इतनी गर्मी, इतने बारिश-तूफान: हमारे साथ क्या होने जा रहा है?

Acharya Prashant

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इतनी गर्मी, इतने बारिश-तूफान: हमारे साथ क्या होने जा रहा है?
कुछ लोग हैं जो एमिशन कर रहे हैं। हमने उनको सर पर बैठा रखा है, हम उनको पूजते हैं, वो हमारे आदर्श हैं। और वो इस क़द्र हमारे आदर्श हैं कि हम कहते हैं कि हमें एक दिन उनके जैसा बनना है।और चूँकि हमारे पास आध्यात्मिक शिक्षा नहीं है, हम ख़ुद को नहीं जानते, हमारे पास अपना कोई वजूद नहीं है — तो हमें जिसने जो पट्टी पढ़ाई, हमने मान लिया। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मेरा नाम बलराम है। मैं कटनी ज़िला के मध्य प्रदेश से हूँ। आचार्य जी, मेरा प्रश्न जलवायु आपदा पर समाज की उदासीनता को लेकर है। हम देखते हैं कि तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। बाढ़, भूकंप जैसे तबाही लगातार बढ़ती जा रही हैं — लेकिन हमें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

यही तबाही मेरे गाँव में आई कुछ समय पहले, जो दर्जनों गाँवों को बहाकर ले गई और लोग बेघर हो गए। और आज समस्या ये है कि लोग पलायन करने को तैयार हैं। लेकिन आज हम उसका निराकरण करने के बजाय कामना पूर्ति, कथा-पुराणों में उलझे हुए हैं। तो इससे जलवायु परिवर्तन पर कितना प्रभाव पड़ेगा?

आचार्य प्रशांत: मेंढकों वाली कहानी सुनी है आपने? दो मेंढकों पर प्रयोग हुआ था। तो खौलता हुआ पानी था, किसी तसले वग़ैरह में खौला रहे होंगे — तो उसमें एक मेंढक को डाला। मेंढक ने कहा, “ये क्या चल रहा है!” — वो जल्दी से बाहर कूद गया। मेंढक को कितना समय लगेगा पानी से बाहर कूदने में? घुसा और फट से बाहर कूद गया, इतना ही है।

खौलता पानी — “पागल हो गए हो!” बच गया। बच गया क्योंकि बाहर वो जिस तापमान में पहले था और फिर भीतर पानी के जिस तापमान का उसे अनुभव हुआ — उनमें यकायक बहुत ज़्यादा अंतर आ गया। है ना? तो उसको पता चल गया — “ये तो भारी अंतर है।” अंतर अचानक से आया, तो उसको अनुभव में आया, वो नोटिस कर पाया। फिर एक दूसरा मेंढक लिया गया। उसको पानी में डाला गया — पानी सामान्य तापमान पर। फिर तापमान थोड़ा बढ़ाया गया, तो मेंढक जो है बाहर नहीं आया।

इसको कहते हैं अनुकूलन (कंडीशनिंग)। पानी गर्म हुआ, पर मेंढक की जो व्यवस्था थी, वो उसी गर्म तापमान के अनुसार ढल गई, उसके अनुकूल हो गई — तो वो बर्दाश्त कर ले गया। फिर तापमान थोड़ा और बढ़ाया गया, पर अभी भी मेंढक ने तुलना पिछले तापमान से की। वो बोला, “थोड़ा ही तो बढ़ा है!” जैसे आप कदम दर कदम सीढ़ी चढ़ रहे हो — और हर कदम पर आपको यही दिखाई देता हो कि पिछले कदम से थोड़ा सा ही तो ऊपर आए हैं।

थोड़ा और तापमान बढ़ाया गया, थोड़ा और बढ़ाया गया, थोड़ा और बढ़ाया गया। मेंढक बाहर ही नहीं आया — क्योंकि अचानक से नहीं बढ़ा तापमान। वो उबल कर मर गया उसमें। अब मुझे नहीं मालूम ये प्रयोग वास्तव में हुआ है कि नहीं हुआ है — लेकिन कहानी सुनने में बोधपूर्ण भी है और रोचक भी है। बात समझ में आ रही है?

वो मेंढक कौन है? हम किसी मेंढक की नहीं बात कर रहे हैं, वो मेंढक हम हैं। अचानक से अगर औसत तापमान 3 डिग्री-5 डिग्री बढ़ जाए, तो हम सब चिल्ला पड़ेंगे और सदमे में आ जाएँगे और कहेंगे, “ये कुछ बहुत ग़लत हुआ है — जल्दी से इसे रोको!” पर वही प्रक्रिया अगर दशकों से चल रही हो, तो हम उसको नोटिस नहीं कर पाते हैं। हमें पता नहीं चलता है कि ऐसा हुआ। चलिए कुछ दृश्य हैं, कल्पना करिए — और ये बहुत आगे की नहीं है। मैं बस 10–20 साल आगे की बात कर रहा हूँ।

अभी गर्मियाँ आ रही हैं। सड़कों का जो डामर है — ये जो अस्फ़ाल्ट, ये पिघला हुआ है। सड़कों पर डामर पिघल चुकी है और जो गरीब लोग ज़्यादा बाहर का ही काम करते हैं — आउटडोर्स वो चल भी रहे हैं, तो उनकी चप्पलें डामर में चिपक रही हैं। पक्षी उड़ रहे हैं, और उड़ते-उड़ते आसमान से अचानक गिर जाते हैं — जस्ट ड्रॉपिंग डेड (बस सीधे मर कर गिर पड़ना)। बच्चे स्कूल से लौट रहे हैं — और 1–2 बजे का दोपहर का समय है — और बच्चे ऐसे चलते आ रहे हैं, चलते जा रहे हैं। अचानक हीट स्ट्रोक हुआ, वो वहीं गिर गया।

ये सब बातें होने वाली हैं। पर जब ये सब भी हो रहा होगा ना, तो हो सकता है — हमें तब भी बहुत बुरा ना लगे, क्योंकि यकायक नहीं होगा। हमें जो चीज़ मार रही है, वो ये है कि — ये सब कुछ ग्रेजुअली हो रहा है, क्रमशः हो रहा है, लगातार हो रहा है, निरंतर हो रहा है पर एक झटके में नहीं हो रहा है। एक कोविड आया एक झटके में तो पूरी दुनिया को हिला गया। हिला गया ना? और जिस जलवायु परिवर्तन की आप बात कर रहे थे, वो ना जाने कितने आदिम वायरसेस को रिलीज़ करने वाला है दो-तीन वजहों से।

पहला — ये जो आइस शीट्स हैं, इनके नीचे न जाने कितने वायरस लाखों साल से सोए पड़े हैं। वायरस ऐसी चीज़ होती है जिसको आप लगभग एक केमिकल मान सकते हैं। केमिकल कभी मरता नहीं न, तो वायरस भी कुछ-कुछ केमिकल जैसा होता है। वो बर्फ़ के नीचे लाखों-करोड़ों साल तक डॉरमंट पड़ा रहेगा। और जलवायु परिवर्तन से वो बर्फ़ पिघल रही है और जहाँ बर्फ़ थी, अब वहाँ पर पड़ेगी सूरज की रोशनी। एक चीज़ थी जो बर्फ़ से ढकी हुई थी — बर्फ़ तो पिघल ही गई, और अब सीधे उस पर क्या पड़ रही है? सूरज की रोशनी।

ये सब पुराने जो वायरस हैं — ये वापस आने वाले हैं। इन्हें कहते हैं ज़ूनॉटिक पैंडेमिक्स और होने वाला है। आप जंगल काट रहे हो। जो कोविड का वायरस था, वो जंगल से ही आया था न? आप जंगल काट रहे हो, तो जंगल के बहुत सारे पशु, पक्षी, जीव, जानवर — ये सब अब कहाँ जाएँगे? किसके संपर्क में आएँगे? इंसानों के संपर्क में आएँगे। क्योंकि आपने उनका घर तो जला दिया, काट दिया — या आपने काम ऐसे कर दिए कि उनके घरों में आग लग गई — वाइल्डफायर्स।

तो वो आपके संपर्क में आएँगे। और उनके पास ऐसे वायरस हैं जिनसे आप पहले कभी संपर्क में नहीं आए हो। तो आपके पास कोई नेचुरल इम्यूनिटी है नहीं उन वायरस वग़ैरह के ख़िलाफ़ — वायरस भी, बैक्टीरिया भी। आपके पास कोई नेचुरल इम्यूनिटी नहीं है। और ये सब होने जा रहा है। लेकिन ये सब कुछ एक ही साल में नहीं होगा — कुछ इस साल होगा, कुछ अगले साल होगा, कुछ उसके अगले साल होगा। मेंढक का तापमान धीरे-धीरे बढ़ाया जाएगा। आज हीट स्ट्रोक मोहल्ले में उस घर में हुआ है, कल उस घर में हुआ है, परसों उस घर में हुआ है।

ऐसा नहीं होगा कि एक दिन, एक ही घर के पाँच लोगों को एक साथ हीट स्ट्रोक हो गया, ऐसा नहीं होगा। जो कुछ हो रहा है और होने जा रहा है — अगर वो एक ही जगह पर, एक साथ हो जाए, तो आप कहोगे: "प्रलय के लिए दूसरा नाम नहीं चाहिए — यही प्रलय है।" लेकिन ग़ज़ब की माया ये है कि ये सब कुछ एक बिखरे हुए तरीक़े से हो रहा है — स्कैटर्ड इन बोथ टाइम एंड प्लेस। आज यहाँ हो रहा है, कल वहाँ हो रहा है। तो 'आज' और 'कल' का अंतर, और 'यहाँ' और 'वहाँ' का अंतर — तो हमको लग रहा है, "अभी हम तो बचे हुए हैं न।" कोई बचा नहीं हुआ है।

अगले 20 वर्षों में भारत में जो उत्पादकता है खेतों की, जो क्रॉप यीएल्ड्स है — वो 30% तक कम हो सकती है और आबादी 20% तक बढ़ सकती है। मतलब समझिए — और ये सब जलवायु परिवर्तन से है। भाई, फसलें एक ख़ास प्रकार का तापमान मांगती हैं, एक ख़ास अवधि में बारिश मांगती हैं।

वो जितने भी क्लाइमेट पैटर्न्स थे, वो पूरी तरह से बदल रहे हैं। तो पौधे पर आप आज्ञा तो नहीं चला सकते कि "गेहूँ उग!" वो कह रहा है — "भाई, मुझे जैसा तापमान और बारिश चाहिए थी, और जैसी मुझे हवाएँ चाहिए थीं, वो नहीं हैं — तो मैं नहीं उगूँगा।" और आबादी आपकी बढ़ गई है और पैदावार आपकी गिर गई है। आप खाओगे क्या? आप नहीं खा पाओगे।

उसका नतीजा ये होने वाला है कि दुनिया के लगभग 120 करोड़ लोग हैं, जिन्हें अपना घर छोड़ना पड़ेगा। और दुनिया में क्यों बोल रहा हूँ? ज़्यादातर उनमें भारत जैसे देशों के लोग होंगे। ज़्यादातर भारत जैसे देश होंगे क्यों? क्योंकि भारत में इरिगेशन से बहुत पैदावार नहीं होती है। हम बहुत हद तक अभी भी मानसून पर निर्भर हैं। और मानसून की हवाएँ निर्भर हैं इस बात पर कि एक ख़ास टेम्परेचर डिफरेंस हो — समुद्र की सतह और थल की सतह के बीच में।

जल और थल के बीच में जब तापमान का एक ख़ास अंतर होता है, तब मानसून की हवाएँ उठती हैं और ज़मीन की तरफ़ आती हैं। फिर आपके हिमालय से टकराती हैं और बारिश होती है — ये सब होता है। तो पहली बात — तापमान ज़्यादा है, तो पेड़-पौधे ये सब बड़े होने से इनकार करेंगे, ना इनमें अन्न लगेगा, ना फल लगेंगे, ना सब्जियाँ लगेंगी। और दूसरी बात — ये कि बारिश भी नहीं हो रही है। और तीसरी बात — ये कि आपने सारे ग्लेशियर पिघला दिए, तो नदियाँ भी नहीं बची हैं।

हम कितना भी कह लें — आपने बात करी कथा-पुराण की। आप कितना भी कह लो कि गंगा जी किसी दूसरे लोक से उतरी हैं — ये हमारी पौराणिक मान्यता है न? कि ऐसे हुआ था — फिर राजा भगीरथ, और फिर शिव जी की जटाएँ। वो ठीक है — वो एक सुंदर कथा है, जिसका एक ऊँचा प्रतीकात्मक अर्थ हो सकता है। लेकिन आप ज़मीनी तल पर देखो तो हमें पता है कि गंगा और यमुना कहाँ से आती हैं। कहाँ से आती हैं?

श्रोता: गंगोत्री से।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो आपने तापमान बढ़ा दिया, तो वो ग्लेशियर बचा है क्या? वो तो नंगा पहाड़ बन गया — वहाँ बर्फ़ ही नहीं है। जब बर्फ़ ही नहीं है, तो नदी कैसी? और जब नदी नहीं है, तो खेती कैसी? और एक झटके में नहीं हो जाएगा ये सब कुछ, ये साल दर साल लगातार हो रहा है। गंगोत्री कितना सिकुड़ चुका है — थोड़ा सा गूगल करिए, तो आपको पता चल जाएगा।

मैं आपसे यहाँ पर एक भी बात ऐसी नहीं बोलने जा रहा हूँ जो काल्पनिक है। मैं आपसे वही सारी बातें बोल रहा हूँ जो यूएन (संयुक्त राष्ट्र संघ) और आईपीसीसी (अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन पैनल) की रिपोर्ट्स में रोज़ सामने आ रही हैं। बस, उन रिपोर्ट्स को हम पढ़ते नहीं हैं।

गंगोत्री कितना सिकुड़ चुका है — आप ख़ुद सर्च कर लीजिए। और यहाँ से जाने के बाद क्या सर्च करेंगे आप लोग तो मोबाइल ले बैठे हैं, रिकॉर्डिंग भी कर रहे हैं — यहीं बैठे-बैठे कर लीजिए न। लड़ाइयाँ इसलिए नहीं होने वाली हैं कि ऑयल चाहिए, पेट्रो डॉलर्स चाहिए, ज़मीन चाहिए। लड़ाइयाँ होने वाली हैं पानी के लिए। जब नदी नहीं है, तो पानी के लिए ही तो लड़ मरेंगे न — और क्या करेंगे?

विश्व युद्ध अगला पानी के लिए होगा। और इसलिए होगा, क्योंकि ये जो बड़ी-बड़ी विस्थापित जनसंख्याएँ हैं — ये खड़ी हो जाएँगी कि हमें कहीं और जाना है। भाई, पुरानी सारी सभ्यताएँ हमें पता है नदियों के किनारों पर पनपीं। क्यों? क्योंकि वहाँ पानी था। हम कहते हैं न — सिंधु घाटी सभ्यता, क्यों? इजिप्ट में क्यों हुआ? वहाँ कौन सी नदी थी? फिर इधर गंगा नदी थी। चीन में भी नदी किनारे ही लोग।

अब वो नदी नहीं, तो लोग वहाँ से हटेंगे, इंसान को पानी चाहिए। "रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।" और कहाँ जाएँगे? वो फिर राष्ट्रीय सीमाओं पर रुकेंगे नहीं। वे कहेंगे, “जहाँ कहीं भी बस जीने को मिल रहा हो, हमें जाने दो।” ये मानव इतिहास का सबसे बड़ा और सबसे दर्दनाक पलायन विस्थापन होगा। 120 करोड़ लोग अनुमानित हैं कि अपना घर छोड़कर भागने को विवश होंगे और उनमें से यदि 120 करोड़ हैं, तो मान लीजिए कि 80–90 करोड़ तो भारतीय ही हैं। पर ये सब कुछ एक दिन में नहीं होगा। और एक दिन में नहीं होगा, तो हमारे कान पर जूँ नहीं रेंगेगी।

जो मिट्टी होती है — किसी भी जगह की मिट्टी, करोड़ों सालों से एक प्रकार की ही बारिश पा रही होती है। जो कैंसर की प्रेवलेंस है, वो पाँच से दस गुना बढ़ने वाली है। क्योंकि मिट्टी और पौधे का बड़ा नाज़ुक संबंध होता है, मिट्टी में बहुत प्रकार के तत्व होते हैं। पर अगर सही स्थितियाँ हैं, तो उनमें से जो विषैले तत्व हैं वो पौधे में प्रवेश नहीं करते। कोई तत्व अपने आप में विषैला नहीं होता। विषैला माने — हमारे लिए विषैला, जैसे आर्सेनिक। आप सर्च करिएगा — "आर्सेनिक, कैंसर एंड क्लाइमेट चेंज।”

आप जो साधारण खाना खा रहे होंगे न — वही आपको कैंसर दे रहा होगा। कैंसर के मामले 5 से 10 गुना बढ़ने वाले हैं। और इसकी बात मैं ज़्यादा आप लोगों से इसलिए किया करता हूँ — क्योंकि ये जो महाप्रलय आ चुकी है, वो सबसे अधिक हमारे ऊपर ही टूटनी है। हालाँकि उसके जो ज़िम्मेदार लोग हैं, वो हम नहीं हैं। औसत भारतीय का जो कार्बन फुटप्रिंट (माने आप कितना कार्बन उत्सर्जित करते हो) है, वो बहुत छोटा है। और जिसका कार्बन फुटप्रिंट जितना छोटा होता है न — क्लाइमेट चेंज की मार उस पर उतनी ही भयानक पड़ती है। गज़ब नाइंसाफ़ी है। और जिसका कार्बन फुटप्रिंट जितना बड़ा होता है, वो क्लाइमेट की मार से बच जाता है — क्योंकि उसका फुटप्रिंट बड़ा इसीलिए है कि उसके पास पैसा है।

अभी गीता कम्युनिटी पर ही किसी ने डाला था — मुझे नहीं मालूम कि वो सही गणनाओं से आ रहा है कि नहीं — कि एलोन मस्क के जो दो जेट हैं, वो एक साल में जितना कार्बन एमिशन कर देते हैं, उतना औसत भारतीय 2700 सालों में भी नहीं कर पाएगा। आप और मैं — हम जितना एमिशन करते हैं, हम 2700 साल में उतना नहीं कर पाएँगे, जितना एक-एक अमीर आदमी के सिर्फ़ दो जेट एक साल में कर देते हैं। और अभी हम उस अमीर आदमी के पूरे फुटप्रिंट की बात नहीं कर रहे हैं — हम उसके सिर्फ़ दो जेट्स की बात कर रहे हैं। और ये बात सिर्फ़ किसी एक अमीर आदमी की नहीं है — इन सबकी है। करतूत इनकी है, भुगतने हम वाले हैं।

आपकी भी ये जो खोपड़ी है न, ये ऐसे ही नहीं बन गई। ये मत मान लीजिए कि, भगवान ने रच करके इंसान को ऐसा बना दिया है, नहीं। हम इवोल्यूशन की पैदाइश हैं। और वो इवोल्यूशन — तापमान और नमी की कुछ ख़ास परिस्थितियों में हुआ है। होता है न कि — भाई ये एक मशीन है और ये इतने से इतने तापमान के बीच में काम करने के लिए बनी है? वैसे ये (शरीर) भी एक मशीन है, आपका इंजन है — उसका तापमान बढ़ जाए, तो क्या हो जाता है?

बहुत सारी मशीनरी होती है — विदेशी लोग उसको बेचने को तैयार होते हैं, ख़ास कर मिलिट्री मशीनरी। भारत उसको खरीदता नहीं है, बताओ क्यों? क्योंकि वो कनाडा की किसी फर्म ने बनाई थी। तो भारत के रेगिस्तान में जो तापमान होता है, जहाँ युद्ध लड़ा जाएगा — मान लीजिए, पाकिस्तान की सीमा राजस्थान से लगी हुई है, अब युद्ध वहाँ लड़ा जाना है। तो वो जो आपने कनाडा से मशीनरी मंगवा ली — चाहे वो राइफल हो, चाहे टैंक हो — वो उतने तापमान के लिए बनी ही नहीं है। और वैसे ही अब चीन से आपका झगड़ा हो गया। वहाँ पर जो शून्य से 20 डिग्री नीचे का तापमान है, उसके लिए आपने जो हथियार मंगवाए थे, वो बने ही नहीं हैं। आपकी राइफल है — इंसास — वो वहाँ पर चोक कर गई। इतनी ठंडक है कि चोक कर गई, उसकी मैगज़ीन क्रैक कर गई, कुछ भी हो सकता है।

वैसे ये (शरीर) मशीनरी भी एक ख़ास तापमान के लिए बनी है। हम सिर्फ़ मरने नहीं वाले, हम पागल होने वाले हैं, ठीक? आपके भीतर भी तापमान नापने की प्रक्रिया लगातार चल रही है। जैसे भीतर-भीतर एक घड़ी चलती है न? भीतर घड़ी चलती है कि नहीं चलती है? हम जानते हैं — एक घड़ी बाहर लगी होती है, तो एक भीतर चलती है। उसी को फिर आप बोलते हैं — कौन-सी रिदम कहलाती है वो?

श्रोता: सर्केडियन रिदम।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो वैसे ही भीतर तापमान नापने की भी मशीन लगी हुई है, जो ये चाहती है कि अगर दिन में लू चली है तो रात में ठंडक हो जाए। जब रात में 12, 2, 3 बजे भी लू ही चल रही होगी, तो भीतर की सारी व्यवस्था ख़राब हो जानी है। ये जो हिस्सा है (मस्तिष्क की ओर इंगित करते हुए) हमारी मशीन का — ये विक्षिप्त हो जाना है। तो एक तपती सड़क है जिस पर डामर पिघल चुका है, और उस पर पागल लोग दौड़ रहे हैं, अपने कपड़े फाड़ते हुए। पाँच-दस-बीस मिनट तक दौड़ते हैं और फिर मर के गिर जाते हैं। ये दुनिया छोड़कर जा रहे हैं हम अपने बच्चों के लिए। कैसा लग रहा है सुनने में?

मैं क्लाइमेट फीडबैक लूप्स की आप लोगों से कई बार बात कर चुका हूँ। पिछली बार जब बात करी थी, कितने लोग मौजूद थे? और फीडबैक लूप्स सक्रिय हो चुके हैं। उनको रोका नहीं जा सकता। हाँ, उनके आगे बढ़ने की गति शायद हम उस पर कुछ अंकुश लगा सकते हैं पर वो सक्रिय हो चुके हैं।

जंगल का कटना ही जंगल के और ज़्यादा जलने का कारण बन जाता है — ये एक फीडबैक लूप है।

एक प्रजाति का मिटना दूसरी प्रजाति के मिटने का कारण बन जाता है — ये भी एक फीडबैक लूप है। एक प्रजाति है जानवर की, पशु की — वो एक तरह की घास खाती है। वो घास एक तापमान में ही पैदा होती है पहाड़ में। तो वो पहाड़ों की तलहटी में होती थी, और वो जो प्रजाति थी वही तलहटी में जाकर उस घास को खाया करती थी। इस पर कोई और प्रजाति आश्रित थी, कोई और प्रजाति आश्रित थी, ऐसे-ऐसे था। तापमान बढ़ गए, अब वो घास वहाँ होती ही नहीं। कितनी प्रजातियाँ समाप्त होंगी? सारी प्रजातियाँ समाप्त हो जाएँगी — क्योंकि वो घास अब वहाँ होती नहीं है।

इतना ही नहीं है। वो घास जितनी भी है या थी — वो सूखेगी अब। और जब सूखेगी, और तापमान बढ़ा हुआ है, तो उसमें आग लगती है और जब आग लगेगी, तो जहाँ अभी कुछ हरा शेष भी है, वो भी जल जाएगा, ये है फीडबैक साइकल। हरापन, हरेपन को बढ़ाता है और वही हरापन जब सूख जाता है, तो आग का कारण बन जाता है। हरी घास नहीं जलती न — भूसा जलता है। कुछ आ रही है बात समझ में?

प्रकृति के जितने चक्र हैं, वो सब — यहाँ तक कि जो... बाप रे बाप! — जो पृथ्वी का मैग्नेटिज़्म है, वो तक क्लाइमेट चेंज से प्रभावित होने जा रहा है, ये प्रलय ही है! पृथ्वी का एक भी चक्र नहीं है जिसको स्वस्थ और साबुत छोड़ दिया जाएगा। और सब चक्र एक-दूसरे पर आश्रित हैं।

और जब हम चक्रों की बात कर रहे हैं, तो महिलाओं का मासिक चक्र भी अछूता नहीं रहने वाला है। ज़बरदस्त तरीक़े से अनियमित हो जाएगा, बीमार करेगा। और उससे संबंधित जो दिमाग पर हार्मोनल प्रभाव पड़ता है और व्यवहार बदलता है — वो भी होगा। और ये सब किस लिए?

वो इसलिए क्योंकि कुछ लोग हैं जो एमिशन कर रहे हैं। हमने उनको सर पर बैठा रखा है, हम उनको पूजते हैं, वो हमारे आदर्श हैं। और वो इस क़द्र हमारे आदर्श हैं कि हम कहते हैं कि हमें एक दिन उनके जैसा बनना है। और वो कहते — "तुम हमारे जैसा बनोगे — हमारा माल ख़रीद-ख़रीद करके।" वो ऐसे ही थोड़ी अमीर हो गए! हम ही ने उनका माल ख़रीदा है। और हम उनका माल नहीं ख़रीदते — अगर हम उनको आदर्श नहीं मान रहे होते। तो सारी जो बात है — वो मानसिक है, वैल्यू सिस्टम की है।

दुनिया की 30–35 कंपनियाँ और दुनिया के शीर्ष 0.1 या 1% अमीर लोग जितना एमिशन करते हैं — वो हटा दिया जाए, तो समस्या बहुत हद तक काबू में आ सकती है। पर उन्हें नहीं हटाया जाएगा क्योंकि वो अमीर ख़ुद नहीं बने। उन्हें अमीर हमने बनाया है। हमारी जेब का माल है जो उनकी दौलत बनता है। हम कहते हैं — “हाँ, मुझे तुम्हारा माल चाहिए, दो।” और क्यों कहते हैं? क्योंकि उन्होंने हमें सिखाया है ऐसा कहना। और चूँकि हमारे पास आध्यात्मिक शिक्षा नहीं है, हम ख़ुद को नहीं जानते, हमारे पास अपना कोई वजूद नहीं है — तो हमें जिसने जो पट्टी पढ़ाई, हमने मान लिया।

और यही वो लोग हैं जो क्लाइमेट डिनायलिज़्म में सबसे आगे हैं। आप देखिएगा — जो आदमी जितना ज़्यादा अमीर होगा, वो क्लाइमेट चेंज को उतना ज़्यादा होक्स बोलेगा। होक्स समझते हो? — झूठ, मिथ, प्रपंच, अफ़वाह। तो कहेंगे — “ये तो अफ़वाह है, ऐसा कुछ होता नहीं है। पेरिस कन्वेंशन झूठ है, यूनाइटेड कन्वेंशन झूठ है, आईपीसीसी झूठ है, दुनिया भर के वैज्ञानिक आँकड़े झूठ हैं।"

आप उनके ख़रीदार हो, आप उनका बाज़ार हो, तो आपसे कहेंगे— "अपनी आबादी बढ़ाओ।" वो कहेंगे— "नहीं, नहीं, माल तो तभी बिकेगा न जब ख़रीदार बहुत सारे हों। आबादी बढ़ाओ, आबादी बढ़ाओ, आबादी बढ़ाओ।"

जिन चीज़ों के उत्पादन से कार्बन एमिशन हो रहा है, फॉसिल फ़्यूल बर्निंग से होता है ज़्यादातर एमिशन माने, एनर्जी। वो एनर्जी कुछ करने के लिए चाहिए न? तो जिस काम के लिए आप वो एनर्जी इस्तेमाल कर रहे हो, ज़्यादातर काम वो हैं जिन्हें करने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। पर आप जितना ज़्यादा वो सारे काम करते हो, उतनी ही किसी की जेब भरती है। इसलिए आपसे वे सारे काम करवा रहा हैं।

ज़्यादातर लोग जो ज़्यादातर काम कर रहे हैं, उन कामों को किए जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। वो सब काम बंद हो जाएँ तो बिल्कुल एक नए तरीक़े की अर्थव्यवस्था खड़ी हो सकती है। एक नई दुनिया हो सकती है, एक नई ज़िन्दगी हो सकती है। पर वो जो नई अर्थव्यवस्था खड़ी होगी, वो ऐसी नहीं होगी कि उसमें बस कुछ चंद लोग हैं जो अमीर होते जा रहे हैं — होते जा रहे हैं।

दुनिया भर में जो इनकम इनइक्वालिटी बढ़ रही है और साथ ही साथ कार्बन एमिशन भी बढ़ रहा है, कार्बन डाइऑक्साइड का पी.पी.एम. बढ़ रहा है — वो बिल्कुल एक साथ चल रहे हैं, समानांतर। आप इस बात पर गौर करिए, समझिए। इनकम इनइक्वालिटी समझते हैं? आर्थिक असमानता। आर्थिक असमानता जितनी बढ़ रही है, कार्बन एमिशन भी उतना ही बढ़ रहा है। इसका मतलब बताइए? — ये जो चंद लोगों के हाथ में ज़्यादा से ज़्यादा धन आता जा रहा है, यही एमिशन कर रहे हैं।

और दुनिया में जिन देशों में जो इनकम इनइक्वालिटी है, जो इनकम डिस्ट्रीब्यूशन कर्व है, वो एकदम स्क्यूड हो गया है— माने, बेढंगा हो गया है, झुक गया है एक तरफ़ को। उनमें भारत बहुत आगे है। दुनिया के सबसे ज़्यादा ग़रीब और कुपोषित लोग भी भारत में हैं और एशिया के जिस शहर में सबसे ज़्यादा अरबपति हैं, वो भी भारत में है।

तो चूँकि ये कुछ मुट्ठी भर लोग हैं जो ज़बरदस्त तरीक़े से अमीर हुए हैं, इनको भी आप शामिल कर लेते हो अपनी गणनाओं में, तो ऐसा लगता है कि औसत आय बढ़ रही है। इन लोगों को हटा दो और आम आदमी की औसत आय देखो, तो पता चलेगा कि हमारी हालत क्या है। दो प्रकार की समस्याएँ हैं — एक तो ये कि जो आम आदमी है, उसकी आय नहीं बढ़ रही है, उसकी ग़रीबी कोई दूर नहीं हो रही है। बढ़ भी रही है तो बहुत साधारण गति से। दूसरा ये कि सारी संपत्ति और सारी ताक़त जिन चंद हाथों में कन्सन्ट्रेट हो रही है, वही लोग क्लाइमेट क्राइसिस के ज़िम्मेदार हैं।

इसी को ‘माया’ कहते हैं— जो आपको, आपके भविष्य को बर्बाद कर रहा है, आप उसी को पूज रहे हैं।

आप उसी को कह रहे हैं — "काश, मैं भी ऐसा हो पाता!" कल को वो पक्षी ही, जो मैंने कहा — आसमान से उड़ते-उड़ते अचानक से नहीं गिर जाएगा? हमारा बच्चा है, वो स्कूल से आ रहा है, उसी पिघलती हुई डामर वाली सड़क से। वो कहीं गिरा पड़ा है और आपको पता भी नहीं चलेगा कि इसका ज़िम्मेदार वो अमीर आदमी है — वही अमीर आदमी जिसने अर्थव्यवस्था पर पूरा क़ब्ज़ा कर रखा है। और आप कुछ भी करो, आप ले-दे कर प्रोडक्ट्स और सर्विस उसी की खरीदते हो।

कोई एफ़.आई.आर. दर्ज नहीं होगी। कोई उँगली नहीं उठेगी। कोई आरोप नहीं लगेगा। और चूँकि हम बहुत धार्मिक देश हैं, तो हम कह देंगे — "ये मेरे पिछले जन्म के बुरे कर्म थे, इसलिए ऐसा हुआ।" ये तुम्हारे पिछले जन्म के बुरे कर्म नहीं थे, ये तुम्हारी आज की बेहोशी थी।

मैं क्या बोलूँ आपसे — जो औसत भारतीय होता है, उसका 10% है कार्बन फ़ुटप्रिंट विकसित विश्व की अपेक्षा। अजीब लगता है कि मैं अपने लोगों को, अपने देश के लोगों को बोल रहा हूँ कि — "तुम कन्ज़म्प्शन कम करो।" ये बेचारे तो कर भी नहीं रहे हैं इतना। ये और कितना कम करें? आधे तो भारत में अभी कुपोषित ही चल रहे हैं। अभी भी उनको मैं बोलूँ कि — "तुम अपना कन्ज़म्प्शन कम करो ताकि कार्बन एमिशन कम हो।" क्या बोलूँ उनको? उन्हें तो अपना बढ़ाने की आवश्यकता है, बल्कि। जो बेचारा साइकिल पर चल रहा है, मैं उसको बोलूँ — "तुम साइकिल पर ही चलते रहो!"

नहीं! उसको तो चाहिए — कम-से-कम एक स्कूटी आए उसके घर में। जिनको ये समझाने की आवश्यकता है कि — "तुम एमिशन कम करो। वो, वो लोग हैं जो भली-भांति जानते हैं कि वही एमिशन कर रहे हैं, और वो कहते हैं — "मेरे ठेंगें से! ये पूरा ग्रह जलता है तो जले।" ये 800 करोड़ मीडियोकर्स, एवरेज लोग, "दिज़ कॉमनर्स, देइ बेलॉन्ग टू इन्फीरियर स्पीशीज। वो अपने आप को एक अलग प्रजाति ही मानते हैं। वो कहते हैं — "हम रहेंगे। हम बचे रहेंगे। और जब पृथ्वी में पूरी आग जाएगी, तब हम अपने रॉकेट पर बैठकर किसी और ग्रह में चले जाएँगे।"

समस्या सारी ये है कि उनकी राजनेताओं के साथ साँठ-गाँठ है, और हम उन राजनेताओं को भी पूजते हैं। हमारी आँखों के सामने, हमारी ही जेब से पैसे लेकर के और हमसे ही वोट लेकर के, हमें बर्बाद किया जा रहा है। ये दो चीज़ें हैं जो हमें बर्बाद कर रही हैं — मेरी ही ख़रीददारी, मेरे ही आदर्श और मेरा ही वोट। तीन बातें।

और उल्टे हमारे ऊपर ग्लानि डाल दी जाती है कि — "तुमने ठीक से अपना वो बल्ब नहीं बंद किया था न, 40 वॉट वाला, इसलिए क्लाइमेट चेंज हो गया है!" मैं नहीं कह रहा हूँ कि बल्ब खुला छोड़ दो। मैं नहीं कह रहा हूँ कि कमरे से बाहर जा रहे हो तो पंखा भी चलता छोड़ दो। बंद करना चाहिए — बेशक।

लेकिन पर्सपेक्टिव , आँकड़े, अनुपात — ये भी तो कोई चीज़ होते हैं न! तुम्हारे 40 वॉट के बल्ब और तुम्हारी स्कूटी से नहीं हो रहा है क्लाइमेट चेंज। गाड़ियाँ क्या चीज़ होती हैं? और गाड़ियाँ कितना तेल पीती हैं और क्या माइलेज देती हैं — ये देखना है तो अमेरिका या दुबई जाकर देखो। तब पता चलता है कि कौन करता है एमिशन।

सिर्फ़ जो व्हीकुलर प्रदूषण है और जो कंस्ट्रक्शन से फाइन पार्टिकल्स निकलते हैं, उनके कारण — आप जानते हो न कि दिल्ली का एक्यूआई कितना रहता है? जानते हो न? और क्लाइमेट चेंज के साथ एक चीज़ जो बहुत गहराई से जुड़ी हुई है, वो ये है कि आग लगेगी, लगातार आग लगती रहेगी। क्योंकि मिट्टी सूख चुकी होगी, और बहुत सारा ऑर्गेनिक मटेरियल मिट्टी के ऊपर पड़ा होगा — वो जलेगा।

वही मिट्टी जब गीली होती है न, तो वो कार्बन डाइऑक्साइड सोख कर रखती है — मिट्टी भी, जैसे ओशन सोख कर रखते हैं, जैसे जंगल सोख कर रखते हैं, वैसे ही मिट्टी भी सोख कर रखती है। और वही मिट्टी जब सूख जाती है, तो पहली बात — वो ख़ुद कार्बन डाइऑक्साइड रिलीज़ करती है। दूसरी बात— अब आग लगती है। और जब आग लगेगी, तो आप जो साँस ले रहे हो, उस हवा की एयर क्वालिटी का क्या होगा? वो और गिरेगी। और अभी ही जितना एक्यूआई है, उसमें अनुमानित है कि दिल्ली के आम आदमी की ज़िन्दगी 10 से 12 साल कम हो चुकी है। कोई है जो आपकी ज़िन्दगी के 10-12 साल खींच कर ले गया है, और आपको फ़र्क़ नहीं पड़ रहा। आप अभी भी उसको पूजते हो।

बहुत अच्छा लगता है न? उसका इतना पैसा है। बहुत अच्छा लगता है और उसके पास इतनी ताक़त है। है तो वो उद्योगपति ही, लेकिन वो दुनिया की कई सरकारों को नियंत्रित कर रहा है। वो पूरी मीडिया को नियंत्रित कर रहा है। सोशल मीडिया को नियंत्रित कर रहा है। वो कितनी ही इंडस्ट्रीज़ को नियंत्रित कर रहा है। बहुत अच्छा लगता है न? हम सब भी उन्हीं बातों की, उसी ताक़त की हवस रखते हैं — तो हम उसको पूजना शुरू कर देते हैं।

ये जो कैटस्ट्रॉफी है न, ये वैल्यू सिस्टम की कैटस्ट्रॉफी है। किसको महत्त्व देना है और किसको नहीं — ये हमें पता नहीं है, इट्स अ क्राइसिस ऑफ द वैल्यू सिस्टम। और इसलिए अध्यात्म बहुत ज़रूरी है — ताकि कोई आपको ललचा करके कुछ ख़रीदने पर विवश न कर दे। ताकि कोई आपको बाहुबल, धनबल या सत्ता-बल दिखाकर आपकी रीढ़ झुका न दे। कुछ आ रही है बात समझ में?

मैं कह रहा हूँ — आपने एमिशन नहीं किया है, एमिशन उसने किया है। पर उसको एमिशन करने की ताक़त आपने दी है, और इसलिए आप ज़िम्मेदार हो। अगर मैं आपकी ज़िन्दगी देखूँ, तो आपका बहुत छोटा कार्बन फुटप्रिंट है, दुनिया के औसत से भी छोटा। तो आपने नहीं किया है — प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया है पर अप्रत्यक्ष रूप से आप ही ज़िम्मेदार हो। और ज़िम्मेदार हो, तो फिर दंड भी मिलेगा।

अच्छा, आपको कैसे पता कि एक ख़ास तरह की ज़िन्दगी आपको चाहिए? आम आदमी किसलिए जीता है? बताओ, आम आदमी किसके लिए जीता है? प्रेम के लिए जीता है? मुक्ति के लिए जीता है? ऊँचाइयों के लिए जीता है? करुणा के लिए जीता है? दिल से बताइए — आम आदमी किसके लिए जीता है?

श्रोता: पैसा।

आचार्य प्रशांत: पैसा है न, वो सीधे-सीधे न पता चले पर थोड़ा गहराई से देखो — तुरंत पता चल जाता है। "बेटा, बेटा — जा कोचिंग जा। अच्छा, खूब पढ़ के दिखाना, पढ़ाई में तुझे तरक़्क़ी करनी है।” कौन सी पढ़ाई में तरक़्क़ी करवाना चाहते हो? कौन सी पढ़ाई में?

श्रोता: जिसमें पैसा मिले।

आचार्य प्रशांत: ये तो छोड़ दो कि जीवन-शिक्षा में तरक़्क़ी करानी है। ये भी छोड़ दो कि यूनिवर्सिटी की जो स्ट्रीम्स हैं, उनमें किसी ऐसी स्ट्रीम में तरक़्क़ी करानी है जिसमें पैसा न हो। आपके घर में आपका बच्चा बोले — "मुझे इतिहास में बहुत रुचि है।" माँ-बाप बोलेंगे — "लात मार देंगे! इंजीनियरिंग की तैयारी कर!” तो ज्ञान भी किस हेतु चाहिए? पैसा। आम आदमी पैसे के लिए ही तो जी रहा है न? ये समस्या है वैल्यू सिस्टम की। तो जब हम पैसे के लिए ही जी रहे हैं, तो जिनके पास हम सबसे ज़्यादा पैसा देखते हैं, हम तुरंत उनकी चरण वंदना शुरू कर देते हैं, ये है बात।

"सिविल सर्विस" की परीक्षा क्लियर कर लो, रैंक अच्छी निकाल लो — 5 से 10 करोड़ दहेज। एक बार मैं बात कर रहा था। मैंने कहा— "यार, 30 साल तक तुम यहाँ पड़े रहते हो, क्या कर रहे हो? और इतना पैसा यहाँ लगा रहे हो?" (दिल्ली में जो लोग तैयारी कर रहे होते हैं सिविल सर्विसेज, आईएएस वग़ैरह की)। इतना पैसा लगा रहे हो, इतने साल लगा रहे हो। क्या है? क्या नहीं है?" बोले — "हाँ, बात तो सही है।" मैंने कहा — "बात सही है, तो मतलब मान रहे हो बात?" बोले — "नहीं, फिर धीरे-धीरे वो आ भी जाता है।" तो नौकरी भी किस लिए चाहिए?

श्रोता: पैसा।

आचार्य प्रशांत: शादी भी किस लिए कर रहे हो?

श्रोता: पैसा।

आचार्य प्रशांत: तो जिसके पास पैसा है, वही भगवान हो गया हमारा, बात ख़त्म। और उसके पास पैसा आया कहाँ से? वो छापता है ख़ुद? उसके पास पैसा तुम्हारी जेब से आया। कैसे आया? उसने बंदूक दिखाई थी कि पैसा निकाल? नहीं। उसने माल दिखाया था — ये बढ़िया माल है, ख़रीद ले। और उसने आपके दिमाग में एक फिलॉसफी बैठाई थी कि, जो जितना माल भोगता है, उसकी ज़िन्दगी उतनी सार्थक है।

ये फिलॉसफी आपके दिमाग में उन्होंने ही बैठाई है जो ख़ुद माल तैयार करते हैं और बेचते हैं। क्योंकि माल तैयार करना पर्याप्त नहीं होता न। माल का ग्राहक भी तैयार करना पड़ता है। और ग्राहक तभी तैयार होगा जब बहुत सारे तरीक़ों से आपके भीतर ये बात डाली जाए कि हैप्पी लाइफ, सक्सेसफुल लाइफ का मतलब है, ऐसी लाइफ जिसमें तुम जमकर अय्याशी कर पा रहे हो। जो जितनी अय्याशी कर सकता है, जो जितने पैसे उड़ा सकता है, उसका जीवन उतना सफल माना जाएगा।

ये फिलॉसफी तुम्हें किसने दी है? उपनिषदों ने दी, गीता ने दी, वेदांत ने दी? पर आम आदमी चल तो इसी फिलॉसफी पर रहा है। किसने दी है? ये उन्होंने ही दी है फिलॉसफी, जिनके पास माल है तुम्हें बेचने के लिए। उन्होंने ही तुमसे कहा है कि जितना माल भोगोगे, तुम उतने सफल कहलाओगे। और ये बात हमें पता भी नहीं है। ये बात हमें क्यों नहीं पता है? क्योंकि ज्ञान के लिए हमारे ही जो ग्रंथ थे, हमारी ही गीता और हमारे ही श्री कृष्ण के लिए हमारे पास बहुत कम आदर है। होता आदर, तो कोई यूँ ही सस्ता व्यापारी आकर हममें पट्टी न पढ़ा जाता। हम उससे कहते — रुक, मेरी गीता ने मुझे कुछ और बताया है। तू मुझसे बोल रहा है, कामना पूरी करो तो जीवन सफल है, और गीता तो मुझे बोल रही है — निष्काम कर्मयोग से ऊँचा कुछ होता नहीं। तू झूठ बोल रहा है। ये है क्लाइमेट क्राइसिस। बात समझ में आ रही है?

इसलिए मैं कहता हूँ कि मूलतः एक आध्यात्मिक समस्या है। हमें पता ही नहीं हम कौन हैं और जीना किस लिए है। तो हम भोगने के लिए जीते हैं। और भोगने के लिए जियो, मस्त करो — इसके लिए हमने आदर्श खड़े कर रखे हैं। ये आदर्श बन के बैठे हैं, वो कहते हैं — हमें देखो न, हम कितने खुश हैं। हमें देखो, तुम भी हमारे जैसे बनो। और हमारे जैसे कैसे बनोगे? हमारी नौकरी करके और हमारा माल ख़रीदकर ही। नौकरी भी हमारी करो और माल भी हमारा ख़रीदो। और दोनों ही स्थितियों में मुनाफ़ा किसको होने जा रहा है? — उसको। और वो उस मुनाफ़े का क्या करेगा?

वो उस मुनाफ़े से तेल जलाएगा। वही है जो आपके ही द्वारा दिए गए मुनाफ़े को इकट्ठा करके, सब लोग मिलकर के उसको जो पैसा दे रहे हो, वो उसी पैसे को जला रहा है। उसको ही कार्बन एमिशन और क्लाइमेट क्राइसिस बोलते हैं। और वो ये नहीं कहता, कि बात तुम्हारे और मेरे बीच की है। वो ये नहीं कहता कि तुम्हारा संघर्ष मुझसे है। वो आपको बताता है, तुम्हारा संघर्ष तुम्हारे पड़ोसी से और रिश्तेदार से है। वो कहता है — "देखो कि बगल वाला ज़्यादा भोग गया, तुम ही पीछे रह गए। तुम स्कूटी पर ही रह गए, उसके यहाँ इनोवा आ गई।"

वो ये कभी नहीं बताएगा कि उसके यहाँ पर प्राइवेट जेट की पूरी फ्लीट खड़ी हो गई है। तुम्हें छोटी-छोटी गाड़ियाँ बेच-बेच के, और तुममें आपस में प्रतिद्वंद्विता कराएगा — "तू आगे बढ़ न, तू आगे बढ़ न, देख बगल वाला आगे बढ़ गया।" पुरानी कहानी है न? मेंढकों की बात करी तो वैसे ही बिल्ली और बंदर की कहानी भी याद आ रही होगी। हाँ तो 800 करोड़ बिल्लियाँ तैयार की गई हैं, आपके पावर प्लांट चल लेंगे? जब लगातार 50 डिग्री से ऊपर तापमान रहेगा, तो आप क्या सोच रहे हो? बाहर गर्मी रहेगी, आप भीतर ए.सी. में हवा खा लोगे? ए.सी. चल लेंगे आपके?

पहली बात तो ए.सी. डिज़ाइन नहीं होता 50-55 डिग्री के लिए, और दूसरी बात, ए.सी. तब चलेगा न जब पावर आएगा, इतने तापमान में तो पूरी की पूरी ग्रिड बैठ जाएगी। अब बाहर धधक रही है आग, और भीतर न पानी है, न बिजली। न पानी, न बिजली — कैसा लग रहा है? बाहर आग धधक रही है, और भीतर न पानी है, न बिजली है। अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है, तो नौकरी भी नहीं है। बाहर आग धधक रही है, भीतर न बिजली है, न पानी है, न नौकरी है। तो हो सकता है खाने को भी न हो, क्योंकि एक तरफ़ अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है, और दूसरी तरफ खाद्यान्न — खाने की चीज़ों के दाम आसमान छू रहे हैं।

कैसा लग रहा है? और जो इसके ज़िम्मेदार हैं, वो मार्स पर बैठे हुए हैं, हँस रहे हैं — "ब्लडी लूज़र्स ऑन द ओल्ड प्लैनेट, वी लेफ्ट देम बिहाइंड।" इसलिए ज़रूरी होता है कि जीवन में आदर्श सही हो। इसलिए ज़रूरी होता है कि फिर जीवन में श्री कृष्ण हो, कबीर साहब हो। जब ये होते हैं न, तो आदमी तुच्चे लोगों की पूजा नहीं शुरू कर देता।

हमारे जो ओशन्स हैं, अगर 70% — जैसे हम कहते हैं कि जो पूरा क्षेत्रफल है पृथ्वी का, वो क्या है? पानी से घिरा हुआ है। ठीक उसी तरीक़े से जो 70% जीवन है, वो थल में नहीं, जल में पाई जाती है। हमारे ओशन्स का एसिडिफ़िकेशन हो रहा है, और वो गर्म हो रहे हैं। जो हीट सिंक होते हैं — ज़्यादातर जो एटमॉस्फेरिक हीट होती है — 70% वो ओशन्स ही अवशोषित करते हैं, और वो एसिडिफ़ाई भी हो रहे हैं और गर्म भी हो रहे हैं। तो खौलता हुआ एसिड बन गए हैं, हमारे समुद्र। कैसा लग रहा है?

और जितने तटवर्ती शहर थे, वो तो कब के डूब चुके हैं। प्रतिवर्ष 3.5 मिमी जो ओशन लेवल है, वो बढ़ रहा है। और वो एक बढ़ती हुई दर से बढ़ रहा है। इस साल 3.5, तो अगले साल 4, तो अगले साल 4.5, तो माने कुल मिला के 3.5 और 4 और 4.5, माने 7.5, 4.5, 12 मिमी 3 साल में ग्रोइंग एट अ ग्रोइंग पेस, माने एक्सेलेरेटिंग। तो तटवर्ती शहर तो सब डूब ही चुके हैं, और हमारे समुद्र क्या बन गए हैं? खौलता हुआ एसिड। और 70% जीवन समुद्रों में ही पाया जाता है। तो जीवन कहाँ बचा? जैसे हम कहते हैं अमेज़न रेन फॉरेस्ट को कि ये लंग्स हैं, वैसे ही समुद्रों का लंग्स होती है कोरल रीफ्स। उन कोरल रीफ्स की अभी क्या दशा है, पढ़ लीजिएगा।

हम जैसे रहे हैं अतीत में, जो भी हमारी व्यवस्था रही है — पारिवारिक व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, धार्मिक, सांस्कृतिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था — वो सब गलत रही हैं। और चूँकि वो सब की सब गलत रही है, तो उन्होंने हमें ला के इस बर्बादी पर खड़ा कर दिया है। और हमें ये मानना पड़ेगा आज कि हमारा जितना अतीत रहा है, हमें उसका पुनर्मूल्यांकन करना पड़ेगा।

वो सब कुछ ठीक होता, तो क्या हमें महाप्रलय पर लाकर खड़ा कर देता? और ऐसा नहीं कि हम आज बहुत गंदे लोग हो गए हैं, तो हमें ये दंड मिल रहा है। ये जो प्रक्रिया चल रही है, ये पहले दिन से चल रही है। बस पहले हमारे पास इतना कार्बन जलाने की ताकत नहीं थी, वरना इरादे तो हमारे हमेशा से यही थे। हमेशा ये इरादे थे। खेती करनी है तो क्या करना है? जंगल काटना है। करा तो हमने हमेशा से यही है। पर पहले हम इतने बड़े स्केल पर नहीं कर पा रहे थे, तो पता नहीं चल रहा था। वरना जैसे हम आज हैं, वैसे हम पहले भी थे।

कोई ये न बोले कि अतीत के लोग तो बहुत अच्छे होते थे और स्वर्ण काल था और सतयुग था, ये तो कलयुग चल रहा है, इसीलिए इंसान ने गड़बड़ की है। नहीं, नहीं इंसान सदैव से ऐसा ही रहा है। बल्कि आज तो हम फिर भी इस बारे में बात कर रहे हैं और इसे रोकने की कोशिश कर रहे हैं। पहले तो और अंधाधुंध भोग होता था — हाँ, सामर्थ्य के अनुसार। पहले भोगने की बहुत ज़्यादा सामर्थ्य ही नहीं थी, पर जितनी सामर्थ्य थी, उस हिसाब से खूब भोगते थे। जंगलों में जा-जा के शिकार हो रहा था, मौज के लिए शिकार हो रहा था। अब तो कहीं दिखता है कोई कि कोई मौज के लिए बस मार रहा है। पहले तो ये सब भी चलता था। आ रही है बात समझ में?

हम इस पृथ्वी से पूरे तरह से जुड़े हुए हैं। और पृथ्वी की एक खास अवस्था है, सिर्फ़ जिस पर मनुष्य जिंदा रह सकता है। वो अवस्था बदलेगी तो मनुष्य नहीं बच सकता। एक ख़ास हमें वायुमंडलीय दबाव चाहिए, एक ख़ास तापमान चाहिए। वो सब कुछ जब वैसे का वैसा ही रहता है, तब ये प्रजाति बची रहती है — हमारी प्रजाति और अन्य प्रजातियाँ भी। तुम पृथ्वी को ही बदल दोगे तो इंसान नहीं बचा रह सकता। हम पृथ्वी ही हैं, हम पृथ्वी से ही उठे हैं।

तुम पृथ्वी को ही बदल रहे हो, तो हम बचेंगे कैसे? और ये इररिवर्सिबल बदल रहे हो। ये जो कार्बन डाइऑक्साइड आपने डाल दी, अब वायुमंडल में ये वापस नहीं खींची जा सकती। और पहले भी जब भी मास एक्सटिंशन हुआ है, तो इसी वजह से हुआ है कि कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ गई थी, और फिर लाखों करोड़ों सालों के लिए पृथ्वी से जीवन विलुप्त हो गया।

आप इसे छोड़ तो सकते हो, वापस कैसे लाओगे? वापस लाने के लिए पहले प्राकृतिक प्रक्रियाएँ थीं। पेड़ सोख लेते थे, समुद्र सोख लेते थे, मिट्टी सोख लेती थी। तो एक संतुलन बना रहता था कि इतनी एमिट हो रही है और इतनी सोखी जा रही है। कृत्रिम रूप से उसको सोखना संभव नहीं है। मशीनें बनाने की कोशिश वग़ैरह चल रही है। वो मशीन भी क्या मांगेगी चलने के लिए?

श्रोता: पावर।

आचार्य प्रशांत: ये कि मैं कार्बन डाइऑक्साइड सोख लूँगा, संभव नहीं है। हमारे तरीक़ों ने पृथ्वी को बर्बाद करा है, और उसको बचाना है तो हमें हमारे तरीक़े ही बदलने पड़ेंगे। लेकिन आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जितने प्रयास चल रहे हैं, वो ये हैं कि हमारे तो जो तरीक़े रहे हैं और हमारी जैसी ज़िन्दगी रही है, वो वैसे ही चले। कुछ और जुगाड़ करते हैं कि कैसे क्लाइमेट चेंज को रोका जाए। हम बदलने को राज़ी नहीं हैं, हम अपने केंद्र को बदलने को राज़ी नहीं हैं। हम ऊपरी ही, ऊपरी ही सतही कुछ और जुगाड़ करना चाहते हैं। वो सतही जुगाड़ सफल नहीं हो सकते।

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मेरा नाम हिमांशु है और मेरा प्रश्न एंटीनेटलिज़्म के बारे में है। जैसे आपने पिछले सत्रों में बताया है कि 'हैविंग अ फ्यूअर चाइल्ड' और ‘लेस चाइल्ड हेल्प इन रिड्यूसिंग कार्बन एमिशंस।’ तो इंडिया इसमें सबसे आगे है, तो हमें उसके बारे में काम करना चाहिए या नहीं?

आचार्य प्रशांत: बच्चे न पैदा करने के लिए क्या काम करना पड़ता है? हाँ, करो, अच्छी ही बात है। लेकिन वो एंटीनेटलिज़्म भी देखो, जो बच्चा पैदा होगा वो कंज्यूम करेगा, तब न कार्बन एमिशन होगा। भारत अभी भी बाकी दुनिया की अपेक्षा बहुत गरीब है। जो भारत में बच्चा पैदा होने वाला है, उस बेचारे को इतना मौका ही नहीं मिलने वाला कंज्यूम करने का। अच्छी बात है नहीं मिलने वाला है। तो वो कार्बन एमिशन का बहुत बड़ा स्रोत नहीं है।

दिक्कत तब होती है, जब किसी धन्ना सेठ की एक दर्जन औलादें होती हैं, ये करेंगी अंधा उपभोग। समझ में आ रही है बात? बाकी ये तो कई दृष्टियों से सही बात है कि तुम्हें अपनी ज़िन्दगी को कुछ सार्थकता देनी है, तो तुम्हें होश होना चाहिए कि कर क्या रहे हो। ये पशुओं का काम है अंधाधुंध पैदा करते जाना। इंसान इसलिए नहीं है कि वो पशु की तरह बस।

जहाँ कहीं भी आपके पास मौका हो, वहाँ सबसे पहले बात क्लाइमेट की ही करें। दुनिया के किसी भी मुद्दे से ज़्यादा क्लाइमेट की बात ज़रूरी है। जो भी बातें आपको ज़रूरी लगती होंगी, उनसे सौ गुना ज़्यादा ज़रूरी है ये क्लाइमेट की बात।

आपके ऑफिस में कहीं चार लोग मिलकर बात कर रहे हैं, आप क्लाइमेट का मुद्दा उठाएँ। आपके घर कोई वोट मांगने आया है, उससे कहो — तुम्हारे मेनिफेस्टो में क्लाइमेट चेंज कहाँ है? बिल्कुल रट लगा दें, क्योंकि हमारी वो आखिरी पीढ़ी हो सकती है जो इस बारे में कुछ कर सकती थी। और आप अगर पृथ्वी की परवाह नहीं कर रहे, तो पृथ्वी को आपकी परवाह भी नहीं करनी है। छोड़िए पृथ्वी को वो एब्स्ट्रैक्ट हो जाता है। आप अगर कल की परवाह नहीं कर रहे, तो कल आपके बच्चों की परवाह नहीं कर रहा। अपने बच्चों से प्यार है न? अपने बच्चों को एक जलती हुई दुनिया छोड़कर जा रहे हो। जलती हुई, ख़त्म होती हुई।

किसी से आप ऐसे ही बैठकर चिट-चैट भी कर रहे हैं। साधारण गॉसिप मुद्दा यही उठाएँ और इस पर खूब पढ़ें, खूब पढ़ें, खूब ख़ुद खोज-खोज कर पढ़ना इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि बहुत सारे देशों में विशेषकर अमेरिका, ये कोशिश की जा रही है कि क्लाइमेट की आवाज़ों को दबाया जाए।

जो वहाँ नया प्रशासन आया है, वो चाहता नहीं कि क्लाइमेट के बारे में कोई भी बात हो। वो उसे स्कूलों, कॉलेजों के करिकुलम से भी हटा रहे हैं। और जो लोग उसकी बात करना चाहते हैं, उनकी आवाज़ को दबा रहे हैं। उनके सोशल मीडिया अकाउंट्स भी बंद कर रहे हैं। जितने तरीक़े से उनको रोका जा सकता है, रोक रहे हैं। तो बिल्कुल हो सकता है कि आप सोचें कि “अरे मेरी फीड पर तो क्लाइमेट को लेकर कुछ आ नहीं रहा।” तो वो नहीं आएगा, क्योंकि एल्गोरिदम को बोला गया है कि ये बात जनता तक नहीं पहुँचनी चाहिए।

क्योंकि वो एल्गोरिदम भी किसके हाथ में है? उन्हीं लोगों के हाथ में है जो कार्बन एमिशन करते हैं। वे आप तक ये खबर नहीं पहुँचने देंगे। आप सोचेंगे कि टीवी पर ये बात आएगी, लेकिन टीवी पर ये बात नहीं आएगी। ये एक बहुत बड़ी साजिश है पूरी मानवता के खिलाफ। जो बातें मैं आपसे कह रहा हूँ, वे बातें नेट पर तो उपलब्ध हैं, लेकिन मीडिया आप तक नहीं लेकर आएगा।

इसलिए नहीं कि वे नहीं जानते, बल्कि इसलिए क्योंकि वे पूरी तरह से जानते हैं। वे आप तक सिर्फ़ वही चिल्लर बातें लेकर आएँगे — आईपीएल देख लो, फलानी अभिनेत्री फलाने के साथ पकड़ी गई, फलाने का ये हो गया, फलाने का बछड़ा कुएँ में गिर गया, हिंदू ने मुसलमान को दौड़ा लिया। ये सब आपको इसमें उलझा कर रखेंगे ताकि जो अस्तित्वगत संकट है, वो आपको पता ही न लगे। आपको एक नशा दिया जा रहा है ताकि आप बस नशे की पिनक में बेहोशी में ही मर जाओ, शांतिपूर्वक मर जाओ। नहीं तो आप विद्रोह कर दोगे, क्रांति कर दोगे ना। क्रांति कर दोगे तो उनके निहित स्वार्थों पर चोट पड़ती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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