मैं घर जारा आपना, लिये लुकाठी हाथ। जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।। ~ गुरु कबीर
प्रश्नकर्ता: अभी हम जयपुर से आ रहे हैं। चार दिवसीय शिविर था। उसके बाद दो दिन अजमेर में बिताया। आने वाले कुछ दिनों में आप हैदराबाद जाएँगे, उसके बाद हरिद्वार, ऋषिकेश, निरंतर आप देश भ्रमण करते ही रहते हैं। अभी हमारे बीच एक ऐसे ही अनुयायी साधक मौजूद हैं, जो विदेश से यहाँ यात्रा करके आए हैं, और जैसा कि जयपुर में वो हम सबसे साझा कर ही रहे थे कि उनकी जो यात्रा रही वो उनके लिए बड़ी विचित्र रही।
तो उन्होंने जिज्ञासा करी है, कबीर जी का एक दोहा उद्धृत किया है, और पूछ रहे हैं कि 'जो घर जारे आपना…। क्या बिना घर जलाए स्वतंत्रता संभव नहीं है? जिस सरलता से आज मैं यहाँ पहुँच चुका हूँ, अगर परिवार मेरे साथ होता, मेरे बीबी-बच्चे मेरे साथ होते, तो क्या यह सरलता उतनी न रहती जितनी अब है?'
आचार्य प्रशांत: कबीर साहब 'उस' घर की बात कर रहे हैं। कबीर साहब उस घर को जलाने की बात कर रहे हैं, जो घर मुक्ति के मार्ग में बाधा बनता हो। अधिकांशत: घर ऐसे ही होते हैं, जो मुक्ति के रास्ते में बाधा बनते हैं। तब मुक्ति चाहिए ही किससे? घर से ही चाहिए। तब मुक्ति का अर्थ ही हुआ घर से मुक्ति। क्योंकि घर ही मुक्ति के रास्ते में बाधा है। पर अनिवार्य नहीं है कि घर बाधा ही बने।
यह मैं स्पष्ट करना इसलिए ज़रूरी समझता हूँ क्योंकि घर को अगर अनिवार्य बाधा ही बना दिया तो मन में बड़ा भय पैदा हो जाता है। मन को घर तो चाहिए, मन को सुरक्षा तो चाहिए, मन को छाँव तो चाहिए और कह दिया गया कि घर जबतक जलाया नहीं तबतक कबीरों के रास्ते पर, सत्य और मुक्ति के रास्ते पर चल ही नहीं सकते, तो मन बड़ा आतंकित हो जाता है। होने को तो यह भी हो सकता है कि आपका घर ही आपके मुक्ति के मार्ग को प्रेरित कर दे।
ऐसा क्यों नहीं घर हो सकता? आपने कहा, 'परिवार साथ होता, तो इस यात्रा में, इस तीर्थ में दिक्कत हो जाती।' हो सकता है आपकी बात सही हो, लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है कि परिवार, पत्नी, बच्चे, माँ, बाप, सहोदर ऐसे भी हों जो स्वयं ही किसी को प्रेरित करें कि 'आगे बढ़, मुक्ति ही जीवन का परम उद्देश्य है, आगे बढ़।' यह भी तो हो सकता है न? मैं उस घर की बात क्यों कर रहा हूँ? मैं उस घर की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मन को वो घर चाहिए। मन को आपने यह कह दिया कि तुझे कोई घर नहीं मिलेगा और जो घर तेरे पास है उसको भी तू जला दे, तो मन इतने खौफ़ में आ जाएगा कि वो अध्यात्म से ही दूर भाग जाएगा। बात को समझिएगा।
कहीं बेहतर है कि इसको ज़रा दूसरे तरीके से समझें। ऐसे समझें कि घर का परिशोधन करना है, घर को एक गुणवत्ता देनी है, घर को एक ऊँचाई देनी है। घर-परिवार ऐसा कर लेना है कि जब आप अध्यात्म की राह पर चलें, तो वह आपके साथ चले। बल्कि जब आप थकने लगे, आप की प्रेरणा चुकने लगे, तो आपसे कहे कि क्या कर रहे हो? घर ऐसा चाहिए जो आपको मोह के बंधनों में बाँधने की जगह, आपके जो पूर्ववर्ती बंधन हों उनको भी काट दें।
मन को तो जुड़ना है। मन को कहीं-न-कहीं तो जाकर जुड़ना है, कहीं-न-कहीं तो जाकर रहना है। मुक्ति का अर्थ अगर तोड़ना है, तो तोड़ने के लिए भी जुड़ना पड़ेगा। बंधन तोड़ने के लिए भी किसी ऐसे से जुड़ना पड़ेगा, जिसकी संगत में बंधन टूटते हों। क्योंकि मन का तो काम ही है जुड़ना। टूटने की या तोड़ने की बात करने की नौबत ही इसीलिए आती है क्योंकि मन अविवेक में, भ्रम में, माया में, ग़लत जगह जाकर के जुड़ गया होता है।
तोड़ने की नौबत ही क्यों आयी? तोड़ने का प्रसंग ही क्यों उठा? क्योंकि मन बहक गया, मन ने विवेक नहीं धरा। मन कहीं ऐसी जगह जाकर के जुड़ गया, जहाँ जुड़ना उसके लिए हितप्रद नहीं था। तब आप कहते हैं, 'तोड़ो!' तब कबीर साहब कहते हैं, 'घर जारो आपना।' यें किस घर को जलाने की बात कर रहे हैं? ये उस घर को जलाने की बात कर रहे हैं जो सम्यक नहीं है, जो धार्मिक नहीं हैं। घर माने समझते हैं? बाहर का माहौल ही नहीं, भीतर का भी। जहाँ आपने घर कर लिया, सो जगह घर। जहाँ जाकर आप स्थापित हो गए, अवस्थित हो गए, वो जगह घर।
आप सही जगह अवस्थित हुए होते, तो क्यों संतों को आपसे कहना पड़ता है कि जारो घर आपना। गलत घर जाकर के बैठ गए, तो कहना पड़ता है, 'घर जलाओ!' पर गलत जगह से भी आप छुटें इसके लिए आवश्यक है कि पहले आप सही जगह से जुड़ें। क्योंकि मन को आप खाली हाथ नहीं रख पाएँगे। उसको पकड़ने के लिए कुछ तो चाहिए।
तो जब कबीर साहब कह रहे हैं, 'जो घर जारे आपना,' उसको आप ऐसे पढ़िए कि 'जो घर बदरे आपना।' जो अपना घर बदल करके राम के घर में रहने को तैयार हो, वो हमारे साथ चले। संत बेघर करने की बात नहीं करते हैं। वो आपको बेघर नहीं कर रहे हैं, वो आपको बेहतर घर दे रहे हैं। वो कह रहे हैं, 'जिसमें ख्वाहिश हो कि मेरा घर राम का घर बन जाए, वो चले हमारे साथ।'
अब बात कितनी पलट गयी न, अब मन ख़ौफ़ नहीं खाएगा। जब आप कहते हैं कि 'जला दो अपना झोपड़ा, आग लगा दो घर में' तो बड़ा हिंसात्मक दृश्य पैदा होता है। मन सिहर जाता है, और सिहरा हुआ मन क्या कोई सही कृत्य करेगा? कुछ नहीं कर सकता। तो उसको ऐसे सुनिए कि मन जिस घर में रह रहा है, उस घर की बुराइयों को जलाना है। घर को नहीं जलाना, घर का तो परिशोधन करना है। घर को तो एक ऊर्ध्वता देनी है। विकार जलाने हैं, रिश्ते नहीं जलाने; विकार जलाना है, परिवार नहीं जलाना है।
परिवार जलाने की बात बड़ी गड़बड़ हो जाती है, क्योंकि मन को तो परिवार चाहिए। परिवार में अपनेआप में और कोई श्रेष्ठता, विशिष्टता या उपयोगिता हो या न हो, एक मूल्य तो निश्चित रूप से परिवार में है ही न, क्या? मन को परिवार चाहिए, आदमी को संगति चाहिए। तो यह कहने की जगह कि अपनी सारी वर्तमान संगतियाँ छोड़ दो, इसको ऐसे सुनना चाहिए। कबीर साहब कह रहे हैं, 'आओ तुमको सतसंगत में ले चलता हूँ, आओ तुमको राम की संगत में चलता हूँ।'
और राम की संगत में जाने से क्या होता है? यह भी नहीं कहिए कि राम की संगत में जाओगे तो तुम्हारी जितनी फ़िलहाल संगतियाँ है, सब टूट जाएँगी। ऐसे कहिए कि राम की संगत में जाओगे तो अभी तुम्हारी जितनी संगतियाँ हैं, वो सब परिशुद्ध हो जाएँगी, वो सब भी साफ़ हो जाएँगी।
जैसे लोहे की एक ज़ंजीर हो और कड़ियाँ सब एक दूसरे से जुड़ी हुई हों। लंबी है श्रृंखला और जो सबसे पहली अग्रिम कड़ी है, वो छू गयी पारस पत्थर को, वो छू गयी राम को, तो बाक़ी कड़ियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? सब सोना हो जाएँगी न। यह समझा रहे हैं कबीर। कबीर कह रहे हैं, 'अभी तुम जुड़े तो हुए हो, पर बंधन हैं। ये ज़ंजीर है और सब कड़ियों ने दूसरी कड़ियों को बाँध रखा है। ज़ंजीर ही नाम है।'
वो यह नहीं कह रहे हैं, 'ज़ंजीर तोड़ देनी है।' मत घबराओ। तुम्हारा घर नहीं तोड़ रहे कबीर, न राम। वो कह रहे हैं कि 'तुम जो एक कड़ी भर हो अपने परिवार की श्रृंखला में, तुम आ करके स्पर्श कर लो राम को। तुम तो सोना हो ही जाओगे, तुमसे जुड़ी हुई हर कड़ी भी सोना हो जाएगी।' वो तुम्हारे पूरे परिवार को ही सोना कर देने की बात कर रहे हैं। अध्यात्म घर तोड़ता नहीं है। अध्यात्म परिवार भंजक नहीं है। वो परिवार को सोना कर देता है। वो तुम्हारे हर रिश्ते को प्रकाशित कर देता है। वो घर के आँगन में सुगंध भर देता है, फूल बरसा देता है। यह झूठी, थोथी मान्यता है कि अध्यात्म का अर्थ है वैराग्य, संन्यास कि जो अध्यात्म की ओर चला वो तो समझ लो अब दीन-दुनिया के किसी काम का नहीं रहा, जहान के किसी काम का नहीं रहा, परिवार छोड़ देगा, किसी की फ़िक्र परवाह नहीं करेगा; बेदिल हो गया, बेदर्दी हो गया। ये बेकार की बातें हैं।
जो अध्यात्म की ओर चला, अब वो जीवन में पहली बार दुनिया के काम का हो गया। जो अध्यात्म की ओर चला, राम की ओर चला, वो अब पहली बार परिवार के काम का हो गया। अभी तक तो वो परिवार का सत्यानाश ही कर रहा था। इरादे उसके भले नेक थे परिवार की तरफ़, लेकिन जो राम का नहीं है, वो परिवार पर भी क्या प्रभाव डालेगा? जो राम का नहीं है, शैतान का है। और जो शैतान का है, वो पूरे परिवार को भी शैतान का ही बना देगा। घर की हवा को ही शैतानियत से भर देगा। तो घर में अगर कोई चला है राम की ओर, तो वो पूरे घर के लिए खुशखबरी है।
समझ रहे हैं?
तो कबीर साहब कह रहे हैं, 'वैसा घर होना चाहिए।' कौन-सा घर जलाना है? जो घर पुराना था, लोहे का था, वो घर जला। पर वो जला माने यह नहीं कि जो पुराना था वो राख हो गया। वो जला माने जो पुराना था वो सोना हो गया। दो तरह का जलना होता है।
आपकी कल्पना में यही आता है कि पुराना घर जला तो माने बचेगी सिर्फ़ राख। पर संत यह कह ही नहीं रहे। आपने ग़लत अर्थ कर लिया। और ग़लत अर्थ करके आप डर जाएँगे और डर जाएँगे तो अहम् और बलवान हो जायेगा। संत कह रहे हैं, 'पुराना घर तो जायेगा, लेकिन जो नया आयेगा वो पुराने से कहीं-कहीं बेहतर होगा, अनंत गुना कीमती होगा।' श्रृंखला में नई कड़ियाँ नहीं लेके आनी है, पुरानी ही कड़ियाँ स्वर्ण हो जाएँगी।
तो पुरानी कड़ियों को डरने की ज़रूरत नहीं है कि हमें तो निकाल फेंका जाएगा और हमारी जगह कोई और आ जाएगा। नहीं, तुम्हें निकाल नहीं फेंका जाएगा, तुम्हारी जगह कोई और नहीं आएगा, तुम ही सोना हो जाओगे। वही रहेंगे सब माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी, बच्चे वही रहेंगे। नये बच्चे नहीं आ जाने वाले। कितनी भी कोशिश करलो, इस जन्म में तुम नये माँ-बाप तो नहीं ला सकते।
अगर संजीव और राधा के पुत्र हो तुम, तो इस जन्म में तो संजीव और राधा के ही पुत्र रहोगे। हाँ, तुम अगर राम के हो गए, तो तुम्हारा पूरा कुनबा तर जाएगा, तुम्हारा पूरा कुटुम्ब राममय हो जाएगा। संजीव और राधा बस नाम से पुराने रहेंगे, वो भी नये हो जाएँगे। दुनिया देखेगी तो यही कहेगी कि 'हाँ, यह वही संजीव तो है, यह वही राधा तो है न।' वो भी नए हो जाएँगे।
शास्त्र बता गये हैं कि ब्रह्मविद अकेले नहीं तरता। अपने पूरे कुनबे के साथ तर जाता है, भवसागर पार कर जाता है।
डरिएगा मत। यह उल्लास का श्लोक है कबीर साहब का कि बहुत-बहुत सुन्दर ऊँची बात कही है उन्होंने। यह असामाजिक बात नहीं है। यह बात पूरे तरीके से सामूहिक है। कबीर साहब वास्तव में निजी मुक्ति से इंकार कर रहे हैं। सुनने में ऐसा लगता है जैसे कबीर साहब कह रहे हों कि 'मुक्ति निजी होती है, घर को छोड़ो हमारे साथ चलो। अपनी निजी स्वतंत्रता का ख़्याल करो।'
न, वास्तव में यह दोहा कह रहा है कि जब मिलेगा सबमें बँटेगा, सबको मिलेगा। एक दीया जला, परिवार में बहुत दीये जलेंगे। लौ चाहिए। लौ कहीं से भी प्रवेश कर जाये घर में फिर बहुत सारे दीये जलेंगे।
ये भस्मीभूत कर देने वाली लौ नहीं है, ये प्रकाशित कर देने वाली लौ है। यह घर में लगी आग नहीं है। यह मंदिर के प्राँगण में जलते असंख्य दीये हैं। आग-आग में फ़र्क होता है।