प्रश्नकर्ता: आचार्य जी! मेरा सवाल रिलेशनशिप्स (सम्बन्धों) को लेकर है और शादी को लेकर है और मतलब सम्बन्धों को लेकर के बहुत कनफ्यूज़ हो गया हूँ लाइफ़ में। पहले एक अभी रिलेशनशिप में था, कई सालों से। उसमें एक-दूसरे की हम मदद भी करते थे बहुत जो एक ज़िन्दगी को बेहतर बनाने वाली चीज़ होती है। लेकिन कॉन्फ्लिक्ट (झगड़ा) भी बहुत ज़्यादा रहता था। और अब ये चीज़ लगती है क्योंकि अब मेरी जो ऐज है इसपर मुझे थोड़ा प्रेशर भी फ़ील होता है। और जिस साथी के साथ था उसकी तरफ़ से भी प्रेशर फ़ील होता है कुछ डिसीज़न लेने का। और अब क्योंकि मैं पिछले दो सालों से अपनी लाइफ़ को लेकर के बहुत मतलब डेडिकेटेड (समर्पित) हो गया हूँ कि मेरे जो-जो भी मुझे कष्ट लगते हैं वो मुझे हटाने हैं। तो अब मुझे लगता है कि अगर कोई भी व्यक्ति बहुत ईमानदारी से अपने कष्टों पर काम करेगा तो उसको जो चैलेंजेज़ उस समय फ़ेस करने हैं वो दूसरे व्यक्ति से काफ़ी अलग हो सकते हैं। और शादी के रिश्ते का मतलब, जो हमारी सोसाइटी में एक कॉन्ट्रैक्ट (अनुबंध) है, जीवन भर का साथ है, कुछ उस कॉन्ट्रैक्ट में एक्सपेक्टेशन्स (अपेक्षाएँ) हैं। तो दोस्तों में भी देखी है ये चीज़ जैसे एक और दोस्त है मेरा वो भी अपनी लाइफ़ के लिए बहुत डेडिकेटेड है, प्रयत्न कर रहा है। तो ऐसा लगता है कि बस कुछ एक स्टेशन के साथी हैं। जैसे हमारा एक स्टेशन मिला, उसमें हमने किसी की मदद की और मैंने उसकी करी। लेकिन उसके बाद दोनों की दिशाएँ ये कोई गारंटी नहीं है कि वो सिंक करेंगी पूरी ज़िन्दगी। तो ये समझ में नहीं आता कि ये शादी का निर्णय कैसे लूँ? किसी की लाइफ़ तो नहीं खराब कर दूँगा अपने साथ में? और वो जो सिंकिंग है, वो कहीं बन्धन तो नहीं बन जाएगा? इस तरीके के सवाल मन में आते हैं।
आचार्य प्रशांत: कोई एमबीबीएस फ़र्स्ट ईयर में हो। और आकर सवाल करे कि मैं बहुत कशमकश में रहता हूँ कि मरीज़ों को ठीक कैसे करना है, मेरा कोई मरीज़ बिगड़ तो नहीं जाएगा, किसी की मेरे हाथों मौत न हो जाए? और मैं बहुत परेशान रहता हूँ यही सोच-सोच कर कि मरीज़ों को ठीक कैसे करना है। मेरा सारा समय अभी ऊर्जा है यही सोचने में जा रही है कि मरीज़ों को किस तरीके से मैं ठीक रखूँ।
एमबीबीएस फ़र्स्ट ईयर का है, अभी-अभी कॉलेज में इसका दाखिला हुआ है। तो क्या कहेंगे आप इससे? क्या कहेंगे? बेटा आप मरीज़ों को अभी भूल जाओ न कुछ समय तक। मरीज़ों का इलाज तो तुम तब करोगे न, जब डॉक्टर बन जाओगे।
तुम्हारी ऊर्जा तो भी डॉक्टर बनने में जानी चाहिए। तुम्हें अगर मरीज़ों की फिक्र है भी तो मरीज़ों के प्रति तुम जो अच्छे-से-अच्छा काम कर सकते हो वो ये है कि अभी तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो। तुम अभी डॉक्टर बने नहीं, तुमने मरीज़ हाथ में ले क्यों लिए? तुम अभी डॉक्टर बने नहीं हो। तुम अभी आदमी की हस्ती को समझते नहीं हो तो तुमने मरीज़ ले क्यों लिए अपने हाथ में?
मरीज़ ले लिए हैं अपने हाथ में, अब कह रहे हो कि मुझे लगता है कि कहीं मेरी वजह से मरीज़ों की ज़िन्दगी न बर्बाद हो जाए। होगी ही बर्बाद। क्या अभी तुममें योग्यता थी मरीज़ हाथ में लेने की, तुमने मरीज़ स्वीकार क्यों किए?
पर ये हम सबको बड़ा अच्छा लगता है, क्या? कोई योग्यता हो, न हो मरीज़ हाथ में ले लो। सबको प्रेमी बन जाना है जल्दी से। प्रेमी बनने का अर्थ एक तरीके से होता है चिकित्सक बनना। जिससे प्रेम करते हो न, उसके सुधार और स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी आ जाती है तुम्हारे ऊपर। तुमने चिकित्सा शास्त्र पढ लिया है? तुमने कोई योग्यता अर्जित कर ली है? अगर नहीं कर ली है, तो तुम हाथ में मरीज़ क्यों ले रहे हो? तुम तो उसकी ज़िन्दगी खराब करोगे-ही-करोगे। फिर होता यही है।
एमबीबीएस पूरी करने में तो पाँच साल लग जाते हैं। और आगे की पढ़ाई करो तो पाँच साल और लग जाते हैं। और मरीज़ हाथ में लेना हम शुरू कर देते हैं चौदह की उम्र से। मैंने सुना है आजकल आठ की उम्र से । शी इज़ माई गर्ल (वो मेरी प्रेमिका है)। तुतला के बोल रहा है, ‘थी इज़ माई दल’। घर जाता है तो उसको अभी शर्ट बटन खोल करके उतारने नहीं आती है, वो मम्मी करती है। रातों को अभी भी बिस्तर गीला कर देता है। सुबह पापा उसको उठा करके बस में ऐसे (इंगित करते हुए) चढ़ाने आते हैं। पर आशिकी परवान चढ़ी हुई है। कुछ और नहीं आता ज़िन्दगी में, प्यार आता है।
मनोज कुमार ने गाना गाया था। हमने उसको कुछ ज़्यादा ही गम्भीरता से ले लिया।
"है प्रीत जहाँ की रीत सदा, मैं गीत वहाँ के गाता हूँ। भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ।"
उसमें एक पंक्ति थी -
"कुछ और न आता हो हमको, हमें प्यार निभाना आता है।"
तो भारत के सारे जवान लोगों का अब यही नारा है। कुछ और न आता हो हमको, हमें प्यार निभाना आता है। ये ही कर रहे हैं। बिलकुल उन्हें कुछ और आता ही नहीं है, ये बात तो पक्की है। कुछ नहीं आता होगा, प्यार सबको आता है। व्यक्तिगत रूप से मत लेना, तुम पर चोट का करने कोई इरादा नहीं है।
प्रेम हल्की बात नहीं होती है भाई! ऐसे ही थोड़ी है कि हाय-हेलो, हाय-हेलो। बहुत नाजुक चीज़ होती है। जैसे मेडिसिन में सर्जरी, करनी भी ज़रूरी होती है नहीं तो वो मरेगा। सर्जरी बहुत ज़रूरी है नहीं तो मरेगा। पर अगर करनी नहीं आती तो सर्जरी में ही मर जाएगा। ये भी नहीं कह सकते कि सर्जरी नहीं करेंगे।
तो प्यार ज़रूरी भी है क्योंकि प्यार नहीं करोगे तो मरेगा जैसे सर्जरी नहीं करोगे तो मरेगा। पर प्यार अगर गलत कर दिया, तो गलत प्यार में ही मर जायेगा जैसे गलत सर्जरी में मर जाते हैं। तो प्यार किसी बहुत किसी कुशल सर्जन के ही बूते की बात है। सब लोग उसमें हाथ न डाल दिया करें। हत्या जैसा अपराध है।
तुम्हें सर्जरी नहीं आती और सर्जरी करने लग जाओ, ये कैसा अपराध है? हत्या की बात हुई कि नहीं हुई? वैसे ही, तुम्हें अपना कुछ पता नहीं, तुम्हें जीवन का कुछ पता नहीं और तुम दूसरे के साथ प्रेम का या विवाह का सम्बन्ध बना लो, ये हत्या जैसा ही अपराध है।
सौदा खरीदने जैसी चीज़ थोड़ी ही है या आधारकार्ड बनवाने जैसी चीज़ थोड़ी ही है, कि बस बनवा लिया, क्या फ़र्क पड़ता है? गए एक दिन फ़ोटो खिंचाई,हो गया। वैसे ही तुम्हें लगता है, गए एक दिन शादी कर ली, हो गया। प्यार ऐसी चीज़ है, जिस से बच भी नहीं सकते लेकिन अगर बिना पात्रता के करा, तो फिर तुम्हें कोई बचा भी नहीं सकता। करना तो पड़ेगा ही लेकिन अगर बिना तैयारी के करा, बिना अधिकार के करा, बिना समझ-बूझ कर करा, तो फिर वो प्यार नहीं है, वो अत्याचार है।
प्राकृतिक आकर्षण को प्यार नहीं कहते हैं। किसी की आवाज़ अच्छी लग गई, आँखों के देखने पर कोई भा गया, इसलिए उसकी ओर खिंचे चले गए, इस देहगत खिचाव को प्यार नहीं कहते भाई! प्यार एक पूरे तरीके से आध्यात्मिक चीज़ है। और जिन लोगों का अध्यात्म से कोई ताल्लुक नहीं, उन्हें बुरा लगेगा पर मुझे कहना पड़ेगा कि वो प्यार के लायक ही नहीं है, उन्हें प्यार का हक ही नहीं है।
बहुत लोगों को ये बात बड़ी विचित्र लगेगी, कहेंगे— ‘प्यार पर तो सबका हक होता है न, प्यार के लिए कोई डिग्री थोड़ी चाहिए?’ जी नहीं साहब! प्यार के लिए बड़ी-से-बड़ी डिग्री चाहिए। किसी सांसारिक यूनिवर्सिटी की डिग्री नहीं चाहिए। संसार की यूनिवर्सिटी की डिग्री तो फिर भी हो सकता है कि तुमको फ़रेब से मिल जाए, नकल से मिल जाए, रट कर मिल जाए।
प्रेम के लिए तुम्हें जिस यूनिवर्सिटी की डिग्री चाहिए वो बहुत ऊँची यूनिवर्सिटी है और बहुत मेहनत से वो डिग्री अर्जित करनी पड़ती है। उसके बाद तुम अधिकारी होते हो प्रेम के कि अब कर सकते हो। ऐसे थोड़ी है कि किसी को कोहनी मार दी, किसी को आँख मार दी, प्यार हो गया। फिर कल्दी से कूद कर शादी भी कर ली कि देखो अब तो शादी की उम्र आ रही है न तो शादी भी कर लेनी चाहिए, लेट्स फार्मलाइज़ आवर रिलेशनशिप (आइए अपने रिश्ते को औपचारिक बनाएँ)।
और शादी हो गई है तो बच्चे भी निकल ही आएँगे, वो भी आ गए। जैसे कोई बेहोश आदमी उल्टियाँ कर रहा हो नशे में, ऐसे तुम्हारे बच्चे पैदा होते हैं। आप बेहोश भी हो गए हों तो भी शरीर से पदार्थ तो बाहर आ ही सकता है न? वैसे ही पति-पत्नी दोनों बेहोश हैं। ऐसे ही बेहोशी में उनके शरीर से पदार्थ बाहर आ रहे हैं, उन पदार्थों का नाम है, ‘बच्चे’।
कल्पना कर लो न। एक शराबी खूब अपना पिए हुए है। नशे में धुत्त वो उल्टियाँ कर रहा है, ये सन्तान उत्पति का कार्यक्रम है। और जब होश आता है तो देखता है अपने चारों ओर तो गन्दगी-ही-गन्दगी है और दुर्गन्ध-ही-दुर्गन्ध ।
ऐसा हमारा जीवन है। दूसरे के जीवन में हस्तक्षेप करने से बचो। बहुत सावधानी से, बहुत-बहुत सावधानी से। और अगर बहुत तुमको भीतर भावना उठ रही है कि नहीं सामने वाला बहुत दुर्दशा में है, मुझे कुछ करना चाहिए उसके लिए तो तैयारी करो न।
डूबते हुए को डूब कर थोड़ी ही बचाते हैं? बहुत अगर भावना उठ रही है कि कोई डूब रहा है तो ये थोड़ी करोगे कि तुम भी जा करके डूब गए? हो सकता है वो बेचारा खुद बच जाता लेकिन तुमने ऐसी छलाँग मारी उसके ऊपर कि वो तुम्हारे ही बोझ तले डूब गया।
दूसरे के जीवन में सहारा बनकर उतरने से ऊँचा कोई काम हो नहीं सकता और दूसरे के जीवन में अनाधिकृत हस्तक्षेप करना, इससे घटिया कोई काम हो नहीं सकता। कि किसी की ज़िन्दगी चलो ठीक थी, परेशान थी या जैसी भी थी, एक औसत, साधारण ज़िन्दगी चल रही थी, पर चल रही थी और तुम उसी ज़िन्दगी में आशिक बन कर घुस गए। और फिर तुमने जो वहाँ पर भूचाल उठाए, सुनामियाँ उठाईं कि जो थोड़ा बहुत चैन किसी के जीवन में था भी, वो भी तुमने लूट मारा। यही होता है कि नहीं होता है?
प्रश्नकर्ता: मेरे साथ तो यही हुआ है।
आचार्य प्रशांत: सबके साथ यही होता है बेटा, आपकी अकेले की कहानी थोड़ी ही है? आप प्रतिनिधि मात्र हो एक बड़े समूह के। अभी मैं पढ़ रहा था महिलाओं के दुनिया में जितने भी कत्ल होते हैं, उसमें से अड़तीस प्रतिशत उनके अपने परिवार वाले करते हैं ज़्यादातर उनके प्रेमी, आशिक, पति लोग और इन प्रेमियों ने उनके जीवन में क्या बोलकर प्रवेश किया होता है?
मैं बहार लेकर आऊँगा। जानेमन! मैं तुम्हारे जीवन को सवाँर दूँगा। अभी पतझड़ है, मैं तुम्हें बहार दूँगा। और बहार की जगह (इशारे से समझाते हुए) इतना बड़ा खंजर अन्दर। कल्पना कर सकते हो? दुनिया भर में महिलाओं के जितने कत्ल होते हैं, उसमें से अड़तीस प्रतिशत कौन करते हैं? उनके अपने परिवार के लोग जिसमें ज़्यादातर पतिदेव हैं या प्रेमी देव हैं। ये सर्जरी हो रही है खंजर से।
प्र: आचार्य जी! आपने एक जगह बोला है कि सबसे अच्छा तो सम्बन्ध ये है कि कोई तुम्हें ये ऐसा मिल जाए जो तुम्हें समझाए कि तुम पूर्ण ही हो। और अगर
आचार्य: नहीं। ये समझाए पूर्ण ही है, कैसे समझा देगा पूर्ण ही हो? वो अपूर्ण है, तुम उसे पूर्ण क्यों बता रहे हो? ये तो एसी सी बात है कि नकली के डब्बे पर तुमने असली का लेबल लगा दिया। नकली एक, एक डब्बा है, उसमें सब नकली सामग्री भरी है। तो तुम्हारा काम क्या है? उस डब्बे को खाली करना या उस पर असली का लेबल चिपका देना? पर खाली करना मेहनत का काम होता है और उसमें कष्ट भी होता है।
खाली करने का मतलब समझ रहे हो न? कि सामने वाला जिन चीज़ों से भरा हुआ है उसका डब्बा जिन चीज़ों से भरा हुआ है उन चीज़ों को बाहर उडेलना। ये मेहनत का काम होता है ये कौन करे? तो इससे अच्छा ये है कि उसको बोल दो तुम तो पूर्ण ही हो।
प्रेमी हो कि गुरु हो, सबका भी इसी में काम चलता है। जो जिस हालत में हो उसको बोल दो यू आर परफेक्ट ऐज़ यू आर (आप जैसे हैं वैसे ही परिपूर्ण हैं)। और लव मींस एक्सेप्टिंग सोमवन ऐज़ ही और शी इज़ (प्यार का मतलब है किसी को वैसे ही स्वीकार करना जैसे वो है)। व्हाट इफ द फेलो इज़ फुल ऑफ शिट् (क्या हुआ अगर बन्दा गन्दगी से भरा है)? तुम उसको साफ़ करोगे या उसको जैसा है वैसे ही तुम कह दोगे कि तुम तो पूर्ण ही हो।
प्र: मैं शब्द गलत इस्तेमाल कर गया। मेरा कहने का मतलब ये था कि अगर आपको कोई रोशनी की तरफ़ ले जाने वाला, मतलब आपने एक जगह बोला है कि जब हमें, हम किसी को रोशनी या तो रिश्ता ऐसा हो कि आप किसी को रोशनी की ओर ले जा रहे हो या वो आपको ले जा रहा है या आप दोनों ले जा रहे हो अब इसमें एक बहाना ये भी होता है कि भाई! जब हमें ही खुद नहीं पता रोशनी का, परमात्मा का तो पूरा इन्तज़ार भी करते रहें। अब बत्तीस की मेरी ऐज हो गई है। तो वो कैसे पता करें बैलेंस कि अब मैं किसी को बोल सकता हूँ कि चल मुझे भी पूरा नहीं पता है तुझे भी नहीं पता है तो हम कोशिश करते हैं।
आचार्य: वो बहुत सावधानी का काम होता है। तुम्हें भी नहीं पता, उसको भी नहीं पता, तो तुम फिर उसके पथ-प्रदर्शक, गाइड नहीं बन सकते। बात समझ में आ रही है? तुम फिर दोनों ऐसे बन सकते हो कि हम दोनों बीमार है और हम दोनों को डॉक्टर खोजना है। तुम डॉक्टर नहीं बन सकते।
ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। शहर में दो घूम रहे थे, दोनों बीमार थे, चलो दोनों ने एक-दूसरे से मित्रता कर ली। और उस मित्रता का उद्देश्य क्या है? कि तुम भी बीमार हो, हम भी बीमार हैं, दोनों को ही चिकित्सक चाहिए। दोनों ज़रा साथ में चिकित्सक खोजेंगे तो शायद जल्दी मिल जाए चिकित्सक। ये एक बात होती है।
और दूसरी बात क्या होती है? दो रोगी मिले और दोनों एक दूसरे के चिकित्सक बन गए। ये बिलकुल ही दूसरी बात है। प्रेमी-प्रेमिकाओं में यही होता है। वो तुम्हारी चिकित्सा कर रहा है, तुम उसकी चिकित्सा कर रहे हो। मेरा सोना नाराज़ है, मैं उसको ठीक कर दूँगा। कभी ऐसा होता है कि सोना बाबू नाराज़ है तो तुम कहते हो चल, गीता पढ़।
मैं थोड़ी तुझे ठीक कर सकता हूँ तुझे तो कृष्ण ठीक करेंगे, चल गीता पढ़। नहीं, वो तो नाराज़ होता है, तुम तुरन्त उसको कहते हो ला अपना सर मेरी गोद पर रख दे। तुम्हारी गोद में ऐसा क्या है कि सोना बाबू ठीक हो जाएगा भाई? तुम्हारी गोद में दवाइयाँ है? कोई तुमको मरीज़ मिले और तुम उससे कहो आजा-आजा मेरी गोद में लेट जा, तो वो ठीक हो जाएगा?
एम्बुलेंस बुलाने की जगह तुम उसे अपनी गोद में लिटा रहे हो। दुश्मन हो? लेकिन सोचकर देखना कभी ऐसा हुआ है कि तुम्हारा सोना बाबू तुम्हें दिखाई पड़ रहा है कि एकदम उसका अभी तार ढीला है, अंजर-पंजर, पेंच-पुर्जे सब एकदम हिले हुए हैं अभी और तुमने कहा हो कि तुझे उपनिषदों की ज़रूरत है अभी। तुझे मेरी नहीं जरूरत है, तुझे उपनिषदों की ज़रूरत है।
अगर तू ये सब बोलेगा भी मेरे पास आ जाओ, तो मैं तेरे पास उपनिशद लेकर आऊँगा। तू भले ही मुझसे इस वक्त बोल रहा हो कि नहीं, नहीं, नहीं आई नीड यू (मुझे तुम्हारी जरूरत है)। मेरे पास आ जाओ। मेरे पास आ जाओ। तो ठीक है, मैं तुम्हारे पास आ जाता हूँ, उपनिशद लेकर आता हूँ। ऐसा करा कभी? ऐसा तो नहीं करते। फिर तो तुम और पहुँच जाते हो ज़ोर से। यही मौका है, आज सोना बाबू ने खुद ही बुला लिया है। बढ़िया मौका है।
तो ये विनम्रता होनी चाहिए। क्या? कि हाँ! हम दोनों मरीज़ हैं और हमारे साथ का उद्देश्य बस यही है कि अगर साथ रहेंगे तो शायद, चिकित्सक ज़्यादा आसानी से, जल्दी खोज लेंगे। हमारे साथ का उद्देश्य ये नहीं है कि अब चिकित्सक की ज़रूरत ही नहीं।
पहले तो तुम भी कुछ खोज रहे थे, हम भी कुछ खोज रहे थे और हम दोनों अब साथ हो लिए तो दोनो की खोज बन्द हो गई। यही होता है कि नहीं होता है, बोलो? लोग आते हैं कहते हैं ऐसे ही आयेंगे, उनकी अब उमर हो रही होगी चालीस-पचास साल की, आचार्य जी! आपकी बातें सुनते हैं तो वो आज कृष्णमूर्ति साहब की याद आ गई। शादी से पहले मैं पढ़ा करता था उनको काफ़ी और एक बार तो मैंने उनका टॉक हुआ था वो अटेंड भी करा भी था शादी से पहले। जब दो-तीन बार बोल लेंगे कि शादी से पहले पढ़ता था, में कहता हूँ मतलब आज से कितने साल पहले? वो पच्चीस साल पहले करीब, अभी पचास करीब मेरी उम्र हो रही है।
शादी के बाद तुम पर निरक्षरता छा गयी क्या? पढना लिखना सब भूल गए? इतना क्या अब तुम आहें ले, भर-भर कर बता रहे हो कि शादी से पहले कृष्णमूर्ति साहब से मिला था। एक बार उनको पढ़ा करता था। आचार्य जी आप को देखकर आज उनकी याद आ गई। शादी के बाद क्या हो गया? यही हो गया। अब तो पत्नी श्री ही तुम्हारी चिकित्सक हैं। तो अब कृष्णमूर्ति की ज़रूरत ही नहीं। ये कौन सी पत्नी है जो तुम्हारे जीवन में आई और कृष्णमूर्ति को बाहर कर दिया? और यही काम पति देव भी करते हैं। बराबर का मामला है।
पढ़ने-लिखने वाली अगर मिल गई उनको प्रेमिका या पत्नी तो इससे ज़्यादा दुखद समाचार हो ही नहीं सकता क्योंकि अगर पढ़ेगी, लिखेगी, थोड़ी समझदार होगी तो पति के साथ बेवकूफ़ियों में छलाँग नहीं मारेगी न। बड़े दुख की बात है। यही काम माँ-बाप बच्चों के साथ करते हैं। हम बताएएँगे न, हम तुम्हारे चिकित्सक हैं।
ये ज़िन्दगी में किसी काम के नहीं, वो तो प्रकृति का खेल कुछ ऐसा है कि कोई बिलकुल नाकारा आदमी भी हो तो भी वो बाप बन सकता है। कोई एकदम औसत से गिरी हुई स्त्री भी हो वो भी माँ बन जाएगी। सड़कों पर देखो न सब जीव-जन्तु बच्चे पैदा करे हुए हैं। मच्छरों तक ने अंडे दे रखे हैं सड़े हुए पानी में। तो सब माँ-बाप बन जाते हैं।
वो जो माँ-बाप बन जाते हैं, ये अपने बच्चों के फिर चिकित्सक बन जाते हैं। ये उनको ज्ञान दे रहे हैं बच्चों को। तुम हो इस लायक कि अपने बच्चों को ज्ञान दोगे? पर तुम्हारी पूरे ज़माने में कोई सुनता न हो, अपने लड़के पर चढ़ने के लिए तुम बड़े उस्ताद हो। एक दम सर पर चढ़ जाओगे अपने लड़के के और लड़की के भी।
हमें क्या बता रहे हो? हम बता रहे हैं न तुम को। वैसे करो। ऐसे जीना चाहिए, देखो ये ठीक है ये गलत है। तुम्हें अपनी ज़िन्दगी में कभी पता चला क्या सही है, क्या गलत है? तुम अपने बच्चे के ऊपर चढ़ गए हो, उसको बताने लग गए क्या सही,क्या गलत।
कमेंट (टिप्पणी) आते हैं। लोग लिख-लिखकर के अलग से सन्देश भेजते हैं। कोई फ़ोन पर बता रहा है, कोई व्हाट्सएप भेज रहा है कि मेरे पिताजी ने मुझसे कहा है कि मैं ज़हर खाकर जान दे दूँगा अगर तू इस लुच्चे प्रशांत को सुनता नज़र आया दोबारा तो। तो अब मैं आपको छुप-छुप कर सुनता हूँ।
धन्य है वो समाज, धन्य है वो युग जहाँ तुम्हें मुझे चोरी से सुनना पड़ता है। और चोरी तुम खुले आम कर सकते हो। चोरी तुम धड़ल्ले से कर सकते हो। लेकिन सच तुमको चोरी से सुनना पड़ता है। किस की करतूत है ये? पिताश्री, जो चिकित्सक बन कर बैठ गए हैं। जो खुद दुनिया के सबसे घनघोर मरीज़ है और बन बैठे हैं चिकित्सक। अपने लड़के के ऊपर सर पर चढ़ के। क्यों? क्योंकि लड़का अभी उन पर आश्रित है। आर्थिक रूप से आश्रित है, भौतिक रूप से आश्रित है तो उसके ऊपर चढ़े बैठे हैं।
ये तो छोड़ दो कि हम अपने साथी को सच की ओर या रोशनी की ओर ले जाना चाहते हैं। वो जा भी रहा हो तो हम उसके सामने खड़े हो जाते हैं कि खबरदार! तू उधर गया तो। पहले मेरा पति मेरे साथ कितना खुश रहता था। मेरी सारी माँगे पूरी करता था लेकिन जब से उसने इस आचार्य को सुनना शुरू किया है तब से वो गम्भी, हो गया है। आग लगे इसको। जल्दी से जल्दी मेरे ये आचार्य।
अपनेआप को काबू में रखो। लगातार अपनेआप को ये बताकर रखो कि मैं इस लायक नहीं हूँ किसी दूसरे का नेतृत्व कर सकूँ, कि किसी दूसरे का पथ-प्रदर्शक बन सकूँ, चिकित्सक बन सकूँ, गुरु बन सकूँ। मैं तो विनम्रता के साथ दूसरे को यही बोल सकता हूँ कि देखो मुझे दो-चार छोटी सी बातें पता हैं, ये मैं तुमको बता सकता हूँ और आगे की बातें शायद तुमको उस किताब में मिलेंगी, वहाँ मिलेंगी, वहाँ मिलेंगी (इशारे से समझाते हुए) ।
वो भी मैं पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकता। हाँ! तुम अगर उधर चलना चाहते हो तो मैं भी साथ चलूँगा क्योंकि मेरी भी उत्सुकता है, मेरी भी ज़रूरत है कि मैं वहाँ जाकर के कुछ लाभ पाऊँ। तो चलो दोनों साथ में चलते हैं उधर की तरफ़। लेकिन अगर तुम ये चाहते हो कि मैं ही तुमको सब बता दूँ तो मैं इस लायक नहीं हूँ। ये होना चाहिए तुम्हारा वक्तव्य। बात आ रही है समझ में?