
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं लगभग चार साल से आपको सुन रहा हूँ और जीवन में बहुत सारे बदलाव आए हैं, बहुत सारी चीज़ें बदली हैं। उसका एक रिज़ल्ट ये है कि पत्नी और बच्चे साथ में बैठे हैं सत्र में।
आचार्य जी, आज के सत्र से जुड़ा एक जीवन का नरक मेरा बना हुआ है, जो सुधार नहीं पा रहा हूँ। क्योंकि कोई भी कॉन्वर्सेशन होता है तो मैं बहुत आवेग में आ जाता हूँ, रिप्लाई उसका करता हूँ बिना सोचे, जैसा आप बोल रहे थे। बाद में वो बात कुछ कल्पना में सोच लेता हूँ और रिप्लाई चाहे मेरे साथ काम करने वाले मेरे कलीग हों, चाहे पत्नी हो या बच्चे या किसी से। अभी सत्रों में जोड़ने की बात होती है, कोई नहीं मानता है बात, तो मैं उखड़ पड़ता हूँ, कहर भर जाता हूँ। ये बात सुधार हो ही नहीं रही। बाद में गिल्टी होती है, सोचता हूँ, लेकिन फिर अगले दिन वही चीज़ शुरू हो जाता है। ये सुधार मैं कर नहीं पा रहा हूँ, इस पर मुझे राय दीजिए, मैं इस चीज़ को कैसे सही करूँ?
आचार्य प्रशांत: आपने कहा, पत्नी है, बच्चे हैं। बच्चे जैसे हो जाइए। देखिए, बच्चों में आश्चर्य का भाव कितना रहता है, वण्डरमेण्ट कितना रहता है। आप अपने बच्चे को कहीं पर ले जाएँ, मान लें चिड़ियाघर ले गए, वहाँ तरह-तरह की मछलियाँ हैं, जीव-जंतु हैं, हिरण दौड़ रहे हैं, ये सब चल रहा है। एक के बाद एक ये सब आ रहे हैं, ऐसा ही होता है न चिड़ियाघर में, ये है, अब ये है, अब ये देखो।
हालाँकि चिड़ियाघर कोई अच्छी जगह नहीं होती, मैं चाहता हूँ ख़त्म कर दिए जाएँ, पर उदाहरण के लिए। तो ये सब एक-एक करके आपके सामने जानवर आते हैं, तो आप क्या करते हो? आप भाग के अगले पर चले जाते हो। बच्चे होंगे तो क्या करेंगे? बच्चे के सामने एक मछली आ गई, और मछली एकदम ही अजीब तरीके की है, ऐसे मुँह खोल रही है, कुछ कर रही है। लाल, पीली, नारंगी, रंग भी उसके बदलते से लग रहे हैं। कभी भाग जा रही है, कभी छुप जा रही है, ये सब कर रही है। तो बच्चा क्या करता है? बच्चा वहाँ विस्मित होकर ऐसे उसको देखने लग जाता है (बड़ी-बड़ी आँखे करके एक टक देखते हुए)।
तो वैसे ही आपके सामने कोई चीज़ आई है, वो एक जानवर है, आप अगली चीज़ पर क्यों भाग रहे हो? किसी ने आपको कुछ लिख के भेज दिया, वो एक जानवर की गति है, जैसे मछली अपनी गति करती है। किसी जानवर ने गति करी, उसने आपको कुछ लिखकर भेज दिया है, आप जल्दी से भागोगे थोड़ी कि मैं अब कुछ लिख के भेजूँगा! आप वहाँ विस्मित खड़े हो जाइए, क्या करिए? कहिए, वाह, ग़ज़ब है! क्या प्रकृति है, क्या चीज़ है!
आपके सामने कोई खड़ा होकर कुछ बिल्कुल बेबूझ बात कर रहा है, एकदम ही ऊटपटाँग, और जो जितनी ऊट-पटाँग बात करता है, उस पर हमें उतना रोष आता है, आवेग आता है। रोष क्यों आए? वो जानवर है न, जानवर को तो क्या करते हैं? आपके सामने आया कोई, चिल्लाइए मुझ पर, चिल्लाइए। ऐसे (मुस्कुराते हुए) देखिए, “ख़ुदा की कुदरत, कोई तो है ज़रूर जिसने तुम्हें बनाया।” और ये कोई तंज नहीं है, जानवरों पर आप ताने मारते हैं क्या? चिड़ियाघर में इतने प्रकार के जीव हैं, उन पर ताने मारे जाते हैं?
ये आप तब कर पाएँगे जब आप ख़ुद को ख़तरे में न पाएँ। चिड़ियाघर में उसके और आपके बीच में एक बाड़ लगी है, तो इसलिए आप उसको आराम से, आश्चर्य से निहार लेते हो, निहार लेते हो न? शेरनी है, उसके शावक हैं, और शेरनी भाग रही है पीछे-पीछे वो भी अपना। आप ऐसे (आश्चर्य से) देख रहे हो, क्योंकि बीच में लोहे का जाल है, सरिए हैं, सलाखें हैं। वो न हों तो शावक शेरनी के पीछे नहीं भागेंगे, वो सब मिलके आपके। डर जब होता है तो आदमी प्रतिक्रिया कर देता है। चिड़ियाघर में भी अगर डर हो तो आप उनको ऐसे निहार नहीं पाओगे, या निहार लोगे?
चिड़ियाघर में जितने जीव-जंतु होते हैं, आप उनको एकदम स्निग्धता से देख पाते हो। क्यों देख पाते हो? डर नहीं है, ख़ुद को बचाने की कोई आतुरता नहीं है। पता है मैं तो बचा हुआ हूँ ही, तो फिर आप उनको ऐसे देख लेते हो, "वाउ, शार्क, मम्मा! लुक ऐट हर टीथ! वाउ!"
अब यही अगर पानी के अंदर आ जाए वो शार्क, वो बोलेगी, "मम्मा लुक!" मम्मा कहाँ भाग गई? मम्मा बोली, "तुम जानो, तुम्हारी शार्क जाने!" सबसे पहले तो मैं बचूँ, भाग गई। वही जानवर है पर जंगल में मिल जाएगा तो प्रतिक्रिया कर दोगे क्योंकि डरे हुए हो, असुरक्षित हो। वही जानवर है, चिड़ियाघर में मिल जाता है तो उसको ऐसे देखते हो, ”ऑ! सो ब्यूटीफ़ुल क्रोकोडाइल!" क्रोकोडाइल ब्यूटीफ़ुल है।
सब सुंदर है अगर तुम डरे हुए नहीं हो, अब उसको देखा जा सकता है। और सब पशुता का ही काम चल रहा है चारों ओर। कुछ भी तुम्हारे पास आए, उसको ऐसे ही देखो चिड़ियाघर में एक नया जानवर मिल गया। और ये जानवर मुझे कोई क्षति नहीं दे सकता, इसे कहते हैं आत्मस्थ होना। ये जो भी कुछ लिख रहा है, उससे मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता।
अहंकार क्योंकि बाहरी प्रभावों से बना होता है न, इसीलिए बाहर से वो बड़ा रिश्ता बनाकर रखता है, भीतर से रिश्ता बनाकर नहीं रखता, वो बाहर से रिश्ता बनाकर रखता है। जिनसे रिश्ता बनाकर रखोगे, उन्हें ये हक़ भी दे दोगे कि वे तुम्हें नुकसान पहुँचा दें। सर्वप्रथम तो गहरी श्रद्धा होनी चाहिए, ये सब बाहर की बातें हैं, इनसे नुकसान होगा भी तो बाहर-बाहर होगा। भीतर मेरे कोई नुकसान नहीं हो सकता, क्योंकि भीतर मेरे जो है वो बाहर की निर्मिति नहीं है।
अब असुरक्षित अनुभव करना कम कर दोगे। जब असुरक्षा नहीं रहेगी, अब वॉट्सऐप पर किसी ने कुछ बिल्कुल ही चमत्कारिक बात लिखकर भेज दी है, जिसमें हैश भी लगा हुआ है, ये भी लगा हुआ है, ऐंपरसैण्ड भी लगा हुआ है। माने समझ रहे हो न, सब सौ तरह की गाली! और आप उसे कैसे देख रहे हो? ”ऑ..मम्मा, एक्सक्यूज़िट लंगूर!" कोई आपसे खुला झूठ बोल रहा है, "जस्ट स्पॉटेड एन अफ़्रीकन बैबून!" वैसे वो झूठ नहीं बोलते, पर फिर भी बात समझ में आ रही है? ये तो मनोरंजन की बात है न।
जो आपके साथ हो रहा होता है, चलो अब ऐसे समझ में आ जाएगा, जो आपके साथ हो रहा होता है, जब किसी और के साथ हो रहा होता है, तो मस्त मज़ा आता है कि नहीं आता है? चार्ली चैप्लिन की कॉमेडी होती है, उसमें वो बेचारे हमेशा गिर रहे होते हैं, पिट रहे होते हैं। देखी है चार्ली चैप्लिन की किसी ने? हमेशा ही कुछ कर रहे, यहाँ गिर गए, ट्रक के सामने आ गए, कुर्सी पर बैठे कुर्सी टूट गई, छत से डंडा गिर गया सर पर, खाना खा रहे थे तो खाने की जगह कुछ और खा लिया, सामने कोई बैठा हुआ था उसके बड़े लंबे बाल थे, तो सोचा झाड़ी, जाके झाड़ी काट दी! यही सब तो चलता है वहाँ पर। कितना हँसते हो! यही सब अपने साथ हो रहा होता तो?
कुछ नहीं है। हमें जब कुछ बचाना नहीं है, तो हमें किसी से फ़र्क़ पड़ना नहीं है। जब मेरी पूरी पर्सनैलिटी ही बहुत महत्त्व की नहीं है, तो मैं कुछ भी पर्सनली क्यों लूँ? सामने वाला आघात करता भी है, तो मेरी पर्सनैलिटी माने मेरी हस्ती के बाहरी खोल पर आघात करता है, व्यक्तित्व पर आघात करता है, पर्सनैलिटी पर। वो चीज़ बाहरी है, बाहर के लोगों ने दी थी, तो आघात भी कर सकते हैं। मुझे कोई फ़र्क़ पड़ता नहीं, करते रहो। आई टेक नथिंग पर्सनली।
मैं सब कुछ ऐसे ही लेता हूँ जैसे चार्ली चैप्लिन के साथ हो रहा हो, मेरे साथ नहीं हो रहा। किसके साथ हो रहा है? चार्ली चैप्लिन। याद करिए जितने भी कॉमेडी सीन आप देखते हो, उनमें सब में क्या हो रहा होता है? उसमें किसी की दुर्गति हो रही होती है, किसी का बाजा बज रहा होता है, तब कैसे हँसते हो? "आहाहा! वो देखो, वो पर्दे के पीछे नंगा खड़ा हुआ था, किसी ने पर्दा हटा दिया। ओह माय गॉड हाहा!"
मज़ा आता है या नहीं आता है? कितना हँसते हो! और अपने साथ हो जाता है तो? अपने साथ भी जब हो तो यही मानो, दूसरे के साथ हुआ है। मेरे साथ नहीं हुआ है, दूसरे के साथ हुआ है। मेरे साथ कुछ गड़बड़ हो ही नहीं सकती, मैं सुरक्षित हूँ, अब हर चीज़ पर हँसी आएगी। या तो हँसी आएगी, या विस्मय होगा। कहोगे कि जानवर है तो विस्मय होगा, और कहोगे कि जोकर है तो हँसी आएगी। दोनों बढ़िया बातें हैं, वण्डरमेण्ट और अम्यूज़मेण्ट, इन दोनों के बीच में ज़िंदगी बीत जाएगी। कोई समस्या?
कभी कहोगे, देखो, जानवर है! "आहाहा! क्या मस्त जानवर है। अरे रे! देखो ये क्या कर रहा है, डाल तोड़ दी, डाल तोड़ दी।" क्यों मान रहे हैं कि उसने तुम्हारा कुछ बिगाड़ लिया? प्रकृति में भाँति-भाँति के अद्भुत जीव हैं, देखो क्या कर रहा है, कुछ गति कर रहा है, करने दो। आ रही है बात समझ में? चलो, एक और तरीके से। लोग नहीं होते प्रक्रियाएँ होती हैं, पर्सन्स नहीं होते प्रोसेसेज़ होते हैं। वो जो सामने खड़ा है न तुम्हारे, जो तुम्हें परेशान कर रहा है या दुख दे रहा है या चोट दे रहा है, कोई व्यक्ति है ही नहीं। वो व्यक्ति नहीं है, वो एक प्रोसेसे है, उस प्रोसेसे में वो ख़ुद ही बेहोश है, तो मजबूर है। वो और कुछ कर ही नहीं सकता था जो उसने किया उसके अलावा।
ये (चाय की ओर इंगित करते हुए) बहुत गर्म है अभी, बहुत गर्म है। (चाय पीते हैं) क्या हुआ?
श्रोता: जल गया।
आचार्य प्रशांत: तो ये और कुछ कर सकती थी क्या? ये एक प्रक्रिया है, ये अणु-पारमाणु है, ये जड़ पदार्थ है इसमें चेतना है ही नहीं। इसने जो किया, ये इसके अलावा और कुछ कर ही नहीं सकती थी। मैं बुरा क्या मानूँ? तुम्हारे सामने जो है उसमें जब चेतना है ही नहीं, अभी मैंने उसे पशु बोला, अब पशु से भी गिरा के कह रहा हूँ अचेतन है वो। पशु वो जिसकी चेतना नीची हो और नीचे समझ लो, वो चाय है वो अचेतन है। वो पत्थर है, वो अचेतन है। पत्थर ऐसे ऊपर गया, मैं ऐसे बैठा हूँ तो आके लग गया। तो क्या पत्थर और क्या करता? वो एक प्रक्रिया है एक प्रोसेस है, ऐसे गया, ऐसे आया। पर्सन नहीं है प्रोसेस है, तो वो और क्या करेगा? इसमें बुरा मानने की क्या बात है?
तो बचना है तो बच लो, हँसना है तो हँस लो। और विस्मित होकर देखना है और कहना है, क्या प्रकृति की कलाकारी है! तो ये भी कर सकते हो। "दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई? काहे को दुनिया बनाई, ग़ज़ब दुनिया!।ये देखो।” आ रही है बात समझ में?
जितना दुनिया पर आश्रित रहोगे, दुनिया उतनी चोट मारेगी। और दुनिया पर आश्रित नहीं हो तो दुनिया के जो भाँति-भाँति के रंग होते हैं, ये उल्लास की बात बन जाते हैं, चिड़ियाघर।
दुनिया नहीं है, क्या है? चिड़ियाघर है। अब रात हो रही है आप लोग घर जाएँगी, भाँति-भाँति के जीव हैं, कोई ताना मारे कोई कुछ करे, कुछ नहीं घर थोड़ी है चिड़ियाघर है। "आहा हा! कौए अब तू भी बोल, तू अभी तक चुप क्यों था?" वो भौंक लिया, वो कूक लिया, वो रेंक लिया, वो तब से म्याऊँ-म्याऊँ किए जा रही थी वॉट्सऐप पर। कौआ अभी तक नहीं सुनाई दे रहा है? रात हो गई, सो गया क्या? तू भी तो बोल न, चिड़ियाघर है भाई। और ये ताने की बात नहीं है यही सच्चाई है, ऐसा ही है।
हम पशुवत जीवन जीते हैं सब के सब, और पशुओं का अपने ऊपर कोई नियंत्रण होता है? वो प्रक्रियाएँ हैं। पशु को जो करना है, वो करेगा। देखा है, साँझ ढले ही सो जाता है, और सूरज को भी नहीं पता होता कि सूर्योदय होने वाला है उससे पहले पक्षी जग जाता है, वो प्रक्रिया है। पक्षी ने कोई ठान थोड़ी रखा है कि ब्रह्ममुहूर्त वग़ैरह, कुछ नहीं। प्रक्रिया है उसकी, अपने आप आँख खुल जाती है।
सबसे ज़्यादा पुण्य तो इस मामले में जानवरों को मिलना चाहिए था। कोई जानवर ऐसे सोता नहीं मिलेगा, निशाचरों के अलावा। बाक़ी सब, ज़्यादातर 95% एकदम जग जाते हैं। मुझे पक्षियों की आवाज़ सुन के पता चलता है, अच्छा, थोड़ी देर में अब होने वाला है। वो साढ़े तीन-चार बजे से कूक मारना शुरू कर देते हैं, प्रक्रिया है उन्होंने तय नहीं किया है। मुर्गा आपको जगाने के लिए बाँग नहीं मार रहा, उसकी प्रोग्रामिंग है, वो बाँग मारेगा ही मारेगा। कोई आपको गाली दे कहिए, मुर्गा है। वक़्त आ गया, बाँग मार दी, हो गया। क्या करेगा और? इसके अलावा कर क्या सकता था? उसके हाथ में नहीं है, उसने चुना नहीं, उसकी मज़बूरी है।
अधिक से अधिक उसको यही बोल दीजिए, “भाई, बुरा भी नहीं मान सकता, तू मज़बूर है। क्या बुरा मानूँ, तू मज़बूर है। हाँ, प्रयास करूँगा जितना हो सका कि तेरी मज़बूरी कम हो जाए।” कुछ समझ में आ रही है बात? कुछ सामने आए तो क्या कहना है? कहना, “प्रभु की महिमा है।” सीधे क्या कहना है? जितनी उत्तेजक बात सामने आए, तुरंत क्या करना है? “प्रभु की महिमा देखो, ईश्वर कलाकार है। क्या-क्या देखो! क्या-क्या तैयार करा है! अपरंपार! क्या कलाकार।” आसपास देखो, “ग़ज़ब हो गया! छह मुँह वाला!” जैसे चिड़ियाघर में कोई दिख जाता है तो नहीं बोलते हो, वैसे ही बिल्कुल, “देखो!” और सचमुच ताज्जुब होना चाहिए, एक प्रजाति के भीतर इतनी प्रजातियाँ!
आचार्य जी पागल बोल रहे हैं, एक्सटेंशन ऑफ़ स्पीशीज़। कोई नहीं मर रहा, सब हम में ही मौजूद है। डोडो नाम की होती थी, वो मूर्ख चिड़िया धीरे-धीरे चलने वाली, उसे कुछ समझ में ही न आए, एकदम ऐसी। वो विलुप्त हो गई। एकदम मूर्ख थी वो। “डोडो” जो शब्द ही है, वो मूर्खता का पर्याय बन गया है। डोडो नहीं मरी है, वो डोडो आज यहाँ मौजूद है, हम सब में। वो किसी को नुकसान नहीं पहुँचाती थी, बस मूर्ख थी, वो मारी इसी लिए गई। उसको बुलाते थे, “आ जा, आ जा, आ जा” और वो अपना (आ जाती थी)। ऐसे मोटी-सी थी, फ़्लैबी, उसको मस्त पका-पका के खा गए, वो मर गई।
वो डोडो भारतीय नारी में मौजूद नहीं है क्या? महानारी, महामारी, उसको समझ में न आए कि मुझे काटने के लिए बुलाया जा रहा है। उसको बहुत “आ जा, आ जा।” वैसे देखोगे भी तो ऐसे ही है वो बिल्कुल डॉल टाइप, गोलमटोल, तेज भाग भी नहीं पाती थी, तेज दौड़ भी नहीं पाती थी, जैसे हमारे घरों में होती हैं। न भाग पाए, न कुछ कर पाए। बुलाया जाए तो चली आए, वो विलुप्त हो गई। कहाँ विलुप्त हो गई? वो सब यहाँ (अपने अंदर) मौजूद है।
अब आया किसी का मेसेज देखा, कुछ न करो वहाँ पर उस पे ऐसे क्लिक करो, कॉन्टैक्ट पर जाओ, वहाँ एडिट नेम पर जाओ और लिख दो, नाम हटाओ, वहाँ लिखो “डोडो।” क्या लिखो? “डोडो,” हो गया। तू डोडो है, तू इसके अलावा और लिख क्या सकती थी?
ऐसे ही अजगर होता है। अजगर क्या कर लेगा, अजगर तो अजगर, वो चुपचाप पड़ा हुआ है मौका देख रहा है कि कब उसके पास आओ और खट से तुमको लपेट ले। और तुमको दिख रहा है कि ये लपेटने वाली बातें कर रहा, कि “आज मौसम बहुत अच्छा है” और “खाना आज जल्दी खा लेंगे।” और कुछ नहीं करना, ये थोड़ी उसको बोलना है कि “सरदर्द हो रहा है” या ये सब। उसको वहाँ पर जाकर के एडिट नेम, पाइथन। अगली बार जब भी आएगा संदेश तो समझ जाओगे, कुछ नहीं है ये लपेटने के चक्कर में है। और ये ग़ुस्से की बात ही नहीं है, प्रभु के बनाए जीव हैं उनके प्रति ग़ुस्सा क्या रखना। अजगर है तो अजगर वाला ही तो काम करेगा। ग़ुस्सा क्या करना है। अब प्रतिक्रिया नहीं करोगे।
सबको अच्छे-अच्छे नाम दो अपनी कॉन्टैक्ट में और अपने भी जो आसपास वाले हों, घर वाले, पत्नी हों, उन्हें बोलो मेरा भी जो सही नाम है, वही बोला करो। भारत में तो पुरानी परंपरा रही है कि किसी को एक नाम नहीं देते, हमने तो अपने अवतारों को भी सहस्र नाम दिए हैं। तो वैसे ही आप जैसे हो, आपको उस वक़्त वही नाम मिलना चाहिए। एक नाम थोड़ी है। अब वो बिल्कुल उन्मत्त होकर कामना में आपकी ओर चला आ रहा है तो उस वक़्त ये थोड़ी बोलोगे, “परमेश्वर बोलो पाइथन थम।” वो बिल्कुल मूर्खता की बात कर रही है, तो क्या बोलोगे?
श्रोता: डोडो।
आचार्य प्रशांत: बेबो थोड़ी बोलोगे, डोडो। देखो, “नहीं दीदी, नहीं दोदो। अभी तुम दोदो हो, ये कैसी बातें कर रही हो! सदियों से तुम्हारा शोषण हुआ है, तुम विलुप्त हो गई, तुम्हें अभी भी अक्ल नहीं आ रही है, ये क्या कर रही हो। विपुरात्मनः, अपनी दुश्मन आप हो। जो जैसा हो उसको उसी के अनुसार उस समय नाम दो, क्योंकि प्रक्रियाएँ और प्रक्रिया का मतलब ही क्या होता है? बदलाव। कोई एक चीज़ नहीं है, वो लगातार बदल रही है। प्रत्येक व्यक्ति एक प्रक्रिया है जिसमें प्रतिक्षण बदल रहा है। चमत्कार है, अद्भुत बात है, रचनाकार की रचना है, ऐसा ही है। तो वो जैसा है उसको वैसा ही देखो, क्या उसमें व्यक्तिगत रूप से आहत हो जाना?
कुत्ता आपके ऊपर भौंक दिया तो क्या आत्महत्या करोगे? मैं महान आदमी, विद्वान पंडित, और कुत्ता आया और एक टाँग उठाई। मैं खड़ा था, मैंने कहा ये क्या पसीना क्यों इतना मेरे आज, सिर्फ़ एक पाँव में। कुत्ता ये करके गया मेरे साथ! अरे वो कुत्ता है, वो और क्या करेगा? उसको ऐसा प्रोग्राम किया गया है कि वो एक ही टाँग उठाता है और जहाँ भी कुछ खंभे जैसा पाता है, वहीं निशान छोड़ जाता है। तुम क्यों उसको व्यक्तिगत रूप से ले रहे हो? और जो ऐसे आए तुम्हारे पास भी एक टाँग उठाए, मूत जाए, कुछ नहीं करो (फ़ोन में नाम एडिट करने का अभिनय करते हुए) डॉगी। हो गया, अब बुरा नहीं लगेगा।
तुम्हारी समस्या ये है कि तुम उन्हें इंसान मानते हो, तुम्हारी समस्या ये है कि तुम जड़ को चेतन मानते हो। वो जड़ है, जड़ का बुरा नहीं मानते।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद आचार्य जी, मिल गया मेरा जवाब।
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। अभी जो क्रोध की बात हुई है, तो मैं क्रोध में ही यहाँ बैठी हूँ। इससे पहले क्रोध दूसरी दिशा में चला जाता था।
आचार्य प्रशांत: क्रोध अपने आप में कोई बुरी बात नहीं है। क्रोध का मतलब क्या है? क्रोध का मतलब है, जो है, वो ठीक नहीं है। “आई रेज़िस्ट, आई डिसेंट, आई डिसअग्री।” वो तो होना ही चाहिए, जो है वो बिल्कुल ठीक नहीं है। भीतर बाहर, दोनों तरफ़ जो चल रहा है वो बिल्कुल ठीक नहीं है। तो क्रोध तो होना ही चाहिए। पर क्रोध बड़ी मासूम चीज़ होती है, एक तरीके से, कुछ ठीक नहीं है तो मुझमें ऊर्जा उठ रही है ये क्रोध है, इसमें एक तरह की मासूमियत है। पर फिर उसके आगे बुद्धि भी चाहिए कि अब ये जो ऊर्जा उठ रही है, इसको अभिव्यक्त कैसे करना है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्ते। मैं करीब तीन साल पहले जब आपको पहली बार सुना था वीडियो में, तो मुझे जुड़ने का जो सबसे बड़ा कारण था, यही था। आज समझ में आया, कि कुछ था क्रोध था, कुछ दिखता था बाहर कि कुछ गलत हो रहा है, बहुत कुछ गलत हो रहा है, और उसको हम कुछ कर नहीं पाते थे, लगता था कुछ नहीं कर पा रहे हैं। और जो कर सकते थे, वो लोग नहीं कर रहे हैं, जिनके हाथ में पावर है।
तो एक यही सबसे बड़ा कारण था कि मुझे लगा आज कोई है जो एक आवाज़ उठा रहे हैं, बात कर रहे हैं उस बारे में कम-से-कम, और एक बड़े इफ़ेक्टिव तरीके से बात हो रही थी। तो सर, दो मिनट लगा था केवल, दो मिनट के बाद कैसे भी कह सकते हैं फ़िल्मी स्टाइल में कहते हैं, “आई मैरिड टू यू,” कि सर बस मिल गया सब। तो एक तो ये था।
दूसरा, जो क्रोध की बात है, मैं सबसे ज़्यादा यहीं पर अटका हुआ हूँ कि जैसे मैं क्लीनिक में चलता हूँ, तो क्लीनिक में यही होता है मेरे साथ हमेशा, कि मेरा जो क्रोध होता है शुरू में जनरली होता यहीं से है, शुरू में निष्काम शुरू होता है, उन्हीं के लिए शुरू होता है। वो डिमांड करते हैं कुछ और, उनको नहीं पता होता कि उनको क्या चाहिए।
मुझे याद है, आपने कहा था कि “मैं आपको वो दूँगा जो आपके लिए सही है, वो नहीं जो आप माँग रहे हो।” वही चीज़ आती है, मैंने लिख के भी रखा था क्लीनिक में। उनको कई बार कहता भी हूँ, पर किसी वजह से शायद उनको नहीं समझ में आता। तो उनको सही करने के चक्कर में धीरे-धीरे क्या होता है कि कई बार वार्तालाप कहीं ऐसे पहुँच जाते हैं जहाँ मेरा ब्रेक पॉइंट हो जाता है, कि मैं फिर ब्रेक हो जाता हूँ।
वो ब्रेक होते ही फिर उसके बाद नहीं संभल पाती बात, स्थिति। फिर यहाँ भी मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है, क्योंकि मुझे उतना लालच नहीं होता उनसे किसी भी तरह का। न मुझे अपनी इज़्ज़त-बेइज़्ज़ती का लालच होता है उनसे, न मुझे ये होता है कि ठीक है, मेरे को पैसा नहीं आएगा। प्रॉब्लम क्या है, कि मेरे में गिल्ट ये आता है, कि मुझे लगता है कि न मैंने उनका लाभ किया इसमें, जिसके लिए वो आए थे, नहीं कर पाया। फिर मैं कई बार उनको कोशिश भी करता हूँ मनाने की भी किसी तरीके से, अपने स्टाफ़ के थ्रू या कैसे। वो फिर उससे और ज़्यादा व्यग्र हो जाते हैं। चल क्या रहा है?
आचार्य प्रशांत: ये सारी बातें आप कह रहे हैं, ये सब मुझे बिल्कुल आपबीती-सी लग रही हैं। किसी पर गुस्सा कर देना, फिर कहना कि सोचना कि व्यर्थ ही किया, फिर उसको मनाना। पहले गुस्सा करने में ऊर्जा लगाई, समय, फिर मनाने में समय लगाना, ये सब आपबीती-सी लग रही है। इस मुद्दे पर तो मैं कोई ज्ञानी बनकर आपको सलाह भी नहीं दे सकता, बस चूँकि ये ऐसी चीज़ है जिससे मैंने भी संघर्ष किया है। तो जो मेरा चल रहा है, मैं आपके साथ बस साझा कर सकता हूँ।
वो वही है कि निष्काम आपको दोनों तलों पर होना पड़ेगा। सिर्फ़ इस तल पर नहीं कि मेरा क्रोध स्वार्थजनित नहीं है। मेरा क्रोध उसके लिए है, कि बेटी, तू अपना नुकसान कर रही है या पेशेंट, तू अपना नुकसान कर रहा है। ये ठीक है, ये बहुत अच्छी बात है, क्योंकि बहुत लोगों को तो क्रोध भी स्वार्थी ही आता है। उनका अपना कोई व्यक्तिगत नुकसान हो जाए तो उन्हें गुस्सा आता है।
तो पहली चीज़ तो ये ठीक है, ये बॉक्स आपने टिक कर दिया कि मैं अपने लिए गुस्सा नहीं कर रहा, मैं तेरे लिए गुस्सा कर रहा हूँ, तू अपना अहित कर रहा है, वो ठीक है। जो दूसरी चीज़ थी जहाँ मैं चूकता आया हूँ, वो ये है कि उसका एक्सप्रेशन भी आपके पर्सनल तरीके से नहीं होना चाहिए। मेरा फ़ेवरेट तरीका है चिल्लाना, तो मैं चिल्लाऊँगा। और यहाँ बड़ा अभ्यास करना पड़ता है, मेरा ही अभ्यास पूरा नहीं हो रहा।
प्रश्नकर्ता: इसमें एक पॉइंट और मिलाना है सर मुझे, कि इसमें जो बाद में जो गिल्ट फ़ील होता है न इतना ज़्यादा, तो वो मुझे कुछ घंटे से लेकर के कभी-कभी चौबीस घंटा भी ले आता है। मेरी एनर्जी लॉस्ट हो जाती है।
आचार्य प्रशांत: मैं तो सालों से गिल्ट में हूँ।
प्रश्नकर्ता: सर, आज मुझे एक पॉइंट मिला लेकिन, इससे पहले वार्तालाप में पॉइंट मिला मुझे, कि जैसे मैं दुनिया को जानवर देख रहा हूँ, हाँ तो मैं ऐसे उसको भी जानवर देखूँ जिसने किया है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, बिल्कुल। अभिव्यक्ति भी एक प्रोग्रामिंग है न, वही पशुता वही चीज़ है, कि भाई मेरा पुराना तरीका ये है कि मुझे गुस्सा आता है तो मैं चिल्लाता हूँ। आपका पुराना तरीका होगा, तो इसमें आपकी कामना जुड़ गई न, आपका स्वार्थ जुड़ गया। आप ये देखिए कि कौन-सा तरीका उसके लिए उपयोगी है।
और सिर्फ़ ये कहने से फ़ायदा नहीं होगा, कि पर मेरा क्रोध तो निस्वार्थ है। निस्वार्थ होगा, आपके लिए निस्वार्थ है, पर उसको तो नुकसान दे रहा है न। तो उसकी अभिव्यक्ति भी ऐसे करनी पड़ेगी, वो मुश्किल होता है। अब गुस्सा आ रहा है और मुस्कुरा रहे हो उसके साथ, मन कर रहा है कि जड़ दें एक। ये होता है मुश्किल, पर धीरे-धीरे सध जाता है, साधिए।
प्रश्नकर्ता: तीन साल से तो मैं यहीं पर अटका हुआ हूँ।
आचार्य प्रशांत:अरे तीन साल क्या, तीस साल लग जाएँ, हो ही नहीं रहा।
प्रश्नकर्ता: एकदम अभी बात करते हुए मेरे को न, सर वहाँ भी ऐसे होता है, बाद में न बिल्कुल लिटरली आँसू आते हैं।
आचार्य प्रशांत: जो उद्देश्य है उससे प्यार रखिए, उसको याद रखिए। डाँटना उद्देश्य नहीं है, सुधारना उद्देश्य है। अगर डाँटने से सुधरता है तो डाँट लीजिए, अगर डाँटने से सुधरने की जगह और मामला बिगड़ता है, तो क्यों डाँटें?
ये याद रखना होगा बार-बार कि डाँटने का मन तो बहुत कर रहा है, पर ये जो मन कर रहा है न ये भी स्वार्थ की बात है, मेरे व्यक्तिगत स्वार्थ की बात है कि इस वक़्त ज़रा-सा निकाल ही लेते हैं भड़ास। ये भी व्यक्तिगत स्वार्थ की बात हो गई न। तो याद रखना होगा कि ये जो आप अभी इंटरेक्शन कर रहे हैं, वो इसलिए कर रहे हैं कि उसका भला हो जाए। और उसका भला हमेशा इसमें नहीं है कि उस पर चिल्ला दो, डाँट दो, मार दो, हमेशा इसका भला नहीं है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, इसमें एक पॉइंट और है मेरी तरफ़ से। मैं वहाँ पर नहीं कर पा रहा हूँ कि जैसे कि आजकल हम देखें कि प्रोफ़ेशनल देखें हम। प्रोफ़ेशन में ये देखता हूँ कि आजकल ये हो गया है कि अगर मैं डॉक्टर्स की बात करूँ तो कुछ डॉक्टर्स अपने से छोटी एज को भी जब आएँगे, वेलकम करेंगे, वो हाथ जोड़ के उनको वेलकम करेंगे, बड़े अच्छे से इज़्ज़त से बात करेंगे।
मैं कहीं भी, कोई मेरे सामने कोई पेशेंट बन के आया है, मैं पीडियाट्रिशियन हूँ लेकिन जो बड़े भी अगर हैं बड़ी एज के, तो मैं उनको रिलेट नहीं कर पाता। मैं उनको अपना एक जैसे थोड़ा बच्चा मान के। मैं आपके सामने बैठा रहा हूँ आपका शिष्य, तो मैं चाहे कितना भी एज का हूँ, तो मैं समझ सकता हूँ कि आपके सामने बच्चा हूँ मैं इस समय। तो वही चीज़ मुझे क्लीनिक में आती है, तो मैं कभी वो कर नहीं पाता अभी भी।
आचार्य प्रशांत: ये दो अलग-अलग सेंटर्स हैं। आप सर्विस प्रोवाइडर भी हो सकते हैं, आप डॉक्टर भी हो सकते हैं। वो आपको तय करना है कि आप क्या हैं। आप सर्विस प्रोवाइडर हो जाएँगे तो क्लाइंट है।
प्रश्नकर्ता: जी, वो क्लाइंट नहीं कर पाता सर मैं।
आचार्य प्रशांत: वो क्लाइंट है। आप डॉक्टर हो जाएँगे तो पेशेंट है।
प्रश्नकर्ता: वो पेशेंट ही देख पाता हूँ। वो मुझे देखते हैं एक सर्विस प्रोवाइडर, लेकिन मैं नहीं कर पाता कि मैं कभी देख ही नहीं पाता।
आचार्य प्रशांत: लेकिन जिनको पैसा कमाना है, वो तो सर्विस प्रोवाइडर बनेंगे, और फिर वो उसको क्लाइंट की तरह देखेंगे, उससे पैसा अच्छा मिलेगा।
प्रश्नकर्ता: मेरे मुँह से भी निकलता है, “बेटा।” एक-दो बार तो लोगों ने “बेटे” को बुरा माना है, “आप क्या कह रहे हो?”
आचार्य प्रशांत: तो ये तो हमें अपनी परिभाषा स्वयं तय करनी पड़ेगी। हम किसी भी काम में हैं, अब मैं भी तो सर्विस प्रोवाइडर हो सकता हूँ न, क्यों नहीं हो सकता? वो मुझे तय करना है कि मैं आपको क्लाइंट की तरह देखता हूँ या स्टूडेंट की तरह देखता हूँ। वो मुझे तय करना है। और दोनों बहुत अलग-अलग रास्ते हैं। एक रास्ता जिन्हें पैसा चाहिए उनके लिए तो यही है कि सर्विस प्रोवाइडर बन जाएँ, हालाँकि वो सर्विस नहीं करते। सेवा भी वास्तव में डॉक्टर ही कर सकता है, सर्विस प्रोवाइडर तो सर्विस भी नहीं करता है। सर्विस माने सेवा, जो डॉक्टर है वास्तविक सेवा वही करता है। और जो असली डॉक्टर होते हैं, मेरा भी अनुभव डॉक्टरों से यही रहा है जो असली डॉक्टर होते हैं, वो कोई आपकी चरण पादुका उठाने नहीं आएँगे। वो कड़ाई से बात कर जाते हैं कई बार, होता है।
और मैं भी जब डॉक्टरों के पास जाता हूँ, मैं ऐसे सिर झुका के बैठता हूँ। उनको पूरा अधिकार है। आप लोगों ने तो एक वीडियो भी देखी थी, वो मेरी डॉक्टर हैं और मैं थर्राता हूँ। मैं जाऊँगा तो फिर सुनने को मिलेगा। तो मुझे फिर ज़बरदस्ती खींच के ले जाया जाता है क्योंकि पता होता है, कुछ नहीं, डाँट सुनने को मिलेगी, और डाँट उनकी वाजिब होती है। मैं थोड़ी करूँगा कि कुछ बोल रहे हैं, मैं विरोध करूँ, बहस करूँ, क्योंकि सही कह रहे हैं सारी बात। डॉक्टर छोड़ दो वो मेरे दोस्त हैं, वो मेरे पास आते हैं वो डाँट लगाते हैं मेरी कई बातों पर। तो मैं ये थोड़ी कहता हूँ, मैं आचार्य हूँ तुम डाँट रहे हो मुझको।
प्रश्नकर्ता: सर, इसका एक कारण और बता रहा हूँ इसके साथ में थोड़ा-सा क्लैरिटी के लिए, कि अगर हम देखें न, जो सर्विस प्रोवाइडर एंड डॉक्टर। तो सर, अगर आजकल हो क्या गया है समाज में कि जितने डॉक्टर्स हैं, मतलब, जितने पेशेंट हमारे पास आते हैं, अस्सी प्रतिशत पेशेंट में हमें ज़रूरत नहीं है दिमाग की। उसके लिए किसी को भी बैठा दें, यहाँ जितने बैठे हैं, उनमें से केवल सात दिन किसी झोलाछाप के साथ बैठ जाएँगे, वो भी उनको सिखा देगा। सात दिन में इतना हो जाता है। कुछ ज़रूरत नहीं होती अस्सी प्रतिशत में कुछ भी करने की।
जो बीस प्रतिशत बचते हैं, उनमें दस प्रतिशत में बिल्कुल कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। लास्ट में पाँच प्रतिशत बचता है कि जिसमें से कुछ सोचना पड़ता है कि इसमें एक्ज़ैक्टली हमें क्या करना है। तो लोग क्या हैं कि इतना सब समझ गए हैं कि हमें अगर दुकान चलानी है तो उस पाँच प्रतिशत को भूल जाओ। हमें सिर्फ़ अस्सी प्रतिशत को, नब्बे प्रतिशत को कॉमन मेडिसिन देना है जो कि जनता जानती है।
कफ़ है तो कफ़ का सिरप दे दिया, फ़ीवर.है तो फ़ीवर का दे दिया, एक एंटीबायोटिक दे दिया। और सर, दुकान बहुत दबा के चलती है। ये एक कॉमन सी चीज़ है, इसमें बिल्कुल, जस्ट लाइक मशीन कि जैसे किसी रोबोट को आगे बैठा दिया हो, कि भाई ये करना है और वो लोग सफल हो रहे हैं, और हम समझाते हैं क्योंकि वो पेशेंट को, उनको आदत पड़ गई उसकी।
आचार्य प्रशांत: सफल नहीं हो रहे, वो रास्ता ही अलग है। सफल क्या हो रहे हैं?
प्रश्नकर्ता: पेशेंट उनका आदी पड़ गया है। तो जब मेरे पास आते हैं तो उनको अजीब लगता है कि ये क्या हो रहा है। अच्छा, इसमें पाँच प्रतिशत लोग होते हैं, जो पाँच प्रतिशत जो मुझसे जो समझते हैं, वो फिर कहीं भी चले जाते हैं। अगर कोई कहीं भी है, कोई मुम्बई बैठा है, कोई कहीं और बैठा है, देन दे कांटेक्ट मी चाहे टेलीकंसल्टेशन हो कुछ हो, तो दे हैव फ़ेथ इन मी।
आचार्य प्रशांत: तो हम आप इसीलिए आमने-सामने बैठे हैं न। जो काम मैं कर रहा हूँ, उस क्षेत्र में भी तो सर्विस प्रोवाइड करने वाले बहुत हैं। है न? वो मीठा भी बोलते हैं, प्यारा भी बोलते हैं। मुश्किल से आते हैं लोग मेरे पास, लेकिन एक बात पक्की होती है कि जो एक बार यहाँ आ गया, वो फिर वहाँ कोशिश भी करे, चला भी जाए तो सहज नहीं हो पाएगा। बात-बात में बाबा जी तो याद आएँगे ही। ठीक है, ऐसे ही है, सबके अपने-अपने चुने हुए रास्ते हैं, एक श्रेय का रास्ता, एक प्रेय का रास्ता। जिसको जिस रास्ते जाना है, जाने दीजिए।
सेवा का वास्तविक अर्थ हमें पता है, और पेशेंट की लल्लू-चप्पू करके तो सेवा नहीं होती। हाँ, ये ज़रूर होता है कि फ़ीस बढ़ सकती है और नाम हो सकता है, उस तरह से सक्सेस मिल सकती है, लेकिन वो वास्तविक सर्विस तो नहीं है। ठीक है, जिन्हें करनी है करने दें। क्या करना है।
प्रश्नकर्ता: सर, आज का लेसन मैं याद रखूँगा। लगता है कि आज हो गया।
आचार्य प्रशांत: ये तो कोशिश करूँगा, मैं भी याद रखूँँ। ये मेरे लिए भी एक व्यक्तिगत चैलेंज है।