हमारे धर्मग्रंथों में इतनी हिंसा और रक्तपात क्यों? || आचार्य प्रशांत, नवरात्रि विशेष, तीसरा दिन(2021)

Acharya Prashant

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हमारे धर्मग्रंथों में इतनी हिंसा और रक्तपात क्यों? || आचार्य प्रशांत, नवरात्रि विशेष, तीसरा दिन(2021)

आचार्य प्रशांत: "जहाँ वह घोर संग्राम हुआ था वहाँ की धरती देवी के गिराए हुए रथ, हाथी, घोड़े और असुरों की लाशों से ऐसी पट गई कि वहाँ चलना-फिरना असंभव हो गया। दैत्यों की सेना में हाथी, घोड़े और असुरों की शरीरों से इतनी अधिक मात्रा में रक्तपात हुआ कि थोड़ी ही देर में वहाँ ख़ून की बड़ी-बड़ी नदियाँ बहने लगीं। जगदंबा ने असुरों की विशाल सेना को क्षण भर में नष्ट कर दिया, ठीक उसी तरह जैसे तृण और काठ के भारी ढेर को आग कुछ ही क्षणों में भस्म कर देती है। और वह सिंह भी गर्दन के बालों को हिला-हिला कर ज़ोर-ज़ोर से गर्जना करता हुआ दैत्यों के शरीरों से उनके प्राण चुने लेता था।"

स्पष्ट ही है कि कोई बात संकेत में कहने की कोशिश की जा रही है, उसको समझना होगा। ये ग्रंथ का बड़ा अनादर और दुरुपयोग है यदि आप इन घटनाओं को तथ्य के तल पर प्रामाणिक मान लें। और ग्रंथकार ने चेष्टा भी नहीं करी है बात को रंचमात्र भी प्रामाणिक रखने की। साठ करोड़ की सेना, पाँच हज़ार वर्ष तक युद्ध, फिर एक करोड़ रथी आ गये, फिर श्वास से सैनिक पैदा हो गए। ग्रंथकार की कोई इच्छा भी नहीं है कि आप मानें कि ऐसा वास्तव में हुआ, उस तरह से हुआ जैसा हम प्रतिदिन अपने सामने संसार में होता देखते हैं।

नहीं, ये वैसी घटनाएँ नहीं हैं जो प्रतिदिन आपके सामने संसार में होती हैं; ये वो घटनाएँ हैं जो प्रतिदिन आपके भीतर के संसार में होती हैं। इन घटनाओं को इतिहास मत समझ लीजिएगा। कोई युग, कोई काल, कोई कल्प ऐसा नहीं था जब ये घटनाएँ आपकी आँखों के सामने घटी हों। लेकिन कोई युग, कोई काल, कोई कल्प, कोई क्षण ऐसा नहीं है जब ये घटनाएँ आपकी आँखों के पीछे न घट रही हों। ये निरंतर घटने वाली घटनाएँ हैं हमारे अंतरलोक में।

इसी तरीक़े से इसमें एक प्रश्न जो उठना चाहिए वो है हिंसा सम्बन्धी। इतना सजीव चित्रण किया गया है – रक्त की नदियाँ बह रही हैं, उसमें जो हताहत सैनिक हैं उनके अंग बहे जा रहे हैं, किसी का हाथ कट रहा है, किसी की जाँघ कट रही है, किसी के शरीर के कई टुकड़े कर दिए गए हैं। और उन सब बातों का बड़ा विस्तारपूर्वक, बड़ा सजीव वर्णन किया गया है। उसको आप कहेंगे ग्राफिक डिस्क्रिप्शन।

ये क्या है? अहिंसा कहाँ गई? अब इसके पीछे जो सिद्धांत है उसको हमें ज़रा ध्यान से समझना होगा।

हिंसा है चेतना को मिटाने की कोशिश। चेतना को मिटाने या दबाने के प्रयास को हिंसा कहते हैं।

जब आप चेतना के प्रति गहरे आदरभाव से भर जाते हैं, तो आपका सारा सम्मान बस चेतना के लिए आरक्षित हो जाता है। आप कहते हो, ‘सम्मान मुझे देना है तो बस किसको?’ चेतना को।

जब आप प्रबल रूप से अहिंसक हो जाते हो तो आप सारा सम्मान किसको दोगे? चेतना को। यही तो अहिंसक मन की निशानी है न कि वो चेतना के प्रति गहरे आदरभाव से भरा होता है। यही अहिंसा है उसकी कि जहाँ कहीं भी चेतना होगी, उसकी क्षति नहीं होनी चाहिए। यही अहिंसा है न। लेकिन उसी के साथ-साथ निश्चित रूप से फिर ये बात भी चलेगी कि सारा सम्मान मैं दूँगा मात्र चेतना को। माने जहाँ चेतना नहीं है, उसको मैं सम्मान रंचमात्र भी नहीं दूँगा, ज़रा भी नहीं दूँगा।

और विशेषकर वहाँ तो सम्मान बिलकुल भी नहीं दूँगा जहाँ अब चेतना के उठने की संभावना ही शून्य कर दी गई है।

एक व्यक्ति है जो बुद्धि से अल्प है, वहाँ कम-से-कम ये संभावना तो है कि धीरे-धीरे करके, प्रयास करके, धैर्य रख के इसमें कभी चेतना का संचार किया जा सकता है। एक छोटी सी चींटी है, उसमें जितनी भी चेतना है, वो कम-से-कम उस चेतना को दबाने-मिटाने के लिए तो कोई प्रयत्न तो नहीं कर रही न। कम है, पर है।

दूसरी ओर एक व्यक्ति हो सकता है जो चेतना के विरुद्ध अपनेआप को पूरे तरीक़े से प्रतिबद्ध, संकल्पित और समर्पित कर चुका है; वो कमिटेड है चेतना के विरुद्ध। ये व्यक्ति सबसे हीन श्रेणी का हुआ। इसने तो संभावना ही मार दी कभी भी सचेत होने की। ये पशु से बहुत नीचे के तल पर गिर गया क्योंकि पशु में कम है चेतना लेकिन जितनी है पशु कम-से-कम कभी उसको हटाने की या मिटाने की कोशिश नहीं करता। जितनी है उतनी है।

दैत्य वो है जिसमें जितनी है वो उसके खिलाफ़ मोर्चाबंद हो गया है, बल्कि उसने अपनी चेतना की धारा ही अचेतना की ओर मोड़ दी है। कैसे? वो कह रहा है, ‘मैं स्वयं तो चेतन हूँ नहीं, जो चेतन होगा उसको मैं मार भी दूँगा, ख़त्म कर दूँगा। मैं स्वयं तो चेतन नहीं ही हूँ, जहाँ कहीं भी मुझे चेतना दिखेगी, मैं उसको भी ख़त्म कर दूँगा।‘

अब बताओ, अहिंसा किसे कहते हैं? चेतना को समर्थन, चेतना को आश्रय देना और सम्मान देना – यही अहिंसा है। और आपको अगर कोई ऐसा मिल गया जो स्वयं तो चेतना-शून्य हो ही चुका है, साथ ही साथ वो दूसरों की चेतना को भी समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है, तो अब अहिंसा क्या माँगेगी आप से? वध, और क्या! क्योंकि वो व्यक्ति अब व्यक्ति है ही नहीं। व्यक्ति तो उसे मानेंगे न जिसमें चेतना हो।

वो व्यक्ति व्यक्ति नहीं रहा, उसको तुम रेत मान लो, पत्थर मान लो। और वो रेत और पत्थर से भी निचले दर्जे का है, क्योंकि रेत और पत्थर स्वयं उठ करके किसी सचेत व्यक्ति की चेतना छीनने नहीं आते। और ये दैत्य स्वयं तो अचेत है ही, और इसको जो कोई मिलता है चैतन्य, ये उसकी चेतना पर आक्रमण के लिए भी आतुर है। इसका जैसे जीवन में एक ही लक्ष्य हो कि जहाँ भी मुझे कुछ ऐसा मिलेगा जो चेतना की ओर अग्रसर होगा, मैं उसको समाप्त कर दूँगा।

अब बताओ अगर अहिंसक हो तुम, तो क्या करोगे? अहिंसक होने का अर्थ क्या है? चेतना के प्रति श्रद्धा, सम्मान, प्रेम। चेतना को अगर बचाना है, अगर अहिंसक हो तुम, तो सबसे पहले तुम्हें उसका वध करना पड़ेगा न जो चेतना के विरुद्ध खड़ा है?

तो जिस तरीके की तुम यहाँ पर हिंसा देख रहे हो या जैसी हिंसा तुम श्रीमद्भगवद्गीता में देखते हो, वो वास्तव में गहरी अहिंसा है। वही अहिंसा है।

तुम्हारे सामने कोई निर्दयी, आततायी, अत्याचारी खड़ा हो, जो तुम्हारे देखते-देखते कितने ही चैतन्य लोगों की चेतना प्रभा को बुझाए दे रहा हो, और तुम कहो, "नहीं, मैं तो अहिंसक हूँ, मैं इसके विरुद्ध नहीं जाऊँगा," तो तुम अहिंसक नहीं हो, तुम घोर हिंसक हो; क्योंकि तुम अपनी आँखों के सामने देख रहे हो एक अत्याचारी को अत्याचार करते हुए और उसे रोक नहीं रहे हो। ये हिंसा है। उसे न रोकना हिंसा है। चेतना के विरुद्ध अत्याचार हो रहा है और तुम उस अत्याचार का प्रबल विरोध नहीं कर रहे, ये हिंसा है।

बात समझ में आ रही है?

शरीर कट रहा है, रक्त बह रहा है, इस बात को हिंसा मत मान लो, क्योंकि चेतना शरीर की नहीं होती। जब इस शरीर में चेतना ही नहीं थी, तो उस शरीर के कटने से अहिंसा कैसे बाधित हुई? बताओ। बोले मुझे। तुम एक पत्थर के दो टुकड़े कर देते हो, क्या तुम इसे हिंसा मानते हो? एक पत्थर के दो टुकड़े कर दिए, यह क्या हिंसा मानी जाती है?

वैसे ही एक ऐसा शरीर जिसमें चेतना है ही नहीं, उसके दो टुकड़े कर दिए, तो हिंसा कहाँ हुई! बल्कि वो शरीर पत्थर से भी, मैं कह रहा हूँ, गया-गुज़रा है क्योंकि पत्थर ख़ुद उठकर के किसी चैतन्य व्यक्ति को घात पहुँचाने नहीं आता। पर अभी जिस शरीर की बात कर रहे हैं, ये तो ऐसा है कि मैं ख़ुद तो नशे में हूँ, मद में हूँ, बेहोशी में हूँ, और अगर मुझे कोई दिख गया जो नशे में नहीं है, होश में है, जो सच की तरफ़ बढ़ना चाहता है, तो मैं उसे मार डालूँगा। ये तो पत्थर से भी गया-गुज़रा है। और पत्थर को ही तोड़ना जब हिंसा नहीं है, तो इस व्यक्ति के शरीर को दो टुकड़ों में काट देना हिंसा कैसे हो गया? ये तर्क है।

इस तर्क को लेकर आपके पास अपने मतभेद हो सकते हैं लेकिन जो बात समझाई जा रही है, उसको समझिएगा। क्योंकि इस तरह के आरोप भी बहुत लगते हैं कि भारतीय चित्त तो गहरे रूप से हिंसक है ही, क्योंकि यहाँ पुराणों में ही देखो कैसे बताया जाता है कि एक की बाँह काट ली, एक का सिर काट लिया, एक की जीभ काट ली। सिर काटना, बाँह काटना, जीभ काटना आवश्यक नहीं है कि अपनेआप में हिंसा हो।

बल्कि उल्टा भी संभव है, इस संभावना पर गौर करिएगा कि कई बार सिर न काटना बहुत बड़ी हिंसा हो सकती है। जहाँ ज़रूरी है कि सिर काट लो, वहाँ तुमने नहीं काटा तो वो बहुत बड़ी हिंसा हो सकती है। मैं यहाँ पर किसी का सिर काटने का वकालत नहीं कर रहा हूँ, न मैं आपको सिखा रहा हूँ कि आप ख़ून बहाना शुरू कर दें। मैं बस उस तर्क का उत्तर दे रहा हूँ जो कहता है कि भारतीय धर्मशास्त्रों में हिंसा ही हिंसा फैली हुई है। मैं उनको समझाना चाह रहा हूँ हिंसा और अहिंसा का वास्तविक अर्थ। मैं उनको उत्तर दे रहा हूँ जो कहते हैं कि कृष्ण पापी थे क्योंकि उन्होंने महाभारत का युद्ध कराया और हिंसा कराई। मैं उन्हें जवाब दे रहा हूँ।

समझ में आ रही बात?

अधिकांशतः जब आप ख़ून बहाते हैं तो आप इसलिए नहीं बहाते कि आप चेतना की रक्षा करना चाहते हैं। इसलिए ख़ून बहाना बुरा है। निन्यानवे दशमलव नौ-नौ प्रतिशत मामलों में जब भी आपने ख़ून बहाया है, आपने इसलिए थोड़ी बहाया है कि जो सामने वाला व्यक्ति था वो सत्य के खिलाफ़ था या चेतना का विरोधी था? ऐसा थोड़े ही है। ऐसे आपको ख़ून बहाना होता तो सबसे पहले अपना ख़ून बहाते। क्योंकि सत्य के सबसे खिलाफ़ तो आप स्वयं होते हैं, चेतना के धुर्विरोधी तो आप स्वयं होते हैं।

यदि सत्य और चेतना के ख़ातिर ही आपको रक्तपात करना होता तो सबसे पहले तो रक्त आपका बहना चाहिए था। इसलिए ख़ून बहाना बुरा है क्योंकि हम ख़ून सही कारण से नहीं बहाते। और सही कारण सदा एक होता है जीवन में – चेतना की रक्षा, चेतना को संरक्षण, आश्रय, सम्मान देना।

तो हम यहाँ पर ख़ून बहाने का समर्थन नहीं कर रहे हैं। बिलकुल जानते हैं कि दस हज़ार में से नौ हज़ार नौ सौ निन्यान्वे मामलों में जो ख़ून बहाया जाता है, वो महापाप है। लेकिन हम ये भी आपको समझाना चाहते हैं कि हिंसा का मापदंड ये बिलकुल भी नहीं है कि ख़ून बहा या नहीं बहा।

हिंसा हुई या नहीं हुई, ये इससे नहीं नापा जा सकता कि ख़ून बहा कि नहीं बहा, लेकिन इससे नापना होगा कि आपका मन चेतना के साथ है या चेतना के खिलाफ़ है। ये बात निर्धारित करेगी कि हिंसा हुई या नहीं हुई। हिंसा का निर्धारण रक्तपात मात्र से नहीं किया जा सकता।

कई बार जहाँ एक बूँद भी ख़ून न बहा हो, हो सकता है कि वहाँ घोर हिंसा चल रही हो। और कई बार जहाँ ख़ून की नदियाँ बह रही हों, हो सकता है वहाँ अहिंसा का खेल चल रहा हो।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जिस वध की बात चल रही थी, वो मैं समझता हूँ कि अगर किसी व्यक्ति विशेष की बात नहीं चल रही है, अगर आंतरिक वृत्तियों की बात चल रही है, तब वो बात एकदम स्पष्ट है कि जो वृत्ति ग़लत दिशा की तरफ़ जा रही है उसका तो वध होना चाहिए। मगर अगर व्यक्ति विशेष की बात चल रही है तो व्यक्ति हर समय अलग-अलग चेतना के स्तर में रहता है, कभी वो विरोध में भी है और कभी वो सत्य के साथ भी है। तो इसका मापदंड कैसे होता है कि अब...

आचार्य: अब तुम महाभारत में दुर्योधन को कृष्ण के साथ कब देखते हो? चेतना के अलग-अलग रूप दर्शा रहा है दुर्योधन, पर सब रूपों के मध्य, केंद्र तो उसका एक ही है। केंद्र क्या है उसका? अकृष्ण। ऐसा तो नहीं है कि वो कभी भी कृष्ण के साथ है, या ऐसा है? वो तो कभी भी नहीं है न।

हाँ, कभी वो जब कर्ण के साथ खड़ा है तो हो सकता है कि थोड़ा विनोद करता हो, हँसता हो। अपनी माता के समक्ष जाता है, गांधारी के, तो हाथ जोड़कर नमित है। ठीक है? द्रोण के पास जाएगा तो हो सकता है प्रणाम कर ले। उसके अपने भी बालक हैं, शिशु हैं, पुत्र हैं, दुर्योधन के, उनके पास जाए तो हो सकता है स्नेह दर्शा दे। पर इन सभी स्थितियों में, मुझे बताओ, वो कृष्ण के साथ कब है?

उसकी चेतना के निश्चित रूप से अलग-अलग रूप हैं, कभी वो किसी का मित्र है, कभी वो किसी का पति है; कभी हँस रहा है, कभी क्रुद्ध है; कभी सम्मान दे रहा है, कभी स्नेह दे रहा है। पर वो जो कुछ भी कर रहा है, उसके केंद्र में तो अकृष्णत्व ही बैठा है न, कृष्ण विरोध ही बैठा है।

चेतना के सब रूप होंगे। बहुत अलग-अलग तरीक़े से है वो, कभी बाप है, कभी बेटा है, कभी पति है, कभी मित्र है, कभी सेनापति है, कभी शिष्य है। पर कृष्ण के साथ कब है वो? इतना ही नहीं है कि वो स्वयं कृष्ण के साथ नहीं है, बात ये है कि जितना उसका बस चलेगा, जितना उसका प्रभाव जाएगा, वो जितनों के भी संपर्क में आएगा, वो सबको कृष्ण के विरुद्ध ही करेगा। यदि वो राजा बन जाता है तो पूरा राज्य ही धर्म विरुद्ध कर देगा।

बात समझ में आ रही है?

अब मुझे बताओ, अहिंसा क्या कहती है? जीने दें दुर्योधन को? बोलो, अब अहिंसा क्या कहती है, जीने दें उसे?

देखो, मैं रक्तपात का समर्थक होकर ये नहीं बोल रहा हूँ। मैं जो गीता के पीछे का सिद्धांत है वो समझाना चाह रहा हूँ, बस। क्योंकि कृष्ण पर ये आरोप बहुत लगता है कि इतनी आपने हज़ारों-लाखों लाशें क्यों गिरवाईं।

अर्जुन तो कह रहा था, ‘मुझे राज्य वगैरह नहीं चाहिए।‘ पहले ही अध्याय में वो कह रहा था, ‘मैं जा रहा हूँ, विरक्त हो गया, संन्यासी बन जाऊँगा। मुझे जाने दीजिए, अपनों पर मैं बाण नहीं चलाऊँगा।‘ आपने क्यों अर्जुन को प्रेरित किया कि नहीं, युद्ध करो ही। मैं इस बात का स्पष्टीकरण दे रहा हूँ कि कृष्ण का केंद्र क्या था। कृष्ण के कर्मों के पीछे, उनके निर्णयों के पीछे कारण क्या था। वो कारण समझना ज़रूरी है।

तुमको ये तो दिख रहा है कि एक दुर्योधन मारा गया। तुम्हें ये भी हो सकता है दिख रहा है कि हज़ारों-लाखों सैनिक मारे गए, पर तुमको वो करोड़ों लोग नहीं दिख रहें जो उस युद्ध के कारण बच गए। जो प्रत्यक्ष है वो आसानी से दिख जाता है। वो तुमने आसानी से देख लिया कि अरे! कृष्ण की वज़ह से इतनी लाशें गिरीं। ये तुम्हें दिख गया। पर तुम्हें ये नहीं दिखा कि अगर दुर्योधन का राज्य हो जाता, तो तुलनात्मक रूप से, अपेक्षतया और कितने ज़्यादा वध होते। और वध तभी नहीं है जब तुमने किसी की जान ले ली। तुमने अगर किसी को एक ग़लत, अधार्मिक जीवन जीने पर विवश कर दिया, तो ये तो मृत्यु से भी बड़ा दंड हो गया न।

तो देखो, जहाँ तक हो सके, बिलकुल एकदम ठीक बात है कि क्यों किसी की हत्या करनी। लेकिन स्थिति अगर ऐसी बन ही गई है कि कोई व्यक्ति पूरे तरीक़े से अधर्म को ही प्रतिबद्ध हो गया है और वो यही नहीं कह रहा है कि ‘मैं सिर्फ़ अपना जीवन अधर्म में जीऊँगा, वो कह रहा है, मैं तो अधर्म का प्रचार-प्रसार करूँगा।' अब मुझे बताओ, क्या करें?

कृष्ण की विवशता तो समझो। वो तो गए थे अपनी ओर से शांतिदूत बनकर दुर्योधन के पास, उसके सामने खड़े हो गए थे। और दुर्योधन क्या कर रहा था? बोला, ‘इनको ही तुम बंधक बना लो।‘ यहाँ तक उन्होंने निवेदन कर दिया था कि हमारा प्रस्ताव है बस हमें पाँच गाँव दे दो। दुर्योधन उसके लिए भी सहमत नहीं था। तो रक्तपात करने में किसी की रुचि नहीं हो सकती। किसी कृष्ण की कोई पहली रुचि ये नहीं हो सकती, कोई पहला विकल्प ये नहीं हो सकता कि रक्तपात करना है। पर यदि सामने कोई ऐसा व्यक्ति पड़ गया है जिसके साथ और कोई चारा ही नहीं बच रहा, तो क्या किया जाए?

और अगर नहीं किया जाए फिर रक्तपात, तो उसका क्या परिणाम होगा, ये भी तो सोचा करो। नहीं किया रक्तपात, अब क्या होगा? बन जाने दो दुर्योधन को राजा; अब बताओ क्या होगा? अब कितना रक्तपात होगा, कभी इसकी गणना करी? इतना तो गिन लेते हो कि कुरुक्षेत्र में अठारह दिन में कितनी लाशें गिरीं। पर फिर आगे अठारह साल या एक सौ अस्सी साल या अठारह सौ साल में कितनी लाशें गिरतीं दुर्योधन के राज्य में, उसकी गणना कौन करेगा?

ये कोई आदर्श स्थिति नहीं है, पर जीवन आदर्शों पर चलता भी नहीं न कभी। आदर्श स्थिति तो ये होती कि दुर्योधन दुर्योधन बनता ही नहीं। उसको शिक्षा ऐसी मिलती, उसको परवरिश ऐसी मिलती कि कोई दुर्योधन इतना विधर्मी होकर तैयार ही न हो। पर अब दुर्योधन तैयार हो गया है, तो अब क्या करें? इसी तरीक़े से अब दैत्य तैयार हो गएँ हैं, तो अब क्या करें देवी? और समझाने-बुझाने से अगर दैत्य मान सकते तो पहला विकल्प यही होना चाहिए कि समझाओ-बुझाओ।

अरे! मत दो आधा राज्य, पाँच गाँव ही दे दो, हम इतने में भी तैयार हो जाएँगे, हम ख़ून नहीं बहाना चाहते। बिलकुल ख़ून बहाने में हमारी कोई रुचि नहीं है। लेकिन वो तो कह रहा है कि मैं सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूँगा। अब क्या करें, बताओ।

हमें अहिंसा का बड़ा सतही बल्कि विकृत अर्थ पढ़ा दिया गया है। हमें बता दिया गया है कि दूसरे को चोट पहुँचाना हिंसा है, दूसरे को चोट न पहुँचाना अहिंसा है। जबकि बात बिलकुल उल्टी है। दूसरा अगर अहंकार का पुतला है तो उसको चोट न पहुँचाना हिंसा है। दूसरा अगर अहंकार का पुतला है तो उसको चोट पहुँचाना सबसे बड़ी अहिंसा है; चोट पहुँचाइए। क्योंकि आपके सामने तो अहंकार खड़ा हुआ है, उसे चोट पहुँचाइए, बिलकुल पहुँचाइए। यही अहिंसा है।

अहिंसा कोई आचरण भर की चीज़ नहीं है, कोई हल्की-फुल्की चीज़ नहीं है। अहिंसा अगर समझनी है तो तुम राजनीतिज्ञों के पास मत चले जाना। अहिंसा समझनी है तो तुमको अध्यात्म में गहरे पैठना होगा। वेदान्त की गहरी समझ पैदा करो, तब अहिंसा समझ पाओगे की क्या है।

नहीं तो अहिंसा के नाम पर तुम इसी तरह की बातें करते रहोगे कि नहीं-नहीं, मैं तो मीठा बोलता हूँ क्योंकि मैं बड़ा अहिंसक हूँ। ये कितनी मज़ाक जैसी बात है कि अहिंसा का मतलब है कि कड़वा न बोलना, इत्यादि, इत्यादि। बेकार! ये व्यक्ति न स्वयं को समझता है, न जीवन को समझता है। बहुत सतही बातें कर रहा है। ज़्यादातर लोग ऐसी ही बात करते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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