यादा ध्यान देंगे।
ठीक है तो इस बार गंगा के निकट हिमालय से बात शुरू होती है। हमें कुछ जैसे बताया जा रहा हो। पूरा जो इस बार युद्धस्थली बननी है — शुंभ-निशुंभ हैं यहाँ पर, और भी कई दैत्य हैं, उनके भी नाम आएँगे, बहुत सारे दैत्यों के नाम आएँगे — तो इस बार जो पूरी युद्धस्थली बनेगी, वो हिमालय बनेगी और गंगा के निकट है। और अभी पार्वती हैं। यहाँ देवी का जो आरंभिक नाम है, वो पार्वती है, उसके बाद और बात आगे बढ़ती जाएगी।
तो हमें पता चलता है कि ये जो दानव हैं, इन्होंने हिमालय पर बड़ा आतंक मचा रखा है। ये तीसरे चरित्र में है। इन्होंने इतना आतंक मचा रखा है कि नदियों के मार्ग बदल गए हैं।
और यही वजह है कि मैं जितनी बार सप्तशती के निकट जाता हूँ, मैं उतनी बार ये संदेश पाए बिना नहीं रह पाता कि ये आज की ही बात हो रही है। ये बात पुरानी नहीं हो सकती जो यहाँ पर की गई है। कुछ संदेश, कुछ प्रतीक इतने ज़्यादा मुखर हैं, इतने स्पष्ट हैं कि ऐसा लग रहा है जैसे कि वो इसी इक्कीसवीं शताब्दी के लिए ही लिखे गए थे।
तो अभी इसकी बड़ी प्रासंगिकता है। इसको ऐसे मत मानिए कि ये कोई पुरानी कथा है जो आपको दे दी गई है। कि बस बैठकर साल के विशेष नौ दिनों में पाठ कर लिया जिससे आप पाप-मुक्त हो जाएँगे। वो सब बात नहीं है। आज हम जैसे हैं और हमारी दुनिया जैसी है, उसको लेकर इसमें बहुत सशक्त इशारे छुपे हुए हैं। ठीक है?
तो देवता वहाँ पर जाते हैं और देवी की वो वहाँ पर फिर स्तुति करते हैं। वही स्तुति जो बहुत प्रचलित है, ‘या देवी सर्वभूतेषु।’ तो पूरी जो विस्तृत और पूर्ण स्तुति है, वो आरम्भ में ही है, तो वो हो जाती है।
तो देवी किन-किन रूपों से प्राणियों में स्थित हैं, तो इसका मैं आपको कुछ इशारा दे देता हूँ। क्षुधा रूप से हैं और नमस्कार किया जा रहा है, ‘नमस्तस्यै, नमस्तस्यै’। कह रहे हैं कि क्षुधा रूप से नमस्कार है। छाया रूप से स्थित हैं और शक्ति रूप से स्थित हैं, तृष्णा रूप से स्थित हैं और क्षान्ति रूप से स्थित हैं। क्षान्ति माने क्षमा। और जाति रूप से स्थित हैं। जाति माने किसी योनि से उत्पन्न हैं और लज्जा रूप से स्थित हैं।
शांति रूप से भी स्थित हैं, श्रद्धा रूप से भी स्थित हैं, कान्ति रूप से भी स्थित हैं, लक्ष्मी रूप से भी स्थित हैं, वृत्ति से भी स्थित हैं, स्मृति से भी स्थित हैं, दया से स्थित हैं, तुष्टि से स्थित हैं, माता रूप से स्थित हैं। जैसे क्षांति और शांति रूप से स्थित हैं — क्षांति माने क्षमा — और शांति रूप से स्थित हैं, वैसे ही भ्रांति रूप से भी स्थित हैं। तो प्राणी ये जो भ्रमित रहते हैं, उसका कारण भी क्या है? माता ही हैं। और जो देवी सब प्राणियों की सदा अधिष्ठात्री हैं, उन व्याप्ति देवी को बारंबार नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है। तो ऐसे नमस्कार किया जा रहा है।
माने आशय क्या है पूरी प्रार्थना का? जगत में जो कुछ भी है, देवी ही हैं। आगे चलकर एक जगह पर दैत्य देवी को ताना मारते हैं, क्योंकि देवी के अनगिनत रूप प्रकट हो जाते हैं। कहते हैं, ‘अरे! तुम ये दूसरी स्त्रियों की ताकत पर लड़ रही हो न, दूसरी स्त्रियों पर। बहुत मानिनी बन रही हो लेकिन दूसरी स्त्रियों के बल पर।’ तो देवी कहती हैं, ‘तुम्हें क्या लग रहा है, ये जितने मेरे रूप हैं, ये मुझसे अलग-अलग हैं क्या?’
जितने रूप, सारे अनंत रूप कहाँ पाए जाते हैं? प्रकृति में। तो ये कहती हैं, ‘तुम्हें क्या लग रहा है, जितने मेरे रूप हैं, ये मुझसे अलग हैं क्या?’ तो वो बस ऐसे संकेत करती हैं और जितनी अन्य देवियाँ होती हैं, वो सारी देवियाँ जाकर एकमात्र देवी में प्रवेश कर जाती हैं। तो देवी कहती हैं, ‘लो देखो, तुम्हें लग रहा था कि ये सब अलग-अलग हैं, सब एक हैं!’
माने क्या है? ये जितनी जो वस्तुएँ हैं, ये संसार है, इसको एक जानना। ये प्रकृति एक है। तो वो सब अभी आगे आएगा, करेंगे चर्चा। तो अब ये जाकर नमस्कार करते हैं और फिर क्या कहते हैं? ‘हे जगदंबा, हमारा संकट दूर करो!’ फिर संकट ही आया है तभी जगदंबा खोजते हुए गये हैं नमस्कार करने।
तो सबसे पहले तो ये अच्छे से समझ लीजिए कि आपके भीतर जो कुछ भी है, है वो प्रकृति ही। वो आपको अच्छा या बुरा इसलिए लग रहा है, क्योंकि आपने अहंकार बनकर उससे एक विशिष्ट रिश्ता जोड़ लिया है। और अपने अनुसार फिर आप उसको यूँ ही कोई यादृच्छिक परिभाषा दे देते हो। कहीं आप उसको अच्छा मान लेते हो, कहीं आप उसको बुरा मान लेते हो। जो शेर के लिए अच्छा होता है, वो हिरण के लिए बहुत बुरा होता है। जो घोड़े के लिए अच्छा होता है, वो घास के लिए बहुत बुरा होता है।
समझ में आ रही है बात?
बारिश हो गई, ये छाता वालों के लिए बहुत अच्छी बात है, लेकिन हो सकता है कि खुली जगह मसाला कूटने वालों के लिए ये त्रासदी हो। अच्छा-बुरा तो आपके अहंकार पर निर्भर करता है कि आप क्या बने बैठे हो। जो आप बने बैठे हो उसी अनुसार कुछ अच्छा मानते हो, कुछ बुरा मानते हो। लेकिन है जो कुछ वो सब एक ही है।
कोई पूछ रहा था न कि सद्गुण क्या, अवगुण क्या। मैंने कहा, ‘कोई नहीं, गुण होते हैं बस। अहंकार तय कर देता है क्या सद्गुण क्या अवगुण।’ आम तौर पर जो तुम्हारे लिए काम की बात होती है, तुम उसकी ओर ही खिंच जाते हो। जो कुछ अहंकार को उसके भ्रम से मुक्त कर दे वो सद्गुण है, जो कुछ अहंकार का भ्रम और बढ़ा दे वो अवगुण है। तो प्रकृति के गुणों में ही कोई गुण किसी के काम आ सकता है, कोई गुण किसी के काम आ सकता है। आप किसी एक चीज़ को निश्चित रूप से अच्छा या बुरा नहीं बोल सकते। यहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है जो सबके लिए गलत है, यहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है जो सबके लिए ही अच्छा है।
तो देवी आती हैं और देवी कह रही हैं कि वो गंगा में स्नान करने को आई थीं। ये जो पूरी इस बार कर्मभूमि बननी है, जो रणभूमि बननी है, वो क्या बननी है? हिमालय का क्षेत्र और वो भी गंगा की ही बात हो रही है। तो गंगा माने ऊपर गंगोत्री के ही आसपास का, समझ लीजिए जो उत्तरांचल है। तो ये पूरी बात अभी उत्तरांचल की हो रही है कि वहाँ पर क्या चल रहा है खेल। तो देवी आती हैं, कहती हैं, ‘देवलोक छोड़कर आ गये, हिमालय आ गये, गंगा के किनारे खड़े हो, बात क्या हो गई?’ तो बड़े भोलेपन से कह रही हैं वो कि अरे क्या, स्तुति क्यों कर रहे हो।
तो फिर वो पार्वती जी के ही शरीर से दूसरी देवी प्रकट होती हैं। उनको नाम दिया शिवादेवी। बोलती हैं, ‘अरे भाई, ये देवता लोग अपनी ही स्तुति कर रहे हैं!’ देवी भी जैसे देवताओं से थोड़ा प्रहसन कर रही हैं, मज़ाक कर रही हैं। कह रही हैं कि फिर जब इन पर तकलीफ़ होती हैं तो फिर आ जाते हैं। तो पार्वती कहती हैं, ‘अच्छा-अच्छा, तो मतलब इन पर अभी कोई संकट आ गया है, वर्ना ये कहाँ स्मरण करने वाले थे।’ तो फिर एक देवी और प्रकट होती हैं।
ये जितनी देवियाँ प्रकट हो रही हैं, यहाँ बात ये नहीं है कि आप उन सब देवियों के नाम रट लें या सोचें कि उन देवियों के प्राकट्य में कोई बात छुपी हुई है। बात बस इतनी है कि प्रकृति में जो कुछ भी है, सबको ही तुम देवी स्वरूप मानो। ये जो सबकुछ ही है, ये सबकुछ ही भोग की वस्तु नहीं है। ये सबकुछ ही तुम्हारी मुक्ति का साधन है। और जो मुक्ति दे उसको देवी बोलते हैं न!
तो अब दूसरी देवी प्रकट हो जाती हैं। उनको नाम दिया अंबिका। अब अंबिका देवी जो हैं, वो शुभ्रवर्णा हैं, माने गोरी हैं। तो जब अंबिका देवी प्रकट हो गईं, और साथ-ही-साथ ये अंबिका देवी पार्वती जी के कोषों से निकली हैं। कोष माने शरीर। शरीर में सेल्स होते हैं न, उसको कोष बोलते हैं। तो उनको कौशिकी भी बोलते हैं। उन्हीं देवी को, अंबिका देवी को कौशिकी भी बोलते हैं। तो फिर अंबिका देवी जब शरीर से प्रकट हो गईं तो सारा गोरापन तो ले गई थीं अम्बिका देवी, तो पार्वती जी बिलकुल काली पड़ गईं। जब वो काली पड़ गईं तो पहाड़ों में फिर कालिका नाम से जानी जाती हैं।
अब इसमें कोई आप ये न सोचिएगा कि यहाँ पर कोई बड़ी सूचना है। यहाँ पर ये बताया जा रहा है कि गोरापन भी देवी का है और कालापन भी देवी का ही है। बस यही है! इसमें ये नहीं है कि आप कहें कि एक देवी हैं जिनकी विशिष्ट महत्ता है, कालिका देवी। ये सब बताने का आशय ये नहीं है कि आप किसी एक रूप को पकड़ लें और उसके कुछ विशेष आप अनुयायी हो जाएँ। यहाँ कुछ और ही बोला जा रहा है।
कौशिकी नाम दे दिया, कि तुम्हारे कोष-कोष में क्या बैठा हुआ है, देवत्व बैठा हुआ है। अगर तुम्हें उससे सही रिश्ता बनाना आता है, तो तुम्हारे शरीर की एक-एक कोशिका ही देवी है, कौशिकी देवी। तुम्हें अगर उससे सही रिश्ता बनाना आता हो। शरीर का सही इस्तेमाल करो तो शरीर ही तो मुक्ति का साधन है। शरीर के अलावा और कौन है जो तुम्हें मुक्ति दिला सकता हो?
तो बताओ उन लोगों का क्या करें जो शरीर को बोलते हैं कि छि! छि! छि! इससे गंदी चीज़ तो कोई हो ही नहीं सकती? अरे! वो गंदी चीज़ तब है जब उसके प्रति आपका मंसूबा गंदा हो। जब आप उससे गंदा सम्बन्ध रखो कि अपने शरीर को भी भोगना है और अपने शरीर का इस्तेमाल करके दूसरे के शरीर को भोगना है। यही करना है, शरीर इसीलिए मिला है, तब वो आपके लिए दुख का कारण बनेगा न। अन्यथा इसी शरीर से तो उद्यम करके — और शरीर माने स्थूल शरीर तन हो गया और सूक्ष्म शरीर मन हो गया — तो तन और मन का ही तो इस्तेमाल करके मुक्ति पायी जाती है न। और कैसे पाओगे?
ये सारी बातें जो हो रही हैं, हम आत्मा से कर रहे हैं? आत्मा के कान होते हैं कि सुनेगी? ये सारी बातें किससे की जा रही हैं? मन से की जा रही हैं। वो मन भी तो शरीर ही है, तो शरीर ही तो मुक्ति का साधन है। तो कौशिकी देवी।
वहाँ पर जैसे हम अपने ही शरीर में जो देवत्व है, उसको स्वीकार कर रहे हैं, उसको प्रणाम कर रहे हैं, कि मैं अपने शरीर को प्रणाम करता हूँ, ये शरीर ही है जो चेतना को मुक्ति तक ले जाने में सहायक बनने वाला है। आपके शरीर न होता तो आप कुर्सी पर बैठते यहाँ आकर? नहीं बैठते तो कैसे आप आज सप्तशती को सुन लेते? जितने लोग हैं ऑनलाइन , बैठे होते अगर शरीर न होता? कान न होते तो कुछ भी सुन लेते ये जो बोला जा रहा है? सोचिए, कान कितनी बड़ी बात है! देवी को प्रणाम करें, उससे पहले थोड़ा प्रणाम अपने कानों को भी कर लीजिए। कान न होते तो देवी आप तक कैसे आतीं? कोई छोटी चीज़ है कान! कान न रहे तो पता चलता है कि कितनी छोटी चीज़ है कान।
समझ में आ रही है बात?
तो फिर आगे की कहानी अब अंबा देवी के साथ है। पार्वती जी के शरीर से अंबिका देवी हुई थीं, वही अंबा देवी हैं। तो अब वो अंबा देवी महासुंदरी! महासुंदरी! तो सारी सुंदरता क्या है? प्रकृति। सारी सुंदरता प्रकृति है। तो सुंदरता देखते ही ये नहीं करना कि टूट पड़े। कुछ भी सुंदर हो सकता है, स्त्री-पुरुष ही नहीं सुंदर होते।
अब तो वो चलता है न, उसको फ़ूड पॉर्न बोलते हैं। वो भी वैसे ही ललचाता है जैसे किसी की देह ललचाती है। सुंदर कपड़ा दिख गया! सुंदर खाना दिख गया! और सुंदर क्या होता है? हर चीज़ ही सुंदर बनाई जाती है बाज़ार में तो। सुंदर फ़र्नीचर दिख गया, कुछ भी, तो उस पर टूट पड़े।
तो कहा गया कि जो सबसे सुन्दरतम हो सकती थीं, वो अम्बा देवी हैं। और ये भी बोला गया कि जो अभी अब आगे आएगा, जो सबसे भयानक हो सकती हैं, अभी आएँगी काली आगे, कि वो सूखी हुई हैं बिलकुल, उनके शरीर से उनकी खाल चिपक गई है वो इतनी सूखी हुई हैं, माँस सूख चुका है। ऐसे ही उनका आगे आएगा वर्णन। और उनका जो सिर है, उनके शरीर के अनुपात में बहुत बड़ा है। और उनकी जीभ ऐसे लपलपा रही है, लटकी हुई और भयानक। तो सुंदरतम अंबा देवी, और वो भी देवी से ही आ रही हैं। और जो सबसे असुंदर हैं दिखने में, वो काली देवी, वो भी देवी से ही आ रही हैं।
तो जो सुंदर है, वो भी क्या? देवी। और जो असुंदर है, वो भी क्या? देवी। दोनों को एक ही जानना है, सुंदर और असुंदर को। ये समभाव की बात है कि दोनों सुंदर, असुंदर एक हैं। और दोनों संभावित रूप से, पोटेंशियली मेरी मुक्ति के साधन हैं इसीलिए मैं दोनों को नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै। मैं सबको ही नमन करता हूँ।
जगत जो पूरा है, ये यूँ ही नहीं है। ये मुझे दिया गया है एक संसाधन के तौर पर, एक सम्भावना, एक अवसर के तौर पर। तो यहाँ जो कुछ भी है, काला है तो उसको भी नमस्कार है, सफ़ेद है तो उसको भी नमस्कार। मैं अगर किसी का उपयोग न कर पाऊँ तो गलती मेरी है।
आपकी रसोई में कितने रंग का माल रखा है? मिर्च किस रंग की? लाल। और नमक किस रंग का? सफेद। धनिया किस रंग का है? हरा। और काली मिर्च किस रंग की है? काली। हर रंग का तो माल रखा है। और वहाँ आप पाएँ कि एक ऐसी चीज़ रखी हुई है जो साल भर से इस्तेमाल ही नहीं हुई, इसका मतलब क्या है? धनिया रखा है। पिसा सूखा धनिया, वो थोड़ा सा मान लीजिए भूरे से रंग का है। और आप पाते हैं कि किसी के रसोई में पीले रंग की चीज़ रखी है। हल्दी रखी है। उसका इस्तेमाल ही नहीं हुआ है साल भर से।
इसका मतलब क्या है? क्या इसका अर्थ है कि वो चीज़ बुरी है? वो पीले रंग की चीज़ बहुत गंदी है, उसका इस्तेमाल ही नहीं हुआ है साल भर से! इसका मतलब वो चीज़ बुरी है? इसका क्या मतलब है? आपको इस्तेमाल करना नहीं आया। और जिन्हें इस्तेमाल करना आता है न, रसोई में हर रंग का माल उनके पकवान को और स्वादिष्ट और पौष्टिक बनाता है।
यही जगत है, प्रकृति। यहाँ हर चीज़ है। मीठी शक्कर भी है और तीखी मिर्च भी है। और जिन्हें इस्तेमाल करना आता है, वो हर चीज़ का कर ले जाते हैं। कोई चीज़ ऐसी नहीं होती है रसोई में जो स्वास्थ्य के लिए उपयोगी न हो सके। कोई चीज़ नहीं होती ऐसी। अगर आपको उसका इस्तेमाल करना आता है। अब ज़हर तो होता नहीं वहाँ कि बोलोगे कि ज़हर! ज़हर कौन रखता है! और जो जानते हैं दुनिया को, वो ये भी जानते हैं कि ज़हर का भी अगर सही तरीक़े से सही जगह पर और सही मात्रा में इस्तेमाल करो, तो ज़हर भी प्राणदायी होता है।
ये जो आप एंटीवेनम (प्रतिविष) लगवाते हो, ये क्या होता है? ये एंटीवेनम वेनम (विष) ही तो होता है, और क्या होता है! ये जो आपको वैक्सीन (टीका) लगी थी, वो क्या थी? वो वायरस (विषाणु) ही था जो वैक्सीन से लग रहा था आपको। आपने वायरस से कहा, ‘इससे पहले तू लगे मैं खुद ही लगा लूँगा, पर मैं थोड़ा सा लगाऊँगा।’ तो उससे एंटीबॉडी (प्रतिरक्षा प्रणाली) हो जाती है, अपनी ही जागृत हो जाती है।
तो ये जो देवी के अलग-अलग दिए जा रहे हैं न, इसमें आप भौचक्के होकर खो मत जाइएगा कि अच्छा! ये देवी, ये देवी, ऐसा है, वैसा है। इनसे ये देवी निकलीं, फिर उनके दो टुकड़े हो गए, फिर एक टुकड़ा ऐसा हुआ, फिर ऐसा हुआ। वो सबकुछ प्रतीकात्मक रूप से आपको एक बहुत महत्वपूर्ण बात समझाने के लिए है। यहाँ जो कुछ है, सब काम का है अगर तुम अनाड़ी नहीं हो तो। कोई चीज़ अगर तुम्हारे काम नहीं आ रही है, तो उस चीज़ को बुरा-भला मत बोल देना। तुम अनाड़ी हो!
और यहाँ देवी हैं जो शाकंभरी। शाकंभरी माने उनसे ही शाक आता है। और ऐसी भी देवी हैं, वो पैदा हो रही हैं, वो गीदड़ों जैसी आवाज़ निकाल रहीं हैं और वो सिर्फ़ माँस खा रही हैं। किसका माँस? यही जो सब मारे दानव। हर रूप देवी का है। यहाँ जो कुछ भी चल रहा है, उसमें तुम देवत्व ही देखना। आई बात समझ में?
उपाय 1: विवाह प्रस्ताव
तो अब अंबा देवी हैं और अंबा देवी एकदम परम सुंदरी! अब वहाँ पर वो घूम रही हैं। वहाँ पर राज किसका चल रहा है आजकल पहाड़ों में? वहाँ राज चल रहा है दानवों का और दानवों ने दूत छोड़ रखें हैं कि बेटा देखो, यहाँ पर कुछ भी जो हो, बताओ फटाक-फटाक।
तो दानव देखते हैं कि ये देवी यहाँ घूम रही हैं, और देवी परम सुंदरी! तो दूत कहते हैं कि अब आज तो इनाम मिलेगा। वो फट से गये, अपने राजा को बताते हैं। और वो जाकर बल्कि राजा को उकसाते हैं, आवेशित करते हैं।
कहते हैं, ‘दुनिया की सबसे बढ़िया वाली गाय आपके पास, कामधेनु गाय। आपके पास सबसे बढ़िया वृक्ष, आपने सब छीन लिया देवताओं से, कल्पवृक्ष। सबसे बढ़िया रथ आपके पास, सबसे बढ़िया सिंहासन आपके पास, सबसे बढ़िया सेना आपके पास, सबसे बढ़िया भ्रृत्य आपके पास। महल सबसे ऊँचा आपके पास। तो ये बताइए कि जो दुनिया में सबसे परम स्त्री है सुंदरी, वो क्यों नहीं है आपके पास?’ तो शुंभ-निशुंभ, दो भाई थे। बोले, ‘क्या है? कहाँ से आ गया?’ बोला, ‘वहाँ घूम रही हैं, आप यहीं बैठे रह गए!’ तो बोलते हैं, ‘अच्छा!’
तो अभी समझो बात क्या है? क्या हो रहा है ये? कि जब राजा भोगवादी होता है तो प्रजा भी भोगवादी हो जाती है। एकदम ख़त्म! इस तीसरे अध्याय में हमें जगह-जगह पता चलता है कि कैसे हिमालयों का नाश कर रखा है इन दानवों ने। क्योंकि वही वहाँ राज कर रहे हैं, उनका काम ही है वहाँ पर आकर पूरे पहाड़ को खा जाना। फिर अंत में हमें ये भी पता चलता है कि जैसे ही इन दानवों का नाश होता है, वैसे ही वहाँ फिर प्रकृति पुनः स्वस्थ हो जाती है।
तो अब क्या करते हैं ये सब राजा? तो बोलते हैं कि जाओ, उसको बोलो कि दुनिया में जो कुछ श्रेष्ठ है वो तो हमारे पास होता है न, तो सुंदरी, तुम्हें भी हमारे पास ही होना चाहिए, हम तुम्हारा भोग करेंगे। ये राजा हैं! हम तो हैं ही दुनिया में सब श्रेष्ठ वस्तुओं का भोग करने के लिए, तो तुम भी श्रेष्ठ हो तो तुम्हारा भोग भी हम करेंगे, आओ पत्नी बनो हमारी। तो दूत पहुँचे और दूतों ने यही प्रस्ताव बता दिया।
तो अंबिका देवी मुस्कुराती हैं, बोलती हैं, ‘बात तो ठीक बोली तुमने, तुम्हारे राजा बड़े शक्तिशाली हैं। लेकिन मैं तो एक अल्पबुद्धि स्त्री मात्र हूँ, मुझे ज़्यादा समझ में आता नहीं। इतनी बड़ी-बड़ी बात तुम्हारे राजा ने कर दी। मैंने तो बस ऐसे ही अपनी अल्पबुद्धि में एक प्रण कर लिया है कि जो कोई मुझे अपने पराक्रम से परास्त कर देगा और मेरे अभिमान को चूर-चूर कर देगा, मैं तो उसी का वरण कर लूँगी, उसी को पति मानूँगी।’
मतलब समझना।
प्रकृति देवी बहुत अच्छे से जानती हैं कि उन्हें कोई परास्त कर ही नहीं सकता। कोई नहीं स्वामी हो सकता प्रकृति का। प्रकृति का स्वामी कोई नहीं हो सकता इसीलिए वो ये शर्त रख रही हैं। कह रही हैं कि मैंने तो एक छोटा सा प्रण किया है कि जो कोई आकर मुझे हरा देगा, मैं उसको पति मान लूँगी। उन्हें अच्छे से पता है कि उन्हें कोई हरा सकता ही नहीं, क्योंकि जो कोई हराने आएगा, वो वास्तव में उनकी ही औलाद है। तुम प्रकृति से हो, प्रकृति तुमसे थोड़े ही है। तुम हरा कैसे दोगे उसको?
तो ये जो बातें कही जा रही हैं, बस किस्से-कहानी की नहीं हैं, हर बात में सार छुपा हुआ है, उसको समझना पड़ेगा। हम प्रकृति से हैं न, तो हम प्रकृति को हरा कैसे लेंगे? पर हम चाहते यही हैं कि हरा लें। जो कुछ भी प्राकृतिक है, हम उसको हराने में ही लगे रहते हैं। और उसी को हम क्या बोलते हैं? उन्नति, तरक्की, विकास।
आप गौर से देखिएगा कि आपका जो सारा विकास है, वो बस प्रकृति को हराने का ही तो प्रयास है। यहाँ भी हरा दिया! यहाँ भी हरा दिया प्रकृति को! हरा दिया! हरा दिया! और हराना माने ऐसा नहीं कि प्रकृति को साधन की तरह इस्तेमाल किया अपनी मुक्ति के लिए। हरा दिया और फिर उसको भोगा। जैसे कहा न कि तुम्हें पत्नी बनाकर भोगूँगा, ऐसे हरा दिया।
अब जैसे रात में यहाँ पर हमने ये बिजलियाँ, बत्तियाँ जला रखी हैं, ये बात भी प्रकृति विरुद्ध ही है। क्योंकि प्रकृति के अनुसार तो अभी रात है, सो जाओ। लेकिन अगर यहाँ बत्तियाँ जली हुई हैं तो हम मुक्ति का प्रयास कर रहे हैं। हम कह रहे हैं कि प्रकृति से ही हमने ये बिजली पाई है, ठीक है नेचुरल रिसोर्सेस (प्राकृतिक संसाधन) से ही तो आ रही है, लेकिन इसका इस्तेमाल हम मुक्ति के लिए कर रहे हैं, एक तो ये है। यहाँ पर देवी आशीर्वाद देती हैं, वो सहायक हो जाती हैं। वो कहती हैं, ‘ठीक! मैं हूँ ही इसलिए ताकि तुम मुक्ति तक पहुँच सको।’
प्रकृति वास्तव में प्राणी के लिए बस मुक्ति का अवसर मात्र है। जगत जीव के लिए क्या है? एक संभावना, एक दरवाज़ा, जिस पर चाहो तो सिर पटक-पटककर सिर फोड़ दो और चाहो तो सही कुंजी से उस दरवाज़े को खोल दो और मुक्ति में प्रवेश कर जाओ।
तो हमने क्या किया है? हमने विकास के नाम पर प्रकृति का बस भोग किया है, और वही ये दोनों करने के लिए आतुर हो रहे हैं।
तो दूतों को बड़ा अपमान लगा, अमर्ष। वो जाते हैं, राजा के कान भरे और बोले, ‘वो वहाँ खड़ी हुई है, बड़ी घमंडिनी है! कह रही है कि जो हराएगा उसी को पति मानूँगी।’ तो वहाँ से एक सेनापति भेजा गया। कोई सस्ता सेनापति होगा। दैत्यों को लगा कि सुंदरी है तो ऐसे ही! जैसे दुनिया में ज़्यादा जो सुन्दर होती हैं, वो ज़्यादा कमज़ोर भी होती हैं। हम पुरुष लोग खुश ही इसी बात पर होते हैं। एकदम सुन्दर है तो पतली कलाइयों वाली होगी, इसमें क्या दम होगा!
तो सप्तशती कहती है कि वो जो भेजा गया, देवी ने उसको मारने तक की ज़हमत नहीं उठाई। देवी ने इतना भी श्रम नहीं किया कि उसको मारूँ। वो आ रहा था, आ रहा था, देवी ने बोला हूँँ! और इतने में उसके चीथड़े उड़ गये! तो वो जो आया था, जो अपने सैनिक-वैनिक लेकर आया था, उनको भी देवी ने कुछ नहीं किया। देवी का शेर बोलता है, ‘आप बैठिए, आराम करिए।’ देवी का शेर गया, उसने भी उनको खाया नहीं, शेर ने थप्पड़ मारे सैनिकों को जो आ रहे थे। और शेर ने सब सैनिकों को थप्पड़ मार-मारकर भाग दिया।
इससे आशय क्या है? आशय ये है कि प्रकृति की शक्ति के आगे तुम्हारी शक्ति कुछ भी नहीं है। तुम होगे कहीं के राजा। तुम किसी लायक नहीं हो प्रकृति की शक्ति के आगे। उसका थोड़ा सा उदाहरण आपने कोरोना-काल में देखा था। और वो कुछ भी नहीं था, वो प्रकृति की शक्ति का शून्य दशमलव एक प्रतिशत भी प्रदर्शन नहीं था। कुछ भी नहीं था वो।
बात समझ रहे हो?
तो ये जगत इसलिए नहीं है कि आप यहाँ पर भोग लोगे। ये जगत इसलिए है कि समझो कि तुम कौन हो और ये जगत क्या है। तो दैत्यराज बोलते हैं, ‘इंद्र को मैंने जीत रखा है, त्रिभुवन को मैंने जीत रखा है और ये मुझे ठुकरा रही है! और इसने मेरे वो उसको हूँ बोलकर मार दिया, और वो मर ही गया बिलकुल!’ तो धूम्रलोचन था, अभी ये थोड़ा कम सस्ता सेनापति होगा, थोड़ा ऊपर का होगा। तो मतलब अब स्तर बढ़ रहा है, बी फ़ाइव से बी फ़ोर में आ गए! (श्रोतागण हंसते हैं)
तो अंत में उसको भेजा गया कि अब तुम करके आओ। तो देखो, बोला क्या है, सुनो। ‘धूम्रलोचन, तुम शीघ्र अपनी सेना लेकर जाओ और उस दुष्टा के केश पकड़कर घसीटते हुए उसे बलपूर्वक यहाँ ले आओ।’ उसका नाम ही लोचन, माने आँख। धूम्र माने जिसकी आँख में धुआँ-ही-धुआँ हो, माने जिसको कुछ नहीं दिखाई देता, जो इतना पागल है कि जिसे दुनिया ही समझ में नहीं आती।
ये सब नाम बहुत सांकेतिक हैं। दुर्मुख, दुर्धर नाम था न, जिसने व्यर्थ की चीज़ उठा रखी हो, धारण कर रखी हो। जो बेकार की चीज़ धारण करके घूम रहा हो, उसे बोलते हैं दुर्धर। जिसकी सब इंद्रियाँ उल्टा ही पुल्टा देखती हों और उल्टी-पुल्टी चीज़ों को ग्रहण करती हों, उसे क्या बोलते हैं? दुर्मुख।
ऐसे ही इनका क्या नाम? धूम्रलोचन! अब लोचन माने ये नहीं कि आँख में धुआँ घुस गया है। ये किन आँखों की बात हो रही है? चेतना की आँख। इसकी आँख में धुआँ पड़ा हुआ है, इसे कुछ समझ में नहीं आता है, तो ये देवी को क्या समझ रहा है? कि ये तो भोग की वस्तु है। तो इसको भेजा गया और क्या बोला है? कि जाओ और दुष्टा के केश पकड़कर घसीटते हुए बलपूर्वक ले आओ। अब ये तो बोल रहे थे कि हमें विवाह करना है! जिससे विवाह करना है, उसको केश पकड़कर घसीटा जाता है?
तो इससे क्या पता चलता है? इससे पता चलता है कि जगत में जिसको आप प्रेम बोलते हो और जगत में जिसको आप कहते हो सम्बन्ध बनाना, जिसमें विवाह भी शामिल है, वो कुछ और नहीं, आपके भोग की लालसा है। उसमें आप सज्जन और शिष्ट सिर्फ़ तब तक हो जब तक आपकी कामना पूरी हो रही है। आप किसी को अपनी पत्नी बनाना चाहो, और पत्नी से यहाँ ये आशय थोड़े ही है कि मैं उसे अपनी धर्मपत्नी बनाऊँगा। यहाँ पत्नी से आशय ये है कि मैं इससे अब शारीरिक भोग करूँगा।
अगर वो सहमति से, शांति से हाँ कर दे तब तो ठीक है, न करे तो केश पकड़कर करूँगा, माने बलात्कार! ये जगत के सब सम्बन्धों की कहानी है। आराम-आराम से हो गया तो ठीक है, नहीं तो ज़ोर-ज़बरदस्ती से करूँगा, करना तो है ही।
और कहीं पर अभी आप ज़ोर-ज़बरदस्ती न होते देखें तो इसका मतलब ये नहीं है कि वहाँ वास्तविक प्रेम है, इसका मतलब बस ये है कि अभी ज़ोर-ज़बरदस्ती की ज़रूरत नहीं पड़ी है। जिस दिन ज़रूरत पड़ेगी, उस दिन ज़बरदस्ती भी कर लेंगे। तो ये सम्बन्धों का हिसाब है। खास तौर पर जो सुंदर हो और स्त्री हो, पुरुष भी कम, स्त्री, सुन्दर हो और स्त्री हो तो उसके साथ तो सम्बन्ध बलात्कार का ही बनाया जाने की ज़्यादा संभावना है।
और क्यों पुरुष किसी शरीर से सुंदर स्त्री की ओर आता है? इसीलिए तो कि शरीर उसका भोगना है। हाँ, पर आएगा ऐसे जैसे कितना शिष्ट, सभ्य, संस्कारी, सुसंस्कृत है! आदमी कहता है कि अगर आराम-आराम से काम हो रहा है तो मार-पिटाई काहे को करनी है। अगर प्यार से ही मान गई तो फिर क्यों मार-पिटाई करनी! पर प्यार से नहीं मानेगी तो फिर तरह-तरह के बलों के प्रयोग में भी हम कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।
और बल का प्रयोग माने यही नहीं कि धूम्रलोचन को भेज दिया कि केश पकड़कर घसीट लो। बल का प्रयोग ऐसे ही नहीं होता, सूक्ष्म प्रकार के बल होते हैं। उदाहरण के लिए, उसको अपनी दौलत के जलवे दिखा दो। ये भी बल प्रयोग ही है। और यहाँ कोई नहीं कहेगा कि देखो यहाँ ज़बरदस्ती की जा रही है, पर ये वही है। वो सामने बैठी है, उससे हाँ करवानी है तो उसको ऐसे किया, कलाई दिखाई। और कलाई में सबसे महँगी घड़ी कौनसी होती है?
रोलेक्स से आगे कोई आया ब्रांड या नहीं आया, या मैं अभी बहुत हल्का कुछ बोल रहा हूँ? वही है? तो मान लो आपने उसको ऐसे ही दिखा दिया कि पैंतालीस लाख की तो सिर्फ़, बस ऐसे ही दिखा दिया। ये कुछ नहीं है, ये बलात्कार की शुरुआत है। आपने बल प्रयोग कर दिया है। ‘अरे! मान नहीं रही थी।’ भाई अब जानवरों वाला तो है नहीं कि सीधे केश पकड़ लो। वो दिख जाएगा, सीसीटीवी में आ जाएगा, मीडिया पैसे कमा लेगा वो दिखा-दिखाकर। वो भी इसलिए नहीं दिखा रहा कि उसको लड़की बचानी है, वो इसलिए दिखा रहा है कि उसको टीआरपी बढ़ानी है। तो इसीलिए सूक्ष्म बल प्रयोग करो।
वो बैठी है सामने तो उसको ऐसे दिखा दो। (आचार्य जी अपनी कलाई दिखाते हुए) और दिखा दो कि उधर वो खड़ी हुई है, मेरी तीन करोड़ की गाड़ी खड़ी हुई है। ये बल प्रयोग ही है। और बहुत तरीक़े होते हैं। वो बैठी है सामने, उससे बात करने गये हैं डेट-वेट पर, वहाँ फोन मिलाया सीधे मंत्री जी को। मंत्री जी से बात-वात कर ली। अब बात क्या कर ली, हो सकता है उधर दूसरे छोर पर झुन्नू नाई हो। पर कर लो बात, उसमें क्या है! या कोई भी न हो तो भी कर लो।
समझ में आ रही है बात?
ये सब बल प्रयोग है। कोई आपके सौन्दर्य की ओर आकृष्ट हो रहा है, वास्तव में उसका इरादा बलात्कार का ही है। ये सुनने में बहुत खराब बात लगेगी! जब भी मैंने ये बात बोली है, महिलाओं को ज़्यादा बुरी लगी है। पुरुषों को फिर भी कम बुरी लगी, क्योंकि पुरुष जानते हैं कि बात यही है। पुरुषों को तो अच्छे से पता है कि यही बात है, क्योंकि मैं उन्हीं के इरादों की बात कर रहा हूँ। महिलाओं को ये बात ज़्यादा बुरी लग जाती है। वो कहती हैं कि ऐसा थोड़े ही है कि हम सुंदर हैं तो हमें सब एक ही नज़र से देखते हैं। नहीं, सब नहीं देखते पर दस हज़ार में से सिर्फ़ नौ-हज़ार-नौ-सौ-निन्यानवे ऐसे ही देखते हैं।
अब सब बोलकर तो आप बहुत कड़ी शर्त रख देते हो। और फिर अब वो आ जाते हैं, कहते हैं कि राधा भी तो सुंदर थीं तो श्रीकृष्ण ने तो उनको ऐसी नज़र से नहीं देखा। न तुम श्रीकृष्ण हो न वो राधा है, काहे के लिए बीच में ये मामला खड़ा कर रहे हो! जो अपनी ज़िंदगी की असलियत है उस पर ध्यान दो न।
तो ये है। जा और केश पकड़कर घसीटते हुए ले आ। और आगे भी यही है, एक के बाद एक भेजे जाएँगे। अभी ये धूम्रलोचन जाएगा, ये पिटेगा। बहुत बुरा पिटनेवाला है, अभी से बता देता हूँ। उसके बाद अगला आएगा, वो भी यही कहेगा कि चल तू तुरंत, मेरे राजाओं की अर्द्धांगिनी बन, नहीं तो बताता हूँ तुझे।
दो बातें देखो — स्त्री शोषण, प्रकृति शोषण। और जो करते हैं, दोनों एक साथ करते हैं आम तौर पर। स्त्री शोषण, पशु शोषण और प्रकृति शोषण, ये एक साथ चलता है। पहाड़ पर रात में खूब सारा चिकन-मटन खाया और उसके बाद जिस लड़की को लेकर गये थे, उसको भोगा रात में। तीन चीज़ों का एक साथ शोषण किया है — पहाड़ का, पशु का और प्रेमिका का। और ये पहाड़ों पर दोहराई जाने वाली बहुत आम कहानी है।
पहाड़ पर गर्लफ़्रेंड को लेकर गये, उसके साथ रात में खूब मटन चबाया। ज़्यादातर अगर तुम लोगों से पूछोगे कि तुम्हें किसने माँस की आदत लगाई, तो मालूम है नतीजे क्या आते हैं? लड़कों को ज़्यादातर माँस की आदत लगाते हैं उनके यार-दोस्त, खासकर हॉस्टल वाले। और लड़कियों को ज़्यादातर माँस की आदत लगाते हैं उनके प्रेमी लोग, क्योंकि माँस के बाद शारीरिक कार्यक्रम ज़्यादा सुविधा से हो पाता है। माँस खाने के बाद शारीरिक कार्यक्रम ज़्यादा आसानी से हो पाता है। माँस और साथ में अगर शराब हो तो और अच्छा!
तो पहाड़ पर जाकर पहले रात में चिकन और बीयर और उसके बाद *सेक्स*। पहाड़ पर जो जोड़े जाते हैं, कम ही होंगे जो वहाँ पर ध्यान लगाने जाते हैं या स्वाध्याय करने जाते हैं। जाते होंगे, अपवाद हमेशा होते हैं। पर अपवाद वही हैं, दस हज़ार में से एक! नौ-हज़ार-नौ-सौ-निन्यानवे तो पहाड़ को भोगने ही जाते हैं।
तो पहाड़ को पहले अच्छे से भोगो, राफ़्टिंग करो। अच्छे तरीक़े से गंगा को भोगो, खूब गंदगी करो, बोतलें फोड़ो, चिल्लाओ ताकि वहाँ पर कोई तट पर आकर शांति से बैठा हो, कुछ पढ़ रहा हो, चिल्लाओ, नारे लगाओ, फिल्मी गाने गाओ राफ़्टिंग करते वक्त, खूब शोर मचाओ। फिर शाम को जब थक जाओ, तब बोलो अब डिनर है। डिनर में चिकन-मटन जितना चाहिए, सब मिलता है पहाड़ों पर। और उसके बाद लड़की को लेकर गये हो साथ में, उसको भोगो।
ये तीनों भोग आम तौर पर एक साथ ही मिलेंगे — पशु भोग, प्रकृति भोग और प्रेम के नाम पर भोग। तो वही हमें यहाँ भी दिखाई दे रहा है। बताओ, ये कहानी पुरानी है कि आज की है? और आगे धूम्रलोचन को क्या निर्देश दिये जाते हैं? और धूम्रलोचन, अगर उस स्त्री की रक्षा के लिए कोई वहाँ खड़ा हो चाहे देवता, यक्ष या गंधर्व, तो उसको अवश्य मार डालना। माने इसको तो मारूँगा ही, इसे कोई बचाने आएगा तो उसको भी नहीं छोडूँगा।
आप सब देवियों को मैं सूचित करना चाहता हूँ कि मेरे खिलाफ ये जो विशाल जन-मानस अब खड़ा हो गया है और एक-से-एक दिशाओं से रोज़ ही आक्रमण होते रहते हैं, उसमें से आधे से ज़्यादा इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि मैं आपके पक्ष में बोलता हूँ देवियों। और वो लोग जो आपको पाँव के तले दबाकर रखना चाहते थे, जो हर तरीके से आपका शोषण करना चाहते थे, सबसे ज़्यादा उनको तकलीफ है मुझसे। सबसे ज़्यादा! महिला मुक्ति के लिए बोल दो तो पुरुषों की जान निकल जाती है। और वही बात है यहाँ पर।
और धूम्रलोचन, उस स्त्री की रक्षा के लिए वहाँ कोई खड़ा हो तो चाहे देवता हो, चाहे यक्ष हो, चाहे गंधर्व, उसे मार ज़रूर देना। स्त्री का बलात्कार होगा और जो स्त्री को बचाने आया है, वो जान से जाएगा। ये राक्षसी प्रवृति का प्रमाण! कहानी पुरानी है? हाँ, जो आएँगे, वो थोड़े ही ये कहेंगे कि ये महिलाओं के पक्ष में बोल रहा है, हम इसलिए इसके खिलाफ हैं।
वो आकर बोलते हैं, वो पता है क्या बोलते हैं? बोलते हैं, ‘ये वेदांत के नाम पर अफवाहें फैला रहा है, हम इसलिए इसके खिलाफ हैं।’ वो तरह-तरह के कारण लेकर आते हैं, पर उनको जिस चीज़ से सबसे ज़्यादा दर्द हो रहा है, वो एक ही चीज़ है। मैं आप लोगाें के लिए बोल रहा हूँ, इस बात का बहुत दर्द है। खास तौर पर उनको जो परंपरागत धार्मिक लोग हैं। उनको मनुष्य नहीं दिखाई देता, उनको स्त्री और पुरुष दिखाई देते हैं।
मनुष्य मात्र की चेतना को अगर मुक्ति देने का प्रयास करो, तो उनको बुरा ये लगता है कि स्त्रियों को क्यों मुक्ति दे रहे हो। भाई, मैं मनुष्यों के लिए बात कर रहा हूँ। मनुष्यों में आधी स्त्रियाँ हैं तो मैं क्या करूँ!
तो धूम्रलोचन आते हैं। अब इसमें अतिशयोक्ति खूब होती है, लेकिन वो अतिशयोक्ति भी एक इशारा है, उसको उसी तरह समझना चाहिए। धूम्रलोचन साठ हज़ार असुरों की सेना को लेकर आते हैं और उसने हिमालय पर रहने वाली देवी को ललकार कर कहा, ‘ओ! अगर तू अपनी मर्ज़ी से नहीं चलेगी तो मैं बलपूर्वक झोंटा पकड़कर घसीटते हुए तुझे ले जाऊँगा।’ तो ये भाषा देखो, ये तेवर देखो।
तो देवी बड़ी विनम्रतापूर्वक बोलती हैं, ‘अरे! तुम तो बड़े ही बलवान हो और भेजा भी तुम्हें दैत्यों के राजा ने है। तो इतनी बड़ी सेना लेकर आए हो, ये साठ हज़ार नमूने, तो एक काम करो, मुझे बलपूर्वक ही ले चलो। मैं कर ही क्या सकती हूँ, अबला स्त्री, मैं क्या कर सकती हूँ! मेरे पास तो कुल एक यही है मेरा शेरू, और तो कोई है भी नहीं यहाँ पर, तुम्हें जो करना है करो।’
देवी का सिंह तैयार हो रहा है, कह रहा है, ‘आओ तो तुम, बताता हूँ।’ देवी के सिंह से क्या आशय है? प्रकृति का बल। उसको एक पशु मत समझ लेना कि देवी का सिंह है तो देवी का वाहन है। वो बता रहा है कि ये जितने पशु हैं और जहाँ कहीं भी प्राणी मात्र हैं, वो प्रकृति के साथ ही है। और वो मनुष्य के विरुद्ध काम करना शुरू कर देगा अगर मनुष्य देवी के विरुद्ध जो जाएगा।
ये जो आप कोरोना वायरस जिसको बोल रहे हो, अगर ये वुहान की लैब में नहीं तैयार किया गया था, तो ये लाखों साल पुराना है भाई, ये आराम से वहाँ रहता था चमगादड़ों की गुफा में। ये चमगादड़ों की गुफा में रहता था तो इसको तो कोई समस्या नहीं थी कि मैं जाऊँगा और मनुष्यों का संहार करूँगा। ये वायरस कहाँ से आ गया? तुम गये थे प्रकृति में दखलअंदाजी करने। इंसान गया था वहाँ चमगादड़ों की गुफा में घुसने। और वहाँ चमगादड़ों की गुफा में घुस गये, वहाँ से चमगादड़ ले आए और चमगादड़ खा रहे हो, तो फिर वायरस भी आ गया। नहीं तो ये वायरस बहुत पुराना अपना मौज से रहता था जंगल में लाखों साल से, इसने तो मनुष्य को कभी नहीं परेशान किया।
और परेशानी तो छोड़ो, कितने लाख लोग मारे गए, करोड़ों में मारे गए लोग कोरोना से। तो ये जो साधारण जीव है, जो साधारण प्राणी है, एक छोटा सा वायरस , वो भी तुम्हारा काल बन जाएगा अगर तुम देवी के प्रति अपमान रखोगे तो। एक बहुत साधारण वायरस है। उस तरह के वायरस , आप जानते हो, वैसे हज़ारों वायरस अनेक जंगलों में बैठे हुए हैं। आप सिर्फ़ इसलिए बचे हुए हो क्योंकि आप उनके संपर्क में नहीं आते। पर जितना आप जंगलों को काटोगे, उतना आप जंगलों के भीतर घुसोगे और आप उन वायरस से संपर्क में आओगे।
एक कोराेना नहीं, हज़ार कोरोना, और बहुत ज़्यादा शक्तिशाली वायरस , और वायरस, बैक्टीरिया, फंगस , हर तरीक़े की चीज़ें, ये सब बैठे हुए हैं जंगलों में। और ये बहुत प्राचीन काल से जंगलों में बैठे हुए हैं। जंगलों में बैठे हैं, ग्लेशियर के नीचे दबे हुए हैं, ऐसी-ऐसी जगहों पर हैं जहाँ मनुष्य कभी पहुँचता नहीं। पर मनुष्य अपने भोग के लिए हर जगह घुसता चला जा रहा है। और जब तुम वहाँ घुसोगे तो तुम उन जीवाणुओं, उन विषाणुओं के संपर्क में आओगे। जब संपर्क में आओगे तो फिर वही होगा जो हुआ था। नहीं तो उनको उनकी जगह रहने दो, तुम अपनी जगह रहो।
तो इसी तरह सिंह है देवी का। अब सिंह जंगल में रहता है, वो तुम्हें घर में घुसकर खाने नहीं आ रहा। पर हम तो खूब सुनते हैं कि शेर ने हमला कर दिया और काट दिया। शेर ने हमला नहीं कर दिया, तुम शेर के घर में घुसे थे। शेर तो शहर आकर, हमने नहीं सुना कि शेर शहर आया था और आरडब्ल्यूए का गेट कूद गया और फलाने के घर में दस्तक दी, फिर अंदर घुसा और फ़्रिज खोलकर खा रहा था। ऐसा तो हमने नहीं सुना। शेर आपके घर में आता है या आप शेर के घर में घुसते हो? जब भी शेर ने मनुष्य को मारा है, कौन किसके घर में घुसा था? मनुष्य शेर के घर में घुसा था।
आप जब ये भी बोलते हो कि वो लोग गये हुए थे और सुबह-सुबह खेतों की तरफ़, गाँवों में होता है, हमला कर दिया चीते ने और उठा ले गया। भाई! वो जो तुमने खेत बनाये थे, वो जंगल काटकर बनाये थे। वो तुम्हारा खेत अभी हुआ है, उससे पहले वो शेर का, चीते का घर था या हाथी का घर था। तुमने उसके घर पर कब्ज़ा कर लिया है तो वो क्या करे!
जंगल जितने कटते जा रहे हैं, आपने देखा है शहरों में बंदर उतने बढ़ते जा रहे हैं। और बंदरों की बड़ी दुर्दशा रहती है शहरों में क्योंकि उनको कोई अभ्यास नहीं है शहर में रहने का। उन्हें नहीं समझ में आता कि बिजली के तार का करना क्या है। उनकी जो पूरी परवरिश हुई है आदिकाल से, वो जंगलों में हुई है। बंदरों को कुछ नहीं पता। सीमेंट जैसी कोई चीज़ बंदर के विज्ञान में है ही नहीं। बंदर को नहीं पता कि सीमेंट कहाँ से आ गया। बंदर को नहीं पता कि लोहे का क्या मतलब होता है। जंगल में लोहा पाया जाता है क्या? बंदर को ये सब बातें ही समझ में नहीं आतीं पर जंगल इतने काट दिये कि बंदर मजबूर हो गये हैं शहर में आने को।
आप बहुत खुश होते हो, कहते हो, ‘देखो, हनुमान जी की कृपा है।’ वो हनुमान जी की कृपा नहीं है। हनुमान जी रुष्ट हो रहे हैं क्योंकि जंगल कट रहे हैं। अभी नीलगाय दिखी एक, यहीं बगल में अपने। रात में आ रहा हूँ, सड़क पर नीलगाय घूम रही है। नीलगाय को इधर क्यों आना पड़ा? वो नहीं चाहते। उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगता है आपके पास आते हुए। उनका बस चले तो वो किसी ऐसी जगह चले जाएँ जहाँ कोई इंसान न हो। समझ में आ रही है बात?
ऐसे भी दिखाया जा सकता था कि देवी हैं, उनको लेकिन सिंह वाहन दिया गया है। सिंह प्रतीक है सब प्राणियों का। तो धूम्रलोचन का अहंकार आहत हो गया। पुरुष का अहंकार! वो दौड़ ही पड़ा। तो अंबिका ने फिर से अभी हाथ भी नहीं उठाया। बोलीं, ‘अभी तो बहुत आएँगे ये। अभी अस्त्र के प्रयोग की कोई ज़रूरत नहीं।’ उन्होंने फिर से बस हूँ का उच्चारण किया और फिर गिर पड़ा, भस्म हो गया।
और क्रोध में भरी हुई दैत्यों की विशाल सेना ने फिर आक्रमण कर दिया। जब आक्रमण हो गया तो अभी भी देवी कुछ नहीं कर रही हैं। आरंभ में बस सिंह काफ़ी है। देवी का वाहन सिंह क्रोध में भरकर भयंकर गर्जना करके गर्दन के बालों को हिलाता हुआ असुरों की सेना पर टूट पड़ा। तो दैत्यों को पंजों की मार से, अपने जबड़ों से और दाढ़ों से घायल करके मार दिया, नखों से पेट फाड़ डाले और थप्पड़ मारकर कितनों के सिर धड़ से अलग कर दिये।
ये मतलब समझो। ये कोई आपके मनोरंजन के लिए कहानी नहीं सुनाई जा रही है कि एक शेर है, वो राक्षसों का वध कर रहा है। ये आपको बताया जा रहा है कि आपके भीतर जो राक्षस है, प्रकृति के आगे उसका यही हाल होना है अगर प्रकृति के प्रति भोग की इच्छा रखी तो।
जब मैंने वो बात कही थी जिसके फिर आप लोगों ने पोस्टर बना दिए कि प्रकृति माँ है, पत्नी नहीं, भोगो नहीं, तो मैंने शुंभ-निशुंभ से ही कही थी। वो पत्नी बनाने को आतुर थे न कि इसको पत्नी बनाएँगे। बोले, ‘इसको पत्नी मत बनाओ, वो माँ है। वो भोग के लिए नहीं है तुम्हारे, तुम पहचान नहीं पा रहे हो उसको।’ माने तुम्हारा जो जन्म है — तुम्हारा जन्म भी प्रकृति है न — तुम्हारा जन्म भी किसके लिए नहीं हुआ है? भोगने के लिए नहीं हुआ है। तुम्हारा जन्म किसी और उद्देश्य से हुआ है। अपने जन्म के उद्देश्य को पहचानो। अपने शरीर को भोगने, जगत के सब संसाधनों को, पशु-पक्षियों, प्राणियों को भोगने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है।
तो अब धूम्रलोचन साफ़ हो गया, ये शुंभ को पता चला। बड़ा उसको क्रोध आया। अभी भी उसको अक्ल नहीं आई, क्रोध आया। तो अब उसने चंड-मुंड भेजे दो। चामुंडा सुना है? हाँ, तो इन्हीं के नाम पर है। जिन्होंने चंड-मुंड दोनों को मार दिया, तो उनको नाम दिया गया चामुंडा। तो कहा, ‘चंड-मुंड जाओ और इस बार तुम घसीटकर नहीं लाना, बाँधकर लाना। थोड़ी ख़तरनाक लगती है! खुले में ले आए ऐसे ही बस पकड़कर तो पता नहीं क्या करें, तो एक काम करना, इस बार जब लाना तो पूरा बाँधकर लाना। और अगर बाँधकर न ला पाओ तो एक काम करो, इस बार उसकी हत्या कर देना।’
इन्हें प्रेम था! ये विवाह करने जा रहे थे! पहले तो बोला, ‘कोई रक्षा करने आए तो उसको मार दो।’ अब कह रहे हैं कि एक काम करना, उसी को मार दो। ये हैं प्रेमी! अगर उसको भोग नहीं पाऊँगा तो उसकी हत्या कर दूँगा।
बड़ा बुरा लगता है महिलाओं को जब बताते हैं कि दुनिया भर में महिलाओं की जो हत्याएँ होती हैं, वो सत्तर प्रतिशत उनके प्रेमियों, पतियों और परिवारजनों से होती हैं। बड़ा बुरा लगता है उनको सुनने में। दुनिया भर में महिलाओं की जो हत्याएँ होती हैं, सत्तर प्रतिशत वो कोई अजनबी लोग नहीं कर रहे, उनके प्रेमी कर रहे हैं या पति कर रहे हैं या परिवार वाले कर रहे हैं।
ये रहा कि जाओ बेटा तुम चंड-मुंड, आ जाए तो ठीक है, न आए तो इस बार मार ही दो। और एक काम करना, वो जो सिंह है दुष्ट, उस सिंह को तो ज़रूर ही मार देना। और इसको इस बार बाँधकर लाना।
सातवाँ अध्याय शुरू होता है।
तो अब ये आ गये हैं दोनों। कौन? चंड-मुंड। और देवी के पास जाते हैं तो वो तो मुस्कुरा रही हैं। जब मुस्कुरा रही हैं तो दैत्य और आग-बबूला हो गए। बोल रहे हैं, ‘इतने हमारे मार दिए, वहाँ बैठकर मुस्कुरा रही है।’ तो ये सब जो हैं, ये अपने-अपने अस्त्र निकालकर और बहुत उद्दंडतापूर्वक देवी के ऊपर बिलकुल सामने आकर, वो बैठी हुई थीं, एकदम देवी के सामने चढ़कर खड़े हो गए अपने-अपने अस्त्र लेकर।
तो ऐसे खड़े हो गए। माने अभद्रता, बदतमीज़ी स्त्री के साथ। उसके सामने अस्त्र लेकर ऐसे खड़े हो रहे हो, क्रोध आ गया देवी को अब। अब क्रोधित ही रहेंगी देवी अंत तक, बहुत क्रोधित। बोल रहे हैं, ‘ये देखो, मैं सोच रही थी कि इनको कुछ समझ आएगा, उसकी जगह तो ये और बदतमीज़ी कर रहे हैं।’ तो अब उस क्रोध के कारण उनका मुँह काला पड़ गया, ललाट में भौंहें टेढ़ी हो गईं और फिर विकराल मुखी काली प्रकट हुईं। मुख कैसा हो गया? काला। क्रोध से जब मुख काला हो जाए। तो इसीलिए आप काली देवी को जब भी देखते हो तो कैसा उनका होता है वर्णन? चित्रण कैसा होता है? क्रोध में। वो क्रोधित हैं और वो जो काला रंग है, क्रोध से वो काली पड़ गई हैं।
यही प्रकृति है और इसके कोप का कोई अंत नहीं। ये इतनी क्रोधित हो सकती है, इतनी क्रोधित हो सकती है कि आपको कहीं का नहीं छोड़े। प्रकृति का क्रोध किन रूपों में प्रकट होता है? बाढ़, दावानल, भूकंप, महामारी और? बात ही नहीं कर रहे, उस शब्द तक ही नहीं आ रहे। (श्रोताओं से) क्लाइमेट चेंज , जलवायु परिवर्तन, भू-स्खलन। हिमालय हैं, आप लैंडस्लाइड को कैसे भूल सकते हो? आप पहाड़ काटते जा रहे हो, और हिमालय न बड़ा बच्चा पहाड़ हैं। बहुत छोटे पहाड़ हैं। छोटे माने उम्र में बहुत छोटे हैं वो।
आप कहोगे कि हिमालय तो बहुत पुराने हैं, सब शास्त्रों में हिमालय की बात है। हिमालय की उम्र की तुलना में बहुत नये हैं शास्त्र। शास्त्र अभी के हैं और हिमालय बहुत पीछे के हैं। लेकिन हिमालय इतना पीछे होने के बावजूद भी बहुत बच्चा पहाड़ हैं। और जो दुनिया के पहाड़ हैं, वो बहुत-बहुत पुराने हैं। जब बहुत पुराने हैं न, तो वो सब पहाड़ अब स्थिर हो गए हैं। वो जम गए हैं, पक्के हो गए हैं।
अपने और पास के ले लो। जैसे अरावली है या विंध्या है। विंध्याचल जो है, वो भी पुराना है। तो ये पुराने हैं। ये पक्के हो गए हैं। जब पक्का हो जाता है तो फिर वो गिरता नहीं है, ढहता नहीं है। हिमालय अभी ऐसे हैं जैसे कि दीवार पर ताज़ा-ताज़ा प्लस्तर। नया-नया सीमेंट किया हो तो क्या होता है? ज़्यादा ज़ोर से मारोगे तो? गिर जाएगा। अभी वो जमा नहीं है। हिमालय भी अभी जमे नहीं हैं पूरी तरह। उन पर जो ये आप विकास कार्य वगैरह कर रहे हैं, उसको वो बर्दाश्त कर ही नहीं सकते। उनको अभी बहुत समय लगेगा पक्का होने में।
हिमालय तो जैसे बच्चा होता है तो बच्चे का कद बढ़ रहा होता है न हर साल, हिमालय का तो अभी कद बढ़ रहा है हर साल, इतने छोटे हैं वो। हर साल हिमालय पर्वत श्रृंखला कुछ इंच और लंबी हो जाती है। जैसे छोटा बच्चा अभी ऊँचाई पकड़ता है। अभी तो वो वैसे हैं। और उन पर जाकर बहुत तरीके से आप ये सब कर रहे हो तो वो कहाँ से उसको झेलेंगे।
तो काली देवी प्रकट होती हैं। वे विचित्र खट्वांग धारण किए और चीते के चर्म की साड़ी पहने नरमुंडों की माला से विभूषित थीं। उनके शरीर का माँस सूख गया था, केवल हड्डियों का ढाँचा था जिससे वो और भयंकर जान पड़ती थीं। उनका मुख बहुत विशाल था। जीभ लपलपाने के कारण और डरावनी लगती थीं। उनकी आँखें भीतर को धँसी हुई और लाल थीं। अपनी भयंकर गर्जना से सम्पूर्ण दिशाओं को गूँजा रही थीं।
यही प्रकृति आपके लिए काली बन सकती है अगर आप दैत्य हो तो। अगर आप दैत्य हो तो प्रकृति काली है आपके लिए, और प्रकृति अगर आपके लिए काली है तो प्रकृति के गले में नरमुंडों की माला है। वो नरमुंड आपका ही है। तो ये कालिका देवी बड़े वेग से दैत्यों पर टूट पड़ीं। और अब काली मारती नहीं हैं, काली भक्षण करती हैं। वो खा ही जाती हैं सीधे। आओ!
और फिर आगे पूरा विस्तार से बताया है कि कैसे-कैसे, किसको-किसको मारा। वो आप विस्तार से इतना पढ़ना चाहें तो पढ़िएगा। अब सब तरीके से, हर तरीके से जैसे उनको मारा जा सकता है, पीसा जा सकता है और पीसकर खाया जा सकता है, काली यही कर रही हैं। तो जो चंड है, फिर वो भयानक काली देवी की ओर दौड़ा और महादैत्य मुंड ने भी बाणों की वर्षा की। माने ये ये भी पागल प्रकृति का विरोध ही कर रहे हैं!
तो काली ने अत्यंत रोष में भरकर विकट अट्टहास किया और चंड की ही तलवार पकड़कर चंड का सिर काट दिया। मुंड भी दौड़ पड़ा कि अरे, चंड मारा गया! तो उसे भी तलवार के धार से… जा तू भी मर! चंड-मुंड दोनों चले गए। तो जो बाकी बची सेना थी, वो भाग गयी। बोले, ‘यही दोनों नहीं बचे तो हमारा क्या होगा, भागो रे! और दूसरे, हमको तो ये बताया गया था कि बहुत सुंदर कोई वहाँ स्त्री है, उसको लाना है। ये कौनसी देवी आ गईं, ये तो मार-मार खा रही हैं।’ तो सब भाग गये वहाँ से।
तो काली ने चंड और मुंड का मस्तक ले जाकर वहाँ जो चंडिका देवी थीं, जो सुंदर देवी थीं, उनको दिया और प्रचंड अट्टहास करते हुए कहा कि मेरा काम पूरा हुआ। चंड और मुंड, इन दो महापशुओं को मैंने तुम्हें भेंट किया है। खुद ही बता दिया उन्होंने। ये नहीं कहा कि ये दो दानव मारे हैं। क्या बोला? दो महापशु मारे हैं, महापशु! और ये दो उन महापशुओं के सिर हैं, ये लो।
अब आगे का काम आप खुद देखना। शब्द वो क्या इस्तेमाल करती हैं? युद्ध-यज्ञ। कहती हैं, ‘अब युद्ध-यज्ञ में शुंभ और निशुंभ की आहुति आप स्वयं दीजिएगा। मेरा काम पूरा हुआ।’
युद्ध-यज्ञ, कौन याद आ रहा है? श्रीकृष्ण। यज्ञ ही निष्कामता है, निष्कामता ही युद्ध है। और निष्कामता का अर्थ ही होता है कि प्रकृति के प्रति निष्काम हो गया, माने प्रकृति को भोगूँगा नहीं। यही निष्कामता है, यही यज्ञ है और यही युद्ध है। यही है युद्धयस्व!
‘तो अब इस युद्ध-यज्ञ में शुंभ-निशुंभ की बलि आप स्वयं दीजिएगा।’ तो वो अपना चली गयीं और यही करके फिर देवी का नाम चामुंडा पड़ गया। तो अब शुंभ को फिर और क्रोध आ गया। ये मूर्ख की निशानी है। जहाँ उसे समझ आनी चाहिए, वहाँ उसे क्रोध आता है।
जब विफलता मिले, दुख मिले, कष्ट मिले तो ज्ञानी की निशानी ये है कि वो ठहर जाता है। वो कहता है कि मुझे दुख मिल रहा है, मेरी ही कोई भूल होगी। और अज्ञानी की निशानी ये है कि जब उसे दुख मिलता है तो उसे जगत के प्रति क्रोध आता है। वो कहता है, ‘अब दुख मुझे मेरे अज्ञान से थोड़े ही मिल रहा है, जग की धूर्तता के कारण मुझे दुख मिल रहा है, तो मैं इस जग को अब सबक सिखाऊँगा।’
तो प्रकृति जब दुख देती है तो ज्ञानी अपने भीतर देखता है, आत्मावलोकन करता है और प्रकृति से जब दुख मिलता है तो अज्ञानी प्रकृति के प्रति क्रोध से भर जाता है और प्रकृति का या तो दमन करना चाहता है या और भोग; ये ज्ञानी, अज्ञानी में अंतर हुआ।
तो फिर बहुत सारे नाम बताए हैं। कितने ही तरह के असुर हैं। एक उदयुद्ध नाम के हैं, कुंभ नाम के हैं, कोटिवीर्य नाम के हैं, धौम्रकुल के हैं, कालक, दौर्हृद, मौर्य, कालकेय, माने दुनिया भर के। माने बताया ये गया है कि जैसे देवी के अनंत रूप होते हैं, वैसे ही मूर्ख भी तरह-तरह के रूप-रंग और आकार में पाए जाते हैं। तो इसलिए तुमको ये इतने सारे नाम बताए जा रहे हैं। तो ये सब आते हैं और होना इनका भी वही है।
पर अब ठीक है, कहानी धीरे-धीरे आगे बढ़ेगी। तो ये सब जब आते हैं तो अब इस बार चंडिका इनको देखकर मुस्कुराती नहीं हैं, वो पहले ही धनुष की टंकार करती हैं और सिंह भी पहले ही ज़ोर से दहाड़ना शुरू कर देता है। तो तुमुलनाद को सुनकर दैत्यों की सेनाओं ने घेर लिया देवी को। अब जब इतने सारे आ गए तो फिर ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु और इंद्र और सब देवों की शक्तियाँ जो दूसरे अध्याय में थीं, फिर वो भी प्रकट हो गईं देवी की सहायता के लिए। वो सब पुनः वापस आ गईं। कौनसी? वही जिनसे महिषासुर का मर्दन हुआ था।
तो जिस देवता का जैसा रूप, जैसी वेशभूषा और जैसा वाहन है, ठीक वैसे ही साधनों से संपन्न होकर उसकी शक्ति असुरों से युद्ध करने के लिए आ गईं। तो ब्रह्मा जी की शक्ति उपस्थित हुईं, उन्हें ब्रह्माणी बोलते हैं। महादेव जी की शक्ति आ गईं, उनको शक्ति ही बोलते हैं। कार्तिकेय की शक्तिरूपा जगदंबिका और भगवान विष्णु की शक्ति गरुड़ पर विराजमान होकर आ गईं। माने जो देवता का वाहन, वही शक्ति का वाहन। जो देवता का अस्त्र, वही शक्ति का अस्त्र। ठीक है?
तो माने जो देवता भी हैं, उनकी भी जो शक्ति है, वो प्रकृति से ही है। मतलब समझो। समझ लो जैसे विष्णु अपने वाहन पर चलते हैं, बिलकुल उसी तरह उनकी शक्ति उन्हीं के वाहन पर चल रही हैं। माने जो सब देवता हैं, उनकी भी शक्ति प्रकृति से ही है। वो एक ही हैं। तो वराह का रूप धारण करने वाले जो श्रीहरि की शक्ति है, वो वराह शरीर ही लेकर आ गईं। और इस तरह से इंद्र की शक्ति वज्र हाथ में लेकर गजराज ऐरावत पर बैठकर आईं, ठीक वैसे जैसे इंद्र बैठते हैं। माने वो इंद्र ही हैं, माने इंद्र की शक्ति भी प्रकृति ही है। इंद्र का जैसा रूप है, वैसा ही इंद्र की शक्ति का रूप था।
तो ये सब भी आ गयीं। और साथ में अब महादेव आ गये। अब आगे जो होगा, वो आपको थोड़ा सा हो सकता है चकित करे। तो महादेव आते हैं। उन सब शक्तियों को लेकर अब आ गये हैं। महादेव चंडिका से कहते हैं, ‘देखो चंडिका, अब इन असुरों का सबका शीघ्र संहार करो!’ तो देवी के शरीर से उग्र चंडिका शक्ति अब प्रकट होती हैं, वो सैकड़ों गीदड़ियों की आवाज़ करने वाली थीं।
और महादेव जब बोलते हैं चंडिका से कि आप इनका संहार करिए सबका, तो चंडिका कह रही हैं महादेव से — अब महादेव देवत्व के शीर्ष — तो उनसे कह रही हैं कि आप एक काम करिए, आप मेरे दूत बनिए। और कह रही हैं, ‘आप जाइए और उन दोनों शुंभ-निशुंभ से कहिए कि युद्ध न करें, अगर जान बचानी है तो पाताल लोक वापस भाग जाएँ। देवताओं को उनका जो न्यायपूर्वक राज्य है, वो वापस कर दें और आपकी जो जगह है, आपका जो राज्य है, वो पाताल लोक में है, तो पाताल लोक में जाइए।’
इससे किसकी याद आ रही है? श्रीकृष्ण की फिर याद आ रही है। तो चूँकि उन्होंने शिव को ही अपना दूत बना लिया तो इसीलिए देवी को शिवदूति भी कहते हैं, शिवदूति। माने कहा ये जा रहा है कि आप जिनको सबसे श्रेष्ठ मानते हैं, प्रकृति की एक क्षमता है कि प्रकृति उनको भी अपना दूत ही बना लेती है। माने शिव के माध्यम से प्रकृति भी कोई संदेश दे रही है।
दूत का क्या काम होता है? संदेश देना। तो जो शिव की, महादेव की पूरी हमारी अवधारणा है, वो भी वास्तव में प्रकृति का कोई संदेश देने के लिए ही है। प्रकृति वो जो शिव के माध्यम से अपना संदेश भेजवाये। तो इसीलिए देवी को शिवदूति भी कहते हैं। ठीक है? तो शिव गये संदेश देने तो शिव का भी वही हुआ जो श्रीकृष्ण का हुआ था।
श्रीकृष्ण गये थे, दुर्योधन ने नहीं सुनी। और महादेव शिव गये तो शुम्भ-निशुम्भ ने नहीं सुनी। बोले, ‘कुछ नहीं, भागो, हमको तो लड़ाई करनी है, हम इसको हराकर जीत लेंगे।’ कहा, ‘अच्छा ठीक है।’ तो और गुस्से में आ गये दोनों दैत्य और अब लड़ाई करने लग गये। वो लड़ाई करने लग गये तो आगे बहुत विस्तार है कि किस तरह सब देवियों ने — अब एक तो हैं नहीं, देवी के अब इतने रूप आ गये हैं — सब देवताओं ने अपनी-अपनी शक्ति भेज दी है, तो अब सबका विस्तार से वर्णन है कि किस देवी ने किस-किस तरीके से पिटाई लगायी, और सबने अलग-अलग तरीके से लगायी।
जो वाराही थीं, उन्होंने थूथुन से मार-मारकर मार दिया। जो ब्रह्मा की ब्रह्माणी थीं, वो ब्रह्मा जी तो सात्विक देवता तो वो अस्त्र-शस्त्र लेकर नहीं आई थीं, वो कमंडल में जल भरकर लाई थीं। तो जो आता था, उस पर जल मारती थीं। जब जल मारती थीं तो वो निस्तेज हो जाते थे, उनका सारा बल समाप्त हो जाता था, तो वो भाग जाते थे। तो सबने अपने-अपने तरीके से ये राक्षसों को मार भगाया।
उपाय 2 : रक्तबीज
तो ये सब जब भाग गये तो एक जग पड़ा, उसका नाम था रक्तबीज। बोला, ‘ये तो सबकी पिटाई हो रही है, अब मैं बताता हूँ, असली तो मैं हूँ।’ रक्तबीज का क्या मतलब है? रक्तबीज का मतलब है कि अज्ञान प्रतिक्रियात्मक होता है। उसको अगर मारो एक चोट तो वो पाँच गुनी प्रतिक्रिया करता है। मूर्ख क्रोध में है और तुम उसके क्रोध पर चोट करो तो उसका क्रोध पाँच गुना हो जाएगा। मूर्ख को ज्ञान देने जाओ तो उसका अज्ञान पाँच गुना बढ़ जाएगा।
अहंकार तिलमिलाता है, प्रतिक्रिया करता है। ये रक्तबीज का सिद्धांत है। मुझे मारोगे तो मैं पाँच गुना हो जाऊँगा। मुझे मारोगे तो मैं पाँच गुना हो जाऊँगा या पंद्रह गुना हो जाऊँगा या पचास गुना हो जाऊँगा। जितना मुझपर आघात करोगे, मैं उतना ताकतवर हो जाऊँगा— ये अहंकार की निशानी है। अहंकार पर चोट करो, अहंकार और बड़ा हो जाता है। जितना तुम मुझपर आघात करोगे, मैं उतना बड़ा हो जाऊँगा, उतना विस्तृत हो जाऊँगा, उतना फैल जाऊँगा— ये रक्तबीज है। तो रक्तबीज माने कुछ और नहीं, अहंकार ही रक्तबीज है। अहंकार की प्रतिक्रियात्मकता का नाम रक्तबीज है।
उदाहरण के लिए, दो समुदाय आमने-सामने खड़े हों। उन दो समुदायों में दो ही चार लोग हों जो मूर्ख और उग्र किस्म के हैं। दो समुदाय आमने-सामने खड़े हैं, मान लो दोनों में सौ-सौ लोग हैं। दोनों तरफ़ लेकिन दो-दो लोग ऐसे हैं जो उग्र हैं और हिंसक हैं और दूसरे समुदाय को मारने को आतुर हैं। ठीक है? ये दो लोग इधर से, ये दो लोग उधर से आकर भिड़ गये। बाकी इधर के अट्ठानवे और उधर के अट्ठानवे का कोई लेना-देना नहीं। ये दो-दो आकर भिड़ गये।
मान लो इधर का पक्ष था ‘अ’ और उधर का पक्ष था ‘ब’। ‘अ’ और ‘ब’ के दो-दो लोग आकर भिड़ गये। उसमें ‘ब’ पक्ष का एक मारा गया। अब भिड़ेंगे तो कोई मारा भी जा सकता है, ‘ब’ पक्ष वाला एक मारा गया। जब वो ‘ब’ पक्ष वाला मारा जाता है तो इससे क्या होता है? जब ‘ब’ पक्ष का कोई मारा जाता है तो इससे क्या होता है? ज़ोर से बोलो।
श्रोतागण: दस और खड़े हो जाते हैं।
आचार्य: ‘ब’ पक्ष में वैसे दस और खड़े हो जाते हैं प्रतिक्रिया में, जो कि हो सकता है इस एक के मारे जाने से पहले शांत लोग रहे हों, उन्हें कोई लेना-देना नहीं था। पर जैसे ही वो एक लाश गिरती देखते हैं, उनके भीतर की सामुदायिकता जाग्रत हो जाती है। ये होता है कि नहीं होता है?
इज़राइल और हमास याद आ रहे हैं? ऐसे लोग जो आमतौर पर बहुत पूर्वाग्रह ग्रस्त नहीं थे, बहुत पार्टिसन नहीं थे, उन्होंने भी जब देखा कि हमारे लोग मरने लगते हैं तो उनके भीतर भी साम्प्रदायिकता और सामुदायिकता भयानक खड़ी हो जाती है। एक को मारो, पाँच खड़े हो जाते हैं। और कई बार तो एक जान-बूझकर मरता ही इसीलिए है कि मैं मरूँगा तो मेरे जैसे पाँच और खड़े हो जाएँगे। कई बार जो नहीं भी मरा होता है, उसके मरने की अफ़वाह फैलाई जाती है ताकि पाँच और खड़े हो जाएँ।
अफ़वाहें भी तो खूब फैलाई जाती हैं न ऐसे दंगे वगैरह के मामलों में? वहाँ दंगा नहीं हो रहा पर जब साम्प्रदायिक दंगे होते हैं, मान लो भारत में हो रहे हैं, तो ये खूब अफ़वाह फैलाई जाएगी कि अरे! उन्होंने आकर दो मार दिये। और जैसे ही ये कहा जाता है कि उन्होंने आकर दो मार दिये, वैसे ही बीस खड़े हो जाते हैं। ये बीस नहीं आते लड़ाई करने, पर उन दो के मरने से बीस तैयार हो गये— ये रक्तबीज है। दो मरेंगे, बीस तैयार हो जाएँगे।
तो इसलिए फिर जो योग्य रणनीतिज्ञ होते हैं, वो कहते हैं कि ये सब जो इस तरह के लोग हैं, इन्हें आसानी से शहीद मत होने दो। इन्हें बहुत आसानी से मार्टियर मत बनने दो। क्योंकि अगर एक इनमें से बन गया कि मैं तो शहीद हूँ। तो उसके पीछे-पीछे बीस खड़े हो जाएँगे। और ये जो लोग होते हैं, इनकी बड़ी तमन्ना होती है कि किसी तरह हम शहीद कहला जाएँ। एक बन जाएगा तो और बहुत हो जाएँगे, ये रक्तबीज है।
अहंकार, अज्ञान प्रतिक्रियात्मक होता है और कई गुनी प्रतिक्रिया करता है। एक को मारा, बीस खड़े हो गये।
समझ में आई बात?
ये रक्तबीज है। तो रक्तबीज ऐसा नहीं कि कोई खास असुर है। कि उसका रक्त जहाँ भी गिरता है, वहाँ और आ जाते हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। वो एक सिद्धांत है जिसको समझाया जा रहा है, उस सिद्धांत को समझना ज़रूरी है। ठीक है?
तो वो आ गया लड़ने और उसको फिर देवियों ने मारना शुरू किया। अब जब मारना शुरू करें तो जहाँ-जहाँ उसका खून पड़े, वहाँ सौ और खड़े हो जाएँ। तो इससे फिर देवताओं को बड़ा दुख और भय होने लग गया। बोले, ‘इतने सारे ये हो गये, अब तो युद्ध फिर से हार गये हम।’ तो चण्डिका देवी आईं, उन्होंने फिर काली से कहा कि काली, तुम्हें ही कुछ करना पड़ेगा। बोली कि तुम्हीं हो जो रक्त पीती हो।
अब काली रक्त पीती हैं, वहाँ ये समझना भी ज़रूरी है। आप नवदुर्गा में काली को बलि चढ़ाने लग जाते हो किसकी? बकरे की। बकरे का रक्त वो थोड़े ही पीती हैं, वो रक्तबीज का रक्त पीती हैं, वो मनुष्य के अहंकार का रक्त पीती हैं। या रक्तबीज कोई बकरा था? रक्तबीज तो एक मनुष्य है जिसमें ज़बरदस्त अज्ञान और अहंकार है न, तो काली उनका रक्त पीती हैं।
आपने कह दिया कि काली तो रक्त पीती हैं, तो चलो अब नवदुर्गा चल रहा है। तो हम जाकर मुर्गा काट रहे हैं, बकरा काट रहे हैं और पचास काट रहे हैं। ये थोड़े ही करना है। तो कहती हैं, ‘एक काम करना काली’ — चण्डिका देवी काली देवी से कहती हैं, ‘तुम अपना मुँह खोलना और मैं इसको मारूँगी, और जहाँ-जहाँ इसका खून गिरे, तुम वो जो खून है उसको पी लेना।’ तो काली कहती हैं कि ठीक है। तो इस तरह मारा और वो उसका खून पीते गयीं। और आगे उसका और विस्तार से वर्णन है। तो इस तरह से रक्तबीज समाप्त हो गया।
मतलब क्या है कि फिर रक्तबीज को मारा कैसे गया? अगर रक्तबीज का अर्थ है अहंकार की प्रतिक्रियात्मकता, तो रक्तबीज मारा कैसे जाता है? उस पर आघात मत करो, उसको जड़ से समाप्त करो। अहंकार पर घंटे की तरह आघात करो तो वो बहुत ज़ोर से बजेगा, उसको जड़ से समाप्त करो। काली खा ही गयीं उसको। उसके मूल पर आघात करो।
मूल पर आघात कैसे करना है? बहुत सूक्ष्म बात है, जो लोग ध्यान देंगे सिर्फ़ उनको समझ आएगी। काली किसकी प्रतीक हैं? प्रकृति की। रक्तबीज किसका प्रतीक है? अहंकार का। अहंकार को प्रकृति से एक हो जाने दो। काली ने रक्तबीज को खा लिया, माने अहंकार प्रकृति में समा गया। माने अहंकार का दोष ही यही होता है कि ये जो प्रकृति से अपनी अलग विशिष्ट सत्ता रखकर बैठ जाता है न — मैं तो प्रकृति से अलग हूँ।
श्रीकृष्ण क्या बोलते हैं? “प्रकृति ही सबकुछ है, प्रकृति के तीन गुण ही सबकुछ हैं।” पर अहंकार अपना अलग कूदता-फाँदता रहता है। वो कहता है, ‘मैं तो अलग हूँ! मैं तो अलग हूँ! मैं तो अलग हूँ!’ इसी में उसका दोष है। वो अपनेआप को प्रकृति से अलग समझता है। जो भी कुछ कर रहा है, वो कौन कर रहा है? प्रकृति के तीन गुण कर रहे हैं। पर अहंकार अपनेआप को कर्ता मानता है। तो काली ने रक्तबीज को खा लिया, माने अहंकार, जो अलग हुआ बैठा था, वो प्रकृति से जाकर एक हो गया। और यही अहंकार को जड़ से नष्ट करने का तारिका है। उसको दिखा दो कि तू है ही नहीं प्रकृति से अलग। तू कैसे करेगा प्रतिक्रिया जब हम दिखा देंगे कि तेरी तो कोई क्रिया भी नहीं है।
रक्तबीज आतुर है क्या करने को? प्रतिक्रिया करने को। प्रतिक्रिया तो तब करे न जब तेरी कोई क्रिया हो। तू होगा तब प्रतिक्रिया करेगा न! हम तुझे दिखा देंगे कि तू है ही नहीं। ये तारिका है जड़ से नष्ट करने का अहंकार को। जो किया मैंने, वो मैंने किया ही नहीं, मुझे अभी-अभी दिख गया।
जो मैंने किया, अभी-अभी क्या किया? मैंने पुरुष होने के नाते किया तो मैंने कहाँ किया? पुरुष हूँ, ये तो एक संयोग की बात है, मेरे संयोग ने किया। जो मैंने किया वो कैसे किया? वो मैंने एक हिंदू या मुस्लिम होने के नाते किया तो मैंने तो किया ही नहीं। मैं तो हूँ ही नहीं। जब मैं हूँ ही नहीं तो मैं प्रतिक्रिया कैसे करूँगा? रक्तबीज नष्ट हो गया! अहंकार प्रकृति में मिल गया। रक्तबीज काली का ग्रास बन गया, समाप्त हो गया।
काली कौन हैं? प्रकृति हैं। रक्तबीज क्या है? अहंकार है। अहंकार को समूल नष्ट कैसे करना है? उसको दर्शा दो साफ़-साफ़ कि तुम हो ही नहीं। इसी में वो नष्ट होता है समूल। उस पर चोट करोगे तो नहीं होगा। उसको बोलोगे, ‘तुम बुरे हो!’, ये रक्तबीज पर आघात हुआ। उसको बोला, ‘तुम बुरे हो।’ बुरे हो बोलने में भी तुमने उसको क्या बोल दिया? तुम हो।
हा हा हा हा! देखा! यही तो मैं तब से बोल रहा हूँ कि मैं हूँ। अहंकार के कानों के लिए तो ये संगीत होता है। कोई इतना आकर बस बोल दे कि मैं हूँ। तुमने बोला कि तू बहुत बुरा है! तू बहुत बुरा है! तू बहुत बुरा है! तुमने तीन बार क्या बोल दिया? तू है, तू है, तू है।
मूल का नाश होता है जब ये नहीं कहते कि तुम बुरे हो, मूल का नाश होता है जब तुम कहते हो कि तुम नहीं हो। यू आर बैड (तुम बुरे हो) मत बोलो किसी को। बोलो, ‘यू आर नॉट।’ (तुम नहीं हो) रक्तबीज समाप्त! किसी को माने अपनेआप को, किसी और को ज्ञान मत देने लग जाना। यू आर बैड, यू आर ईविल, यू आर दिस, यू आर दैट , इसमें सबमें अहंकार सघन होता है। जितनी चोट मारो, घंटा और बजेगा। चोट मार-मारकर घंटा टूटा कभी? वो तो चाहता है कि कोई चोट आये घंटा बजाये। उसको क्या बताना है? तू है ही नहीं। *बट यू प्रिटेंड ऐज़ इफ़ यू आर, एंड देयरइन लाइज़ ऑल योर मिज़री*। ये रक्तबीज का सिद्धांत है। ठीक है।
तो रक्तबीज गये। अब शुम्भ-निशुम्भ एकदम ही बरगला गये। बोले, ‘सबको मार दिया’, धूम्रलोचन से लेकर वो इतने सारे भेजे थे अजीब-अजीब नामों वाले। अब रक्तबीज भी नहीं। तो अब ये आ गये। अभी मतलब समझ रहे हो क्या हो रहा है? जो एक के बाद एक, अब बी वन तक बात आ गयी है। ये क्या चल रहा है? ये क्या हो रहा है? कि अहंकार जब दुख पाता है, चोट पाता है, हानि पाता है — ये हानि ही हो रही है न लगातार दैत्यों की? तो वो और ज़्यादा अपने अंधेरे में डूबता चला जाता है। काश कि ऐसा होता कि दुख भी हमको सत्य की तरफ़ धकेल पाता। हमारा दुख भी हमें सत्य की तरफ़ धकेल नहीं पाता।
संतों ने तो यही कहा कि सुख में सुमिरन न करें और दुख में करते याद। हम दुख में भी कुछ नहीं याद करते। हम सुख में तो मरते ही हैं, हम सुख में तो भ्रमित होते ही हैं भोग में लिपटकर, हम दुख में भी बर्बाद होते हैं। अहंकार सुख के साथ-साथ दुख का भी उपयोग कर लेता है अपनेआप को बढ़ाने-बचाने को। तो अब शुम्भ-निशुम्भ आ जाते हैं। और निशुम्भ आता है पहले, छोटा भाई होगा। तो अब ये आ जाता है, तो आगे पूरा वही है कि खूब लड़ाई-वड़ाई होती है और ये सब होता है। सिंह को चोट मार देता है ये। और ये वो पल आता है जब देवी के क्रोध की कोई सीमा नहीं रहती।
क्या अर्थ हुआ इसका? अगर तुमने किसी जीवित प्राणी को क्षति पहुँचायी तो प्रकृति छोड़ेगी नहीं तुमको। कुछ भी कर लेना, प्रकृति के बच्चों को कष्ट मत देना। तुम्हारे पास तुम्हारी बुद्धि है, तुम्हारे पास तुम्हारा विज्ञान है और तुम्हारी टेक्नोलॉजी है, तुम्हारे पास सबकुछ है। प्रकृति के बच्चों के पास बस प्रकृति है।
बोलो, एक मछली के पास क्या है? मछली कुछ नहीं इकट्ठा करती, उसने अपनेआप को पूरे तरीके से प्रकृति के भरोसे छोड़ रखा है। है न? वो अपनेआप को पूरे तरीके से किसको अर्पित किये हुए है? प्रकृति को अर्पित कर रखा है। वही हाल मुर्गे का है, बकरे का है, जंगल के सब प्राणियों का है, पौधों का है, पेड़ों का है। वो कुछ इकट्ठा नहीं करते, वो अपनी सुरक्षा का कोई उपाय नहीं करते। वो क्या बोलते हैं? कि हमारी सुरक्षा का दार-ओ-मदार किसका है? प्रकृति का है। ‘माँ ने पैदा किया है, माँ संभाले’, ये सब जीव बोलते हैं। तो जब तुम जाकर पौधों को, पक्षियों को, पशुओं को हानि देते हो तो बस एक ही है जो उनको बचाने की ज़िम्मेदारी रखता है और वही कुपित होगा। कौन है वो? माँ प्रकृति।
प्रकृति की दृष्टि में बड़े-से-बड़ा अपराध ये है कि तुमने उसके बच्चों को दुख दिया, मारा, खाया, जो भी किया। जब भी तुम किसी प्राणी को दुख दो, ये अच्छी तरह जान लेना कि वो किसी का बच्चा है। और जब मुर्गे को खाओ तो ये मत सोचना कि वो मुर्गी का बच्चा है, वो प्रकृति का बच्चा है। ये सामने काली खड़ी है न, वो जो तुम मुर्गा खा रहे हो, वो काली की औलाद है। अब काली वही करेंगी तुम्हारे साथ जो शुम्भ-निशुम्भ के साथ हुआ है। वो जिसको तुम खा रहे हो न, वो अनाथ नहीं हैं। वो जो बकरा है, वो अनाथ नहीं है, उसके पास नाथ है। और जो बकरे का नाथ है, वो तुम्हें छोड़ने वाला नहीं है।
बकरा भी जब कटने वाला होता है न तो याद करता है अपनी माँ को। माँ को याद करता है जब बकरा तो — कौन सी? बकरे की माँ बकरी नहीं, प्रकृति माँ — तो वो छोड़ने नहीं वाली। कोई भी प्राणी जब मर रहा होता है, देखा है कितनी ज़ोर से वो रिरियाता है, घिघियाता है। वो याद कर रहा है, वो आवाज़, वो पुकार भेज रहा है। वो माँ को बोल रहा है कि ये देखो, मेरे साथ कुछ गलत हो रहा है माँ।
तो आगे पूरा उसका जो है बहुत लंबा-चौड़ा वर्णन है कि कैसे कौनसा राक्षस मारा जा रहा है, सब देवी, कौनसी देवी किस तरीके से कर रही हैं। और फिर ये करके, पिटाई खा-खाकर ये निशुम्भ मारा जाता है। अब निशुम्भ के बाद शुम्भ आएँगे। और शुम्भ फिर वही बोलते हैं। शुम्भ बोलते हैं कि अरे! दुष्ट दुर्गे! — और दुर्गा उनका नाम इसलिए है, क्योंकि दुर्गम नाम का था एक असुर, तो उसको उन्होंने मारा तो इसलिए उनका नाम दुर्गा। ठीक है? तो चामुण्डा चण्ड-मुण्ड से और दुर्गा देवी हैं दुर्गम से। तो बोलता है, ‘दुष्ट दुर्गा! तू बल के अभिमान में आकर झूठ-मूठ का घमंड दिखा रही है। वैसे तो तू बड़ी मानिनी है, लेकिन लड़ रही है तू इन सब दूसरी स्त्रियों का सहारा लेकर। तो वो हँसकर बोलीं, ‘दुष्ट! मैं अकेली ही हूँ।’
आगे सुनो, बहुत गौर से।
इस संसार में मेरे सिवा दूसरी कौन है? ये पूरा संसार माने प्रकृति मैं ही हूँ। और ये कहकर उन्होंने कहा, ‘देख! अब तू देख सकता है तो, ये मेरी विभूतियाँ हैं। और ये मुझमें प्रवेश कर रही हैं।’ और वो सारी देवियाँ आकर प्रवेश कर गयीं। तो ये सब हो गया और बस अम्बिका देवी ही वहाँ पर बचीं। और उसके बाद अब बड़ा युद्ध छिड़ गया।
उधर से शुम्भ हैं और इधर से देवी अकेली हैं। और शुम्भ जितना जो कुछ कर सकता है, सब किया। उसने देवी के कई बार अस्त्र भी काट दिये और ये सब भी किया। और एक-दो बार उसने देवी पर आघात भी कर दिया गदा से। तो ये सब आखिरी लड़ाई है तो वो बहुत लंबी-चौड़ी चलती है। तो एक जगह आती है जब वो सीधे आकर सामने ही खड़ा हो जाता है और देवी पर मुष्टिका प्रहार करता है मुक्के से, बहुत ज़ोर से एकदम। तो आगे ये है।
एक तो पता नहीं कि ये बताया जा रहा है कि असुर बड़े बलशाली हैं। या उनका मज़ाक उड़ाकर अपमान किया जा रहा है। तो ये है कि असुर मुक्का तानकर बड़े वेग से देवी की ओर झपटा और उसने देवी की छाती में एक मुक्का मार दिया। देवी को उसने मुक्का मार दिया तो देवी ने उसको चाटा मार दिया। तो देवी का थप्पड़ खाकर दैत्यराज शुम्भ पृथ्वी पर औंधे मुँह गिर पड़ा। अब ये तो दैत्य हैं। मुक्का-वुक्का मारने गये थे (और चाटा खाकर गिर पड़े।)
मतलब समझो क्या है। तुम होगे बहुत बड़े दैत्य, प्रकृति का एक चाटा तुम्हारे लिए काफ़ी है। कलपते रहना फिर इधर-उधर। फिर और हो गया, फिर वो आसमान पर चढ़ गया, आसमान से वर्षा करने लग गया तीरों की। तो जब बहुत हो गया ये सब, तो फिर देवी ने उसको फिर मार ही दिया। जब मार दिया तब क्या होता है? अब ध्यान से सुनिए। उस दुरात्मा के मारे जाने पर संपूर्ण जगत प्रसन्न एवं पूर्ण स्वस्थ हो गया तथा आकाश स्वच्छ हो गया।
तो ये दैत्य की निशानी है, वो आकाश को गंदा कर देता है। आकाश को कैसे गंदा कर देता है? धुआँ बहुत छोड़ता है। धुआँ क्यों छोड़ता है? क्योंकि उसे भोग करना है न। ये जो सारा पॉल्यूशन है, ये *इंडस्ट्रियल और ऑटोमोबाइल ही तो है। भोगना है, भोगना है, भोगना है, इसलिए आकाश गंदा कर दिया है। जो आकाश को गंदा करे, वही शुम्भ है। तो उसके मरते ही आकाश स्वच्छ हो गया, जगत स्वस्थ हो गया। जो उत्पात-सूचक मेघ और उल्कापात होते थे, माने ये जो क्लाउड बर्स्ट वगैरह हो रहे थे, वो बंद हो गये तुरंत।
फिर से याद आ गया न! गंगा याद आ गयीं, गंगोत्री याद आ गया, उत्तराखण्ड याद आ गया। और उस दैत्य के मरते ही नदियाँ ठीक मार्ग से बहने लगी। ये जो भोगने के लिए आपको इतनी बिजली चाहिए, उसके लिए आप बाँध बनाते हो और नदियों में कचरा डालते हो, नदियों को बर्बाद कर दिया है। जो नदियों को बर्बाद करे, वही असुर है। उसी के लिए दुर्गासप्तशती लिखी गयी है।
ये सब होते ही देवता फिर से प्रसन्न हो गये और मधुर गीत गाने लगे। तो जब देवता ये सब करने लग गये, तो इस बार देवी ने पहले ही बता दिया कि ये अभी आगे भी होगा, मैं तब आ जाऊँगी तुम्हारी सहायता के लिए।
इशारा किधर को है, समझना।
दैत्य ही हैं जो राज कर रहे हैं। और दैत्य ही हैं जिन्होंने नदियों को, पहाड़ों को और आसमान को और मेघों को खराब कर रखा है। इशारा क्या है? क्या बोला जा रहा है? बोला जा रहा है कि राज्य देवी के हाथ में होना चाहिए। दैत्यों के हाथ में अगर राज्य होगा तो प्रकृति की दुर्दशा हो जाएगी। और अगर प्रकृति की कहीं दुर्दशा देखो तो जान लो कि राज्य दैत्यों के हाथ में है। यूँही नहीं देवी कह रही थीं असुर से कि तुम राज्य देवताओं को छोड़कर अपने पाताल-लोक पहुँच जाओ। आवश्यक है कि राज्य सही हाथों में रहे।
और इससे फिर कौन याद आते हैं आपको? फिर श्रीकृष्ण याद आते हैं। राज्य सही हाथों में ही रहना चाहिए। नहीं तो श्रीकृष्ण को कोई आवश्यकता नहीं थी कुरुक्षेत्र में मौजूद होने की। जब राज्य गलत हाथों में रहता है तो बाहर जो प्रकृति है, वो तो बर्बाद होती ही है, भीतर की भी प्रकृति बर्बाद हो जाती है। क्योंकि बाहर धुआँ छोड़ा है, इसके लिए पहले भीतर कालिमा होनी चाहिए न। जब भीतर भोग-वृति होगी, तभी तो तुम बाहर तमाम चीज़ें बर्बाद करोगे — जंगल काटोगे, ज़मीन खन दोगे, माइनिंग , मिनरल चाहिए, ये चाहिए, इस तरह का, ऐसे तरक्की करनी है, ये करना है, वो करना है, पूरा सब खराब कर दो, तहस-नहस कर दो सबकुछ। क्यों? क्योंकि मुझे भोगना है, मैं बड़ा हूँ, किसी तरह से मुझे अपनेआप को तृप्त करना है।
राजा से आशय यही नहीं है कि राजनैतिक सत्ता किसके हाथ में है। हर प्रकार का बल किसके हाथ में है? अगर आपके आदर्श वो लोग हैं जो आदर्श है ही इसीलिए क्योंकि वो भोगते खूब हैं, तो फिर आप भी तो भोगोगे ही न। आप बहुत खुश हो जाते हो आपका कोई आदर्श होता है, कोई इन्फ़्लुएंसर होता है, वो दिखाता है कि देखो मैं प्राइवेट जेट से आया। आप बिलकुल ये नहीं सोचते कि ये पाँच लोगों के लिए एक पूरा हवाई जहाज वहाँ से यहाँ तक चला आया तो उससे कितना ज़्यादा कार्बन एमिशन (कार्बन उत्सर्जन) हुआ। क्या आप सोचते हो? बल्कि आप और कहते हो कि मुझे भी ऐसा बनना है। तो समाज में जो लोग प्रतिष्ठित हों, सम्मानित हों, वो बहुत सही लोग होने चाहिए। अगर समाज में गलत लोग प्रतिष्ठा पा रहे हैं तो पूरा समाज ही बर्बाद हो जाएगा। सप्तशती यही इशारा कर रही है।
दैत्यों के हाथ में किसी भी तरह की सत्ता नहीं जानी चाहिए। जिसको आप आदर्श या रोल मॉडल बना रहे हो, वो खुद दिखा रहा है कि मैं कितने तरीकों का मटन खाता हूँ और बनाता हूँ। उसका इंटरव्यू हो रहा है, उसमें हँस-हँसकर बता रहा है कि देखो, मैं तो बिना मटन के खा ही नहीं सकता। तो आप भी तो फिर खाओगे न! सत्ता आपने दे दी न उसके हाथों में। सत्ता सिर्फ़ राजनैतिक नहीं होती। आपने एक गलत आदमी को प्रसिद्धि दे दी, वो गलत आदमी एक और गलत आदमी के पास जाकर बैठ जाता है, वो दूसरा गलत आदमी भी तो प्रसिद्ध हो जाएगा न।
एक मूर्ख आदमी को प्रसिद्ध बनाने का क्या नतीजा होगा? वो दस और मूर्खों को प्रसिद्ध बना देगा जिनको नहीं प्रसिद्ध होना चाहिए था। और वो जाएगा मूर्खों के पास ही। आज बहुत सारे ऐसे उदाहरण हैं जहाँ किसी एक को प्रसिद्ध करने के लिए जो कि अभी नहीं है, सौ तरह के नेता वगैरह उसके पास लाकर बैठा दिये जाते हैं। वो जो बिलकुल गुमनाम था, वो भी प्रसिद्ध हो जाता है। नेताओं को बैठा दो, खिलाड़ियों को बैठा दो, कलाकारों को, फ़िल्मकारों को, इन सबको, जो भी लोग हैं, सेलिब्रिटी कहलाते हैं, इन सब को ले आओ।
इससे पता क्या चलता है? कि जिनको आपने सेलिब्रिटी बना रखा है, उनको सेलिब्रिटी होना ही नहीं चाहिए था। आपने बहुत मूर्ख किस्म के लोगों को, बहुत गलत किस्म के लोगों को, बहुत दानव किस्म के लोगों को अपना सेलिब्रिटी, अपना आदर्श, अपना रोल मॉडल बना रखा है। और पूरी दुर्गासप्तशती, पूरी नवदुर्गा आपको यही समझाने के लिए है कि इनके हाथों में बल, प्रतिष्ठा, सत्ता मत दे देना। ये कहीं का नहीं छोड़ेंगे। ये जो पचास तरह के राक्षसों के नाम बताये गए, वो यही हैं जो आपके आदर्श हैं, रोल मॉडल हैं — कोई मनोरंजन की दुनिया से, कोई खेल की दुनिया से, कोई उद्योग की दुनिया से। ज़्यादातर तो वही पैसे वाले लोग, वही कोई राजनीति की दुनिया से, कोई कहीं से, कोई धर्म की दुनिया से। वही सब हैं ये पचास तरह के दैत्य जिनके नाम हैं।
समझ में आ रही है बात?
पवित्र वायु बहने लगी जैसे ही वो मरा। पवित्र वायु बहने लगी माने क्या ठीक हो गया? हाँ, एक्यूआइ ठीक हो गया — एयर क्वॉलिटी इंडेक्स। माने इन दैत्यों ने ही हवा खराब कर रखी है। वरना कैसे हो सकता है कि उसके मरते ही आकाश साफ़ हो गया, बादलों में जो उत्पात-सूचक क्रिया होती थी, वो बंद हो गयी, नदियाँ ठीक बहने लग गयीं, वायु पवित्र हो गयी। वायु पवित्र हो गयी माने वायु को अपवित्र किसने कर रखा था? दैत्य ने। माने जो वायु को अपवित्र कर रहे हैं, उनको ही दैत्य जानना।
सूर्य की प्रभा उत्तम हो गयी। सूरज की रोशनी एकदम साफ़ दिखाई देने लग गयी। कब दिखाई देने लग जाता है सूरज की रोशनी साफ़? जब प्रदूषण कम हो जाता है। सूर्य की प्रभा उत्तम हो गयी। समस्या वो लोग भी नहीं हैं जो आपके आदर्श या सेलिब्रिटी बने हुए हैं, समस्या आप हैं। आपको नहीं पता कि किसको सम्मान देना है, किसको नहीं। आप किसी भी छली को, मूर्ख को, किसी बिलकुल वर्थलेस व्यक्ति को सिर पर चढ़ा लेते हो। और कोई महाभोगी हो, उसको तो आप सिर पर न चढ़ाओ, ये हो ही नहीं सकता। उसको बस ये दिखाना है कि देखो, मेरे पास पैसा कितना है। लोग अपने पैसों का प्रदर्शन करते हैं।
कोई बड़ी कोठी बना ले, आप उसको सम्मान देना शुरू कर देते हो। कोई बड़ी गाड़ी खरीद ले, आप सम्मान देना शुरू कर देते हो। वर्चुअल वर्ल्ड में यूट्यूब वगैरह होता है, उसमें कोई अपने थंबनेल पर ये दिखा दे कि देखो, मेरे पास कितने करोड़ रुपये हैं, आप तुरंत वो वीडियो देखना शुरू कर दोगे। और कोई-कोई तो अपने बल का, पैसे का प्रदर्शन ही ऐसे करते हैं कि देखो, मैंने भंडारा कितना बड़ा लगाया है, वहाँ भी आप सम्मान दे दोगे। इसलिए थोड़े ही दिया कि वो धार्मिक है, इसलिए दिया कि वो बड़ा है। हमें नहीं पता कि सम्मान किसको देना है। और जो सत्य को सम्मान नहीं देगा, वो कभी नहीं जान पाएगा कि सम्मान किसको देना होता है। वो तरह-तरह के झूठों को सम्मान दे देगा।
उसके बाद सब देवताओं ने बहुत-बहुत तरीकों से देवी की स्तुति की। और इस बार देवी ने पहले ही बता दिया कि अब आगे कई तरीके के और दैत्य आने वाले हैं। मैं पहले ही बता देती हूँ कि उनका नाश करने के लिए मैं फिर आऊँगी। आगे के लिए उन्होंने एक दैत्य बताया है कि वैप्रचित्य नाम के दानव होंगे। उनको जब मारूँगी मैं तो बहुत बुरा मारूँगी और उनका खून पिऊँगी। जब खून पिऊँगी तो खून चेहरे पर लग जाएगा, वो मेरे दाँतों पर लग जाएगा, दाँत अनार की तरह बिलकुल लाल हो जाएँगे। और तब मेरा नाम होगा रक्तदंतिका।
तो देवी पहले ही आपको सूचित कर गई हैं। अब वो कौनसा दानव है आप जानिए, लेकिन देवी ने बता दिया है कि उनका अगला नाम है रक्तदंतिका। बोलीं, ‘ये वो लोग नहीं हैं जिनको सुधारा जा सके, सुधारने के लिए तो स्वयं महादेव को भेजा। शिव को दूत बना लिया मैंने अपना, ये तब भी नहीं सुधरे। तो अब तो यही है कि इनका रक्त ही पिया जाए — रक्तदंतिका।’
जो सुधर नहीं सकता, उसके लिए श्रीकृष्ण ने क्या नाम दिया था? पॉइंट ऑफ़ नो रिटर्न। तुम अपनी चेतना को अगर एकदम ही गिरा दोगे तो एक बिंदु ऐसा आता है जिसके बाद तुमको न श्रीकृष्ण बचा सकते हैं, न शिव बचा सकते हैं। हमने दोनों को असफल होते देख लिया न? श्रीकृष्ण भी गये थे शांति का दूत बनकर, असफल हो गये। और शिव भी गये थे शांति का दूत बनकर, असफल हो गये। तो देवी पहले ही कह दे रही हैं। वो कह भी नहीं रही हैं कि मैं शांति का प्रयास करूँगी, वो कह रही हैं — रक्तदंतिका! आगे और बता दिया है। बोल रही हैं, ‘आगे अब पृथ्वी पर वर्षा रुकने वाली है और पानी का अभाव होने वाला है। और तब मैं आऊँगी और किसी तरीके से मैं कुछ शाक उत्पन्न करके प्राणियों को बचाकर रखूँगी, तब मेरा नाम होगा शाकम्भरी।’
उपाय 3 : सुरथ-समाधि
उसके बाद और देवी ने ये सब बातें बतायीं। और फिर ऋषि कहते हैं — कौनसे ऋषि हैं ये? मेधामुनि। ये कहानी किसको सारी बतायी जा रही है? सुरथ और समाधि को। तो ये सारी कहानी बताने के बाद ऋषि कहते हैं कि देवी फिर अंतर्ध्यान हो गईं। देवी जब अंतर्ध्यान हो गईं तो अब ये दोनों जो हैं, मेधामुनि के वचन सुन रहे हैं बैठकर, सुरथ और समाधि। तो ये दोनों बोलते हैं, ‘ठीक, ये बात हमें समझ में आ गयी कि हमें जो पूरा मोह और दुख हो रहा था, उसका कारण क्या है।’
तो ये दोनों सुरथ और समाधि जो राजा और व्यापारी हैं, ये जाते हैं और अपना ध्यान में बैठ जाते हैं। जब ये ध्यान में बैठ जाते हैं तो फिर इनको बोध हो जाता है। देवी इनसे कहती हैं, ‘बताओ, क्या चाहिए?’ तो राजा तो यही कहते हैं कि जो मेरा राज्य खोया हुआ है, मुझे वापस मिले और मैं सारे अपने शत्रु–वत्रु को परास्त कर दूँ। तो देवी कहती हैं, ‘ठीक है, तुम्हें यही चाहिए तो यही ले लो।’ समाधि ज़्यादा समझदार थे। वो जगत-व्यापार बेहतर समझते थे। व्यापारी हैं न, वैश्य। तो बोलते हैं, ‘मुझे मुक्ति दे दो। मुझे कुछ नहीं चाहिए। देवी, मुझे तो बस मुक्ति दे दो। और कुछ नहीं चाहिए!’ देवी बोलती हैं, ‘बढ़िया! तुमने जो चीज़ माँगी है, मिलेगी।’
वैश्य को मुक्ति मिल जाती है और राजा को राज्य मिल जाता है। मतलब क्या है?
सकामी सुमिरन करे पावे उत्तम धाम। निष्कामी सुमिरन करे पावे अविचल राम।।
~ संत कबीर
वैश्य ने क्या माँग लिया? अविचल राम। मिल गया! मुक्ति! राजा ने क्या माँग लिया? भुक्ति, उत्तम धाम। राजा को उत्तम धाम मिल गया, फिर जाकर जीत-जात गये, राजा बन गये अपना। तो इस तरीके से कहानी समाप्त हो गयी। कम-से-कम वैश्य समाधि के लिए तो कहानी समाप्त ही हो गयी। राजा के लिए अभी चलेगी, क्योंकि राजा ने मुक्ति माँगी ही नहीं।
तो नवदुर्गा के अवसर पर दुर्गासप्तशती का हमारा पाठ यहाँ पर आकर समाप्त होता है। पर देवी, देवी का बोध, जीव का स्वयं को जानना, जगत को जानना, वो समाप्त नहीं होना चाहिए। हमेशा से कहा जाता रहा है, खासतौर पर जो शाक्त धारा है उसमें, कि नवदुर्गा में जिसने दुर्गासप्तशती का पाठ कर लिया, उसके सारे पाप कट जाते हैं। पाठ का अर्थ ये नहीं होता कि बस पढ़ लिया। पाठ माने कि उसमें जो छिपे हुए गूढ़ संकेत हैं, उनका अर्थ जान लिया। तो मेरी प्रार्थना है कि आप जो मर्म है सप्तशती का उससे परिचित हो पाये होंगे। इन तीन चरित्रों में जो हमने तीन दिनों में लिये।
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। ये देवता संसार में वस्तुओं की ही क्यों माँग करते हैं, मुक्ति की इच्छा क्यों नहीं कर पाते?
आचार्य: इसका कोई उत्तर नहीं होता। ये तो प्रेम की बात होती है। जब तक इतना आत्मज्ञान नहीं होगा कि दिखने लगे कि मैं जो हूँ या मैं जो अपनेआप को मानता हूँ, उसका कोई कल्याण नहीं हो सकता दुनिया की चीज़ें पाकर, तब तक आप दुनिया की चीज़ें माँगते ही रहोगे। ये दुनिया में जो कुछ भी है, उसका भोग आपको आशा देता रहेगा। आपको लगेगा कि अभी पाँच-सात और जो चीज़ें बची हैं न, वो भोगी नहीं। उनको भोग लूँ तो क्या पता कि तृप्ति, शांति मिल ही जाए। ये आशा बनी रहेगी, क्योंकि दुनिया में चीज़ें कितनी हैं? अनंत हैं।
तो हमेशा ऐसी चीज़ें बची रहेंगी जो आपने अभी भोगी नहीं। आपको अगर दस हज़ार साल की भी उम्र मिल जाए तो भी ऐसी चीज़ें बची रहेंगी जो अभी आपने भोगी नहीं। तो आशा बनी रहेगी कि और भोग लूँ, और भोग लूँ। उस आशा को काटने का एक ही तारिका होता है — आत्मज्ञान।
अपनी प्रकृति को, जो अपना भीतरी एल्गोरिदम है न, उसको जानना पड़ता है। और ये जानना पड़ता है कि इसमें ये जो बाहर का माल है, ये कितना भी डाल लो, ये जो भीतर की व्यवस्था है, इस सिस्टम को बाहर का माल कितना भी फीड कर लो, ये भीतर का सिस्टम उस माल से कभी भी संतुष्ट नहीं हो पाएगा। जब ये दिख जाता है, तब मनुष्य मुक्ति माँगता है।
आत्मज्ञान के बिना मुक्ति नहीं माँगी जा सकती। जो अपने भीतरी व्यवस्था से परिचित नहीं है, वो मुक्ति कभी माँगेगा ही नहीं, वो भुक्ति माँगेगा, भोग। तो ये फिर देवता लोगों ने और राजा सुरथ ने भी क्या माँगा? भोग माँगा। पर उन्होंने चलो देवी से नमित होकर माँगा, तो वो फिर उसको कहते हैं कि अच्छा है, बढ़िया है, तुम्हें मिल जाए। लेकिन स्वर्ग, नर्क, इन सबको भी कभी ये नहीं कहा गया कि ये कोई बहुत बड़ी चीज़ हैं। अध्यात्म का लक्ष्य ये नहीं होता कि स्वर्ग-नर्क। स्वर्ग और नर्क तो दोनों सुख और दुख के प्रतिनिधि हैं।
अध्यात्म का लक्ष्य होता है — मुक्ति। मुक्ति आप तब तक नहीं माँग सकते, जब तक आपने अपनेआप को ठीक से नहीं देखा। जो स्वयं को जानने लगता है, वही बस कहता है कि अरे! ये धंधा खत्म करो, मैं कहाँ बेकार फँस रहा हूँ, ख़त्म करो! वही मुक्ति माँगता है। देवता कहाँ से आत्मज्ञानी हो गये? देवताओं का तो सुख का लोक है, उसमें अप्सराएँ हैं। इसमें भी है कि जब सब मारे गये तो अप्सराओं ने नृत्य करना शुरू कर दिया और देवता प्रसन्न हो गये। तो देवताओं का तो पूरा भोग का ही स्थल है।
स्वर्ग का मतलब है कि ऊँचे-से-ऊँचा भोग। भोगो, भोगो अप्सरा, कल्पवृक्ष, ये नदी, वो नदी, देवता कभी बूढ़े नहीं होते, ये सब अपना उनका भोगने का ही हिसाब है पूरा। वो मुक्ति नहीं माँगेंगे।
जो मुक्ति माँगे, वो देवताओं से ऊँचा होता है।
प्र२: नमस्कार आचार्य जी। जैसे-जैसे मनुष्य भौतिकवादी बनते गये, वो प्रकृति का विनाश करते गये। तो हम क्या जैसे हज़ारों साल पहले जीते थे, वैसे ही अपनी जीवन शैली कर दें?
आचार्य: प्रकृति का सही उपयोग करिए। और सही उपयोग भोग में नहीं निहित है। मतलब समझिएगा। नाश उपयोग से नहीं होता, नाश उपभोग से होता है। उपभोग में नाश क्यों होगा? क्योंकि जो आप चाह रहे हो उपभोग से, वो एक पेड़ को काटकर नहीं मिलेगा। वो सौ पेड़ को काटोगे, फिर भी नहीं मिलेगा। तो आप कितने काटोगे? हज़ार। हज़ार काटोगे तब भी नहीं मिलेगा। तो कितने काटोगे? दस हज़ार। दस हज़ार काट लो, अभी भी नहीं मिलेगा। तो कितने काटोगे? एक लाख काटोगे।
उपयोग में हो सकता है कि आपका काम एक पेड़ की पाँच पत्तियों से चल जाए। उपयोग में एक पेड़ की पाँच पत्तियाँ काफ़ी होती हैं। प्रकृति नहीं मना कर रही कि एक पेड़ की पाँच पत्ती नहीं ले सकते। किसने मना किया? वो उपयोग है। और पाँच पत्तियाँ काफ़ी होती हैं, क्योंकि आपको पता है कि उनका क्या काम होना है। उपभोग में आपको पता ही नहीं है कि इससे मिलना क्या है, बस काट रहे हो। मिल नहीं रहा, फिर भी काट रहे हो। और चूँकि नहीं मिल रहा, इसलिए और ज़्यादा काट रहे हो। उपयोग कभी भी अंधाधुंध हो ही नहीं सकता। उपयोग की परिभाषा ही यही है कि वो अंधाधुंध नहीं हो सकता। तुलसी का एक पत्ता डालना है इसमें (कप की ओर इशारा करते हुए) तो जड़ से थोड़े ही उखाड़ लोगे तुलसी को। वो उपयोग है।
उपभोग क्या है? उपभोग ये है कि माँस, माँस, माँस खाना है। माँस खाना है तो उसके लिए जानवरों के लिए दाना उगाना पड़ेगा। और दाना उगाना है तो क्या करना है? ज़मीन चाहिए। ज़मीन चाहिए। जंगल काटो! जंगल काटो! दुनिया की सत्तर प्रतिशत ज़मीन पर जानवरों के लिए अन्न उगाया जाता है— ये उपभोग है। और आप कितना माँस खा सकते हो उसका कोई अंत नहीं है, क्योंकि माँस कितना भी खाते रहो, संतुष्टि तो मिलती नहीं न। पर मैं ये थोड़े ही कहूँगा कि मैं इसमें (कप में) पूरा तुलसी का पेड़ डाल दूँगा। उससे मुझे क्या मिलेगा? एक पत्ती काफ़ी है, ये उपयोग कहलाता है। उपयोग में इतना सा काफ़ी होता है।
आपको बहुत बड़ी बीमारी हो गयी हो तो आपको बहुत बड़ा ड्रम भरकर दवाई दी जाती है? आपकी बीमारी बहुत बड़ी हो तो जितनी बड़ी बीमारी होती है, आपको उतना बड़ा ड्रम भरकर दवाई पिलाई जाती है? बीमारी कितनी भी बड़ी हो, उपयोग की वस्तु तो इतनी सी होती है न! आपको कैंसर भी है तो दवाई भी तो इतनी सी ही दी जाती है।
उपयोग में नहीं अंधाधुंध नाश करना पड़ता, उपभोग में नाश करना पड़ता है। आपकी जो उपयोगी, जो उपयोग मूलक आवश्यकताएँ हैं, प्रकृति उतना आपको सहर्ष दे देगी जैसे माँ अपने बच्चे को दे देती है, ले! बच्चा माँ का दूध पीता है, उससे माँ मर जाती है क्या? लेकिन यही बच्चा असुर पैदा हो गया हो, बोले, ‘खून पिऊँगा’, तो माँ तो मर ही जाएगी। बच्चे को दूध देने में माँ का कुछ भी नहीं चला जाता। तो प्रकृति आपको उतना देने को तैयार बैठी है जितना आपको सचमुच चाहिए।
पृथ्वी को जल देने में बादलों का क्या चला गया? नदी बह रही है, उस पर जाकर प्राणियों ने पानी पी लिया, नदी का कुछ नहीं चला गया। कि चला गया? समुद्र में मछलियाँ रहती हैं, समुद्र उनसे किराया नहीं माँगता। समुद्र का कुछ चला ही नहीं गया। लेकिन आप समुद्र का उपभोग करते हो, अब वहाँ समुद्र बर्बाद हो जाएगा। इतनी मछलियाँ इतने करोड़ों सालों से समुद्र में रह रही हैं, समुद्र का कुछ बिगड़ गया? इतने प्राणियों ने इतने करोड़ों सालों से नदियों का पानी पिया, नदियों का कुछ बिगड़ गया? लेकिन आपके उपभोग ने समुद्र को और नदियों को कहीं का नहीं छोड़ा।
आपकी आवश्यकता के लिए प्रकृति के पास सबकुछ है। यहाँ तक कि आप जो तकनीकी विकास भी कर रहे हो, प्रकृति उसमें भी कोई आपत्ति नहीं करने वाली। अंधाधुंध उपभोग मत करो न बस! एक सम्मान रखो प्रकृति के प्रति। प्रकृति के प्रति सम्मान रखना और टेक्नोलॉजिकल एडवांसमेंट (तकनीकी विकास) — ये दोनों कोई आवश्यक रूप से विपरीत बातें नहीं हैं। आपका ज्ञान, विज्ञान, टेक्नोलॉजी बहुत श्रेष्ठ दर्जे की हो सकती है। और साथ-ही-साथ ये भी हो सकता है कि प्रकृति के साथ आपका रिश्ता बड़े प्रेम का है। ये दोनों बातें साथ-साथ चल सकती हैं। हमें चलानी पड़ेंगी।
प्रकृति का संरक्षण करने का अर्थ ये नहीं होता है कि जैसे आपने पूछा कि क्या हम दस हज़ार साल पहले वाले इंसान की तरह रहना शुरू कर दें, या दस लाख साल पहले वाले बंदर की तरह रहना शुरू कर दें। नहीं! नहीं! नहीं! ये बड़ी भ्रांति है। और ये आपत्ति बहुत लोगों द्वारा की जाती है बहुत बार। वो कहते हैं, ‘ये देखो!’ जैसे ही आप एनवायरमेंट (पर्यावरण) की बात करो, वो कहते हैं एंटी डेवलपमेंट, एंटी डेवलपमेंट। अरे! एनवायरमेंट और डेवलपमेंट साथ-साथ क्यों नहीं चल सकते?
अगर एनवायरमेंट और डेवलपमेंट साथ-साथ नहीं चल सकते, तो सस्टेनेबल डेवलपमेंट (संवहनीय विकास) किसको बोलते हैं फिर? सस्टेनेबल डेवलपमेंट का मतलब ही यही है कि विज्ञान, टेक्नोलॉजी चलें। और साथ-ही-साथ प्रकृति के प्रति आदर हो और प्रेम हो।
समझ में आ रही है बात ये?
और ये दोनों एकसाथ बिलकुल चल सकते हैं। और देखिए, मनुष्य ज्ञान का पिपासु है, क्योंकि बोध हमारा स्वभाव है; तो ज्ञान तो हम माँगेंगे। उपनिषद् खुद अविद्या को बहुत सम्मान देते हैं, ज्ञान तो हम माँगेंगे। और जहाँ ज्ञान होगा, फिर उससे कुछ टेक्नोलॉजी भी निर्मित होगी। तो वो भी होती ही रहेगी। जो ज्ञान की पूरी यात्रा है, वो रुकनी नहीं चाहिए। टेक्नोलॉजी लगातार बढ़ती ही जा रही है, बेहतर होती जा रही है, और उसको बेहतर होते रहना पड़ेगा। होना चाहिए उसको और बेहतर।
लेकिन ये काम होना चाहिए प्रकृति के संरक्षण और सम्मान के साथ-साथ। ऐसी टेक्नोलॉजी जो प्रकृति का नाश करती हो, हमें नहीं चाहिए। और वैसी टेक्नोलॉजी अगर आपको नहीं चाहिए तो पहले आपको आत्मज्ञान होना पड़ेगा। क्योंकि वो जो टेक्नोलॉजी है, वो तो आप विकसित ही तभी कर रहे हो न जब आपको भोग की इच्छा बहुत है। टेक्नोलॉजी कोई हवा से तो उतरती नहीं, टेक्नोलॉजी तो आप विकसित करते हो। आपको भोगना है तो आप भोगने के अनुसार टेक्नोलॉजी विकसित कर लेते हो। आपको स्लॉटर (पशु वध) करना है तो आप बहुत टेक्नोलॉजिकली एडवांस स्लॉटर हाउसेस (उन्नत तकनीक वाले बूचड़खाने) बना लेते हो।
आदमी का केंद्र ठीक होना चाहिए। फिर विकास और पर्यावरण दोनों एकसाथ चल सकते हैं। इसका मतलब ये है कि अगर आपको उन्नति चाहिए और साथ-ही-साथ नाश नहीं चाहिए, तो अध्यात्म ज़रूरी हो जाता है। जो विकास आएगा आत्मज्ञान के बिना, वो विकास आत्मघाती होगा-ही-होगा। जिन लोगों को विकास की जितनी ललक हो, उन लोगों को उतना ज़्यादा आत्मज्ञान चाहिए। तभी विकास विनाशकारी नहीं होगा, नहीं तो विकास का अर्थ ही विनाश होगा।
प्र२: तो उपयोग और उपभोग का अंतर पता होना चाहिए।
आचार्य: हाँ।
प्र३: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, भोग को लेकर मैं थोड़ा समझ नहीं पाया हूँ। भोगने की इच्छा तो अंदर बनी ही रहती है। भोगने के बाद ये शायद कम होती है, लेकिन कुछ समय बाद फिर उतनी ही हो जाती है। तो ये इच्छा बनी ही रहेगी या जा भी सकती है?
आचार्य: नहीं, वो तभी जाएगी न जब पूरी हो जाएगी। इच्छा का मतलब है कि भीतर कुछ कमी है, उस कमी को पूरा करने के लिए एक इच्छा आती है। उसमें न, बीच में एक डिस्कनेक्ट होता है। इतना तो पता होता है कि भीतर कमी है। कमी न होती तो इच्छा नहीं आती। लेकिन इच्छा सिर्फ़ ये नहीं बोलती कि कमी है, इच्छा ज्ञानी बनती है। ये डिस्कनेक्ट है। इच्छा ज्ञानी बनकर बोलती है कि कमी भी है और मुझे ये भी पता है कि किस चीज़ की कमी है, और मुझे ये भी पता है कि किस चीज़ से वो कमी पूरी हो जाएगी।
जो आदमी इतने पर ही रुक जाए कि मुझे भीतर किसी कमी का, किसी रिक्तता का, अपूर्णता का एहसास होता है, इतना बोलकर रुक जाए, वो बच जाएगा। लेकिन हम इतना बोलकर रुकते नहीं न, हमें ज्ञानी बनना है। हम बोलते हैं कि भीतर कुछ कमी है और मुझे ये भी पता है कि क्या कमी है। और मैं ये भी जान गया हूँ कि किस चीज़ से वो कमी भर सकता हूँ। तो फिर हम निकल जाते हैं बाज़ार की ओर और कमी को भरने के लिए कभी ये उठाते हैं, कभी सामान उठाते हैं, कभी कपड़ा उठाते हैं, कभी रिश्ता उठाते हैं। वहाँ गड़बड़ हो जाती है।
कमी है, वो ठीक है। पैदा हुए हो तो कमी अनुभव होगी। अपूर्णता ही पैदा होती है। जीव पैदा हुआ है और भीतर बेचैनी न अनुभव करे, ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन ज्ञानी मत बनो न! भीतर कमी पता चल रही है तो कहो, ‘कमी तो पता चली पर चीज़ क्या है? काहे की कमी है? क्यों अनुभव कर रहा हूँ कमी? क्या है?’ तरह-तरह से प्रयोग करो, प्रश्न करो, पता करो। काहे की कमी है? क्या चीज़ है? अच्छा, इस कमी को भरने के लिए मैंने पहले भी कभी कुछ उपाय किये थे, वो उपाय सफल हुए या असफल हुए? अभी ये जो भीतर इच्छा उठ रही है कि ये नयी चीज़ ले आओ, हासिल करो, ये चीज़ तो लगभग वैसी ही पुरानी चीज़ जैसी है जो मैंने एक साल पहले भी आज़मायी थी। जब उससे कमी नहीं हटी तो इससे क्यों हट जाएगी?
तो ये प्रश्न करने पड़ते हैं अपने ही झूठे ज्ञान के खिलाफ़। इंसान की सबसे बड़ी लड़ाई तो अपने ही ज्ञान से होती है न? यहाँ कोई नहीं बैठा है जो ज्ञानी न हो। और वो ज्ञान है कुछ नहीं। कचरा! तो अपने ही ज्ञान पर सवाल उठाने पड़ते हैं। हमें ईमानदार इच्छा चाहिए। ईमानदार इच्छा बस ये बोलती है कि मैं बीमार हूँ। बेईमान इच्छा उस मरीज़ की तरह होती है जो कहता है कि मैं बीमार हूँ, मैं अपनी बीमारी भी जानता हूँ, मैं ही डॉक्टर हूँ, मैं दवाई भी जानता हूँ, अपनी सर्जरी खुद ही कर लूँगा।
बेईमान इच्छा उस पागल की तरह है जो अपनी ब्रेन सर्जरी खुद ही कर रहा है। कह रहा है, ‘मैं पागल हूँ, ये मैं जान गया हूँ। मैं ये भी जानता हूँ कि मैं ही डॉक्टर हूँ। और पागल हूँ तो मेरे ब्रेन में कुछ गड़बड़ है, और मैं खुद ही अपनी ब्रेन सर्जरी करूँगा।’ ये बेईमान आदमी की बेईमान इच्छा है। वो इच्छा भी जानता है अपनी। बड़ा होशियार, बड़ा ज्ञानी है! वो इच्छा भी जानता है, वो कमी भी जानता है और वो अपनी इच्छा का उपचार भी जानता है।
जब इच्छा उठे तो थोड़ा सा रुक जाया करिए, भाग मत पड़ा करिए अंधे होकर कि इच्छा ने बोला चलो लड्डू, तो लड्डू को ही निकल लिये। लड्डू माने प्रतीक, लड्डू माने लड्डू ही नहीं। लड्डू माने जो कुछ भी आपको आकर्षक, स्वादिष्ट लगता हो जीवन में। भाग मत पड़ा करो, थमा करो। कहा करो, ‘ये लड्डू, पिछली बार बर्फ़ी। लड्डू और बर्फ़ी में कोई मूलभूत अंतर है क्या? जब बर्फ़ी से बात नहीं बनी तो लड्डू से क्यों बनेगी?’ बोले, ‘नहीं, पिछली बार बूँदी के थे, इस बार बेसन के हैं।’ अरे! हैं तो लड्डू ही! बोले, ‘नहीं, बहुत परिवर्तन आ गया है। अब हम वीगन हो गये हैं। इस बार ये कोकोनट ऑयल के हैं।’
अपनेआप को मूर्ख मत बनाओ। ज़्यादातर जो हमारे उपाय हैं इच्छापूर्ति के, वो बहुत घिसे-पिटे हैं। हम वही सबकुछ करते रहते हैं अपनी बेचैनी को राहत देने के लिए जो हम सौ बार पहले भी कर चुके हैं। जब सौ बार पहले कर चुके हो तो अपनी ही भूल से सबक लीजिए न। कह दीजिए, ‘ऐसे तो ये चीज़ ठीक होगी नहीं, थोड़ा समझ ही लेने दो बात क्या है।’ समझ जाओगे कि क्या है ये इच्छा, कहाँ से आती है, कौन-कौनसी चीज़ों से इसका उपचार नहीं हो सकता। तो फिर जो भोग की कामना होती है, वो शिथिल पड़ती है। फिर इंसान में प्रेम जाग्रत होता है। फिर इंसान इंसान कहलाने के लायक होता है। जहाँ भोग है, वहाँ प्रेम नहीं हो सकता। भोग का मतलब सिर्फ़ हिंसा होता है। अब प्रेम नहीं है तो फिर काहे को जी रहे हो?
जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम। ते नर इस संसार में, उपजी भए बेकाम॥
~ संत कबीर
कबीर साहब कह रहे हैं बेकाम। मैं कह रहा हूँ, ‘जिसके पास प्रेम नहीं, उसके पास बस काम-ही-काम होता है।’ काम माने कामना। प्रेम जितना कम होगा जीवन में, कामनाएँ उतनी ज़्यादा होंगी। सौ चीज़ों की इच्छा है, माने कहीं भी प्रेम नहीं है।
प्र२: आचार्य जी, इच्छाओं का कम होना अच्छा संकेत होता है क्या?
आचार्य: नहीं, नहीं, अच्छा संकेत नहीं। प्रेम भी इच्छा ही है, वो बहुत ऊँचे स्तर की इच्छा है। प्रेम नहीं आया, इच्छाएँ ही कम कर लीं तो मुर्दा हो गये। इच्छा तो कुर्सी के पास भी नहीं है। तो इसका अर्थ ये थोड़े ही है कि कुर्सी बहुत अच्छा इंसान बन गयी है। हमारी एक कुर्सी है, इसके पास एक भी इच्छा नहीं है। चलो, यही सबसे बड़ी ज्ञानी है। सब लोग इसको माल्यार्पण करते हैं।
सिर्फ़ इच्छाओं का कम होना काफ़ी नहीं है न, प्रेम आना चाहिए। प्रेम आकर इच्छाओं के साथ जो करे सो करे। प्रेम मालिक है, उसकी इच्छा। प्रेम का काम प्रेम जाने। इच्छाएँ बचेंगी, जाएँगी, वो जो भी होगा देखा जाएगा। लेकिन आमतौर पर देखा यही गया है कि जिनके जीवन में प्रेम आ जाता है, उनके ये उल्टी-पुल्टी दो कौड़ी की इच्छाएँ, उनके पास समय नहीं बचता फिर।
“प्रेम मगन जब मन भया, कौन गिने तिथि वार।” ये बाकी चीज़ें भूल जाता है आदमी। प्रेम में जब मग्नता आ जाती है न, तो ये बाकी इधर-उधर की बातें सब…। लेकिन अभी प्रेम आया नहीं है, सब भूलने लग गये, तो ये मत कर देना। बोल रहे हैं कि बताया था, जब प्रेम आता है तो आदमी सब छोड़ने लग जाता है। ये हम नहीं कह रहे कि ऐसे ही बस ज़बरदस्ती छोड़ दोगे तो प्रेम आ जाएगा। ऐसा कुछ नहीं होता। कुर्सी बन जाओगे बस।
प्र२: आचार्य जी, प्रेम भी इच्छा ही होती है?
आचार्य: प्रेम इच्छा ही होती है, बहुत गहरी इच्छा होती है। आत्मज्ञान से फिर जो आखिरी इच्छा उठती है, उसको प्रेम कहते हैं। उसके लिए एक विशेष नाम होता है — मुमुक्षा। उस इच्छा को बोलते हैं मुमुक्षा।
प्र२: सर, प्रेम और बाकी इच्छाओं में फ़र्क किया जा सकता है?
आचार्य: हाँ, बाकी इच्छा ज्ञानी बनती हैं, प्रेम में सचमुच ज्ञान होता है। बाकी इच्छाओं को कुछ नहीं पता। शुरुआत इसी से की थी न? जानती कुछ नहीं, पर हर इच्छा ज्ञानी बनती है। मैं तो जानती हूँ कि मेरा इलाज क्या है— ये बाकी इच्छाओं का है। और प्रेम में सचमुच ज्ञान होता है, प्रेम जानता है। प्रेम का अर्थ ही यही है कि मैं समझ गया मुझे क्या चाहिए। वो मुमुक्षा है।
प्र२: धन्यवाद आचार्य जी!
YouTube Link: https://youtu.be/F8ySN6lWjnI?si=-Nibg0_PEX1PIPyT