एक ही तथ्य है और एक ही सत्य; दूसरे की कल्पना ही दुःख है || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

10 min
160 reads
एक ही तथ्य है और एक ही सत्य; दूसरे की कल्पना ही दुःख है || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: पिछले कुछ दिनों से अचानक विचारों की उथल-पुथल होने लगी है। मन में अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष सब भरे होते हैं। कृपया आप ही कुछ उपाय बताएं।

वक्ता : पहली बात तो यह कि आपको साफ़-साफ़ पता हो कि इन विचारों को कोई हक़ नहीं है होने का, और इनसे विपरीत विचारों को भी वास्तव में कोई हक नहीं है होने का। यह अगर आयें हैं, तो आपकी शांति को विस्थापित करके आये हैं। यह किसी और की ज़मीन पर खड़े हैं। यह किसी और के घर में घुसे हुए हैं। इन्होंने किसी ऐसी जगह पर कब्ज़ा किया है जो इनकी नहीं है। नाजायज़ है इनका होना। जिस मन में क्रोध , भय , हिंसा और यह सब चल रहा हो, उस मन में जो होना चाहिए था, उसको बलात् हटाया गया है। यह गलत है। यह होना नहीं चाहिए था।

लेकिन जब भी आप सोचेंगे कि आपका सोचना सार्थक है। आपको हक है सोचने का, कुछ भी सोचने का, तो आप उस विचार को और उसके विपरीत विचार को, दोनों को वैधता प्रदान कर देंगे। आपने कहा, “ठीक है, चलो तुम लोग आ जाओ। तुम्हारा होना जायज़ है, वैध है, उचित है; लैजिटिमेट (वैध) है।”

किसी भी विचार का होना लैजिटिमेट (वैध) नहीं है। किसी भी विचार का होना। किसी भी विचार का होना; परमात्मा के विचार का होना। जिसने परमात्मा के विचार को भी वैधता दी, तो साथ ही साथ शैतान का ख़याल भी करके ही मानेगा। क्योंकि विचार तो आते ही हमेशा जोड़े में है। उस जोड़े में से एक हिस्सा दिख रहा होता है और दूसरा छुपा होता है।

मन ऐसा हो कि उसमें जब भी ख़याल उठें, तो साथ ही साथ यह भाव भी उठे, एक और ख़याल भी उठे, कि ख़याल व्यर्थ हैं।

अगर आपको पाँच ख़याल चल रहे होते हैं न, तो छठा उसके साथ होता है।

छठा मालूम है क्या कह रहा होता है?

कि यह जो पाँच हैं, यह महत्वपूर्ण हैं।

इस छठे पर चोट करनी ज़रूरी है।

इस छठे पर चोट करने के लिए आपको एक सातवाँ लाना पड़ेगा, क्योंकि सोच के अलावा कुछ है नहीं। आप तो सोचने के ही अभ्यस्त हो।

पाँच ख्याल अपने आप टिक नहीं सकते जबतक कि उन्हें छठे का संबल न मिला हो।

छठा कहता है कि “यह पाँचों ज़रूरी हैं।”

इस छठे को गिरा दो।

अपने आप को साफ़-साफ़ बता दो कि कोई भी ख़याल ज़रूरी है नहीं।

कोई भी मुद्दा इतना ज़रूरी नहीं है कि वो तुम्हारे मन पर छा जाए।

समझ में आ रही है बात?

यह वो तरीका है, जो विचार पर आश्रित है। विचार आ ही रहे हैं, आ ही रहे हैं और मन में घूम ही रहे हैं, तो तुम एक विचार और कर लो कि जितने विचार हैं यह सब व्यर्थ हैं। यह विचारों को काटने का तरीका है विचार के माध्यम से।

और एक दूसरा तरीका भी है।

दूसरा तरीका यह है कि मन ऐसा रखो कि उसमें ख़्यालों के लिए कोई जगह ही न रहे। मन में ख़याल तब उमड़ते-गुमड़ते हैं, जब मन में उनके लिए जगह रहे। और मन में विचारों के लिए जगह तभी बनती है जब मन में ‘उसके’ लिए जगह नहीं रहती जिसको मन में होना ही चाहिए। पर ऐसे तुम हो नहीं। ऐसा तुम्हें होना पड़ेगा। अपने ऐसे होने को तुम्हें वापस पाना पड़ेगा। तो जब भी तुम देखो कि ऐसी स्थितियाँ पैदा हो रही हैं कि कुछ भी नहीं है, और मन ऐसा है कि कुछ करने को आतुर हो रहा है, तो तुरंत मन को कुछ ऐसा दो जो उसे सद दिशा में ले जाए।

तुम्हें मालूम है, तुम गाड़ी में बैठते हो, गाड़ी चलाते हो, तो तुम्हारी सारी वृत्तियाँ उभर कर आने लग जाती हैं। तुम्हारे भीतर की सारी हिंसा, सारा द्वेष, सारी आक्रामकता बाहर आने लग जाती है।

इससे पहले कि मन में वो सारी वृत्तियाँ और वो सारे विचार उठें, अपना सर उठायें और बल पायें, तुम मन को परमात्मा से भर दो। इससे पहले कि कचरा आये और कमरे को दुर्गन्ध से भर दे, तुम कमरे में पूजा करके, धूप जला दो, सुगंध से भर दो। याद रखना, सुगंध इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि सुगंध का अपने आप में कोई महत्त्व है। मैं सुगंध की वकालत सिर्फ़ इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि जिस कमरे में पूजा-अर्चना हो रही होती है, अगरबत्ती जल रही होती है, वहाँ पर कोई कचरा फेंकने आता नहीं है।

अगर तुम्हारा मन ऐसा है कि उसमें कोई कचरा फेंकने नहीं आता, तो तुम्हें किसी पूजा की और किसी धूप, अगरबत्ती की ज़रुरत नहीं है। लेकिन तुम्हारा मन ऐसा है नहीं। तो तुम ऐसे मन को, जो आकुल ही रहता है कि उसे कुछ भरे, परमात्मा से भर दो। जो मन सहज शांत रहता हो, उसे मैं कुछ करने को नहीं कहूँगा, क्योंकि हर प्रकार का करना, है तो बेचैनी ही। तो जो ऐसा हो गया हो कि अब बिलकुल स्थिर है, ठहरा हुआ, उसे मैं बिलकुल सलाह नहीं दूँगा कि तुम कुछ भी करो। पर करना जिसकी बीमारी हो, उसे मैं कहूँगा कि “करो न। तुम पढ़ो। तुम सेवा करो। तुम यह करो। और तुम वो करो।”

जिसे अभी करने का ही चस्का लगा हो, वो सावधानीपूर्वक चुने कि वो क्या कर रहा है। वो होशपूर्वक चुने कि उसे क्या करना है। क्योंकि वो अभी यह चयन तो कर ही नहीं पायेगा कि उसे कुछ नहीं चुनना है, कुछ नहीं करना है। उसके तो सारे चुनाव करने के ही क्षेत्र में होंगे। वो तो कहेगा, “यह करना है, नहीं तो यह करना है।” और जब तुम्हें कुछ न कुछ करना ही है, तो तुम कुछ ऐसा करो, जो तुम्हें सत्य की याद दिलाता हो। जो तुम्हें मुक्ति के करीब ले जाता हो। खाली मत रहने दो अपने आप को।

दो बातें तुमसे कहीं-

१. विचार-केंद्रित।

२. कर्म-केंद्रित।

पहली बात यह कही कि जब उलटे-पुलटे ख़याल आ रहे हों, तो जैसे उन ख़यालों की आदत डाली है, वैसे ही एक आदत यह भी डाल लो कि सारे ख़यालों के साथ एक ख़याल यह भी उठे कि सारे ख़याल व्यर्थ हैं। और दूसरी बात मैंने यह कही कि जब भी दिखाई दे कि मन अब खाली हो रहा है, और अब इसमें ईर्षा, क्रोध और यह सब घूमने लगेंगे। तत् क्षण सतर्क हो जाओ कि हमला होने वाला है। और हमला हो, इससे पहले मैं मन की रक्षा तैयार कर लूँ कि मेरी कुर्सी पर आकार कोई बैठने ही वाला है। इससे पहले कोई और आकर मेरी कुर्सी पर बैठे, मैं खुद इस पर बैठ जाऊँ।

तुम्हारी वृत्ति इससे उलटी बैठेगी।

जब ईर्ष्या का, और क्रोध का, आक्रमण होने वाला होगा, तो तुम्हें बिलकुल इच्छा नहीं करेगी कि कुछ ऐसा करूँ कि जो तुम्हें शान्ति की ओर ले जाता हो। वही मौक़ा है सतर्क रहने का, और चूकने का। असल में अपनी मुक्ति के लिए अपने ख़िलाफ़ जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। जो अपने ख़िलाफ़ नहीं जा सकता, वो मुक्ति को भूल ही जाये। बात थोड़ी विचित्र सी है। अपने को पाने के लिए, अपने ही विरुद्ध जाना पड़ता है। और है ऐसा ही।

श्रोता १ : अपने से अलग होने में और अपने विरुद्ध होने में क्या फ़र्क है?

वक्ता : बहुत फ़र्क है। इसको तुम ऐसे पढ़ लो कि-

आत्मा को पाने के लिए अहंकार के विरुद्ध जाना पड़ता है।

श्रोता २ : जैसे आपने अभी बोला कि आत्मा को पाने के लिए अहंकार के विरुद्ध जाना पड़ता है, तो एक रेज़िस्टेंस (प्रतिरोध) तो बना रहेगा। और एक समय के बाद ऐसा होता है कि हम हार जाते हैं। तब हम बात करते हैं कि “दिस इज़ इट ” (तथाता)। मैं इस बात को ठीक से समझ नहीं पाया। कृपया सहायता करें।

वक्ता : मैंने तुमसे कब कहा कि “*दिस इज़ इट “*, तथाता- जो भी है, यही है। मैंने तुमसे कब कहा कि “दिस इज इट ” नींद की गोली है, जो तुम्हें विश्राम दे देगी? मैं तुमसे कह रहा हूँ कि “दिस इज़ इट “ तलवार है, जिससे तुम्हें मन की बीमारियों से लड़ना है। तुम्हें यह क्यों लग गया कि “दिस इज़ इट “ जादुई गोली है, जो तुम्हारी सारी समस्याओं का इलाज कर देगी? समस्याओं का इलाज कोई वक्तव्य नहीं कर सकता।

जो तुमने कूड़ा-कचरा इकट्ठा करा हुआ है, वो “दिस इज़ इट “ बोलने भर से ख़त्म नहीं हो जाएगा। उसकी तो तुम्हें सफाई करनी पड़ेगी। “दिस इज़ इट ” वो झाड़ू है जिससे तुम सफ़ाई कर सकते हो। जब माया तुम पर आक्रमण करेगी तो “दिस इज़ इट “ वो कवच है, जो तुम्हारी रक्षा करेगा। पर आक्रमण तो होगा और युद्ध भी होगा और हिंसा भी होगी और बेचैनी भी रहेगी। हिंसा, युद्ध, बेचैनी, यह सब तो कर्मफल हैं तुम्हारे। तुम्हें इससे गुज़रना पड़ेगा। इतना आसान होता अगर अतीत से और संचित कर्मों से मुक्त हो जाना, तो कोई भी आकर सत्संग में और प्रवचन में बैठ जाता और मुक्ति पा लेता।

सत्संग में और प्रवचन में बैठकर तुम्हें तुम्हारे अतीत से मुक्ति नहीं मिल जाती। हाँ, तुम्हें शक्ति ज़रूर मिल जाती है कि अब जब तुम पर नए आक्रमण हों, तो तुम उन्हें झेल सको। समझ में आ रही है बात? जब मैं तुमसे कहता हूँ “यही है”, फिर क्यों भविष्य की कल्पना करते हो? तो मेरा यह कहना क्या तुम तक पूरी तरह पहुँच रहा है अभी? अभी नहीं पहुँच रहा है। पर हाँ तुम्हें सहारा मिल रहा है। मैं सहारा दे रहा हूँ। इसका इस्तमाल करो। और यह ऐसा सहारा है कि इसका जितना ज़्यादा इस्तमाल करोगे, उतनी इसकी कम ज़रुरत पड़ेगी।

जितना ज़्यादा यह बोलना सीखोगे कि “दिस इज़ इट “ , उतना तुम पाते जाओगे कि अब यह बोलने की आवश्यकता कम पड़ती है क्योंकि तुम्हारे ऊपर जो आक्रमण होते थे, वो मंद होते जायेंगे।

बात समझ में आ रही है?

दवाई और बीमारी हमेशा साथ-साथ चलते हैं। जहाँ बीमारी नहीं है, वहाँ दवाई भी नहीं है। पर मैं तुम्हें दवाई दे रहा हूँ, तो इसका मतलब यह नहीं है कि तुम कहो कि स्वास्थ्य कहाँ गया? स्वास्थ्य का तो पता नहीं, पर अगर दवाई दी जा रही है, तो बीमारी का होना पक्का है। और दवाई के नाम भर लेने से बीमारी चली नहीं जाती।

बीमारी तुमने इकट्ठा करी है, दवाई उसे काटेगी। जैसे इकट्ठा करा है समय लगाकर के, वैसे ही वो जायेगी समय लगाकर के, अगर तुम्हारी इच्छा हो। अगर इच्छा हो तुम्हारी। जितनी लड़ाईयाँ तुम्हें लड़नी हैं, वो तुम्हें लड़नी पड़ेंगी। कोई यह न सोचे कि उसने जो भी कुछ कर्मफल इकट्ठा किया है, वो यूँ ही हट जाएगा। जो तुमने इकट्ठा किया है, वो तो तुम ही धोओगे।

हाँ, यह है कि ज्ञान रहेगा, बोध रहेगा, तो धोने में सुविधा रहेगी, धोने में शक्ति रहेगी, और धोने में कष्ट ज़रा कम होगा। धोना तुम्हें ही पड़ेगा।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories