गेम खेलेंगे, पैसा कमाएंगे और फेमस हो जाएंगे

Acharya Prashant

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गेम खेलेंगे, पैसा कमाएंगे और फेमस हो जाएंगे
मैं आप से बोलूँ कि गेम खेलकर के आपको स्वर्ग मिल जाएगा तो मैं अपराधी हूँ। गेम गेम है और गेमिंग इंडस्ट्री का अपना एक आकार है, बहुत बड़ा आकार है। पर आप कहो कि भारतीय युवा गेमिंग इंडस्ट्री के दम पर रोज़गार पा जाएगा, तो बहुत बड़ी अतिश्योक्ति है ये। कुछ युवाओं को निश्चित रूप से मिल जाएगा, पर कितने? जो चीज़ ऐसा कुछ दे नहीं सकती जिसका आप वादा कर रहे हो, वो वादा फिर अपराध हुआ। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: हैलो सर, मेरी कल मेरे भाई से बात हो रही थी, छोटा भाई है मेरा तो उसका गेमिंग (कंप्यूटर या वीडियो गेम खेलने) में काफ़ी इंटरेस्ट है। तो मेरी उससे बात हो रही थी तो उसने बोला कि उसे करियर आगे परस्यू (लक्ष्य रखना) करना है गेमिंग में, मतलब गेमिंग, ऑनलाइन गेमिंग करनी है और आगे उसको लाइवस्ट्रीम (किसी घटना के घटित होने के दौरान उसका वीडियो ऑनलाइन प्रसारित करना) करना है यूट्यूब वगैरह पर।

तो मैंने उसका विरोध किया। मैंने कहा, ‘ये सही नहीं है। तुम कुछ अच्छा, सही काम चुनो — अभी तुम पढ़ाई करो और आगे।’ वो पढ़ाई से भी ड्राॅप करना चाह रहा था तो मैंने उसे मना किया, बट उसने बोला कि आपको पता है आजकल क्या हुआ, कल प्रधानमंत्री जी ने एक गेमर को नेशनल अवाॅर्ड दिया! आपको पता है यूट्यूब कितना बड़ा हो गया है? मतलब सब प्रधानमंत्री से अवाॅर्ड मिल रहा है, ये क्या छोटी बात है? पैसे के लिए नहीं कर रहा हूँ मैं, मैं ये नाम के लिए कर रहा हूँ, शोहरत के लिए कर रहा हूँ। और इसके अलावा भी काफ़ी चीज़ों, काफ़ी क्षेत्रों में अवाॅर्ड्स मिले हैं, नेशनल अवाॅर्ड्स मिले हैं। और उसका मैंने फिर रिसर्च किया, चेक किया तो काफ़ी यूट्यूबर्स हैं, काफ़ी इन्फ़्लूएंसर्स हैं, उनको भी काफ़ी कुछ अवाॅर्ड्स मिले हैं। तो इसमें जो यंगस्टर्स हैं वो काफ़ी इन्फ़्लूएंस हो रहे हैं इससे, जैसे मेरा भाई, उसके क्लासमेट्स भी, सब काफ़ी इन्फ़्लूएंस हो रहे हैं।

तो सर, मेरा सवाल ये था कि मतलब इन्फ़्लूएंसर का क्या मीनिंग है और किससे हमें इन्फ़्लूएंस होना चाहिए? और ये जो पीढ़ी है, ये अब इसे जैसे प्रधानमंत्री से अवाॅर्ड मिल रहे हैं तो अब ये इसमें पैसे के साथ-साथ अब सम्मान भी आ चुका है, तो फिर इससे कैसे उन्हें समझाया जाए या बचाया जा सकता है?

आचार्य प्रशांत: देखिए, सरकारें तो मुर्गी पालन में भी पुरस्कार देती हैं तो क्या कर सकते हैं, उनकी मजबूरी है। सरकारें इसलिए थोड़े ही चुनी जाती हैं कि समाज आध्यात्मिक आधार पर तरक्की करे। दुनिया का कोई भी देश हो, कोई भी समय हो, कोई भी सरकार हो, जब चुनाव आता है तो पूछा जाता है कि हाँ साहब, दो बातें बता दो बस — बेरोज़गारी की क्या दर है और मुद्रास्फीति की क्या दर है। अनएम्प्लॉइमेंट (बेरोज़गारी) और इन्फ्लेशन (मुद्रास्फ़ीति), इन दो आधारों पर चुनाव जीते जाते हैं और हारे जाते हैं। समझ में आ रही है बात?

अब इन्फ्लेशन को तो फिर भी माॅनैटरी पाॅलिसी (मौद्रिक नीति) से कुछ करके सरकारें दबा लेती हैं खास कर चुनावों के समय में, पर बेरोज़गारी को कैसे दबाओगे? तो बेरोज़गारी को दबाने के लिए हर तरीके के घटिया उद्योग प्रोत्साहित किये जाते हैं। कुछ करके युवाओं का बस मन लगा रहे और उन्हें ये आस बनी रहे कि आमदनी आज नहीं हो रही तो कल तो हो जाएगी।

अब भारत की समस्या है यहाँ का जो डेमोग्राफ़िक डिस्ट्रीब्यूशन (जनसांख्यिकीय वितरण) है। बात सिर्फ़ ये नहीं है कि हम डेढ़-सौ करोड़ हैं। बात ये है कि इन डेढ़-सौ करोड़ में अधिकांश लोग एम्प्लाॅएबल (रोज़गार योग्य) उम्र के हैं। एम्प्लाॅएबल मैं उसको मान रहा हूँ जिसकी उम्र पच्चीस साल से लेकर के पचपन के बीच में है। वास्तव में पैंसठ मानना चाहिए क्योंकि औसत उम्र तो और बढ़ गई है। अब लोग ज़्यादा जीते हैं। लोग ज़्यादा जीते हैं तो उन्हें लंबे समय तक फिर रोज़गार भी चाहिए।

भारत की सबसे ज़्यादा आबादी इसी आयु वर्ग में है। और सब क्या बोल रहे हैं? सरकारें गिर जाएँगी अगर उनको रोज़गार का कोई-न-कोई झुनझुना नहीं थमाया जाएगा। तो एक झुनझुना अब ये भी है यूट्यूब, इन्फ़्लूएंसर बन जाओ, गेमर बन जाओ, जो भी बन जाओ। उसमें दो-चार बन भी जाते हैं, उनके चैनल निकल जाते हैं। ये बिल्कुल वही बात है जैसे मुखर्जी नगर। समझ गए? दो-चार तो बन ही जाएँगे न और उनका झुनझुना बजा-बजाकर बाकी सबको बोलो, 'तेरा भी होगा, तेरा भी होगा।'

आज हर चौथे घर में यूट्यूबर है। गेमर का मुझे पता नहीं, वो हर पाँचवे घर में होगा शायद। व्हाइट रिवॉल्यूशन ला देंगे, एक-एक गाय से चालीस-चालीस बार गर्भाधान कराएँगे। इस बात पर इस समय आपका देश बहुत प्रफुल्लित है, ये व्हाइट रिवॉल्यूशन कहलाएगा। एक बार आप सोचो, एक-एक मैमल (स्तनधारी जीव) को, एक मादा को उसके जीवनकाल में चालीस बार गर्भवती किया जाएगा कृत्रिम तरीके से। वो कृत्रिम तरीका मालूम है क्या होता है न? जहाँ पर तकनीक थोड़ी विकसित है वहाँ तो ट्यूब डाली जाती है, और जहाँ तकनीक विकसित नहीं है जैसे कि नहीं है भारत में ज़्यादातर जगहों पर, वहाँ हाथ डाला जाता है। और हाथ भी एक-दो बार नहीं, बार-बार डाला जाता है, पता ही नहीं कि अभी गर्भ ठहरा कि नहीं ठहरा। पूरा यहाँ तक हाथ, अंदर (पूरी बाजू पर इशारा करते हुए)। ये व्हाइट रिवॉल्यूशन है।

ये सरकारों की मजबूरी है क्योंकि इतने सारे लोग पैदा हो गए हैं, और सब कह रहे हैं, 'हमें रोटी चाहिए, हमें रोज़गार चाहिए।' और फिर पिंक रिवॉल्यूशन है, पिंक बोल रहे हैं, रेड नहीं बोल रहे। पिंक रिवोल्यूशन जानते हो न क्या है? क्या है?

प्रश्नकर्ता: मांस।

आचार्य प्रशांत: और ब्लू रिवॉल्यूशन क्या है? मछली। पिंक है रेड रिवॉल्यूशन माने मांस और ब्लू रिवॉल्यूशन है कि मछली, तो क्या करें! और किसी तरीके से रोज़गार हो ही नहीं रहा पैदा। हो सकता है लेकिन उसके लिए सक्षम सरकारें चाहिए। और एक अशिक्षित देश में सक्षम सरकार तो चुनकर आने से रही तो यही सब चलेगा। आप और अपनी तादाद बढ़ाते रहिए, ये तमाशा देखते रहिए।

युवा तो निकल लेंगे न सड़क पर, कहेंगे, 'रोज़गार चाहिए, रोज़गार चाहिए।' और ऐसी हमने उनको शिक्षा भी नहीं दी है कि उन्हें समझ में आए कि अब पैदा हुए हो, तो अपनी ज़िंदगी अपने हाथ। अपना रोज़गार खुद पैदा करो। वो सरकारों के सामने खड़े हो जाते हैं डंडा लेकर कि वोट तभी देंगे जब रोज़गार का कम-से-कम हमको प्रलोभन दोगे। रोज़गार तो कुछ नहीं मिलता, झाँसा तो मिले कम-से-कम। तो इस देश का युवा बड़े आंदोलन कर रहा है कि झाँसा दो, कम-से-कम हमें झाँसा दो। कम-से-कम उम्मीद बनी रहेगी कि हमें रोज़गार मिल रहा है। आठ-आठ, दस-दस साल वो लगे हुए हैं, क्या कर रहे हैं? सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे हैं।

मैं बार-बार पूछता हूँ, ‘सरकारें इतने अटेम्प्ट्स (प्रयास) की अनुमति दे कैसे रही हैं?’ जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) वगैरह की बात करते हो। देश का कितना बड़ा जीडीपी तो इसी में मारा जा रहा है, जो दस-दस साल बैठकर के ये तैयारियाँ कर रहे हैं। सिर्फ़ इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आपने इतने अटेम्प्ट्स अलाउ (अनुमति देना) कर रखे हैं। वो जान-बूझकर करे गए हैं ताकि रोज़गार का झुनझुना बजता रहे। सबको ये उम्मीद बनी रहे कि अभी नहीं हुआ तो आगे हो जाएगा। पोल पूरी ही खोल दो न, मैं कह रहा हूँ सबको बीस-बीस अटेम्प्ट्स की अनुमति होनी चाहिए ताकि बाप, बेटा और दादा एक साथ यूपीएससी में बैठें। तीन पीढ़ियाँ एक साथ बैठी हुई हैं मुखर्जी नगर में और यूपीएससी की तैयारी चल रही है। और मेरे नौजवानों को समझ में भी नहीं आ रहा कि ये साज़िश कह लो तो साज़िश है, और मूर्खता कह लो तो मूर्खता है। भाई मेरे, क्यों फँस रहे हो इसमें?

डिजिटल रिवॉल्यूशन सबको इस तरीके से अब करना चाहिए ताकि तुम मेरे पास न आओ। 'बेटा, जाओ यूट्यूब पर इन्फ़्लूएंसर बन जाओ या इंस्टाग्राम पर इन्फ़्लूएंसर बन जाओ। मेरे पास नहीं आना फिर रोज़गार माँगने।'

दो-चार लोग हैं जो कमा रहे हैं और उनकी तस्वीरें दिखा-दिखाकर, उनको अवाॅर्ड्स देकर के करोड़ों युवाओं को उधर ही भेज दो इंस्टाग्राम की तरफ़। सबको ये लगेगा, ‘उसने कर लिया तो मैं भी कर लूँगा।’ और फिर जब उससे होगा नहीं तो आप कह सकते हो, 'देखा, मैंने तो तुझे रास्ता बताया था, तू ही नहीं कर पाया।'

कुछ नहीं होगा तो कम-से-कम वो दो-चार साल उधर व्यस्त रहेगा, सरकारों के सामने प्रदर्शन, आंदोलन करने नहीं आएगा। और उनको मुद्दे दे दो जिसमें वो उलझे रहें और जो मूल प्रश्न हैं, वो कभी उठाएँ ही नहीं। तमाम तरह का जो मीडिया में मसाला बिखरा रहता है वो आपको क्यों लगता है, क्यों बिखरा रहता है? ताकि झुनझुना बजता रहे। सरकार खुद कई तरह के मनोरंजनों को प्रोत्साहित करती है दुनियाभर में। क्यों करती है? ताकि लोग उन्हीं में किसी तरह व्यस्त रहें। न जाने कितने युद्ध इसीलिए शुरू किए गए, क्योंकि युद्ध नहीं शुरू किया गया होता तो सरकार गिर जाती। सरकार के खिलाफ़ नागरिक असंतोष बढ़ रहा है, युद्ध शुरू कर दो।

आप लोकतंत्र का इतिहास देख लीजिए, बहुत पीछे मत जाइए, पिछले सौ-डेढ़-सौ साल, प्रथम विश्वयुद्ध से थोड़ा और पीछे चले जाइए तीस-चालीस साल और आप पाओगे कि अधिकांश युद्ध शुरू ही इसीलिए किये गए दुनिया में, क्योंकि सरकारें अलोकप्रिय हो रही थीं। और जब युद्ध शुरू होता है तो पूरे देश में राष्ट्रवाद की लहर दौड़ जाती है, पूरा देश सरकार के पीछे खड़ा हो जाता है कि हाँ, लड़ो हम तुम्हारे साथ हैं। वही सरकार जो गिरने की कगार पर थी जैसे ही युद्ध छिड़ता है, वो सरकार लोकप्रिय हो जाती है।

पाकिस्तान को क्यों हमेशा वाॅर-मोड में रहना पड़ता है? क्योंकि वो एक बिखरता हुआ देश है। उस बिखरते हुए देश को कोई-न-कोई बहाना चाहिए जिसके आधार पर लोगों को एक रखा जा सके। तो वो हर समय ऐसे ही रहते हैं, 'इस को मार देंगे, इसको गिरा देंगे, ये कर देंगे, कश्मीर ले लेंगे।' वो भी अच्छे से जानते हैं कर कुछ नहीं सकते, पर झुनझुना बजता रहता है।

आप ज़रा देखिएगा कि पाॅपूलैरिटी रेटिंग्स (लोकप्रियता दरें) कितनी थीं अमरीकी राष्ट्रपतियों की जब वो इराक में घुसे थे। आप देखिएगा कि अफ़गानिस्तान में होने के कारण अप्रूवल रेटिंग्स (अनुमोदन दरें) पर क्या असर पड़ा था। आपको समझ में आएगा कि सरकारों के लिए जनता को इधर-उधर के मुद्दों में उलझाए रखना क्यों अनिवार्य होता है।

आपको क्या लग रहा है कि यूक्रेन युद्ध और नेवलनी की मौत, ये दोनों अलग-अलग मुद्दे हैं? दोनों की एक ही कारण से ज़रूरत है। समझ रहे हो बात को? आपको क्या लग रहा है, उत्तर कोरिया जो पूरी दुनिया के सामने इतना सा है, पर वो पूरी दुनिया के सामने पहलवानी की कोशिश करता रहता है, वो ज़रूरी क्यों है? क्योंकि वहाँ की जनता के पास साधारण मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं हैं, कैसे हो पाएँगी? हज़ार तरह के तो सैंक्शन लगे हुए हैं।

आप अगर उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया को देखें तो कोई तुलना ही नहीं है उनमें मानव विकास के किसी भी सूचकांक में। वो उत्तर कोरिया के जो तानाशाह हैं वो सब तरह के तमाशे करते रहते हैं, ताकि जनता का मन इधर-उधर लगा रहे। नहीं तो जनता उन्हीं के खिलाफ़ विद्रोह कर देगी न। बात समझ में आ रही है?

मुझे गेमिंग इंडस्ट्री से कोई नहीं समस्या है। मुझे समस्या है झूठे अरमानों से, ऐसे सपनों से जो साकार हो नहीं सकते, ऐसे इरादों से जिनका कोई तथ्यगत आधार होता ही नहीं है। नहीं तो गेमिंग इंडस्ट्री क्या है जिसका आउटपुट गेम होता है। अच्छा होता है गेम, आइए हम-आप भी बैठकर खेल लेते हैं, गेम में क्या बुराई है! अभी ये सब बात होगी इसके बाद चले जाएँगे, बैठकर आधे धंटे गेम खेल लेंगे, कोई अपराध नहीं हो गया। पर मैं आप से बोलूँ कि गेम खेलकर के आपको स्वर्ग मिल जाएगा तो मैं अपराधी हूँ। जो चीज़ ऐसा कुछ दे नहीं सकती जिसका आप वादा कर रहे हो, वो वादा फिर अपराध हुआ न।

गेम गेम है और गेमिंग इंडस्ट्री का अपना एक आकार है, बहुत बड़ा आकार है। पर आप कहो कि भारतीय युवा गेमिंग इंडस्ट्री के दम पर रोज़गार पा जाएगा, तो बहुत बड़ी अतिश्योक्ति है ये। कुछ युवाओं को निश्चित रूप से मिल जाएगा, पर कितने? जो मैनपावर इंटेंसिव क्षेत्र होते हैं वो दूसरे होते हैं। वो कौन-से होते हैं? वो होते हैं एग्रीकल्चर एण्ड एलाइड इंडस्ट्रीज़, वो होते हैं मैन्यूफैक्चरिंग, ट्रांसपोर्टेशन। यहाँ पर थोक में रोज़गार निकलते हैं। सर्विसिज़ में नहीं निकलते बाबा!

आप सॉफ़्टवेयर-सॉफ़्टवेयर बोलते हो, कितने लोगों को सॉफ़्टवेयर में रोज़गार मिला हुआ है? हाँ, ठीक है, ऊँची वहाँ पर तनख्वाह वगैरह होती है पर लोग कितने वहाँ रोज़गार पा रहे हैं? रोज़गार के लिए तो जो टैंजिबल सेक्टर्स (मूर्त क्षेत्र) हैं, उनको ही मज़बूत करना पड़ेगा न। एक सॉफ़्टवेयर कंपनी होती है उसमें कितने लोग होते हैं? उसमें अगर दो-सौ लोग भी हैं तो आप कहते हो बड़ी हो रही है। और एक टेक्सटाइल्स की साधारण फ़ैक्टरी में भी चले जाओ तो वहाँ पर आपको चार-सौ लोग मिल जाएँगे। तो रोज़गार कहाँ जनेरेट हो रहा है? सॉफ़्टवेयर में थोड़े ही होगा!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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