आइ लव यू-‘आइ’ पहले है, ना?

Acharya Prashant

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आइ लव यू-‘आइ’ पहले है, ना?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज पता चला है कि प्यार तो उसी से हुआ है जिसके दस चेहरे हैं, और उनके दस मालिक। हाॅं, ये भी समझ आ रहा है कि हमारे भी दस चहरे हैं। पर क्या फिर हम सामने वाले को छोड़ दें? क्योंकि सामने वाला हमारे दस चेहरों की निन्दा करते हुए हमें छोड़कर चला गया है। उससे प्रेम भी नहीं है, क्या उसे वापस लायें?

आचार्य प्रशांत: आप हो कहाँ प्यार करने के लिए? सारी बातचीत सामने वाले के बारे में कर रहे हो जिसके दस चेहरे हैं, दस मालिक हैं, वो जो छोड़कर चला गया है। अपनी भी तो बात बताओ न, आप हो कहाँ? प्यार करने के लिए कोई चाहिए कि नहीं चाहिए? कोई होगा तब न प्यार करेगा।

कॉलेज के दिनों में था मैं, आयनरैंड को पढ़ा था। तो फिर याद करता हूँ, बिस्तर पर लेटकर अपना पढ़ रहा था फाउंटेनहेड। तभी एक उसमें वाक्य सामने आया, और मैं बिस्तर पर लेटा था एकदम ऐसे सीधे उठकर बैठ गया (उठकर बैठने का इशारा करते हुए)। उसमें लिखा था, ‘टू से आइ लव यू वन मस्ट फर्स्ट नो द आइ (यह कहने के लिए कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ, पहले ‘मैं’ को जानना होगा)। ‘आइ लव यू’ तो ‘आइ’ से शुरू होता है। ‘आइ’ है कहाँ तुम्हारे पास? ‘आइ’ है कि आइ लव यू बोलने निकल पड़े? और सारी बातचीत किसके बारे में कर रहे हो, ‘यू’ के बारे में। ‘यू’ ऐसे है, ‘यू’ ऐसे है, प्रेम ऐसा है। अरे वो ‘यू’ तो बहुत-बहुत बाद में आता है, शुरुआत किससे होती है? ‘आइ’ से। वर्णमाला ‘ए’ से नहीं शुरू होती, ‘आइ’ से शुरू होती है।

समझ में आ रही बात?

वो इल्फाबेट है। तुम गलत बोलते हो अल्फाबेट। तुम ठीक हो जाओ उसके बाद सामने वाले के दस चेहरे तुम्हारे लिए समस्या नहीं रह जाऍंगे। दर्द तो बहुत दूर की बात है। कि दर्द देंगे कि नहीं देंगे, समस्या भी नहीं रहेंगे तुम्हारे लिए। फिर बिलकुल जान जाओगे कि उसके दस चेहरों के साथ क्या करना है, कुछ करना भी है कि नहीं करना है। अभी तुम्हें उसके दस चहरों से इसलिए समस्या हो रही है क्योंकि तुम्हारे भी अपने दस चेहरे हैं। इस ‘आइ’ को ठीक करो पहले।

समझ में आ रही है कुछ बात?

हम कुछ अजीब से हैं जैसे किसी तरीके से एक पिंड बना दिया जाए, जिसमें कहीं पॉज़िटिव चार्ज है, फिर कहीं नेगेटिव चार्ज है, फिर कहीं चुम्बक लगी हुई है, फिर कहीं कुछ लगा हुआ है, जिससे मैगनेटिक फ़ील्ड (चुम्बकीय क्षेत्र) जनरेट हो रहा है। जितनी तरह की कारगुज़ारी करी जा सकती है वो सबकुछ उस पिंड में है। एक छोटा सा स्फ़ियर (गोला) बना दिया गया है। और जो सामने वाला है वो भी लगभग इसी तरीके का है।

अब एक स्थिति पैदा हुई जब मैं ऐसे हूँ, (गोले का इशारा करते हुए) एक स्फ़ियर हूँ। स्फ़ियर समझ रहे हो न? गोल, गोलाकार पिंड। (मुट्ठी से इशारा करते हुए) मैं ऐसे हूँ। यहाँ मेरा, इस वक्त मेरा जो पॉज़िटिव चार्ज था, यहाँ पर था। (मुट्ठी की एक ओर को इंगित करते हुए) कहाँ पर था? यहाँ पर था। और ठीक उसी वक्त प्राकृतिक संयोग ऐसा पैदा हुआ कि सामने मेरे वो आ गया उसका नेगेटिव चार्ज यहाँ पर था। (मुट्ठी की दूसरी ओर इंगित करते हुए)।

तो हम दोनों एक-दूसरे की ओर ऐसे खींच गये। (दोनों मुट्ठियों को पास लाते हुए)। बड़ा मज़ा आया। ये शायरी सुनाते थे, ये कविता लिखकर भेजती थी। ये सेब बताते थे, ये अंगूर बताती थी। बढ़िया अपना पॉज़िटिव-नेगेटिव, पॉज़िटिव-नेगेटिव। और अभी इधर पूरे बाकी में क्या छुपे हुए थे? सौ तरीके की और चीज़ें। सब फ़िज़िकल, सब प्राकृतिक। और इतना ही नहीं, ये जो चीज़ है ये भी अपनी धुरी पर घूम रही है। क्योंकि प्रकृति में जो कुछ है वो घूमता है। चक्र है वहाँ पर।

ये भी साहब जो हैं ये भी अपनी धुरी पर घूम रहे हैं। तो इनका जो पॉज़िटिव था ये धीरे-धीरे ऐसे हटने लग गया। (एक मुट्ठी को दूसरी मुट्ठी के सामने से घुमाते हुए) अब यहाँ पर क्या सामने आ गया? (घुमाई हुई मुट्ठी के सामने आये भाग की और इशारा करते हुए) नेगेटिव। और इनका जो नेगेटिव था, जब घूमा तो यहाँ पर डबल नेगेटिव सामने आ गया। (दूसरी मुट्ठी को घुमाते हुए) अब ये नेगेटिव-नेगेटिव सामने आ गये, तो ये धीरे-धीरे छोड़ कर भग गया। (दूसरी मुट्ठी को दूर ले जाते हुए) वो तो भागेगा। अब शिकायत क्या है? कि इसमें देखो, इसमें पॉज़िटिव भी था, नेगेटिव भी था, मैगनेटिक भी था, इलेक्ट्रो मैगनेटिक भी था, इलेक्ट्रो स्टैटिक भी था, सबकुछ था, पता नहीं क्या-क्या था। सब बताये नहीं। बस, एक बताया, और जो एक बताया वो फिर बाद में छुप गया।

अरे भाई, जो कुछ उसमें था वही सबकुछ तो तुम में भी था न? तुम में नहीं होता तो तुम फॅंसते क्या? पर ‘आइ’ की, ‘मैं’ की, ‘अहम्’ की, अपनी बात हम नहीं करना चाहते। थोड़ी देर पहले मैंने क्या बोला था? माया क्या करती है? तुम ही को लेती है, तुम्हारे सामने खड़ा कर देती है तुम से विपरीत बनाकर के। वो बिलकुल तुम्हारे ही जैसा तुम्हारे सामने है। बस, उसका जेंडर बदल दिया है। तुम अगर ‘मिस्टर एक्स’ हो तो वो सामने ‘मिस एक्स’ है। पर ‘वाइ’ नहीं है वो, उसको ‘वाइ’ मत बोल देना। बस, उसका लिंग बदल दिया। वो बिलकुल तुम ही हो, जो तुम्हारे सामने है। और तुम उसकी ओर भगे जा रहे हो कि आह! कुछ बिलकुल नया, अनूठा, अद्भुत मिल गया है— नॉवेल। उसमें कुछ नवीन नहीं है। वो बिलकुल तुम ही हो।

कुछ समझ में आ रही है बात?

आप ठीक हो जाइए, आपको ये सवाल नहीं पूछना पड़ेगा। ये सवाल आप इसलिए पूछ रहे हैं क्योंकि आप अभी भी वही है, जिसने पहले-पहले उम्मीद बाॅंधी थी। जो उम्मीद आपने उस व्यक्ति से दो साल या पाॅंच या दस या बीस साल पहले बाॅंधी होगी। जानते हैं वो उम्मीद आज भी कायम है, इसीलिए आज भी दुख है। आप आज भी चाहते हैं कि जो सपना आपने दस साल पहले देखा था वो साकार हो जाए, टूटे नहीं। आप उस सपने को झूठ मानने को आज भी राज़ी नहीं हो रहे। अन्यथा आज दुख नहीं हो सकता।

एक बात बताओ, ‘तुमने सपने में कुछ कर दिया, जगने के बाद उसका दुख कितनी देर तक रहता है?’ कितनी देर तक रहता है? और खुशी भरे सपने तो आम तौर पर कम ही आते हैं। सपनों का काम है ऊल-जलूल होना। होता है न? तो उठकर के कौन मातम मनाता है? कितनी देर तक? जान गये तुम कि पहले जो था वो गलत ही था, तो तुम रोओगे नहीं न इतना? जो रो रहा है पुरानी किसी बात पर, वो व्यक्ति अभी भी वही है जो पुरानी गलती करके बैठा हुआ था। बात ये नहीं कि तुम्हें पुरानी बात याद है। बात ये है कि तुम अभी भी पुराने इंसान हो। वो जो ‘आइ’ है वो वही है जो पहले था, दस साल पहले। और अगर दस साल पहले वाला ही हो तुम, तो जो छोड़ कर चला गया है, ये कहाँ तुम्हें छोड़ कर चला गया?

पहली बात तो मानसिक तौर पर तुम उसे दूर होने नहीं दोगे, उसकी यादों में लिप्त रहोगे। और दूसरी बात शारीरिक तौर पर भी ऐसा हो सकता है कि जो छोड़ कर गया तुम इसको वापस बुला लो। क्योंकि तुम जब दस साल पहले ही वाले हो, तो दस साल पहले वाली हरकत भी तो तुम आज भी दोहराओगे न। और अगर वो जो पुराना व्यक्ति है वो लौटकर नहीं आएगा तुम क्या करोगे? तुम हो सकता है उसी तरह के किसी दूसरे व्यक्ति को अपने जीवन में बुला लो। वो व्यक्ति दूसरा होगा, पर पहले ही जैसा होगा बिलकुल।

कुछ समझ में आ रही है बात?

उस दूसरे और पहले व्यक्ति में उतना ही अन्तर होगा कि जैसे मारुति और हुंडई की गाड़ी में। मॉडल अलग-अलग है, रंग अलग-अलग है, बाकी ले-देकर मामला एक ही जैसा है। कुछ पता नहीं है भीतर के जो पार्ट्स हैं उनका सप्लायर, वेंडर (विक्रेता) भी एक ही हो। बाहर बस ब्रैंड बदल दिया गया है— एक कम्पनी, दूसरी कम्पनी। भीतर के पुर्ज़े भी हो सकता है एक ही वेंडर से आ रहे हों।

कुछ समझ में आ रही है बात?

ये अच्छे से समझ लो। अतीत की गलतियाॅं अगर आज भी तुम्हारे लिए बहुत प्रासंगिक हैं, बहुत रेलेवेंट हैं तो तुम आज भी इंसान वही हो जो तुम अतीत में थे। अब उसमें समस्या ये नहीं है कि वो अतीत की गलती तुम्हें अभी भी सता रही है। अब उसमें समस्या ये है कि तुमने अतीत में जो गलती करी है वैसी सौ गलतियाॅं तुम अभी भी कर रहे होओगे और तुम्हें पता ही नहीं है।

कुछ समझ में आ रही है बात?

बल्कि अब जो तुम कर रहे हो वो अतीत में तुमने जो गलती करी उससे ज़्यादा ही थोड़ा खतरनाक है। जो व्यक्ति वास्तव में बदल रहा होता है उसकी एक निशानी बताये देता हूँ, ‘वो अपने अतीत की ओर देखेगा, उसे कुछ दिखाई नहीं देगा। वो अपनी पुरानी तस्वीर को देखेगा, उस व्यक्ति से अपना कोई सम्बन्ध नहीं बैठा पायेगा। वो अपनी पुरानी गतिविधियों को, अपने पुराने संसार को देखेगा वो कहेगा ये कौन है, ये किनके साथ है, ये क्या कर रहा है।’

ऐसा नहीं कि उसे अपने अतीत से नफ़रत हो गयी है। बस, असम्बद्ध हो गया हैl असम्बद्ध समझते हो? और वो चाहेगा भी कि सम्बन्ध बैठा पाये, तो नहीं बैठा पायेगा। वो कोशिश भी करेगा कि कोई तुम्हें मिल गया तुम्हारा यार छह साल पुराना, तुम चाहोगे भी कि इसके साथ बातचीत कर लूँ, कर नहीं पाओगे। अगर अभी भी कर पा रहे हो तो या तो दोनों समाधिस्थ हो, बिलकुल शिखर पर बैठे हुए हो, जहाँ से बेहतर होने की कोई सम्भावना नहीं। या फिर दोनों एकदम जड़ हो और सड़क किनारे अगल-बगल पड़े दो पत्थरों की तरह हो जो आज भी ठीक उसी जगह पड़े हुए हैं जहाँ पाॅंच साल पहले पड़े हुए थे, दोनों में से कोई हिला नहीं। दोनों सड़क किनारे पड़े हुए हैं। दोनों पर लोग आकर के थूक जाते हैं।

समझ में आ रही है बात?

एक पत्थर जो सड़क किनारे पड़ा हुआ था और अब मन्दिर का शिखर बन गया है, उसका कोई नाता नहीं रह गया दूसरे पत्थर से। उदाहरण को उदाहरण की तरह लेना। मैं चेतना की बात कर रहा हूँ। जड़ पदार्थ का उदाहरण लेकर बात में चेतना की कर रहा हूँ। स्मृति में याद रहेगा, स्मृति को याद रहेगा। आइडेंटिफ़िकेशन (पहचान) टूट जाएगा। ऐसा नहीं कि तुम्हारा कोई पुराना दोस्त तुम्हारे सामने खड़ा होगा, और तुम कहोगे, ‘तू कौन है? तू सोहन है, तू रोहन है, तू मोहन है।’ ये नहीं होगा। ये नहीं, ये मत करने लग जाना।

क्योंकि आध्यात्म के नाम पर नौटंकी बहुत होती है। ये नहीं करना है। उस व्यक्ति को जानोगे, स्मृतियाॅं भी रहेंगी। बस उसके साथ तादात्म्य का तार नहीं जोड़ पाओगे। उस व्यक्ति को एक तथ्य की तरह देख लोगे। अपने और उसके रिश्ते को एक केस स्टडी की तरह देख लोगे। उसमें लिप्त नहीं हो पाओगे। इन्वॉल्वमेंट (भागीदारी) नहीं हो पायेगा। क्योंकि केन्द्र ही बदल गया है। तुम चीज़ दूसरी हो।

इसीलिए अक्सर तुम्हारी प्रगति में सबसे बड़ी बाधा बनते हैं वो सारे तार जो किसी वजह से स्थायी हो चुके होते हैं। कौनसी तार? जिन्होंने तुम्हें अतीत से जोड़ रखा होता है। जिन्होंने तुम्हें अतीत से जोड़ रखा होता है, और तुम्हारी हस्ती के इर्द-गिर्द लिपटे हुए होते हैं। उन्होंने तुम्हें बाॅंध रखा है, और जोड़ अतीत से रखा है। कैसे आगे बढ़ोगे?

स्पष्ट है न बात? समझ रहे हो न?

दो पत्थर सड़क के अगल-बगल पड़े हैं। एक कैसे उठकर के मन्दिर का शिखर बन जायेगा अगर वो दोनों पत्थर आपस में बॅंधे हुए हैं। और बॅंधे भी किससे हुए हैं? कटीले तार से। कोई बाहर वाला अगर खोलने आये तो जो खोलने आया है उसी के चोट लग जानी है।

समझ में आ रही है बात?

तुमको नहीं कहा जा रहा है कि अपने पुराने सम्बन्ध तोड़ दो। एक तथ्य बता रहा हूँ। जो व्यक्ति चेतना के तल पर प्रगति कर रहा होता है उसके लिए ये असम्भव हो ही जाता है कि वो पहले जिस तरह की सोच रखता था, आचरण रखता था, व्यवहार रखता था उसी पर कायम रहे, दोहराता चले। नहीं कर पाओगे।

आज तुम से कहा जाए तुम पाॅंच साल की उम्र में जैसी सोच रखते थे, जैसा तुम्हारा मानसिक जगत था उसका पुन: अनुभव करके दिखाओ। तुम कर सकते हो क्या? इसी तरीके से जो व्यक्ति चेतना में आगे बढ़ गया है वो पुराने जो उसको सब एहसास होते थे, उनको दोहरा ही नहीं पाएगा। तुम पाॅंच साल के थे, तुमको चॉकलेट देखकर कुछ, मान लो तुम्हें चॉकलेट बहुत प्रिय थी। वो चॉकलेट देखकर के तुमको एक एहसास उठता था भीतर से न। तुम्हें क्या प्रिय था बचपन में? (एक श्रोता से पूछते हुए)

श्रोता: जेली बींस।

आचार्य प्रशांत: जेली बींस। तुम्हें? (दूसरे श्रोता से पूछते हुए) तुम सो लो। तुम्हें क्या प्रिय था? (तीसरे श्रोता से पूछते हुए)

श्रोता: खिलौने।

आचार्य प्रशांत: खिलौने। तो कुछ पुलक सी उठती रही होगी न? सामने खिलौना आ गया, जेली बींस आ गयी, ये आ गया, कुछ आ गया। अब मैं तुम्हारे सामने वही चीज़ लेकर आऊँ, तुम कितनी भी कोशिश कर लो तुम्हारे भीतर वही भाव उठेगा क्या? बस यही-यही है। इसी कसौटी पर कसना होता है। अगर तुमने वाकई तरक्की करी है तो पहले जिन चीज़ों को देखकर तुममें जो भाव उठता था वो भाव दोबारा उठा पाना तुम्हारे ही लिए असम्भव हो जाएगा तुम लाख कोशिश भी कर लो तो।

तुम लाख कोशिश कर लो तुम में वो भाव आ नहीं सकता। और अगर ये हो रहा है तुम्हारे साथ तो तुम बदल तो रहे ही हो, प्रगति कर रहे हो या नहीं कर रहे हो ये नहीं जानता मैं। मैंने ये तो बोला कि जो व्यक्ति प्रगति कर रहा होगा उसके साथ ऐसा होने लगेगा। लेकिन मैंने ये नहीं कहा कि ऐसा सिर्फ़ उसी के साथ होता है जो प्रगति कर रहा है। जिसकी अगति हो रही होती है, जो गिर रहा होता है उसके साथ भी ऐसा हो सकता है। बिलकुल हो सकता है।

अद्वैत लाइफ़ एजुकेशन के दिनों की बात है। बहुत खौफ़नाक घटना है। तो एक देवी जी थी वो करीब साल-डेढ़-साल तक रही अद्वैत में। फिर बहुत वजहें थीं, उनके पिताजी की बीमारी थी, और कई बातें थीं। एक प्रमुख कारण वो भी था कि उनको पैसा कहीं और ज़्यादा मिल रहा था, तो वो चली गयीं। पर मेरे लिए कुछ सम्मान शेष रहा होगा तो बीच-बीच में चार महीने, आठ महीने में चक्कर लगा जाती थीं।

तो उनके जाने के साल-दो-साल बाद की घटना होगी। तो एक दिन आईं तो सत्र चल रहा था। तो पहली बात तो उनको झटका सा लगा कि सत्र चल रहा है। जबकि सत्र उस दिन भी उसी समय चल रहा था जिस समय वो हमेशा चला करता था। तो खैर उनको याद नहीं था कि आज के दिन इतने बजे बुधवार को शाम को सेशन हुआ करता है। तो वो आ गयी हैं, सैशन चल ही रहा है तो बैठना पड़ा, तो बैठ गयीं। तो मेरे खयाल से ‘आचार्य शंकर’ का कोई भाष्य था या ‘तत्व बोध’, तो उस दिन सब पढ़ रहे थे। तो वहाँ पर प्रिंट आउट रखे हुए थे। एक उनको भी दे दिया गया। वो मुझसे सिर्फ़ मिलने आयी थीं। कि अपना आएगी, बैठेगी थोड़ी देर, अपना बातचीत करके वापस चली जाएगी शाम को। शायद अपने नये दफ़्तर से वापस लौट रही होगी तो वापस मिलने के लिए आई थीं। वो बैठना पड़ गया सेशन में।

तो अब सेशन में बैठना पड़ गया है, और हाथ में प्रिंट आउट है। और फिर जिस चीज़ को मैं अभी खौफ़नाक कह रहा था, इतनी खौफ़नाक बात थी, उसने पढ़ा पन्द्रह मिनट, बीस मिनट और उसके चेहरे पर डर आ गया बहुत सारा। फिर मेरी ओर देखकर बोलती है, ‘सर, मुझे ये बिलकुल समझ में नहीं आ रहा है। मुझे ये बिलकुल भी समझ में नहीं आ रहा है।’ ये वही लड़की थी जिसको मैंने उसी श्रेणी के कुछ नहीं तो बीस ग्रन्थ पढ़ाये थे, और उसे सब समझ में आने लग गये थे। सब समझ में आने भी लग गये थे। और वो ले रही, कोशिश कर रही है, और उसे किसी अक्षर से कोई सम्बन्ध ही नहीं बैठ रहा।

तो चेतना ऐसा नहीं है कि ऊपर ही उठती है। एक माहौल में ऊपर उठती है, उस माहौल को छोड़ दो बहुत तेज़ी से नीचे भी गिरती है। बिलकुल सड़क पर गिर जाती है— धूल-धूसरित। और फिर मैंने थोड़ा समझाने की कोशिश भी की, मैंने कहा ऐसा है वैसा है। पर उसकी हिम्मत भी टूट चुकी थी। उसने कहीं और ही खूॅंटा गाड़ लिया था अपना। उसको आया ही नहीं समझ में, कुछ नहीं। बहुत जो एकदम जानते ही हो, ‘आत्म बोध’, ‘तत्व बोध।’ उसमें बिलकुल आरम्भिक स्तर की बातें हैं, वो ही उसको नहीं समझ में आयीं। और उसने पूरी कोशिश कर ली उसको पल्ले कुछ नहीं पड़ा कि ये क्या, ये क्या कह दिया, ये क्या कह दिया, ये क्या, कुछ नहीं। थोड़ी देर में उसने बस रख दिया।

तो ऐसा तो हो ही सकता है कि जो तुम्हारे बगल में जो पत्थर था तुम्हें वो पहचान में न आये। ऐसा भी हो सकता है कि मन्दिर के दो शिखर थे, और एक शिखर टूट गया मन्दिर से। और नीचे गिरकर लुढ़कता हुआ वो राह का पत्थर बन गया। तो अब ये जो नीचे पत्थर बन गया है शिखर, इसका कोई सम्बन्ध अब बन न पाये वो जो दूसरा शिखर है उससे। कोई सम्बन्ध नहीं बन पाया। अब इसका नया सम्बन्ध बनेगा, किससे? वो सड़क के ही किसी और पत्थर से दुबारा सम्बन्ध बन जाएगा। वहाँ इसका अब सुविधा पूर्वक सम्बन्ध बन जाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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