बाल शोषण रोकने के उपाय

Acharya Prashant

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बाल शोषण रोकने के उपाय

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। सबसे पहले तो मैं आपको बहुत ज़्यादा थैंक्यू बोलना चाहती हूँ। ढाई साल से मेरी डिप्रेशन की दवाइयाँ खत्म हो चुकी हैं। मैं नहीं ले रही हूँ जब से आपसे कनेक्ट हुई हूँ। शुरुआत में आपकी बात नहीं समझ आती थी, तो कई बार मैंने आपके चैनल को ब्लॉक भी किया और संस्था के जो स्वयंसेवक मुझे वीडियो और संदेश भेजते थे उनका नंबर भी ब्लॉक किया था। लेकिन धीरे-धीरे यात्रा रही और गिरते-पड़ते चीज़ें स्पष्ट हुईं और आज ये परिणाम है कि चीज़ें भी सही हैं, समझ आनी शुरू हुई हैं, स्पष्टता शुरू हुई है।

बचपन में छ:-सात साल की थी तो चाइल्ड सेक्शुअल अब्यूज (बाल यौन शोषण) हुआ मेरे साथ। और फिर धीरे-धीरे चीज़ें खराब होती गयीं। माता-पिता को बोलने की भी हिम्मत नहीं थी, क्योंकि कुछ समझ ही नहीं था उस समय पर, बताया ही नहीं जाता था कि ऐसा कुछ होता भी है। और माता-पिता को लगता था कि सब सही तो है। और वो भी, मेरी बुआ के बेटे ने ये सब चीज़ें कीं। तो जब उन्हें बताया तो वो खुद हैरान हो गयीं और बोली, 'हमें तो लगता था कि घर में सब बहन-भाई होते हैं, ऐसा तुम्हारे साथ बहुत समय से हो रहा था।’

लेकिन ठीक है। उन्होंने अपने तरीके से सब चीज़ें सुलझायीं। लेकिन मेरे भीतर एक गुस्सा, बहुत ज़्यादा चिड़चिड़ापन जारी रहा। मानसिक तौर पर सही नहीं थी तो इसके काफ़ी दुष्प्रभाव झेलने पड़े। बिना सोचे समझे अधिक भोजन करना, प्रेम की कमी महसूस करना और फिर किशोरावस्था की सारी समस्याएँ आनी शुरू हुईं। मैं कभी-कभी इतना परेशान हो जाती थी कि बस घर से बैग लेकर निकल जाती थी। घर में सब परेशान हो चुके थे। मेरी मम्मी रोती थीं कि क्या है, क्या करें।

यात्राएँ कर लीं, कैलाश-मानसरोवर चली गयी कि शायद वहाँ समाधान मिल जाए। जितने भी योग संस्थाएँ हैं सबसे जुड़ी। प्राणायाम, ध्यान, मेडिटेशन , योग, विपश्यना; हर चीज़ से समाधान थोड़े समय के लिए आता था। फिर वही चीज़ें शुरू! अंतिम समाधान और शांति आपको सुनकर ही मिली। और मैं काफ़ी हैरान हुई कि इतना आसान था कि प्रश्न पूछकर और चीज़ों को समझकर हल निकाला जा सकता है और ज़िन्दगी में आगे बढ़ सकते हैं।

लेकिन मैं तो अपनी चीज़ों से निकल गयी। और मैंने यहाँ तक बड़ी यात्रा की है। लेकिन आज अब जब चीज़ें देखती हूँ कि दस में से छ: से सात बच्चों के साथ बाल यौन शोषण होता है, उसमें से पचास प्रतिशत लड़के भी हैं। बराबर अनुपात है। और नब्बे प्रतिशत उनके रिश्तेदार होते हैं, घर वाले होते हैं। तो ये कैसे हल होगा? और ये मेरे लिए सही में बहुत संवेदनशील विषय है। क्योंकि मैं इससे गुज़र चुकी हूँ। और ये बहुत बेकार होता है, बहुत भयानक होता है ये सब जो आप अन्दर से महसूस करते हो। तो इससे कैसे निपटें? और क्या और ज़्यादा इस पर काम किया जाए?

आचार्य प्रशांत: देखो, हम ये सोचते हैं कि हम एक इंस्टीट्यूशन बना देंगे और उसको बोल देंगे कि ये होली (पवित्र) है। हम कह देंगे कि परिवार एक पवित्र संस्था होता है, विवाह एक पवित्र संस्था है। और (हमें लगता है कि) हम कह देंगे कि वो होली है तो वो होली हो जाएगा, क्यों? क्योंकि हम कह रहे हैं।

हम सब एक-दूसरे से बोलेंगे कि पति-पत्नी का रिश्ता बड़ा पवित्र होता है और परिवार तो साधनास्थली होता है जहाँ धैर्य और संयम की उपासना करनी पड़ती है। ताऊ पिता समान होता है, चाचा भी बहुत इज़्ज़त का हकदार होता है, माँ की बहन मा-सी कहलाती है, तो वो भी माँ जैसी होगी। और माता-पिता तो खैर होते ही हैं देवी-देवता। हम सोचते हैं, हम ये सब कह देंगे तो ऐसा हो जाएगा। ऐसा क्यों है? क्योंकि हमने कह दिया। आपके कहने से ऐसा हो नहीं जाएगा न! यथार्थ नहीं है ये। और हम ऐसे भोन्दू होते हैं कि हम इतनी बार इस झूठ को दोहराते हैं कि हमें खुद ही इस झूठ में यकीन आ जाता है कि परिवार एक पवित्र संस्था है। सबसे यही बोले जा रहे हो, बोले जा रहे हो, बोले जा रहे हो तो खुद भी लगने लगता है कि यहाँ तो सब पवित्र ही काम होंगे।

जब खुद ही लगने लग जाता है तो यथार्थ से बिलकुल नावाकिफ़ हो जाते हो, असावधान हो जाते हो और भूल जाते हो कि वो जो भी हैं चाचा, ताऊ या परिवार के अन्य पुरुष, वो पुरुष ही हैं। सिर्फ़ तुमने कह दिया कि परिवार में डिविनिटी होती है, दैवीयता होती है, प्यार होता है, अपनापन होता है, ये होता है फलाना-ढिकाना, तुम्हारे कहने से आ थोड़ी जाएगा।

सारी अच्छाइयाँ अध्यात्म से निकलती हैं और जहाँ अध्यात्म नहीं है वहाँ एक भी अच्छाई नहीं हो सकती।

तो इसीलिए फिर बच्चों का सबसे ज़्यादा शोषण परिवार के भीतर ही होता है। अभी हम कल कह रहे थे न कि दुनिया भर में महिलाओं की जितनी हत्याएँ होती हैं उसमें से अधिकांश उनके या तो घरवाले करते हैं या उनके प्रेमी करते हैं। क्यों? हमें तो बताया गया था कि प्यार बहुत पवित्र रिश्ता होता है। तो ये सब प्रेमी इतनी हत्याएँ क्यों करते हैं फिर? क्योंकि पवित्र सिर्फ़ सच्चाई होती है। तुम लाख बोल लो होली इंस्टीट्यूशन, होली फ़ैमिली , वो तुम्हारे बोलने से थोड़ी हो जाएगी। वो उतनी ही खतरनाक है जितना कि दरिन्दों से भरा जंगल! और बच्चा तो छोटा होता है, वो तो बड़ा ही दुर्बल होता है। और एकदम दूसरों पर आश्रित। और दूसरों पर आश्रित मात्र नहीं है, तुमने उस बच्चे को बोल दिया है कि ये जो तुम्हारे आस-पास लोग हैं ये अच्छे लोग हैं। तो ये जो कुछ भी बोलें, मान लेना, इन पर यकीन कर लेना।

वो दो तरफी मार झेल रहा है। एक तरफ़ तो वो खुद अशक्त है और दूसरी तरफ़ तुमने उसको बोल दिया है कि ये सब जो लोग हैं इनकी बात सुनना और ये अच्छे लोग हैं। तो कई बार उसकी हिम्मत भी नहीं होगी बताने की, कि ये अच्छे लोग नहीं हैं, ये गन्दा-गन्दा काम कर रहे हैं। ये सबकुछ किसलिए है? क्योंकि आपको मानना ही नहीं है। ये कुछ भी होली नहीं होता, गीता के अलावा, उपनिषदों के अलावा और सच्चाई के अलावा। आपने आग के फेरे ले लिये उससे कोई होलीनेस नहीं आ जाएगी, कोई होलीनेस नहीं आ जाएगी।

आप एक ऐसे आदमी हो जो दुनिया में सबका शोषण करते हो। आप दफ़्तर में हो आप वहाँ पर अपने कर्मचारियों का, अपने क्लाइंट्स , अपने ग्राहकों का, सबका शोषण करते हो। घूस खाते हो, काम में हेराफेरी करते हो, आप आदमी ही खराब हो। आप अपने घरवालों का शोषण नहीं करोगे क्या? आप क्या सोच रहे हो?

पर हम ऐसे ही सोचते हैं। कहते हैं, ‘देखिए ये शर्मा जी हैं, एक नम्बर के घूसखोर हैं पर आदमी बड़े अच्छे हैं।’ कैसे? फिर हमे ताज्जुब हो जाता है जब शर्माजी पकड़े जाते हैं चाइल्ड मोलेस्टेशन (बाल शोषण) करते हुए। जब वो क्लाइंट मोलेस्टेशन कर रहा था तब काहे नहीं पकड़ा? मोलेस्टेशन तो उसकी प्रकृति है, उसको जो मिलेगा उसीको मोलेस्ट करेगा। जब वो एक बेज़ुबान कमज़ोर जानवर का शोषण कर रहा था, उसे मार रहा था, उसका माँस चबा रहा था तब तुमको नहीं पता था कि घर में भी जो बेज़ुबान कमज़ोर बच्चा होगा ये उसको भी शोषित ही रखेगा, उसका माँस चबाएगा? तब नहीं पता था?

पर हम सोचते हैं, नहीं, कोई बात नहीं। आदमी कितना भी बुरा हो अपने घर वालों के लिए तो अच्छा होता है। ऐसा सोचते हो न? हाँ या न? आदमी कितना भी बुरा हो अपने घर वालों के लिए तो अच्छा ही होता है। हम ये क्यों बोलते रहना चाहते हैं? ताकि ये सिद्ध हो कि अध्यात्म के बिना भी अच्छाई आ सकती है, कि कितना भी गिरा हुआ आदमी हो अगर वो परिवारी हो गया, अगर वो गृहस्थ हो गया तो अच्छा ही होगा। नहीं, ऐसा नहीं है। गिरा हुआ आदमी गृहस्थी में भी गिरा हुआ ही रहेगा। गृहस्थी में कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे हैं कि वो आपका रूपान्तरण कर देगी। गन्दा आदमी गन्दा आदमी ही होता है। वो अपनी बीवी, बच्चों सबके लिए गन्दा आदमी होगा। ये बात हम मानने को तैयार नहीं होते।

आपको भलीभाँति पता होगा कि आपके घर में लोग हैं जो दुनिया और समाज पर बिलकुल बोझ ही हैं। जानते हैं कि नहीं कई ऐसे लोगों को? लेकिन फिर भी आप उनको जी, जी करके और सम्मान इत्यादि से बात करते होंगे। क्योंकि आपको लगता होगा कि ये दुनिया के लिए बुरा है, घर वालों के लिए तो अच्छा है। नहीं, जो दुनिया के लिए बुरा है वही घर पर फिर चाइल्ड मोलेस्टेशन भी करता है।

मुझे नहीं पता आपने जो आँकड़े बताए वो कितने वैध हैं। कि दस में से छ: बच्चों का यौन उत्पीड़न होता है घर पर। छः का नहीं होता होगा तो चार का होता होगा या हो सकता है सात का होता होगा। जितनों का भी होता है बहुत बड़ी संख्या में होता है। वो बच्चा तीन साल का, दो साल का, चार-छ: साल का है, दस साल का है, जितने का भी हो, कुछ कर नहीं सकता। आप उसको अपना शिकार बनाये हुये हो। और ये तब तक चलता रहेगा जब तक हम किसी भी चीज़ को अच्छा मानेंगे सच्चाई, अध्यात्म के अलावा। आप उम्र को कई बार अच्छा मान लेते हो। आप कहते हो कोई आदमी बड़ी उम्र का है, चलो, उसको सम्मान दो। नहीं है वो सम्मान के काबिल। होंगे उसके पके हुए बाल, होगा उसका सफ़ेद पूरा सिर। मत दो उसे सम्मान अगर वो आध्यात्मिक नहीं है तो।

ये दो-दो कैसे हो सकते हैं सम्मान के केन्द्र? आप कह रहे हो, मैं सत्य को भी सम्मान देता हूँ और फूफाजी को भी सम्मान देता हूँ। और फूफा जी एक नम्बर के चोर आदमी हैं, आप जानते हो। तो उन्हें सम्मान क्यों देते हो? क्योंकि वो फूफाजी हैं। ये किसने सिखा दिया? फूफा जी सच्चे आदमी हों, ज़रूर सम्मान दो। सच्चे आदमी नहीं हैं तो क्यों? पर समाज ऐसे ही चलता है। नैतिकता ऐसे ही चलती है, गृहस्थी ऐसे ही चलती है। इसीलिए उसमें तमाम तरह के उत्पीड़न हैं, क्रूरता, हिंसा है। बच्चे का ऐसे ही थोड़े यौन शोषण घर में हो जाता है, तुमने ज़रूर उसे किसी के साथ छोड़ा है और तुमने बिलकुल एक बड़े नादान से भरोसे पर छोड़ा है। कि 'नहीं, नहीं इसका जो चाचा है वो एक नम्बर का चिकनबाज़, दारूबाज़ है लेकिन अपनी भतीजी के साथ थोड़े ही कुछ गलत करेगा।' क्यों नहीं करेगा? जब वो चिकन के साथ इतना गलत कर सकता है तो भतीजी के साथ क्यों नहीं करेगा?

आप ये बात समझ ही नहीं पाते। आप चिकन और भतीजी को बराबर रखकर देख ही नहीं पाते। आप कहते हो, 'नहीं, चिकन तो अलग चीज़ है न! भतीजी को थोड़ी काट देगा।' काट देगा। क्योंकि काटने वाला एक ही आदमी है। जब वो चिकन काट सकता है तो भतीजी को भी काट सकता है। उसकी वृत्ति ही है जो मिल जाए उसको भोगो। चिकन को भोग लिया ना अब भतीजी को भी भोगेगा।

बहुत लोगों को अभी भी यकीन नहीं हो रहा होगा कि ऐसा हो सकता है; ऐसा होता है। बहुत सारे बच्चे तो ऐसे होते हैं जिन्हें कभी पता ही नहीं चलता कि उनका यौन शोषण हुआ था। जितनों को पता चलता है वही तो बताएँगे कि हुआ। कई तो ऐसे नादान होते हैं उन्हें पता ही नहीं चलता कि उनके साथ क्या हो गया है। उनके साथ हो भी जाता है, उन्हें पता ही नहीं चला क्या हुआ? किसने किया? कैनेडा से कोई आया था करने? वही घर में (ही किसी ने किया न)।

फिर दोहरा रहा हूँ, सम्मान के लायक सिर्फ़ सच्चाई है। प्रेम के लायक सिर्फ़ सच्चाई है। कोई सोशल इंस्टीट्यूशन सम्मान का अधिकारी नहीं होता। मत बोल दो बार-बार, द सीक्रेट इंस्टीट्यूशन ऑफ मैरिज, एटसेक्ट्रा (विवाह की पवित्र संस्था इत्यादि)। ओनली द ट्रुथ इज़ सीक्रेड (सिर्फ़ सत्य पवित्र है)। न तो फ़ैमिली सेक्रेड है, न मैरिज सेक्रेड है। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि वो प्रोफेन (अधार्मिक) है। नहीं। मैं शादी या परिवार को अपवित्र भी नहीं कह रहा। न मैं होली कह रहा हूँ, न अनहोली कह रहा हूँ।

मैं कह रहा हूँ, ओनली द ट्रुथ इज़ होली। इफ़ द फ़ैमिली इज़ अलाइन्ड विथ द ट्रुथ, लेट्स कॉल इट होली, अदरवाइज़ नॉट (मात्र सत्य पवित्र है। यदि परिवार सत्य के साथ है तो इसे पवित्र कहें, नहीं तो नहीं)। परिवार यदि सत्य से जुड़ा हुआ है तो परिवार को दैवीय या होली या पवित्र आप बोल सकते हैं। पर आपका परिवार अगर ऐसा है कि उसमें कभी भजन गाये ही नहीं जाते तो ऐसे परिवार में छोटे बच्चों के लिए तो खतरा होगा न। आप यदि ऐसे परिवारों को जानते हैं जिसमें राम का नाम नहीं लिया जाता, भजन गाये नहीं जाते, किताबें पढ़ी नहीं जातीं, सत्संग सुना नहीं जाता तो ऐसे परिवार में कोई भी बच्चा सुरक्षित नहीं है। न बच्चा सुरक्षित है, न बड़ा सुरक्षित है। कोई भी सुरक्षित नहीं है। आ रही है बात समझ में?

कई बार तो बाप ही बच्चों के साथ… फिर आप कहते हैं, अरे! बाप तो भगवान होता है और पति तो परमेश्वर होता है। नहीं, नहीं, नहीं, नहीं। नहीं होता। नहीं समझ में आ रही बात? इतनी सीधी सी बात है। पति होने से कोई परमेश्वर हो जाता तो उपनिषदों की क्या ज़रूरत है? सबको पति बना दो, सीधे परमेश्वर हो जायेंगे! मिल गया मोक्ष! क्या करोगे शान्ति पाठ पढ़कर? शादी करो! परमेश्वर हो जाओगे तत्काल।

न माँ-बाप भगवान होते हैं, न पति परमेश्वर होता है। सत्य, सत्य होता है। राम, राम हैं। कोई सिर्फ़ इसलिए राम नहीं हो जायेगा कि वो किसी का चचा है या ताऊ है या मौसी है या भाभी है। ये सब होने से आप देवी-देवता नहीं हो जाओगे। रिश्तों को आदर देना छोड़ो, सच्चाई को आदर देना सीखो। सामने जो व्यक्ति खड़ा है वो सम्मान का उतना ही अधिकारी है जितना वो सत्य को सम्मान देता है। सीधा तुम्हारे सामने समीकरण रख दिया। तुम सच्चाई को जितना सम्मान दोगे, मैं तुम्हें ठीक उतना ही सम्मान दूँगा, उससे ज़रा भी ज़्यादा नहीं, उससे ज़रा भी कम नहीं। तुम राम को जितना प्रेम दोगे, मैं भी तुम्हें उतना ही प्रेम दूँगी, उससे ज़रा ज्यादा नहीं, उससे ज़रा कम नहीं। तुम्हें राम से प्रेम नहीं, मुझे तुमसे प्रेम नहीं। क्योंकि मैं कौन हूँ? मैं एक अतृप्त चेतना हूँ जिसका पहला प्यार तो राम ही हैं न! तुम तो अभी यूँ ही हो, बीच में आ गये हो। किसी दिन निकल भी लोगे, तुम्हारा क्या है!

तुम राम से प्यार करो, मैं तुमसे प्यार करूँगी। तुम शिव को सम्मान दो, मैं तुम्हें सम्मान देती हूँ।‌ तुम्हारी दृष्टि में सत्य के लिए सम्मान नहीं, मेरी नज़र में तुम्हारे लिए सम्मान नहीं। तुम्हें गीता पसन्द नहीं, मुझे तुम पसन्द नहीं। तुम्हें उपनिषदों के साथ नहीं रहना, मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहना। और रहोगे फिर भी अगर साथ तो अचरज मत करना जब चाइल्ड मोलेस्टेशन देखो। जिस आदमी को राम से, गीता से, शिव से, वेदान्त से मतलब नहीं, वो आदमी महाहिंसक होगा। हो सकता है उसने ऊपर एक सामाजिक सभ्यता का मुखौटा ओढ़ रखा हो। ऊपर-ऊपर से लगता हो, अरे देखो, कितना सिविलाइज्ड (सभ्य) है पर भीतर-ही-भीतर उसके खूँखार भेड़िया गुर्रा रहा है। वो जब मौका पायेगा अन्धेरे में हमला करेगा।

मैं यहाँ तक कह रहा हूँ कि अगर माँ को राम से प्यार नहीं, तो ऐसी माँ खुद अपने बच्चे के लिए खतरनाक है। जिस घर में किताबें न हों, जिस घर में मन्दिर न हो, वो घर नहीं है वो कत्लखाना है। आपके घर में अगर कम-से-कम दो-चार सौ किताबों की एक छोटी-सी लाइब्रेरी नहीं है तो आपका घर, घर कहाँ है? आप किताब ही नहीं रख सकते घर में? और कोशिश ये होनी चाहिए कि पूजाघर और किताबघर एक ही हो। क्योंकि दोनों जगह काम एक ही होता है वस्तुत:। दोनों को एक साथ रखिए। सबकुछ है घर में, क्या नहीं है? बस जी, रीडिंग तो हमारे यहाँ कोई हें-हें‌-हें (हँसने का व्यंग्य) करता नहीं। अब यहाँ दुराचार नहीं होगा तो और क्या होगा?

वापस जाइएगा तो सबसे पहले घर में एक छोटा सा पुस्तकालय अपना बनाइएगा। खासतौर पर अगर आपके घर में बच्चे हैं तो उनकी भलाई के लिए। ये मत कहिएगा कि जगह नहीं है। दीवाल तो है, तो दीवारों के सहारे बन जाते हैं रैक। उसपर आराम से आप दो-चार सौ किताबें कम-से-कम रख सकते हैं। वही ज़िन्दगी है। और किसके साथ जीना है? ज्ञान नहीं, तो जीवन कहाँ? और अगर सगुण उपासना आपको भाती है तो शिव, राम, कृष्ण या सन्तों के चित्र, ‘ओम्’ या एक ‘ओंकार’ इनको रखिए।

कुछ कर रहे होंगे इनपर नज़र पड़ जाती है, मन ठहर जाता है। बच्चों को बचाना हो तो घर को आध्यात्मिक बनाइए। क्यों नहीं पूरा परिवार सुबह उठकर एक साथ प्रार्थना कर सकता? बोलिए। खाने के लिए बैठते हैं आप लोग, डिनर टेबल पर, पहले छोटी-सी प्रार्थना क्यों नहीं कर सकते? बच्चों को शुरू से ही क्यों नहीं बताते ये? शान्तिपाठ यहाँ से आप सीखकर जा रहे हैं, वो सिर्फ़ रिकॉर्डिंग के लिए था? वापस जाते-जाते भुलाना है? घर में क्यों नहीं दस बार प्रतिदिन उसको दोहराएँगे आप? और ज़ोर देकर के। जो आदमी मना करता है कि शान्तिपाठ नहीं दोहराना, वो खतरनाक है। याद रखिएगा।

आपका बच्चा है किशोर, टीनेज उम्र का, अगर वो भागता है इन सारी चीज़ों से तो उसका भविष्य अन्धकारमय है। उसे बचाइए। ऑनलाइन अब्यूज का बोल रही थीं, कैसे बचाओगे अपने बच्चों को? ऑनलाइन कचरा तो बाढ़ है। वो आपके घर की दीवारें वगैरह बिलकुल लाँघ करके आपके घर आ रहा है। और दरवाज़ा नहीं खटखटा रहा। जैसे बाढ़ दरवाज़ा नहीं खटखटाती, वो बहा ले जाएगा आपके घर को — बहा लिये जा रहा है। और उसके विरुद्ध एक ही सुरक्षा है — अध्यात्म। आप रोक ही नहीं सकते, आपको पता ही नहीं चलेगा आपका बच्चा क्या देख रहा है ऑनलाइन। एकदम नहीं आप उसपर निगरानी कर पाओगे। कितना रोकोगे?

हाँ, बच्चे ने अगर उपनिषदों सरीखे कुछ मूलभूत सवाल पूछने सीख लिये तो फिर कोई इंस्टाग्रामर, सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर , यूट्यूबर, कोई उसका फिर कुछ नहीं बिगाड़ सकता। क्योंकि वो सवाल पूछेगा, उसे कोई सिखा रहा है इन्फ्लूएंसर कोई बात, वो सवाल पूछेगा। उपनिषद् यही तो करते हैं। आपको सवाल पूछना सिखा देते हैं। आप बात-बात में पूछते हो — कौन? किसके लिए? तुम कौन? मैं कौन? जहाँ ये सवाल पूछना शुरू किया, वहाँ फिर मुश्किल हो जाता है कि कोई शोषण कर पाए आपका।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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